कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2:75-88,मनुष्य का सौभाग्य और दुर्भाग्य उसके अपने हाथ में है।
सूरए बक़रह की ७५वीं आयत इस प्रकार है। ) क्या तुम्हें इस बात की आशा है कि यहूदी तुम्हारे धर्म पर ईमान ले आएंगे जबकि उनका एक गुट ईश्वर क...
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सूरए बक़रह की ७५वीं आयत इस प्रकार है। )
क्या तुम्हें इस बात की आशा है कि यहूदी तुम्हारे धर्म पर ईमान ले आएंगे जबकि उनका एक गुट ईश्वर की बातों को सुनता था तथा उनको समझने के पश्चात उनमें कठोर फेर बदल कर देता था, जबकि वे पढ़े लिखे और ज्ञानी थे। (2:75)
इस्लाम धर्म के उदय के आरंभ में आशा की जा रही थी कि यहूदी सबसे पहले इस्लाम स्वीकार करेंगे, क्योंकि अनेकेश्वरवादियों के विपरीत उनके पास आसमानी किताब भी थी और उन्होंने अपनी किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम की निशानियां भी पढ़ रखी थीं, परन्तु व्यवहार मे वो मुसलमानों के विरुद्ध और अनेकेश्वरवादियों के साथ हो गए थे।
ये आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और मुसलमानों को सांत्वना दिलाती है कि वे क़ुरआनी आयत और उनके चमत्कार के सामने नहीं झुकते तो चिंतित मत हो और अपने धर्म में संदेह न करो और मूल रूप से तुम्हें उनसे ऐसी आशा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि ये उन्हीं लोगों की सन्तान हैं, जो हज़रत मूसा के साथ तूर पहाड़ पर गए, ईश्वर की बातें सुनीं, उसके आदेशों को समझा परन्तु फिर भी उनमें फेर बदल किया और अपने धर्म के प्रति वफ़ादार नहीं रहे।
ये आयत बताती है कि हर जाति के ज्ञानियों को जो एक बड़ा ख़तरा रहता है वो जनता के समक्ष वास्तविकताओं को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करना है। यद्यपि वे सत्य को जानते और समझते हैं परन्तु उसे इस प्रकार परिवर्तित कर देते हैं कि लोग वास्तविकता को समझ नहीं पाते।
अब सूरए बक़रह की ७६वीं व ७७वीं आयतें इस प्रकार हैं।
यहूदियों का एक गुट जब ईमान वालों से भेंट करता है तो कहता है कि हम ईमान ले आए हैं परन्तु जब वे एक दूसरे से एकांत में मिलते हैं तो कहते हैं तुम वो बातें मुसलमानों को क्यों बताते हो जो ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम की निशानियों के बारे में तुम्हें बताई हैं, ताकि वो प्रलय में ईश्वर के समक्ष तुम्हारे विरुद्ध अपनी बातें प्रमाणित कर सकें, क्या तुम नहीं जानते? क्या उन्हें नहीं पता कि जो कुछ वे छिपाते हैं और जो कुछ प्रकट करते हैं, ईश्वर उन्हें जानता है। (2:76, 77)
इस्लाम के आरंभिक काल में कुछ यहूदी जब मुसलमानों को देखते तो कहते थे कि चूंकि तुम्हारे पैग़म्बर की निशानियां हमारी तौरेत में भी आई हैं अतः हम भी तुम्हारे धर्म पर ईमान लाते हैं।
परन्तु यही लोग जब दूसरों से मिलते थे तो एक दूसरे पर आपत्ति करते थे कि मुहम्मद की निशानियां तुम मुसलमानों को क्यों बताते हो?
यहूदी जाति के ज्ञानियों और विद्वानों द्वारा सत्य को छिपाने और उसे तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने का परिणाम ये निकाला कि आज संसार में अरबों की संख्या में ईसाई और यहूदी मौजूद हैं।
अब सूरए बक़रह की ७८वीं आयत इस प्रकार है।
यहूदियों में कुछ सामान्य और बेपढ़े लोग हैं जो ईश्वर की किताब को केवल कल्पनाओं और कामनाओं का संग्रह समझते हैं, उनके पास इस कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं है। (2:78)
ये आयत बनी इस्राईल के एक अन्य गुट का परिचय करा रही है जो, पहले के गुट के विपरीत विद्वान था और तौरेत की वास्तविकताओं को छिपाता था या उनमें फेर बदल करता था, साधारण लोगों में से है और उसे तौरेत के बारे में कुछ ज्ञान नहीं है और वो केवल अपनी कामनाओं के साथ जीवन व्यतीत करता है।
वे सोचते थे कि यहूदी जाति को सर्वश्रेष्ठ जाति बताया गया है और वे ईश्वर के प्रिय हैं और प्रलय में केवल उन्हीं को मोक्ष प्राप्त होगा। और वे नरक में नहीं जाएंगे। और यदि उन्हें दंड दिया भी गया तो वो कुछ दिनों से अधिक नहीं होगा।
संभव है कि ऐसे विचार अन्य ईश्वरीय धर्मों के अनुयाइयों में भी हों, परन्तु हमें जानना चाहिए कि ये सब ईश्वरीय किताब से अज्ञानता और अनभिज्ञता का परिणाम है और किसी भी आसमानी धर्म में इस प्रकार के निराधार विचार नहीं आए हैं।
अब सूरए बक़रह की ७९वीं आयत इस प्रकार है।)
तो धिक्कार हो उन विद्वानों पर जो अपने हाथ से किताब लिख लेते हैं और फिर कहते हैं कि ये ईश्वर की ओर से है ताकि उसे सस्ते दामों में बेच सकें, धिक्कार हो उनपर जो उनके हाथों ने लिखा और धिक्कार हो उसपर जो उन्होंने कमाया। (2:79)
इतिहास में सदैव ही ऐसे विद्वान रहे हैं जिन्होंने धर्म को अपने संसार प्रेम का साधन बनाया। बिल्कुल किसी विक्रेता की भांति जो पैसा कमाने के लिए कोई वस्तु बेचता है, उसी प्रकार पैसों का मोह रखने वाले कुछ लोग जो धर्म के वस्त्र में आ गए हैं, पैसा कमाने के लिए धर्म बेचते हैं।
लोगों को प्रसन्न करने, राजाओं या बड़े अधिकारियों के समीप पद प्राप्त करने अथवा व्यक्तिगत या सामूहिक हित के लिए ईश्वर के धर्म में फेर बदल करना, इस आयत का स्पष्टतम संबोधन है जिसमें क़ुरआन बड़े कड़े स्वर में और शब्द वैल अर्थात धिक्कार को तीन बार दोहराकर इस ख़तरे की ओर से सचेत कर रहा है।
अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या बातें सीखीं।
सब लोगों के ईमान लाने की आशा रखना अच्छा है परन्तु हमें जान लेना चाहिए कि बहुत से लोग सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते अतः उनका कुफ़्र हमारे विश्वास में सन्देह उत्पन्न होने का कारण न बने।
सबसे बड़ा विश्वासघात, सांस्कृतिक विश्वासघात है। सत्य को छिपाना या उसमें फेर बदल करना ऐसा विश्वासघात है जो आने वाली अनेक पीढ़ियों को सत्य को समझने से दूर रखता है और समाज को पथभ्रष्ट कर देता है।
लोगों द्वारा आसमानी किताबों विशेषकर क़ुरआन से दूरी, उनके बीच बुरे विचार और पथभ्रष्टता फैलाने की भूमि समतल करती है और निरक्षरता इस बड़ी समस्या का एक कारण है।
धर्म बनाना या धर्म बेचना ऐसा बड़ा ख़तरा है जो बहके हुए विद्वानों की ओर से लोगों को लगा रहता है अतः लोगों को सचेत रहना चाहिए और हर बात को स्वीकार नहीं करना चाहिए, चाहे बोलने वाला विदित रूप से धर्म के वस्त्र में ही क्यों न हो।
सूरए बक़रह की ८०वीं आयत इस प्रकार है।
और बनी इस्राईल ने कहाः नरक की आग कुछ दिनों से अधिक हमें छू भी नहीं सकती, तो हे पैग़म्बर उनके कह दो कि क्या तुम ईश्वर के पास कोई प्रतिज्ञा करा चुके हो कि ईश्वर उसका विरोध नहीं कर सकता, या तुम उस से उन बातों को संबंधित करना चाहते हो जिनके बारे में तुम्हें कोई ज्ञान नहीं है। (2:80)
जैसा कि हमने विगत कार्यक्रमों में कहा था कि यहूदी जाति के सामान्य लोगों को आसमानी किताबों के बारे में कोई ज्ञान नहीं था और वे ये सोचते थे कि वे ईश्वर से सबसे अधिक समीप हैं और यहूदी जाति ही सर्वश्रेष्ठ जाति है।
उनका एक ग़लत विचार यह था कि वे कहते थे कि यदि हम ने पाप किया भी तो हमें दूसरों से कम दंड मिलेगा और हम केवल कुछ दिन दंड भुगतेंगे।
यह आयत उनकी इस ग़लत सोच पर अंकुश लगाते हुए कहती है कि ये एक अनुचित बात है जो तुम लोग ईश्वर से संबन्धित कर रहे हो, क्योंकि उसने सभी मनुष्यों की एक समान सृष्टि की है तथा उनको दंड या पुरस्कार देने में वो कोई अंतर नहीं रखता।
नैतिक रूप से जाति, मूल व धर्म के आधार पर विशिष्टता प्राप्त करने की सोच किसी भी तर्क के अनुकूल नहीं है और केवल पवित्रता और अच्छे कर्म ही मनुष्यों की एक दूसरे पर वरीयता का कारण बन सकते हैं और प्रलय में दंड और पुरस्कार का यही मानदंड होगा।
अब सूरए बक़रह की ८१वीं और ८२वीं आयतें इस प्रकार हैं।
हां, निःसन्देह जो कोई पाप कमाता है और पाप उसके अस्तित्व को घेर लेता है, निश्चय ही ऐसे लोग नरक के पात्र हैं जहां वे सदैव रहेंगे। और जो लोग ईश्वर पर ईमान लाए और भले कर्म किये निश्चित रूप से वे स्वर्ग मंव जाएंगे और सदैव वहीं रहेंगे। (2:81, 82)
पिछली आयत ने यहूदी जाति की इन निराधार आशाओं का उल्लेख किया था कि वे नरक में नहीं जाएंगे तथा इस बात को ईश्वर का आरोप बताया था। ये दो आयतें प्रलय में ईश्वर की ओर से मिलने वाले दंड या पुरस्कार के मानदंड का इस प्रकार उल्लेख कर रही हैं।
जो कोई भी जान बूझकर पाप करेगा, इस सीमा तक कि पाप उसके पूरे अस्तित्व को घेर ले तो वो सदैव नरक में रहेगा और उससे निकलने का कोई मार्ग न होगा और इस दंड में यहूदियों या दूसरी जातियों में कोई अंतर नहीं है।
इसी प्रकार स्वर्ग में प्रवेश की शर्त ईश्वर पर ईमान और अच्छे कर्म हैं तथा केवल ईमान व केवल अच्छे कर्म ही स्वर्ग में जाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, न कि कोई ये सोचे कि वो केवल कल्पना और आशाओं के आधार पर स्वर्ग में चला जाएगा।
अब सूरए बक़रह की ८३वीं आयत इस प्रकार है।
और याद करो उस समय को जब हमने बनी इस्राईल से प्रतिज्ञा ली कि तुम एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी की उपासना नहीं करोगे, माता पिता, नातेदारों, अनाथों और दरिद्रों के साथ अच्छा व्यवहार करोगे, और ये कि लोगों के साथ भली बातें करोगे, नमाज़ क़ाएम करोगे, ज़कात दोगे, फिर थोड़े से लोगों को छोड़कर तुम सब अपनी प्रतिज्ञा से फिर गए और तुम मुहं मोड़ने वाले लोग हो। (2:83)
पिछले कार्यक्रमों में बनी इस्राईल से ली गई प्रतिज्ञा का वर्णन हुआ था परन्तु उसके बारे में विस्तार से नहीं बताया गया था। ये आयत तथा इसके बाद की आयत बताती है कि प्रतिज्ञा किन किन बातों के बारे में ली गई थी, इसके पश्चात प्रतिज्ञा तोड़ने के कारण उनको लताड़ती है।
ईश्वरीय प्रतिज्ञाएं जो पैग़म्बरों द्वारा लोगों तक पहुंचाई गई हैं बुद्धि तथा मानव प्रकृति के अनुकूल है, और ईश्वर ने इन धार्मिक मान्यताओं को सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति में रखा है।
एकेश्वरवाद सभी पैग़म्बरों की शिक्षाओं में सर्वप्रथम है अर्थात हमारे कर्म केवल उसी दशा में सौभाग्य का कारण बनेंगे जब उनमें ईश्वरीय रंग होगा और वो एकेश्वरवाद के आधार पर किये गए होंगे।
ईश्वर की उपासना के पश्चात दूसरा आदेश माता पिता का आज्ञापालन तथा उनके साथ अच्छा व्यवहार करना है क्योंकि वही हमारी सृष्टि के माध्यम हैं और ईश्वरीय कृपा उनके माध्यम से हम तक पहुंचती है।
समाज के वंचित एवं दरिद्र लोगों विशेषकर सगे संबन्धियों का ध्यान रखने का आदेश माता-पिता के साथ भलाई करने के आदेश के साथ आया है ताकि मनुष्य केवल अपने और अपने परिवार को ही न देखे बल्कि उस समाज पर भी ध्यान दे जिसमें वह जीवन व्यतीत कर रहा है।
लोगों की सेवा के साथ ईश्वर की उपासना उसके विशेष रूप में करने का आदेश दिया गया है जो कि नमाज़ है और जो अपने सृष्टिकर्ता और रचयिता से स्थाई संपर्क के लिए मनुष्य की आवश्यकता को दर्शाती है।
ईश्वर की उपासना करने वाले का न केवल व्यवहार बल्कि कथन शैली भी अच्छी होनी चाहिए और वो भी केवल अपने धर्म वालों के साथ ही नहीं बल्कि सभी के साथ चाहे वो मुस्लिम हो या ग़ैर मुस्लिम।
अब सूरए बक़रह की ८४वीं आयत इस प्रकार है।
और याद करो उस समय को जब हमने तुमसे प्रतिज्ञा ली थी कि एक दूसरे का रक्तपात न करोगे, और एक दूसरे को अपनी भूमि से न निकालोगे, फिर तुमने इसे माना और इस प्रतिज्ञा की गवाही दी। (2:84)
पिछली आयत में ६ ईश्वरीय आदेशों का उल्लेख किया गया। इन आयतों में मनुष्यों के जीवन तथा उनके देश और रहने के स्थान के आदर के संबन्ध में दो अन्य आदेशों का वर्णन किया गया है।
किसी समाज की मूल आवश्यकताओं में से एक, लोगों की सुरक्षा है। उनके जीवन व उनकी धरती की सुरक्षा जो सभी ईश्वरीय धर्मों में वर्णित है।
चूंकि जीवन का अधिकार हर मनुष्य का प्रथम अधिकार है चाहे वो किसी भी जाति, मूल या धर्म का हो, इसी कारण हत्या बड़े पापों में समझी जाती है और संसार में उसका बदला क़ेसास अर्थात मृत्युदंड और प्रलय में, सदा के लिए नरक में जाना है।
देशप्रेम एक प्राकृतिक बात है और धर्म ने भी इसका सम्मान किया है अतः कोई भी किसी से यह अधिकार नहीं छीन सकता।
अब देखते हैं कि हमने इन आयतों से क्या बातें सीखीं हैं।
विशिष्टता चाहना या जातीय भेदभाव वर्जित है। सारे मनुष्य ईश्वर की दृष्टि मं एक समान हैं तथा कोई भी जाति या कोई भी विचारधारा ईश्वर के समक्ष दूसरों से बेहतर नहीं है।
ईश्वरीय उपहार या दंड का मानदंड, ईश्वर पर ईमान और अच्छे कर्म हैं न कि आशाएं और कामनाएं तथा बिना कर्म के आशा का कोई मूल्य नहीं है।
कभी कभी पाप मनुष्य के अस्तित्व में ऐसा रच बस जाता है कि उसके हृदय और उसकी आत्मा को भी ढांप देता है और फिर वो मनुष्य बात और व्यवहार में पाप और बुराई के अतिरिक्त कुछ नहीं करता।
मनुष्य के सौभाग्य के लिए जो महत्वपूर्ण प्रतिज्ञाएं ईश्वर ने उससे ली हैं वो ये हैं। एकेश्वरवाद, माता-पिता के साथ भला व्यवहार, वंचित व दरिद्र लोगों, नातेदारों तथा अनाथों का ध्यान रखना, लोगों के साथ भली बातें करना, नमाज़ पढ़ना, ज़कात देना, हत्या और रक्तपात से दूर रहना, दूसरों के घरों और यहूदियों पर अतिक्रमण न करना।
सूरए बक़रह की ८५वीं आयत इस प्रकार है।
(जबकि हम तुम से प्रतिज्ञा ले चुके हैं फिर भी तुम एक दूसरे की हत्या करते हो) और अपने ही में के एक गुट को उनकी भूमि से निकाल देते हो और उनके विरूद्ध पाप और अतिक्रमण में एक दूसरे की सहायता करते हो। जबकि यदि वही लोग बंदी के रूप में तुम्हारे समक्ष आएं तो तुम उनक ख़रीदते हो और उनके स्वतंत्र करते हो, जबकि (न केवल ये कि उनकी हत्या करना बल्कि) उन्हें उनकी भूमि से बाहर निकालना भी आरंभ से ही तुम्हारे लिए वर्जित था। क्या तुम आसमानी किताब के कुछ आदेशों पर आस्था रखते हो और कुछ का इन्कार करते हो। तो तुम में से जो ऐसा करेगा उसका बदला संसार के जीवन में अपमान के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा और प्रलय के दिन वो सब से भयानक दंड में ग्रस्त होगा, और जो कुछ तुम करते हो, ईश्वर उसकी ओर से निश्चेत नहीं है। (2:85)
ये आयत बनी इस्राईल को लताड़ते हुए कहती है कि ईश्वर से प्रतिज्ञा करने के बावजूद तुम लोग एक दूसरे की हत्या करते हो और उन्हें उनके घरों से बाहर निकालते हो, और विचित्र बात यह है कि तौरेत के आदेशानुसार यदि तुम्हारे सामने कोई बंदी आए तो तुम उसको ख़रीद कर स्वतंत्र कर देते हो।
तुम एक दूसरे की हत्या के लिए तैयार हो, परन्तु एक दूसरे का बंदी बनना नहीं चाहते। यदि कैसी बनना अपमान है तो हत्या करना और किसी को उसके घर से निकाल देना तो और बड़ा अपमान है। यदि बंदी का मूल्य देकर उसे स्वतंत्र करना तौरेत का आदेश है तो हत्या और देश निकाले से दूर रहना भी तौरेत का आदेश है।
वास्तव में तुम अपनी इच्छाओं का पालन करते हो न कि आसमानी किताब के आदेशों का। क्योंकि जहां भी ईश्वरीय आदेश तुम्हारी इच्छा के अनुसार हो तो तुम उसे स्वीकार कर लेते हो और जहां ऐसा न हो तुम उसे स्वीकार नहीं करते, यहां तक कि तुम पाप करने में भी एक दूसरे की सहायता करते हो।
इस आयत के अनुसार मनुष्य में वास्तविक ईमान की निशानी, कर्म है और वो भी ऐसा कर्म जो ईश्वरीय आदेशों के अनुसार हो न कि व्यक्तिगत हितों और इच्छाओं के अनुसार किया गया कर्म हो क्योंकि यह आत्मपूजा है, ईश्वर पूजा नहीं।
न केवल पाप करना बल्कि पापी की सहायता करना ही वर्जित है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के एक पौत्र इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने एक मुसलमान को संबोधित करते हुए कहा थाः अब्बासी शासन हारून रशीद के दरबार को ऊंट किराए पर देना ठीक नहीं है चाहे हज की यात्रा के लिए ही क्यों न हो क्योंकि तुम कामना करोगे कि वो यात्रा से ठीक ठाक और स्वस्थ्य लौट आए और तुम्हारे पैसे तुम्हें देदे और अत्याचारी के जीवित करने की इच्छा करना पाप है।
अब सूरए बक़रह की ८६वीं आयत इस प्रकार है।
यह ऐसे लोग हैं जिन्होंने संसार के जीवन को प्रलय के बदले ख़रीदा है, तो उनके दंड में कोई ढील नहीं दी जाएगी और न ही उनकी सहायता होगी। (2:86)
यह आयत ईश्वरीय आदेशों के उल्लंघन और दूसरों की हत्या करने और उन्हें देश निकाला देने के मूल कारण का वर्णन करते हुए कहती है कि वे सांसारिक जीवन चाहते हैं और केवल उन्हीं आदेशों का पालन करते हैं जो उनके हितों की पूर्ति करते हों परन्तु प्रलय से संबन्धित बातों पर वो ध्यान नहीं देते।
इतने सारे पापों और संसार के लोभ के बावजूद यहूदी दावा करते थे कि उन्हें दंड नहीं दिया जाएगा। ये दंड आयत कहती है, इन निराधार आशाओं और कामनाओं के विपरीत उन्हें भी सभी पापियों की भांति, ग़लत कार्यों पर दंड दिया जाएगा और कोई भी उनकी सहायता नहीं करेगा।
सूरए बक़रह की ८७वीं आयत इस प्रकार है।
और हमने मूसा को किताब दी और उनके पश्चात निरंतर पैग़म्बर अर्थात अपने दूत भेजे और मरयम के बेटे ईसा को हमने स्पष्ट चमत्कार निशानियां दीं और रूहुल क़ुदुस द्वारा उनकी पुष्टि और सहायता की, तो क्यों जब भी कोई पैग़म्बर तुम्हारी इच्छा के विरूद्ध कोई वस्तु लाया तो तुमने उसके समक्ष घमंड किया और कुछ को झुठलाया और कुछ की हत्या की? (2:87)
ये आयत मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए ईश्वर की निरंतर कृपा की ओर संकेत करते हुए कहती हैः ईश्वर ने हज़रत मूसा के पश्चात बनी इस्राईल के लिए निरंतर कई पैग़म्बर भेजे जिनमें से एक हज़रत ईसा मसीह थे।
परन्तु बनी इस्राईल का संसार प्रेम और इच्छापालन इस बात का कारण बना कि उन्होंने घमंड और अहं द्वारा उन पैग़म्बरों को झुठलाया, यहां तक कि कुछ की हत्या भी की क्योंकि वे पैग़म्बर उनकी अनुचति मांगों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।
सूरए बक़रह की ८८वीं आयत इस प्रकार है।
उन्होंने (पैग़म्बरों से) कहाः हमारे हृदय ढके हुए हैं (और हम आपकी बातें नहीं समझते) ऐसा नहीं है बल्कि उनके कुफ़्र के कारण ईश्वर ने उन्हें अपनी दया से दूर कर दिया है (और वे कुछ भी नहीं समझते) और कम ही है जो ईमान लाते हैं। (2:88)
पैग़म्बरों के आमंत्रण पर अवज्ञाकारी लोग परिहास करते हुए ये उत्तर देते हैं कि हम इन बातों को नहीं समझते और जिन बातों को हम नहीं समझते उन्हें मान नहीं सकते।
क़ुरआन उनके उत्तर में कहता हैः ऐसा नहीं है कि पैग़म्बरों की बातें लोगों की समझ में न आती हों बल्कि कुछ लोगों की हठ और सत्य छिपाने की भावना इस बात का कारण बनीं कि वे वास्तविकताओं को समझ न पाएं और कम ही ईमान लाएं।
मूल रूप से अपनी ग़लत इच्छाओं का अनुसरण इस बात का कारण बनता है कि मनुष्य के विचारों और उसके हृदय पर स्वार्थ और अहं के मोटे परदे पड़ जाएं और सभी वास्तिवकताओं को वो केवल भौतिक दृष्टि से देखें और परिणामस्वरूप आसमानी शिक्षाओं का इन्कार कर दे।
अब देखते हैं कि इन आयतों से हमें क्या बातें ज्ञात हुई हैं।
ईश्वर के सभी आदेशों का पालन करना चाहिए। ऐसा न हो कि जो आदेश हमारी इच्छा और मर्ज़ी के अनुसार हो उसे स्वीकार कर लें और जो पसंद न आए उसको छोड़ दें क्योंकि इस दशा में हमने अपनी इच्छा का पालन किया है न कि ईश्वरीय आदेश का।
हम जो कुछ कहते हैं, उस पर ईश्वर को साक्षी मानना चाहिए। हम उसकी ओर से निश्चेत रह सकते हैं, वो हमारी ओर से नहीं। हम जो कुछ भी करते हैं, वो उससे परिचित है।
ईश्वरीय क़ानून के सामने सारे मनुष्य समान हैं। यदि कोई ये सोचे कि उनकी जाति वरिष्ठ है और वे ईश्वर को अधिक प्रिय हैं तो ये एक निराधार विचार है और ऐसे ग़लत विचार अपराधियों और पापियों के दंड को कम नहीं करेंगे।
ईश्वर ने मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए अनेक पैग़म्बर भेजे हैं, परन्तु मनुष्य ने आभार प्रकट करने के स्थान पर उनको झुठलाया तथा उनकी हत्या की।
मनुष्य का सौभाग्य और दुर्भाग्य उसके अपने हाथ में है। यदि किसी गुट पर ईश्वर का प्रकोप होता है तो वो उसके कुफ़्र और हठ के कारण है वरना ईश्वर ने सभी लोगों के मार्गदर्शन के साधन उपलब्ध कराए हैं।