google.com, pub-0489533441443871, DIRECT, f08c47fec0942fa0 इस्लाम-धर्म में शिष्टाचार | हक और बातिल

इस्लाम-धर्म में शिष्टाचार

प्रत्येक मुस्लमान के लिए आपने को एक मुस्लमान कहना काफ़ी नहीं हैं, जब तक वह इस्लाम की समस्त प्रकार अच्छे और बहतरिन विधानों से अच्छी तरह वाक़ि...

प्रत्येक मुस्लमान के लिए आपने को एक मुस्लमान कहना काफ़ी नहीं हैं, जब तक वह इस्लाम की समस्त प्रकार अच्छे और बहतरिन विधानों से अच्छी तरह वाक़िफ़ न हो, और उस की मुताबिक़ अमल न करें, क्योंकी समस्त प्रकार मुस्लमानों पर दायित्व है के इस्लाम की समस्त प्रकार विधान से वाक़ीफ़ होना और आपने को विजय के लिए उस विधान पर अमल करना। (समस्त प्रकार मुस्लमान पर दायित्व है) उस के बाद आपनि चिन्ता-फिक्र वसूल व विशवास के साथ मज़बूत व अटल करे, ताकी आपने को   पृथ्वी में एक मुस्लमान प्रमाण करके एक विजयी ज़िन्दगी और इसके साथ साथ आखरत की ज़िन्दगी में एक विजयी दिलाएं ताकी स्वर्ग मिल सके।

और इस वजह से समस्त प्रकार मुस्लमानों पर दायित्व है की इस्लाम की समस्त प्रकार वसूल व आक़ायेद, और आला बिधानें व प्रकार को अर्जन के बाद आपना विश्वासों को सही करना और उस बिधानें पर अमल करना.

इस्लामि विधान तिन प्रकार है

1-वसूले द्बिन

2-फूरुये द्बिन

3-इस्लाम में सदाचार

इस्लाम-धर्म में शिष्टाचार

सदाचार

पैग़म्बरे अकरम (सा) की वाणी अनतं जीवन के लिए जीवित व ज़िन्दा है।

यक़ीनन मैं मबऊस हूआ हुँ ताकि नेक व शिष्टाचार-चरित्र को सम्पूर्ण करुँ, रसूल (सा) अपना उद्देश्य को इस मबऊस के द्बारा घोषणा क्या है। लेकिन कुरअन मजीद जिस समय हज़रत मुहम्मद (सा) को प्रसंसा करना चाहता है, उस समय आप को मुख़ातिब व ख़िताब करके फरमाते हैः

 

(यक़ीनन आप नेक आख़लाक़े अज़ीम पर फाएज़ है)
इस कथा से परिष्कार होता है कि इस्लाम में शिष्टाचार की कितनी गुरुत्व है. इस्लाम मेंहवारे शिष्टाचार को दिनदारी, तक़्वा, परहेज़गारी जानता है. और इसके मौलिक पाए चार है.
1. एक अन्य के साथ ख़ुश नीयत व पाक दिली से रहना।
2. समाज में अन्य के साथ ख़ुश रफ़्तार व गुफ़्तारी करना।
3. सब व्याक्तियों के साथ चाहे दुश्मन हो या दोस्त मिठी भाषा द्बारा अच्छी अच्छी कथा कहना।
4. समस्त व्याक्तियों के साथ अच्छे व ख़ुश उत्तम व्यबहार करना।

शिष्टाचार दो प्रकार में भाग होता है

1- एक व्यक्तित्व शिष्टाचार, जो इंसान से सम्पर्क रख़ता है. उधारण (दे कर अपनी कथा को और परिष्कार करुँ) पानी पिना, कपढ़ा पहन्ना, सोना व जगना, भ्रमण करना, सही व सालिम हीवन बसर करना या रहना, मरीज़ व व्याधी होना.... यह सब इस्लाम में एक व्यक्ति से सम्पर्क रख़ता है। आगर इंसान यह सब क़बूल करके अपनी जीवन को सठीक रास्ते पर परिचालना करे, तो वेह समस्त प्रकार मसीबत से दुर रहेगा वरना मसीबत में गिरफ़्तार हो जाए गा।
2- समाज के शिष्टाचार, यानी समाजिक अधिकार, उधारण के तौर पर समाज में माता-पिता, और बच्चों तथा निकटतम संबधिंयों, अध्यपक, छात्र, दोस्त व प्रतिवासी तथा समस्त प्रकार व्याक्तियों के साथ जो समाजिक सम्पर्क रखता हो ऊन व्याक्तियों के साथ नेक शिष्टाचार करना समाज की रक्षसा व बिजयता का चिह्न है।
इस्लाम-धर्म के शिष्टाचार व निर्दशन उत्तम शिष्टाचार में से है. जो इस्लाम का एक कुल्ली विधान है और उसका मौलिक एक शिष्टाचार गुणावली पर इस्तेवार है. सार के तौर पर कहना काफी है कि इस्लाम-धर्म ने जिस चीज़ को निर्देश दिया है उस का पालन करना, और जिस चीज़ का निषेध क्या है उस से दूर रहना प्रत्येक मुसल्मानों का दायित्व व कर्तव्य है।

हराम (निषेध)

जिस कार्य को अंजाम देना इस्लाम ने निषेध घोषित क्या है उस को (हराम) कहा जाता हैः हराम काम तरतीब के साथ बयान हो रहा है।
1- अत्याचार व ज़ुल्म, 2- ईस्राफ़, 3- मज़ाक़ उड़ाना, 4- कष्ट देना, 5- रहस्य का उल्लेख करना, 6- झूट व अपवाध, 7- पिता-माता का दूराचर, 8- अपनी क़ौम का माल हन्न करना, 9- बलात कार करना, 10- मर्दों का अपसी योन संबन्ध, 11- मर्द का ना-महराम नारीयों पर और नारी का ना-महराम मर्दों पर दृष्टि करना, 12- शराब पिना, 13- जुआ खेलना 14- रिशवत लेना, 15- मृत और सुवार का माँस और जो (इस्लाम की दृष्ट में हराम है) ख़ाना हराम है, 16- अनुमति के बग़ैर अन्य का माल व्यबहार करना, 17- व्यापर में धोका देना, 18- मर्दों के लिए सोना पहन्ना, 19- सुद ख़ाना, 20- कार्य व तिजारत में अन्य व्याक्तियों को धोका देना, 21- ईस्तेमना ( अपने हात से मनी (धात) निकालना) 22- अन्य व्याक्तियों के राज़ बातों में जासूसी करना, 23- ग़ीबत करना, 24-गाने के धुन से कुछ पाठ करना या सुनना (गाना और मुसिक़), 24- किसी व्यक्तित्व व शख्छियात को हत्या करना, 25- चूरी करना, 26- बद अमल अंजाम देना, 27- ख्यानत करना, 28- कूरआन मजीद के बिपरित निर्देश प्रकाश करना, 29- अन्य के अधिकार को पैमाल करना, 30- अत्याचारि व दूष्ट व्याक्तियों की सहायता करना, 31-अन्य को बदनाम करना,....।

फज़ाएल और शिष्टाचार

शिष्टाचार व फज़ाएल मुसल्मानों के लिए ज़िनत बख़्श है।
1- इंसाफ़, 2- शिष्टाचार कार्यों में सहायता करना, 3- सब्र व इस्तेक़ामत, 4- अन्य व्याक्तियों के दर्मियान शान्ति क़ायम करना, 5- अमल में इख़लाछ पैदा करना, 6- अल्लह पर विश्वास-यक़ीन करना, 7- हिल्म व बु्र्दबारी, 8- माता-पिता के साथ शिष्टाचार करना, 9- अन्य को ख़ाना ख़िलाना, 10- पाक दामन रहना 11- बुलन्द सुरों में सलाम करना, 12- पाकीज़गी, 13- ज्ञान अर्जन करना, 14- अपर व्याक्तियों के साथ अच्छे बर्ताऔ करना, 15- सख़ावत, 16- शूज़ाअत, 17-सिलाह् रहम, 18-काम-कार्य में इंसाफ़ इख़तियार करना, 19- अच्छे शिष्टाचार से पेश अना, 20- ग़रीबों को सहायता करना, 21- ख़ुजू व ख़ुशू से पेश अना, 22- हजात मन्दों को तियाज़ को पूरी करना, 23- सछ बोलना, 24- अन्य व्याक्तियों को सम्मान प्रदर्शन करना, 25- सब समय के लिए मुस्कुराना, 26- ख़राब कर्मों से दुर रहना, 27- विबाह करना, 28- अल्लह की निअमतों को शुक्र अदा करना, 29- अपर के भुलों को क्षमा करना।

नीच और मकरुहात

नीच व मकरुहात मानव को पस्त व पधित की तरफ ले जाते हैं जो तरतीब के साथ बयान किया जा रहा है।
1- इंन्तेक़ाम जुई 2- गर्व व फक़्र, 3- माल-सर्वत जमा करना, 4- तकब्बूर करना, 5-बिहुदा काज करना, 6- बेहुदा कथाएं कहना, 7- कामों में सुस्ती पैदा करना, 8- भय पाना, 9- बितावी व परेशानी, 10- कूर्सी तलबि, 11- वादा करके ख़िलाफ वर्ज़ी करना, 12-लालच, 13- हिम्मत में पराजय स्वीकार करना, 14- अपरों के साथ दूश्मनी करना, 15- शक व अबकाश, 16- काम में जल्दि करना, 17- अल्लह से ग़ाफिल रहना, 18- बद आचरण, 19- स्ख़त दिल, 20- बड़ाई.....।
उपर जो कुछ फाज़ाएल व शिष्टाचार के समपर्कित बयान क्या गया है सब मुस्तहब में से नहीं है. बल्कि उन में से कुछ इस्लाम के दृष्ट में वाजिब भी है।
हालाकिं नीच व मकरुहात के लिए जो बयान क्या गया है, सब हराम नहीं है बल्किं ऊन में से कुछ इस्लामी विचार धारा के अनुसार हराम भी है।
इस मौलिक भित्ती पर प्रत्येक मुसल्मान पर वाजिब है, कि अपने कामों में चेष्टा करें ताकि इस्लाम के जो संविधान है उस से अपने को आरस्ता करें चाहे यह विधान उसूलेदीन के संमधं में हो या शिष्टाचार के संमधं में, उस पर अमल अंजाम दे।
प्रत्येक मुसल्मान को मुस्लमान कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि वेह व्याक्ति उस तरह है जिस तरह एक व्याधि व्याक्ति यह कहे कि मै सही व सालिम हुँ. लिहज़ा एक व्याधि व्याक्ति के कहने पर कोई लाभ नहीं है उसी तरह एक मुसल्मान को मुसल्मान कहना फ़ैदा नहीं है, जब तक वेह व्याक्ति इस्लाम के विधान के उपर अमल न करें. लिहज़ा हम सब को चेष्टा करना चाहिए ताकि अपनी गुफ़्तार को शिष्टाचार के साथ, और कथाएं को अमल के साथ मिलाया करें ताकि पृथ्वी में अच्छे और स्वर्ग में विजय अर्जन करे सकें।

अमीन या रब्बल अलामीन

سبحان ربک

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