जनाबे हुज्र बिन अदी सहबिये रसूल(सव) की बेहुरमती

मुसलमानों के बीच यह बहस हमेशा से होती रही की कुरान ने अहलेबैत अ. की अहमियत बताई है और उनके पीछे चलने की हिदी दी है लेकिन यह भी सच है ...



मुसलमानों के बीच यह बहस हमेशा से होती रही की कुरान ने अहलेबैत अ. की अहमियत बताई है और उनके पीछे चलने की हिदी दी है लेकिन यह भी सच है की अहलेबैत अ. कि दुश्मनी मुनाफिकों ने हमेशा से की और आज भी वही दस्तूर कायम है | यह भी बहस का मुद्दा है की अबुसुफियां –मुआव्विया -यजीद की इस्लाम में क्या हैसीयत है ? हैसीयत बहस का मुद्दा है लेकिन यह बहस का मुद्दा नहीं की यह नाम मुसलमान अपने बच्चों का नहीं रखता | अक्सर यह भी सुनने में आता है की इमाम हुसैन (अ.स) का कर्बला में शहीद किया जाना यहुदिओं की साज़िश थी कोई कहता है कि उन्हें अहलेबैत अ. के चाहने वालों ने ही मारा था और यजीद के नाम पर से यह इलज़ाम हटाने की कोशिश हमेशा से होती रही हैं |इस्लाम का ज़ुल्म से कोई रिश्ता नहीं हुआ करता और ज़ालिम मुनाफ़िक़ तो कहला सकता है लेकिन मुसलमान नहीं | सच्चाई छुपती नहीं लाख छुपा ली जाए | १४०० साल पहले क्या हुआ था यह तो इतिहास बताता है इसीलिये बातिल और ज़ालिम अपना चेहरा इतिहासकारों और रावियों को गलत साबित कर के छुपा लेते हैं |



आज जो लोग अपने दिलों में यजीद की मुहब्बत रखते हैं या उनकी बुराईयों पे हमेशा पर्दा डालने की कोशिश किया करते हैं वो कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं | उन लोगों को कट्टरवादी कहा जाता है और आज भी उनका काम अहलेबैत अ. की मुहब्बत रखने वाले बेगुनाह मुसलमानों के क़त्ल के फतवे देना है ठीक वैसे ही जैसे यजीद इमाम हुसैन (अ.स) के क़त्ल के फतवे देता था | यह खुद अपने आप में सुबूत है यजीद ही इमाम हुसैन (अ.स) का कातिल था और इनकी नज़र में वो अहलेबैत अ जिनकी तारीफ कुरान भी करते नहीं थकती उनका क़त्ल और उनके चाहने वालों का क़त्ल इन जालिमों का ईमान है |


आप सौदिया में जा के देख लें इन्होने हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) का ,उम्मुल मोमिनीन का घर उनकी निशानियाँ सभी मिटा दी |हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की बेटी फातिमा ज़हरा और उनके सहाबियों के कब्रिस्तान को तोड़ के वीरान बना दिया |इनका ज़ुल्म बेगुनाह मुसलमानों में कोई नयी बात नहीं है और आज भी कभी बग़दाद में ,कभी पकिस्तान में और और अब सीरिया में इनका ज़ुल्म वही १४०० साल पुराने तरीके से चलता चला आ रहा है |

अभी सीरिया में इन्होने हजरत मुहम्मद (स.अ.व) और हजरत अली (अ.स) के सहाबी जनाब जनाबे हुज्र बिन अदी की कब्र को खोद डाला और उनकी लाश निकाल के ले गए | ज़ुल्म करना , ज़ुल्म सहना और ज़ुल्म होते देख चुप रहना इस्लाम में मना है और ऐसा इंसान मुसलमान नहीं हो सकता | यह इस्लाम का इस्तेमाल हमेशा से राजपाट और गद्दी हाथियाने के लिए करे रहे और आज भी ज़ुल्म के ज़ोर पे वही काम कर रहे हैं और नाम इस्लाम का बदनाम हो रहा है जबकि इनकी तादात बहुत ही कम है या कह लें ना के बराबर है|


जनाबे हुज्र बिन अदी कौन थे ?
कूफ़े का एक क़बीला, कन्दा था, जिसकी वजह से हुज्र को कन्दी कहा जाता था। कूफ़े के जिस इलाक़े में वह रहते थे उसका नाम, ख़ैर था इसलिये उन्हें हुजरुल ख़ैर भी कहा जाता था।
इस्लाम से पहले उनका जन्म हुआ लेकिन रसूले ख़ुदा स.अ. के जीवन के आख़री दिनों में मुसलमान हुए। इसलिये रसूलुल्लाह स.अ के साथ ज़्यादा टाइम नहीं रह सके लेकिन मुसलमान होने के बाद हमेशा हक़ के लिये लड़ते रहे।एक नेक इन्सान ख़ुदा की इबादत करने वाले, ज़ुल्म के विरुद्ध लड़ने वाले लोगों को अच्छाइयों की तरफ़ बुलाने और बुराइयों से रोकने वाले थे। नमाज़ और इबादत के इतने आशिक़ थे कि उन्हे रसूल्लाह के साथियों में एक राहिब कहा जाता था। हमेशा वुज़ू की हालत में रहते और जब भी वुज़ू करते तो नमाज़ ज़रूर पढ़ते थे। कूफ़े के एक ख़ूबसूरत जवान भी थे और अख़लाक़ और चरित्र में भी काफ़ी महान थे।
वह हज़रत अली अ. को रसूलुल्लाह का सही और सच्चा ख़लीफ़ा मानते थे |
जनाबे उस्मान के क़त्ल के बाद जब हज़रत अली अ. को ख़लीफ़ा बनाया गया तो हुज्र मैदान में कूद पड़े और हर तरह से हज़रत अली का समर्थन किया और उनकी हुकूमत में सेवा करने लगे। वह उन लोगों में से थे जो रसूले ख़ुदा स.अ के बाद केवल हज़रत अली अ. से हदीसे सुनते और उन्हें दूसरों से बयान करते थे।
हज़रत अली अ. की ख़िलाफ़त के ज़माने में जब बहुत से लोगों नें उनकी बैअत तोड़ दी और आपके साथ जंग करने की तैयारियां करने लगे तो हज़रत ने अपना एक दूत कूफ़ा भेजा और उनसे मदद की अपील की। बहुत से लोगों नें खुल कर इमाम की सहायता का ऐलान किया जिनमें से एक हुज्र इब्ने अदी थे। उन्होंने कूफ़े वालों से कहा: ऐ लोगों! अमीरुलमोमिनीन की मदद के लिये उठो। जिस तरह से हो सके घोड़ो पर या पैदल अपने इमाम की सहायता के लिये जल्दी करो, मैं तुम लोगों में सबसे पहले उनकी मदद को जा रहा हूँ। सिफ़्फ़ीन में भी आपने इमाम की सहायता कर के अपने ईमान का सुबूत दिया। जमल और सिफ़्फ़ीन दोनों जंगों में इमाम नें आपको कमाण्डर बनाया था।
नहरवान की जंग ख़त्म होने और ख़वारिज की पराजय के बाद मुआविया अपने फ़ौजियों को हज़रत अली अ. की हुकूमत वाले इलाक़ों में भेजता था ताकि वह वहाँ जाकर आतंकवाद, क़त्ल, लूट-मार, अशांति और अफ़वाहों के द्वारा इमाम अ. की हुकूमत को कठिनाइयों और संकट में डाले। इसको देखते हुए इमाम एक बार फिर अपनी फ़ौज को इकट्ठा कर के सीरिया के विरुद्ध लड़ना चाहते थे ताकि उनकी सारी शैतानियों को जड़ से उखाड़ फेंकें लेकिन आपके बहुत से कमाण्डर्ज़ नें आपका साथ नहीं दिया। एक बार आपने कूफ़े वालों से मदद माँगी तो कुछ क़बीलों को छोड़ कर सबने इंकार कर दिया जिस पर इमाम बहुत दुखी हुए। हुज्र इब्ने अदी से इमाम का दुख देखा न गया और आपने इमाम से फ़रमाया: ऐ मोमिनों के सरदार! “ख़ुदा आपको दुखी न होने दे। आप आज्ञा दीजिए हम तैयार हैं। अगर आपकी आज्ञा में हमारी जानें, हमारा माल, हमारे बच्चे और हमारा सारा क़बीला भी क़ुरबान हो जाएं तो भी हम पीछे नहीं हटेंगे।” लेकिन इस तरह के लोग थे ही कितने जो इमाम की सहायता करते और इमाम उनको लेकर दुश्मन के साथ जंग करते?
जब इब्ने मुल्जिम, वरदान और शबीब नें हज़रत अली अ. को क़त्ल करने की प्लानिंग की तो उन्होंने अशअस इब्ने क़ैस को अपनी प्लानिंग के बारे में बताया, अशअस अहलेबैत का कट्टर दुश्मन था, वह उनके साथ मिल गया और उनकी पूरी सहायता की। उस रात हुज्र इब्ने अदी कूफ़े की मस्जिद में सो रहे थे, उन्होंने कुछ आवाज़ें सुनीं जिसमें से एक अशअस की थी जो इब्ने मुल्जिम से कह रहा था: जल्दी उठो तैयारी करो, वरना सुबह की रौशनी तुम्हे ज़लील कर देगी। हुज्र को शक हो गया कि कुछ न कुछ गड़बड़ ज़रूर है। वह मस्जिद से निकले ताकि हज़रत अली अ. को इस ख़तरे के बारे में बताएं, जब हुज्र इमाम के घर की तरफ़ चले, इमाम वहाँ से निकल चुके थे और इमाम के घर की तरफ़ दो रास्ते जाते थे, जिस, रास्ते से हुज्र गए थे इमाम उस रास्ते से नहीं बल्कि दूसरे रास्ते आ रहे थे इसलिये उनके साथ इमाम की मुलाक़ात नहीं हो पाई, और जब हुज्र वापस मस्जिद पहुँचे तो इमाम के सर पर इब्ने मुल्जिम की तलवार लग चुकी थी, यह घटना हुज्र के लिये बर्दाश्त से बाहर थी।

हज़रत अली अ. की शहादत के बाद जब कूफ़े के गवर्नर मुग़ैरा का देहान्त हो गया तो मुआविया नें ज़ियाद को वहाँ का गवर्नर बनाया, वह पहले से बसरा का भी गवर्नर था। वह छ: महीने कूफ़े में और छ: महीने बसरा में रहने लगा। ज़ियाद पहले हज़रत अली अ. का साथी था और हुज्र के साथ उसकी अच्छी दोस्ती हुआ करती थी इसलिये वह जनाबे हुज्र को अच्छी तरह जानता था। उसनें हुज्र को अपने पास बुलाया और कहा: तुम जानते हो पहले मैं अली की तरफ़ था लेकिन अब मैं मुआविया का आदमी हूँ। तुमने मुग़ैरा को काफ़ी परेशान कर रखा था और वह कुछ नहीं कहता था लेकिन मैं उस जैसा नही हूँ अगर शरारत करने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई न होगा इसलिये चुपके से घर में बैठे रहो और कोई ऐसा काम न करना कि मुझे अपने हाथ तेरे ख़ून से रंगना पड़ें।
हुज्र और उनके साथियों की शहादत के बाद एक दिन कुछ लोगों नें मुआविया की चापलूसी करते हुए उसे हुज्र की शहादत पर मुबारक बाद दी कि तुम्हारा एक दुश्मन और रास्ते का बहुत बड़ा पत्थर कम हो गया, मुआविया इस बात से ख़ुश ज़रूर हुआ लेकिन उसनें हुज्र की बहादुरी की तारीफ़ करते हुए कहा: अगर मेरे पास हुज्र जैसे थोड़े से लोग होते तो मैं पूरी दुनिया पर हुकूमत करता।


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