क़ुरान की नज़र से वालेदैन के लिए औलाद की ज़िम्मेदारियाँ

क़ुर्आन और मासूमीन अ.स. की हदीसों में वालेदैन के साथ नेक बर्ताव और अच्छे अख़लाक़ से पेश आने पर बहुत ज़ोर दिया गया है, अल्लाह ने कई जग...



क़ुर्आन और मासूमीन अ.स. की हदीसों में वालेदैन के साथ नेक बर्ताव और अच्छे अख़लाक़ से पेश आने पर बहुत ज़ोर दिया गया है, अल्लाह ने कई जगहों पर अपनी वहदानियत, इबादत और शुक्र अदा करने के हुक्म के साथ वालेदैन के साथ नेक बर्ताव करने और उनका शुक्रिया अदा करने का हुक्म दिया है।

इंसान एक सामाजिक मख़लूक़ है इसलिए अल्लाह ने उसे अलग अलग रिश्तों में पिरोया है और हर एक पर दूसरों के कुछ हक़ और कुछ ज़िम्मेदारियां हैं जिसको अदा करना हर एक के लिए ज़रूरी है, इन सारे रिश्तों में सबसे अहम और पहला रिश्ता हर इंसान का अपने वालेदैन से है, क्योंकि अल्लाह के बाद वही हैं जिनके वुजूद की बरकत से हर इंसान इस दुनिया में वुजूद की नेमत पाता है, यानी वालेदैन की वजह से ही इंसान जिसका कोई वुजूद नहीं था उसे वुजूद मिला और वह इस दुनिया में आया ताकि इंसानी कमाल के दर्जों को तय कर के ऊंचे मक़ाम हासिल करे, हक़ीक़त में इंसान में पाई जाने वाली सारी ख़ूबियों, अच्छाईयों और नेक आदतों की बुनियाद उसके वालेदैन ही हैं, यही वजह है कि अल्लाह ने क़ुर्आन में अपनी बंदगी और इताअत के बाद वालेदैन के साथ एहसान और नेकी करने का हुक्म दिया है, और जिस तरह इबादत के बिना बंदगी का हक़ अदा नहीं हो सकता उसी तरह वालेदैन के साथ नेकी और एहसान के बिना उनका हक़ भी अदा नहीं हो सकता।
क़ुर्आन और मासूमीन अ.स. की हदीसों में वालेदैन के साथ नेक बर्ताव और अच्छे अख़लाक़ से पेश आने पर बहुत ज़ोर दिया गया है, अल्लाह ने कई जगहों पर अपनी वहदानियत, इबादत और शुक्र अदा करने के हुक्म के साथ वालेदैन के साथ नेक बर्ताव करने और उनका शुक्रिया अदा करने का हुक्म दिया है। (वालेदैन को नेकी और एहसान करने का हुक्म- सूरए बक़रह, आयत 83, सूरए निसा, आयत 36, सूरए इसरा, आयत 23, 24, सूरए अनकबूत, आयत 8, और वालेदैन का शुक्रिया अदा करने का हुक्म सूरए लुक़मान आयत 14 में, और वालेदैन के हक़ में दुआ करने का हुक्म सूरए इब्राहीम आयत 41 और सूरए नूह आयत 28 में)
इसी तरह हदीसों में भी वालेदैन की ख़िदमत की अहमियत पर ताकीद और उसकी फ़ज़ीलत बयान की गई है।
अल्लाह का इरशाद है कि, और तुम्हारे रब ने हुक्म दिया है कि तुम उनके अलावा किसी की इबादत नहीं करोगे और अपने वालेदैन के साथ नेक रवैये से पेश आओगे, अगर उनमें से कोई एक या वह दोनों तुम्हारे सामने बूढ़े हो जाएं (और तुम्हें उनकी कोई बात बुरी लगे) तो उनको उफ़ तक मत कहना और न ही उन्हें झिड़कना और उनसे नर्म लहजे में बात करना और उनसे मेहेरबानी, मोहब्बत, विनम्रता और झुक कर पेश आना और कहना ऐ परवरदिगार तू उन पर उसी तरह रहम फ़रमा जिस तरह उन्होंने मुझे पाला है। (सूरए इसरा, आयत 23, 24)
इस आयत में अल्लाह ने ख़ास तौर से वालेदैन के बुढ़ापे का ज़िक्र फ़रमाया है कि अगर वालेदैन में से कोई एक या वह दोनों तुम्हारी ज़िंदगी में बूढ़े हो जाएं तो उनके सामने उफ़ तक मत कहो, बुढ़ापे की हालत को ख़ास तौर इसलिए ज़िक्र फ़रमाया ताकि वालेदैन की जवानी में औलाद को उफ़ कहने की हिम्मत नहीं होती और न ही वह उन्हें झिड़क सकते हैं, अधिकतर वालेदैन की जवानी में उनके साथ बदतमीज़ी और गुस्ताख़ी का ख़्याल कम ही होता है, हालांकि बुढ़ापे में जब वह कमज़ोर और औलाद के मोहताज होते हैं तो उस समय इस ख़तरे की संभावना बढ़ जाती है और दूसरी तरफ़ बुढ़ापे में आम तौर से कमज़ोरी और मजबूरी की वजह से इंसान के मिजाज़ और रवैये में चिड़चिड़ापन और झुंझलाहट पैदा हो जाती है, तो यह एक तरह का औलाद का इम्तेहान है कि वह अपने वालेदैन के साथ अच्छा सुलूक करे, जैसे वह औलाद के बचपन में हर तरह की तकलीफ़ और सख़्तियों को हंसी ख़ुशी बर्दाश्त करते थे, इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं अगर वालेदैन की बे अदबी और बदतमीज़ी में उफ़ से कम दर्जे की कोई चीज़ होती तो परवरदिगार उसे भी हराम क़रार दे देता। (दुर्रुल मंसूर, जलालुद्दीन सियूती, जिल्द 5, पेज 224, वसाएलुश-शिया में शैख़ हुर्रे आमुली र.अ. ने जिल्द 1 पेज 500 पर इसी मज़मून की हदीस इमाम सादिक़ अ.स. से नक़्ल हुई है)
सूरए अनकबूत आयत न. 8 में अल्लाह का इरशाद है, हमने इंसानों को अपने वालेदैन के साथ नेक रवैया रखने की नसीहत की है और अगर वह कोशिश करें कि तुम मेरे साथ उसे शरीक क़रार दो जिसका तुम्हें कोई इल्म नहीं तो कभी भी उनका कहना मत मानना, तुम सबके मेरी तरफ़ पलट कर आना है फिर मैं हर उस चीज़ से बा ख़बर करूंगा जो तुम करते रहे हो।
वालेदैन का हक़ कभी ख़त्म नहीं होता, इसलिए उनके साथ हमेशा नेकी और भलाई से पेश आना वाजिब है चाहे वह काफ़िर ही हों, इसलिए उनके साथ नेकी करना, उनके मुसलमान होने के साथ ख़ास नहीं है बल्कि उनके साथ हर हालत में अच्छा बर्ताव ज़रूरी है चाहे वह काफ़िर ही हों, यही वजह है कि इस्लाम ने बड़ी सख़्ती से उनके विरोध और नाफ़रमानी से डराया है और वालेदैन की नाफ़रमानी और विरोध को शिर्क के बाद सबसे बड़ा गुनाह क़रार दिया है।
मासूमीन अ.स. की हदीसों और रिवायतों में भी वालेदैन की बहुत ज़्यादा अहमियत बयान हुई है और उनके साथ नेक रवैये से पेश आने पर बहुत ज़ोर दिया गया है, हम इस लेख में बस कुछ हदीसों का ज़िक्र कर रहे हैं।
** पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि मां बाप की इताअत करो चाहे वह काफ़िर क्यों न हो। (अहादीसुत-तुल्लाब, शाकिर फ़रीद, पेज 251)
** पैग़म्बर स.अ. फ़रममाते हैं कि वालेदैन की तरफ़ देखना भी इबादत है। (बिहारुल अनवार, अल्लामा मजलिसी र.अ., जिल्द 1, पेज 204)
** इमाम अली अ.स. ने फ़रमाया कि अपने वालिद और अपने उस्ताद के सम्मान में अपनी जगह से खड़े हो जाओ चाहे तुम अमीर और ऊंचे पद पर ही क्यों न हो। (मुस्तदरकुल वसाएल, मिर्ज़ा हुसैन नूरी र.अ., जिल्द 15, पेज 203)
मां की दुआ का असर
मां की दुआ का असर इतना ज़्यादा है कि अल्लाह उसकी दुआ के नतीजे में न केवल यह कि औलाद को बख़्श देता है बल्कि मां की दुआ औलाद को नबियों का हमनशीं (साथी) बना देती है, जैसाकि हज़रत मूसा अ.स. की मशहूर दास्तान है....
एक दिन हज़रत मूसा अ.स. ने मुनाजात करते हुए अल्लाह की बारगाह में कहा, ख़ुदाया तुझसे मेरा एक सवाल है कि जन्नत में सेरा हमनशीं और साथी कौन होगा? जिब्रईल नाज़िल हुए और कहा, ऐ मूसा (अ.स.) अल्लाह ने तुम्हें सलाम भेजा है और फ़रमाया है कि तुम्हारा साथी जन्नत में फ़लां क़साई होगा, हज़रत मूसा अ.स. उस क़साई की दुकाम पर पहुंचे, देखा एक जवान क़साई अपने काम में मसरूफ़ है और लोगों के हाथों गोश्त बेच रहा है, कुछ देर तक हज़रत मूसा अ.स. देखते रहे लेकिन उसका कोई ख़ास अमल दिखाई नहीं दिया, जब रात हुई तो क़साई ने अपनी दुकान बंद की और घर की तरफ़ चल पड़ा, हज़रत मूसा अ.स. उसके साथ उसके घर तक आए, जब घर के दरवाज़े पर पहुंचे तो हज़रत मूसा अ.स. ने कहा, ऐ जवान, मेहमान चाहिए? 
उस शख़्स ने कहा, मेहमान तो अल्लाह का हबीब होता है, आप घर तशरीफ़ लाइए, उस जवान ने इस अंजान शख़्स को घर के अंदर बुलाया और खाना तैयार करने लगा, फिर उसने एक गहवारे जैसी टोकरी जो छत से नीचे लटकी हुई थी उसे नीचे उतारा जिसमें एक बूढ़ी औरत लेटी हुई थी, उस जवान ने उस औरत का हाथ मुंह धुलाया और उसके बाद अपने हाथों से खाना खिलाया, जब वह खा चुकी तो उसे दोबारा उस गहवारे जैसी टोकरी में लिटा कर दोबारा छत से लटका दिया, हज़रत मूसा अ.स. ने देखा कि उस बूढ़ी औरत में होंटों को हिलाते हुए कुछ कहा, लेकिन हज़रत मूसा अ.स. सुन न सके कि उसने क्या कहा, जिस समय वह जवान और हज़रत मूसा अ.स. खाना खाने लगे तो हज़रत मूसा अ.स. ने पूछा कि यह बूढ़ी औरत कौन है?
उस जवान ने कहा कि यह मेरी मां है, मेरी माली हालत ऐसी नहीं है कि मैं किसी ख़िदमत करने वाली को रख सकूं जो इनकी देख भाल कर सके इसलिए उसके सारे काम मैं ख़ुद अंजाम देता हूं, हज़रत मूसा अ.स. ने पूछा, ऐ जवान, जब तुम खाना खिला रहे थे तो वह क्या कह रही थीं? जवान ने कहा कि जब मैं उनके हाथ पैर धुलाता हूं और उन्हें खाना खिलाता हूं तो वह मेरे हक़ में दुआ करती हैं और कहती हैं कि अल्लाह तेरी मग़फ़ेरत फ़रमाए और तुझे जन्नत में हज़रत मूसा अ.स. का साथी क़रार दे, हज़रत मूसा अ.स. ने फ़रमाया, ऐ जवान, मैं तुझे बशारत देता हूं कि अल्लाह ने तेरे हक़ में तेरी मां की दुआ क़ुबूल कर ली है क्योंकि मैं मूसा हूं और जिब्रईल ने मुझे यह बात बताई है कि जन्नत में तुम मेरे साथी होगे। (गंजीनए-मआरिफ़, मोहम्मद रहमती, जिल्द 1, पेज 196)


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