महिलाओं के लिए श्रृंगार प्रदर्शन पर पुरुषो के बीच उचित नहीं है सूरए नूर, आयतें 43-60




सूरए नूर, आयतें 43-47


क्या तुमने देखा नहीं कि ईश्वर (ही पहले हवाओं के सहारे) बादलों को चलाता है? फिर उनको आपस में मिला देता है। फिर उन्हें (एक दूसरे पर) तह ब तह कर देता है। फिर तुम देखते हो कि उसके बीच से वर्षा होती है।और वह आकाश से पहाड़ जैसे बादलों से ओले बरसाता है। फिर जिस पर चाहता है, उन ओलों को गिराता है और जिस पर से चाहता है उस (के नुक़सान) को हटा देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस (बादल) की बिजली की चमक आंखों (की रोशनी) को उचक ले जाएगी। (24:43) ईश्वर ही रात और दिन को (एक दूसरे पर) पलटता रहता है। निश्चय ही इसमें बुद्धि वालों के लिए एक पाठ है। (24:44)



ये आयतें सृष्टि के संचालन मे ईश्वर की भूमिका की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि रात दिन की आवाजाही जो धरती, चंद्रमा व सूर्य की व्यवस्थित चाल का परिणाम है, ईश्वर का काम है और यह संयोगवश नहीं है। क्या बुद्धि इस बात को स्वीकार करती है कि किसी संयोग से इतनी सुव्यवस्थित, सटीक एवं आश्चर्यजनक व्यवस्था निकल कर आए? यह ऐसा ही है जैसे कोई यह दावा करे कि उसने अक्षरों को एक दूसरे में गडमड करने के बाद उन्हें इतना हिलाया कि उनसे सुंदर कविताओं की एक किताब तैयार हो गई! क्या कोई इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार होगा?

न केवल धरती की परिक्रमा और दिन व रात की आवाजाही बल्कि आकाश में बादलों का इधर से उधर होना भी ईश्वरीय युक्ति के आधार पर है। हवाओं का चलना और बड़े-बड़े बादलों का बनना कि जो वर्षा और कभी कभी ओले गिरने का कारण बनते हैं, यद्यपि एक प्राकृतिक क्रिया है किंतु यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है यही कारण है कि कभी किसी क्षेत्र में वर्षा होती है तो दूसरे क्षेत्र में नहीं होती।

रात दिन की आवाजाही के विपरीत कि जो सदा एक स्थायी एवं समीकरण योग्य बात है, धरती के विभिन्न क्षेत्रों में बादलों का चलना और बारिश या ओलों का गिरना, एक समान नहीं होता अतः संभव है कि किसी क्षेत्र में एक या कई वर्ष तक बहुत अधिक वर्षा हो और अगले वर्षों में उसी क्षेत्र में सूखा व अकाल पड़ जाए।

इन आयतों से हमने सीखा कि सृष्टि की व्यवस्था में प्राकृतिक कारक, ईश्वर की इच्छा और उसकी शक्ति के अंतर्गत हैं और ईश्वर अपनी तत्वदर्शिता के आधार पर उन्हें प्रयोग करता है।

वर्षा, ओले और बर्फ़बारी, लाभदायक भी हो सकती है और हानिकारक भी और ये दोनों बातें ईश्वर की इच्छा पर निर्भर हैं।


 सूरए नूर की आयत क्रमांक 45 


और ईश्वर ने हर जीव को पानी से पैदा किया, तो उनमें से कोई अपने पेट के बल चलता है और कोई दो टाँगों पर चलता है और कोई चार (टाँगों) पर चलता है। ईश्वर जो चाहता है, पैदा करता है क्योंकि निश्चय ही ईश्वर को हर चीज़ पर सामर्थ्य प्राप्त है। (24:45)



पिछली आयतों में वर्षा और दिन रात की आवाजाही की शैली के बारे में संकेत करने के बाद ईश्वर इन आयतों में विभिन्न प्रकार के जीवों के जीवन के बारे में कहता है कि ज़मीन, आकाश या समुद्र में पाए जाने वाले सभी पशु-पक्षी ईश्वरीय युक्ति के आधार पर पानी से बनाए गए हैं और उन्हें अपने जीवन को जारी रखने के लिए भी पानी की आवश्यकता होती है।

धरती में जीवों की विविधता और अनेक प्रकार के प्राणियों का अस्तित्व जिनमें से कुछ की ओर इस आयत में संकेत किया गया है, ईश्वर की असीम शक्ति का चिन्ह है जिसने इसी पानी व मिट्टी से इतने प्रकार के जीव जंतु और पशु पक्षी बनाए।

इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर द्वारा जीवों की सृष्टि समाप्त नहीं हुई है और अब भी जारी है।

हर जीव का मूल तत्व पानी है। यह ईश्वर की शक्ति की निशानी है कि उसने इतनी सरल सी चीज़ से इतने विविध जीवों की रचना की है।

यदि मनुष्य में आध्यात्मिक गतिशीलता न हो तो फिर वह भौतिक गतिशीलता में अन्य जीवों की क़तार में आ जाएगा और एक पशु से आगे नहीं बढ़ सकेगा।



 सूरए नूर की आयत क्रमांक 46 और 47 



निश्चय ही हमने (सत्य) प्रकट कर देने वाली आयतें उतार दी हैं। और ईश्वर जिसे चाहता है उसका सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन करता है। (24:46) वे कहते हैं कि हम ईश्वर और उसके पैग़म्बर पर ईमान लाए और (उनका) आज्ञापालन कर रहे हैं। फिर इस (स्वीकारोक्ति) के बाद उनमें से एक गुट मुंह मोड़ लेता है। और वे कदापि वास्तविक ईमान वाले नहीं हैं। (24:47)



सृष्टि की व्यवस्था में ईश्वरीय निशानियों के वर्णन के पश्चात ये आयतें लोगों के मार्गदर्शन के लिए ईश्वर की ओर से अपना विशेष संदेश वहि भेजे जाने की ओर संकेत करती हैं और कहती हैं कि आसमानी किताब की तथ्य उजागर करने वाली आयतें लोगों को जीवन के सही मार्ग की ओर आमंत्रित करती हैं कि जो हर प्रकार के टेढ़ेपन और कमी व बेशी से दूरी पर आधारित है। यही वह मार्ग है जो ईश्वर ने, गंतव्य तक पहुंचने के लिए मनुष्य के समक्ष रखा है और अपने पैग़म्बरों को इसी सीधे रास्ते की ओर उसका मार्गदर्शन करने का दायित्व सौंपा है।

अलबत्ता सदैव लोगों के कुछ गुट झूठ बोल कर स्वयं को पैग़म्बरों तक उनके बताए हुए मार्ग का अनुयाई कहते हैं और ज़बान से उस बात का दावा करते हैं जिसे न तो वे दिल से स्वीकार करते हैं और जो न उनके कर्म में दिखाई देती है।

इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर ने पैग़म्बरों को भेज कर तथा तथ्यों को स्पष्ट करने वाली आयतें उतार कर लोगों के मार्गदर्शन के साधन उपलब्ध करा दिए हैं और अब उनके पास ईमान न लाने का कोई बहाना नहीं रह गया है।


इस्लामी समाजों के समक्ष मिथ्या एक बहुत बड़ा ख़तरा है और वह उन्हें क्षति पहुंचाती है।

किसी भी बात पर बहुत जल्दी भरोसा नहीं करना चाहिए और सुंदर नारों के धोखे में नहीं आना चाहिए।



सूरए नूर, आयतें 48-52,


और जब उन्हें ईश्वर और उसके पैग़म्बर की ओर बुलाया जाता हैताकि पैग़म्बर उनके बीच फ़ैसला करे तो अचानक उनमें से एक गुट मुंह मोड़ लेता है। (24:48) और यदि हक़ उन्हें मिलने वाला हो तो वे उनकी ओर आज्ञाकारी बन कर आ जाते हैं। (24:49) क्या उनके हृदयों में रोग है या वे सन्देह में पड़े हुए हैं या उन्हें यह डर है कि ईश्वर और उसका पैग़म्बर उनके साथ अन्याय करेंगे? (ऐसा नहीं है) बल्कि वे स्वयं ही अत्याचारी हैं। (24:50)



पिछली आयतों में इस्लामी समाज में मिथ्या के ख़तरे की ओर संकेत किया गया था। ये आयतें ईमान के कमज़ोर होने और मिथ्या में ग्रस्त होने की एक निशानी का वर्णन करते हुए कहती हैं कि जब कभी उनके और मुसलमानों के बीच मतभेद होता है और हक़ उनकी ओर हो तो वे पैग़म्बर के फ़ैसले को स्वीकार कर लेते हैं और अपने आपको पैग़म्बर का आज्ञापालक बताते हैं किंतु यदि पैग़म्बर का फ़ैसला उनके विरुद्ध होता है तो वे मुंह मोड़ लेते हैं और उस फ़ैसले को स्वीकार नहीं करते जबकि वे जान रहे होते हैं कि पैग़म्बर, ईश्वर का आदेश बयान कर रहे हैं।

आज भी ईमान के बहुत से दावेदारों के लिए कार्यों के सही या ग़लत होने की कसौटी सत्य या असत्य नहीं बल्कि व्यक्तिगत या दलगत हित है। जो भी उनके हित में हो वह सही है और जो भी उनके हित में न हो वह असत्य है। इस प्रकार की भावना, ईमान से मेल नहीं खाती।

आगे चल कर आयतें इस दोहरे मानदंड के मुख्य कारणों का उल्लेख करती हैं और कहती हैं कि संसार प्रेम और स्वार्थ की भावना कभी कभी इस सीमा तक पहुंच जाती है कि मनुष्य हर उस बात को नकार देता है जो उसके हित में न हो चाहे वह पैग़म्बर का आदेश ही क्यों न हो। और कभी कुछ लोग इतने निर्लज्ज हो जाते हैं कि वे अपने ऊपर होने वाले तथाकथित अत्याचार को ईश्वर व पैग़म्बर से संबंधित कर देते हैं और सोचते हैं कि जो कुछ उनकी इच्छा व हितों के अनुसार हो वही न्याय है।

इन आयतों से हमने सीखा कि सच्चे ईमान की निशानी ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर के आदेश के समक्ष नतमस्तक रहना है चाहे वह आदेश हमारी इच्छा के विपरीत ही क्यों न हो।

न्यायपूर्ण फ़ैसला कुछ लोगों को नहीं भाता, इस प्रकार से कि यदि वह फ़ैसला पैग़म्बर ने भी किया हो तो वे उसे अत्याचारपूर्ण बता कर स्वीकार करने से इन्कार कर देते हैं।

ईश्वर पर संदेह और उसके संबंध में बुरा विचार रखना अत्याचार है।



 सूरए नूर की आयत नंबर 51 और 52



जब ईमान वालों को ईश्वर और उसके पैग़म्बर की ओर बुलाया जाता है ताकि वे उनके बीच फ़ैसला करेंतो उनका कथन इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं होता कि हमने सुना और आज्ञापालन किया और यही लोग तो कल्याण प्राप्त करने वाले हैं। (24:51) और जो कोई ईश्वर और उसके पैग़म्बर का आज्ञापालन करे, ईश्वर से डरे और उसकी उद्दंडता से बचे, तो ऐसे ही लोग कल्याण प्राप्त करने वाले हैं। (24:52)



पिछली आयतों में ईश्वर व पैग़म्बर के आदेश के प्रति ईमान के कुछ दावेदारों के अनुचित व्यवहार का वर्णन किया गया और हमने देखा कि वे किस प्रकार असत्य को सत्य समझते थे और कहते थे कि पैग़म्बर ने उनके संबंध में सही फ़ैसला नहीं किया। ये आयतें इस प्रकार के लोगों के जवाब में पैग़म्बर के सच्चे अनुयाइयों की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि सच्चा मोमिन वही है जो ज़बान से भी पैग़म्बर के आदेश को स्वीकार करे और व्यवहारिक रूप से भी उनका आज्ञापालन करे, न ज़बान से उनका विरोध करे और न ही व्यवहार में ढिलाई बरते।

स्पष्ट है कि मनुष्य में इस प्रकार की भावना केवल ईश्वर के भय और उसकी उद्दंडता से डर की छाया में ही पैदा होती है और मोक्ष व कल्याण की मंज़िल तक पहुंचा देती है।

चूंकि कुछ ईमान वाले यद्यपि ईश्वर के आज्ञापालक हैं किंतु उनका आज्ञापालन एक प्रकार की अप्रसन्नता के साथ होता है इस लिए आगे चल कर आयतें कहती हैं कि यदि सत्य का अनुसरण, पालनहार के समक्ष नतमस्तक और उससे भयभीत रहने की भावना के साथ हो तो मनुष्य जीवन की कठिन परीक्षाओं से सफल हो कर निकलेगा और उसे लोक-परलोक में कल्याण प्राप्त होगा।



हदीसों के अनुसार हज़रत अली अलैहिस्सलाम जो सदैव ईश्वर एवं उसके पैग़म्बर के आदेश के समक्ष नतमस्तक रहे, इन आयतों के सबसे बड़े उदाहरण माने जाते हैं जिन्हें महान सफलता प्राप्त हुई।

इन आयतों से हमने सीखा कि मोक्ष व कल्याण, ईश्वर के आदेशों के समक्ष सिर झुकाने से प्राप्त होता है। यदि हम अपने ईमान को परखना चाहें तो यह देखें कि हम ईश्वर व उसके पैग़म्बर के आदेशों के समक्ष किस सीमा तक नतमस्तक रहते हैं।


ईमान वाले व्यक्ति के लिए महत्वपूर्ण बात अपने दायित्व का पालन है चाहे वह उसके हित में हो या उसके लिए हानिकारक हो।

ईश्वर के मुक़ाबले में आंतरिक लज्जा और उसकी उद्दंडता से भय, मनुष्य को जीवन के विभिन्न मंचों पर बुराइयों से सुरक्षित रखता है और उसे गंतव्य तक पहुंचाता है।

सूरए नूर, आयतें 53-57



और उन्होंने अल्लाह की कड़ी क़सम खाई कि यदि आप उन्हें आदेश दें तो वे अवश्य ही (जेहाद के लिए अपने घरों से) निकल पड़ेंगे। कह दीजिए कि क़सम न खाओ कि उचित आज्ञापालन (बड़े बड़े दावे करने से बेहतर) है। निःसंदेह जो कुछ तुम करते हो, ईश्वर उससे अवगत है। (24:53) कह दीजिए कि ईश्वर का आज्ञापालन करो और उसके पैग़म्बर का भी आज्ञापालन करो। तो यदि तुम मुँह मोड़ते हो तो (उससे पैग़म्बर को कोई हानि नहीं होगी क्योंकि) उन पर तो बस वही दायित्व है जिसका बोझ उन पर डाला गया है, और तुम लोग उसके उत्तरदायी हो जो दायित्व तुम पर डाला गया है। और यदि तुम उनका आज्ञापालन करोगे तो मार्गदर्शन पा जाओगे। और पैग़म्बर पर तो स्पष्ट रूप से (ईश्वर का संदेश) पहुँचा देने के अतिरिक्त कोई दायित्व नहीं है। (24:54)



मुनाफ़िक़ या मिथ्याचारी वे लोग हैं जो विदित रूप से तो ईमान का दावा करते हैं किंतु मन से ईमान नहीं लाते। उनकी एक शैली यह है कि वे बहुत अधिक क़सम खाते हैं। जब भी उन्हें आभास होता है कि इस्लामी समाज ने उन्हें पहचान लिया है और उन्हें अलग थलग करने का प्रयास कर रहा है तो वे बड़ी बड़ी क़सम खा कर कहते हैं कि हम ईश्वर के मार्ग में अपनी जान व माल न्योछावर करने के लिए तैयार हैं और ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर के आज्ञापालन में तनिक भी ढिलाई नहीं करेंगे। किंतु अनुभवों से पता चलता है कि जो लोग इस प्रकार की बातें करते हैं वे कर्म के समय विभिन्न बहानों से अनुपस्थित रहते हैं और कठिनाइयों से दूर भागते हैं।

ईश्वर इस प्रकार के दोहरे व्यवहार के जवाब में कहता है कि सौगंध की आवश्यकता नहीं है बल्कि तुम व्यवहार और कर्म में यह दिखाओं की तुम आज्ञापालक हो और ईमान के अपने दावे में सच्चे हो। यह मत सोचो कि तुम लोगों को धोखा देकर स्वयं को ईमान वाला दर्शा सकोगे क्योंकि तुम्हारा सामना उस ईश्वर से है जो तुम्हारे अंतर्मन से अवगत है और उससे कोई भी बात छिपी हुई नहीं है।


आगे चलकर आयतें इस बात पर बल देती हैं कि पैग़म्बर का आज्ञापालन या उनके आदेशों की अवज्ञा, स्वयं उनके लिए लाभदायक या हानिकारक नहीं है बल्कि इसका लाभ या हानि स्वयं तुम्हारे लिए है। यदि तुम उनका आज्ञापालन करोगे तो तुम्हें मार्गदर्शन प्राप्त होगा और तुम जीवन में पथभ्रष्टताओं से बचे रहोगे किंतु यदि तुमने उनके आदेशों का पालन नहीं किया तो तुम्हारे संबंध में पैग़म्बर का कोई दायित्व नहीं है क्योंकि उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर दी है और ईश्वर के आदेश को स्पष्ट रूप से सबके पास पहुंचा दिया है मगर तुमने ईश्वर की शिक्षाओं और आदेशों के पालन के अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया है।

इन आयतों से हमने सीखा कि कुछ लोगों की बड़ी बड़ी क़समों के धोखे में नहीं आना चाहिए क्योंकि यह ईमान वालों की नहीं बल्कि मिथ्याचारियों की निशानी है।

पैग़म्बर का दायित्व लोगों तक ईश्वर का आदेश पहुंचाना है, उन्हें उन आदेशों को स्वीकार करने के लिए बाध्य करना नहीं।

पैग़म्बर के आदेशों का पालन भी ईश्वर के आदेशों के पालन के समान आवश्यक है और उनके आदेशों की अवज्ञा, ईश्वर के आदेशों की अवज्ञा के समान है।



 सूरए नूर की आयत नंबर 55 



ईश्वर ने तुममें से उन लोगों से, जो ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे कर्म किए, वादा किया है कि वह उन्हें धरती में अवश्य ही उत्तराधिकार प्रदान करेगा, जैसे उसने उनसे पहले वाले लोगों को उत्तराधिकार प्रदान किया था। और उनके लिए अवश्य ही उनके उस धर्म को सुदृढ़ बना देगा जिसे उसने उनके लिए पसन्द किया है। और निश्चय ही उनके वर्तमान भय के पश्चात उसे उनके लिए शान्ति और निश्चिन्तता में बदल देगा। वे मेरी बन्दगी करते हैं, किसी को मेरा समकक्ष नहीं ठहराते। और जो कोई इसके पश्चात इन्कार करे, तो ऐसे ही लोग अवज्ञाकारी हैं। (24:55)


पिछली आयतों में ईश्वर व पैग़म्बर के समक्ष नतमस्तक रहने और उनके संपूर्ण आज्ञापालन को वास्तविक ईमान की निशानी बताया गया था। यह आयत कहती है कि ईश्वर के आज्ञापालन का परिणाम केवल प्रलय में ही सामने नहीं आएगा बल्कि इस संसार में उसका परिणाम एक स्वस्थ एवं न्यायपूर्ण व्यवस्था की स्थापना है जो समाज को हर प्रकार के अत्याचार व असुरक्षा से मुक्ति दिलाती है और वास्तविक शांति व सुरक्षा स्थापित करती है।

यह सद्कर्मी ईमान वालों से ईश्वर का वादा है और यह वादा भले कर्म करने वाले पिछले समुदायों के संबंध में भी पूरा हो चुका है। इसके बाद भी जो भी समुदाय ईश्वर पर ईमान रखेगा तथा भले कर्म करेगा, ईश्वर अपने इस वादे को पूरा करेगा तथा उसे शक्ति व सत्ता प्रदान करेगा। हदीसों के अनुसार यह आयत अंतिम काल में पूर्ण रूप से चरितार्थ होगी जब इमाम महदी की वैश्विक सरकार स्थापित होगी।

इस आयत से हमने सीखा कि संसार में एकेश्वरवाद की स्थापना के लिए सत्ता हाथ में लेना, शांति व सुरक्षा स्थापित करना तथा अनेकेश्वरवाद के चिन्हों को समाप्त करना ईमान वालों की आकांक्षा है और ईश्वर ने इसे पूरा करने का वचन दिया है।

धर्म, राजनीति से अलग नहीं है बल्कि सत्ता व राजनीति धर्म व धर्म का पालन करने वालों की सुरक्षा के लिए है।

ईमान वालों की विजय, भले कर्म करने वालों की वैश्विक सरकार की स्थापना और काफ़िरों के प्रभुत्व की समाप्ति, उन निश्चित घटनाओं में से हैं जो ईश्वरीय वचन के अनुसार भविष्य में हो कर रहेंगी।



  सूरए नूर की आयत नंबर 56 और 57 



और नमाज़ स्थापित करो, ज़कात दो और पैग़म्बर का आज्ञापालन करोकि शायद तुम पर दया की जाए। (24:56) कदापि यह न समझो कि कुफ़्र अपनाने वाले हमें, धरती में असहाय बना देने वाले हैं। उनका ठिकाना (नरक की) आग हैऔर वह बहुत ही बुरा ठिकाना है। (24:57)



पिछली आयतों का क्रम जारी रखते हुए इन आयतों में भी ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर के आदेशों के पालन पर एक बार फिर बल दिया गया है। आयतें कहती हैं कि नमाज़ पढ़ कर ईश्वर से संबंध मज़बूत बनाना, ज़कात दे कर दरिद्रों से निकट संबंध स्थापित करना और ईश्वरीय दूत के आदेशों का पालन करके उसके साथ सुदृढ़ संबंध स्थापित करना हर वास्तविक ईमान वाले व्यक्ति का दायित्व है। स्पष्ट है कि ईमान वाले इन्हीं संबंधों की रक्षा से, इस्लामी सरकार के बाक़ी व सुदृढ़ रहने के संबंध में ईश्वर की दया व कृपा के पात्र बन सकते हैं।

निश्चित रूप से ईमान वालों द्वारा उठाए गए क़दमों के मुक़ाबले में इस्लाम के शत्रु भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहेंगे और अपने हाथ से सत्ता नहीं जाने देंगे, इसी लिए आगे चल कर आयतें कहती हैं कि उनकी इच्छा, ईश्वर की इच्छा के मुक़ाबले में कुछ नहीं है और सत्य के पक्षधर लोगों की अंतिम विजय के संबंध में ईश्वरीय इच्छा के व्यवहारिक होने को नहीं रोक सकती।



इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम की दृष्टि में उपासना, अर्थव्यवस्था और राजनैतिक, सामाजिक व सरकारी मामले एक दूसरे से अलग नहीं हैं।

काफ़िर चाहे जितने भी सशक्त हों, संसार में इस्लाम के प्रसार को रोकने के उनके प्रयास सफल नहीं हो सकेंगे और एक दिन इस्लाम की सरकार स्थापित हो कर रहेगी।



सूरए नूर, आयतें 58-61,




हे ईमान वालो! तुम्हारे दास-दासियों और तुममें जो अभी वयस्कता को नहीं पहुँचे हैं,उन्हें चाहिए कि तीन समयों में तुमसे अनुमति लेकर तुम्हारे पास आएँ, भोर समय की नमाज़ से पहले और जब दोपहर को जब तुम (आराम के लिए) अपने कपड़े उतार देते हो और रात की नमाज़ के बाद, ये तीन समय तुम्हारे (आराम के) लिए परदे व एकांत के हैं। इनके अतिरिक्त (बिना अनुमति के प्रवेश करने पर) न तो तुम पर कोई पाप है और न उन पर क्योंकि वे तुम्हारे पास अधिक चक्कर लगाते हैं अर्थात अधिक आते जाते रहते हैं और तुम्हें एक दूसरे के पास बार-बार आना ही होता है। इस प्रकार ईश्वर तुम्हारे लिए अपनी आयतों को स्पष्ट करता है और ईश्वर ज्ञानी (व) तत्वदर्शी है। (24:58) और जब तुम्हारे बच्चे वयस्कता को पहुँच जाएँ तो उन्हें (भी) चाहिए कि (माता-पिता के कमरे में जाने से पहले) अनुमति ले लिया करें जैसे कि उनसे पहले के लोग अनुमति लेते रहे हैं। इस प्रकार ईश्वर तुम्हारे लिए अपनी आयतों को स्पष्ट करता है और ईश्वर ज्ञानी (भी है और) तत्वदर्शी भी। (24:59)



सूरए नूर जो व्यभिचारी पुरुषों व महिलाओं को दंडित किए जाने के आदेश से आरंभ हुआ था, अपनी अंतिम आयतों में बच्चों के बीच अनैतिकता को रोकने और परिवार में पवित्रता की रक्षा के लिए कहता है कि घर के दास-दासियों और छोटे-बड़े बच्चों को जो स्वाभाविक रूप से घर के हर कोने में आते जाते रहते हैं, माता-पिता की निजता का ध्यान रखना चाहिए और बिना अनुमति लिए उनके कमरे में नहीं जाना चाहिए।

अलबत्ता चूंकि बहुत छोटे बच्चे माता-पिता से अधिक जुड़े होते हैं और प्रायः उन्हीं के साथ रहते हैं इस लिए ये आयतें विशेष रूप से उनके बारे में कहती हैं कि छोटे बच्चों को भी माता-पिता के आराम के समय उनके कमरे में जाने से पूर्व अनुमति लेनी चाहिए। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों को बचपन से ही यह आदेश सिखा दें और इस प्रकार उन्हें पवित्र प्रशिक्षित करें।

इन आयतों से हमने सीखा कि दांपत्य संबंध इस प्रकार होने चाहिए कि बच्चों की पवित्रता और माता-पिता की निजता दोनों की रक्षा हो।

बच्चों को अपने घर और परिवार से पवित्रता का पाठ सीखना चाहिए।

पति को चाहिए कि अपनी दिनचर्या में से कुछ समय पत्नी के लिए विशेष करे और बच्चों को ऐसे समय में उनके बीच रुकावट नहीं बनना चाहिए।


 सूरए नूर की आयत नंबर 60 



और जो वृद्ध स्त्रियाँ जिन्हें विवाह की आशा न रह गई हो, उन पर कोई दोष नहीं कि वे अपने कपड़े (अर्थात आवरण) उतार कर रख दें, इस शर्त के साथ कि वे अपने श्रृंगार का प्रदर्शन न करें। फिर भी यदि वे इससे बचें तो यह उनके लिए बेहतर है। और ईश्वर सुनने वाला और जानकार है। (24:60)


महिलाओं के हिजाब या आवरण के संबंध में मूल आदेश इस सूरे की 31वीं आयत में बयान किया गया है। यह आयत वृद्ध महिलाओं को उस आदेश से अलग करते हुए कहती है कि जो महिलाओं अधिक आयु के कारण विवाह में रुचि नहीं रखतीं और इसी प्रकार कोई पुरुष भी उनसे विवाह नहीं करना चाहता उन्हें इस बात की अनुमति है कि वे नामहरम अर्थात परपुरुष के सामने भी अपना आवरण या चादर उतार दें। अल्बत्ता यह केवल उसी स्थिति में वैध है जब उनके सिर या गर्दन में कोई आभूषण न हो और उन्होंने श्रृंगार न कर रखा हो।



स्वाभाविक है कि इस प्रकार की महिलाओं में यौन आकर्षण नहीं रह जाता और उनके द्वारा पर्दा न करने से समाज में किसी प्रकार की बुराई फैलने की आशंका नहीं होती। अलबत्ता यदि ये महिलाएं भी, हिजाब के क़ानून का सम्मान करते हुए, अन्य महिलाओं की भांति ही पर्दा करें तो यह पवित्रता के अधिक निकट है और स्वयं उनके लिए भी अधिक प्रिय है।

यह आयत भली भांति यह दर्शाती है कि हिजाब का वास्तविक तर्क, महिलाओं की नैतिक पवित्रता की रक्षा करना है और निश्चित रूप से यह स्वयं उनके ही हित में है। इस्लाम की दृष्टि में उसी पहनावे को हिजाब समझा जाता है जो पुरुषों को उत्तेजित न करता हो।

इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम के क़ानून लचकदार और वास्तविकताओं एवं आवश्यकताओं के अनुकूल हैं अतः लोगों की स्थितियों के परिवर्तित होने के साथ उनमें भी परिवर्तन आता है जैसा कि यह आयत, वृद्ध महिलाओं के लिए हिजाब को सरल बनाती है।


महिलाओं के लिए श्रृंगार किए हुए चेहरे के साथ परपुरुषों के बीच उपस्थित होना वैध नहीं है।




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