मनुष्य के जीवन को केवल सांसारिक जीवन तक सीमित करना, उसे पशुओं के स्तर पर नीचे ले आने के समान है| सूरए मोमिनून,

मनुष्य के जीवन को केवल सांसारिक जीवन तक सीमित करना, उसे पशुओं के स्तर पर नीचे ले आने के समान है



सूरए मोमिनून, आयतें 31-37


फिर उनके पश्चात हमने एक दूसरी जाति को बनाया। (23:31) तोउनमें हमने स्वयं उन्हीं में से एक पैग़म्बर भेजा कि (जो लोगों से कहे कि) ईश्वर की उपासना करो कि उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है तो क्या तुम डरते नहीं?(23:32)


इससे पहले की आयतों में हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की जाति के वृत्तांत का वर्णन हुआ और बताया गया कि उनकी जाति के सभी काफ़िर, ईश्वर की ओर से दंड स्वरूप भेजे गए तूफ़ान में हताहत हो गए। ये आयतें समूद जाति के बारे में बताती हैं कि ईश्वर ने हज़रत सालेह अलैहिस्सलाम नामक एक पैग़म्बर को उनके बीच भेजा। उन्होंने भी अन्य पैग़म्बरों की भांति लोगों को अनन्य ईश्वर की उपासना का निमंत्रण दिया और उन्हें उसके अतिरिक्त किसी की भी उपासना करने से रोका क्योंकि कुफ़्र एवं अनेकेश्वरवाद, किसी से भी न डरने का कारण बनता है और हर प्रकार के ग़लत एवं अनुचित कार्य का मार्ग मनुष्य के समक्ष खोल देता है जबकि ईश्वर पर सच्चा ईमान और उसके दंड का भय, बुरे कर्मों व पापों से रोकता है।


इन आयतों से हमने सीखा कि पैग़म्बरों को भेज कर लोगों का मार्गदर्शन करना और उन्हें नरक की आग से डराना ईश्वर की परंपराओं में से एक रहा है।

पैग़म्बर, मनुष्य ही होते हैं और लोगों के बीच से ही नियुक्त होते हैं ताकि पूरे समाज के लिए आदर्श रहें और कोई भी व्यक्ति ईमान के संबंध में किसी भी प्रकार का बहाना न बना सके।

सूरए मोमिनून की 33वीं और 34वीं आयतों 

और उनकी जाति के सरदारों ने, जिन्होंने इन्कार किया और प्रलय के दिन की भेंट को झुठलाया और जिन्हें हमने सांसारिक जीवन में सुख प्रदान किया था, (लोगों से) कहा कि यह तो बस तुम्हीं जैसा एक मनुष्य है, जो तुम खाते हो, उसी में से यह भी खाता है और जो तुम पीते हो उसी में से यह भी पीता है। (23:33) और यदि तुम अपने ही जैसे किसी मनुष्य के आज्ञाकारी हुए तो निश्चय ही तुम घाटा उठाने वाले होगे। (23:34)


पैग़म्बरों के स्पष्ट तर्क के मुक़ाबले में, जो लोगों को सत्य के मार्ग पर चलने और भले कर्म करने का निमंत्रण देते थे, विभिन्न जातियों के धनवान और तथाकथित प्रतिष्ठित लोग उनका विरोध करते थे क्योंकि वे उनकी बातों को अपने लिए हानिकारक समझते थे और सोचते थे कि यदि लोग, पैग़म्बरों का अनुसरण करेंगे तो समाज में उनका स्थान कमज़ोर हो जाएगा।


उनकी सबसे पहली आपत्ति यह थी कि ये लोग, अर्थात पैग़म्बर, हमारे ही जैसे हैं और इनमें तथा हममें कोई अंतर नहीं है। यदि ईश्वर हमारा मार्गदर्शन करना चाहता है तो उसे फ़रिश्तों जैसे हमसे अधिक श्रेष्ठ जीवों को भेजना चाहिए ताकि हम उनकी बात मान लें। ये लोग, जो हमारी ही भांति जीवन बिताते हैं, हमारी ही तरह खाते और पहनते हैं किस प्रकार जीवन में हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं?


रोचक बात यह है कि हज़रत सालेह की जाति के सरदारों को अपेक्षा थी कि लोग उनकी बात को मानें और विरोध न करें किंतु वे लोगों द्वारा उस व्यक्ति के अनुसरण को ग़लत और घाटा बताते थे जिसकी कथनी और करनी सच्चाई और भलाई के अतिरिक्त कुछ और न थी।

इन आयतों से हमने सीखा कि एकेश्वरवाद का निमंत्रण, अत्याचारी शासकों और धनवानों के वर्चस्व से लोगों की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करता था और इसी कारण ये दो गुट, पैग़म्बरों का सबसे अधिक विरोध किया करते थे।

दूसरों की बातों का अनुसरण, यदि तर्क और बुद्धि पर आधारित हो तो न केवल यह कि अप्रिय एवं निंदनीय नहीं है बल्कि यह मनुष्य की प्रगति व परिपूर्णता का कारण भी बनता है। वस्तुतः शिक्षा व प्रशिक्षा की व्यवस्था इसी पर आधारित है।



 सूरए मोमिनून की 35वीं, 36वीं और 37वीं आयतों 



أَيَعِدُكُمْ أَنَّكُمْ إِذَا مِتُّمْ وَكُنْتُمْ تُرَابًا وَعِظَامًا أَنَّكُمْ مُخْرَجُونَ (35) هَيْهَاتَ هَيْهَاتَ لِمَا تُوعَدُونَ (36) إِنْ هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا نَمُوتُ وَنَحْيَا وَمَا نَحْنُ بِمَبْعُوثِينَ (37)

क्या यह तुमसे वादा करता है कि जब तुम मर जाओगे और मिट्टी व हड्डियाँ बन जाओगे तो (क़ब्र से बाहर) निकाले जाओगे?(23:35) असंभव सी बात है, असंभव सी बात है जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है। (23:36) जीवन तो हमारे इस सांसारिक जीवन के अतिरिक्त कुछ नहीं है। (यहीं) हम मरते और जीते हैं और हम (मरने के बाद) कदापि पुनः उठाए जाने वाले नहीं हैं। (23:37)



पैग़म्बरों के निमंत्रण का पहला चरण अनेकेश्वरवाद से दूरी और एकेश्वरवाद को मानने पर आधारित था। फिर जो लोग एकेश्वरवाद को स्वीकार कर लेते थे उनके समक्ष प्रलय और मृत्यु के पश्चात परलोक में लोगों को पुनः जीवित किए जाने की बात प्रस्तुत की जाती थी। किंतु विरोधी एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद के बारे में बात करने के स्थान पर प्रलय की बात करते थे और उसे असंभव एवं तर्कहीन बात बताते थे ताकि लोगों को पैग़म्बरों के अनुसरण से दूर रख सकें।



जबकि प्रलय को मानने का नंबर, एकेश्वरवाद की स्वीकृति के बाद आता है और तार्किक दृष्टि से भी उसे रद्द करने का कोई कारण नहीं है चाहे केवल भौतिक अनुभवों और विदित इंद्रियों पर भरोसा करने वालों को उसका आना असंभव ही क्यों न प्रतीत होता हो।



जिन धनवानों और सत्ताप्रेमियों को निरंकुश स्वतंत्रता और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन की आदत हो और जो केवल भौतिक आनंदों की प्राप्ति के ही प्रयास में रहते हैं वे जानते हैं कि उस स्वर्ग में उनका कोई स्थान नहीं जिसका वचन पैग़म्बरों ने दिया है, अतः वे उसे असंभव बताने का प्रयास करते हुए निराधार तर्कों से उसका इन्कार करते हैं।

इन आयतों से हमने सीखा कि जिस ईश्वर ने मनुष्य को मिट्टी से बनाया है क्या वह उसे मिट्टी में मिल जाने के पश्चात पुनः जीवित नहीं कर सकता?

मनुष्य के जीवन को केवल सांसारिक जीवन तक सीमित करना, उसे पशुओं के स्तर पर नीचे ले आने के समान है क्योंकि उनका जीवन केवल इसी भौतिक संसार तक सीमित है।




Related

सूरए मोमिनून 6824190205879161508

Post a Comment

emo-but-icon

Follow Us

Hot in week

Recent

Comments

इधर उधर से

Comment

Recent

Featured Post

नजफ़ ऐ हिन्द जोगीपुरा का मुआज्ज़ा , जियारत और क्या मिलता है वहाँ जानिए |

हर सच्चे मुसलमान की ख्वाहिश हुआ करती है की उसे अल्लाह के नेक बन्दों की जियारत करने का मौक़ा  मिले और इसी को अल्लाह से  मुहब्बत कहा जाता है ...

Admin

item