सूरए मोमिनून, आयतें 15-18 क़यामत का ज़िक्र |




 सूरए मोमिनून, आयतें 15-18


सूरए मोमिनून की 15वीं और 16वीं आयत  


फिर निश्चय ही तुम सब मरने वाले हो। (23:15) फिर प्रलय के दिन तुम अवश्य ही उठाए जाओगे। (23:16)

 ये आयतें कहती हैं कि उन चरणों का अंत, इस संसार में तुम्हारी आयु का समाप्त होना है। मृत्यु के साथ ही तुम इस संसार से दूसरे संसार में स्थानांतरित हो जाओगे और वहां तुम्हें पुनः जीवन प्राप्त होगा।



इससे पहले की आयतों में आत्मा की सृष्टि की ओर संकेत किया गया था जो मृत्यु से समाप्त नहीं होती बल्कि वह संसार और परलोक के बीच हर मनुष्य का माध्यम होती है।

मृत्यु का आना इतना निश्चित है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यदि कोई मृत्यु को रोकने और संसार में अमर होने के बारे में कोई उपाय सोच सकता था तो वे ईश्वरीय पैग़म्बर थे किंतु वे भी मृत्यु के साथ इस संसार से चले गए अतः कोई भी इस संसार में सदा रहने वाला नहीं है।



इन आयतों से हमने सीखा कि मृत्यु, अंत नहीं है बल्कि मानव जीवन के चरणों में से एक है कि जो उसे प्रलय तक स्थानांतरित करती है।



ईश्वर की दृष्टि में मानव जीवन केवल संसार के भौतिक जीवन तक सीमित नहीं है और ईमान वाले आध्यात्मिक जीवन में भी आस्था रखते हैं जिसका मुख्य प्रतिबिंबन प्रलय है।

 सूरए मोमिनून की 17वीं आयत

और हमने तुम्हारे ऊपर सात (आसमानी) रास्ते बनाए हैं और हम अपनी रचनाओं की ओर से निश्चेत नहीं हैं।(23:17)

 
पिछली आयतों में मनुष्य के अस्तित्व में ईश्वर की सृष्टि की निशानियों की ओर संकेत किया गया जिन्हें आयाते अन्फ़ुसी या भीतरी चिन्ह कहा जाता है। यह आयत इस व्यापक ब्रह्मांड में पाई जाने वाली ईश्वरीय निशानियों की ओर संकेत करती है जिन्हें आयाते आफ़ाक़ी या ब्रह्मांड की निशानियां कहा जाता है।



यह आयत सात आकाशों के बजाए सात रास्तों का शब्द प्रयोग करती है और विदित रूप से इसका आशय आकाश में सितारों की परिक्रमा की कक्षाएं हैं जिनकी संख्या बहुत अधिक है। सात शब्द अरबी भाषा में अधिक संख्या को व्यक्त करने के लिए भी प्रयोग होता है।



आगे चल कर आयत कहती है कि यह नहीं सोचना चाहिए कि धरती व आकाश में रचनाओं की अत्यधिक संख्या के कारण रचयिता उनके मामलों के संचालन की ओर से निश्चेत हो गया है और उसने उन्हें उनकी स्थिति पर छोड़ दिया है।

इस आयत से हमने सीखा कि मनुष्य, धरती व आकाश का रचयिता एक है और संपूर्ण सृष्टि का संचालन उसी की युक्ति से होता है।



ईश्वर, रचयिता भी है और देखने वाला भी है तथा कोई भी वस्तु उसके ज्ञान की परिधि से बाहर नहीं है।



सूरए मोमिनून की 18वीं आयत

औरहमने आकाश से एक निर्धारित मात्रा में पानी उतारा फिर हमने उसे धरती में ठहरादिया और निश्चित रूप से उसे विलुप्त करने में हम पूर्ण रूप से सक्षम हैं। (23:18)

 

यह आयत वर्षा को ईश्वर की एक महान अनुकंपा बताते हुए कहती है कि धरती के विभिन्न क्षेत्रों की आवश्यकता का पानी, वर्षा से पूरा होता है। यह पानी धरती के अंदर चला जाता है और फिर पूरे वर्ष पीने और खेती इत्यादि के लिए मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करता रहता है।



स्वाभाविक है कि जिस ईश्वर ने, मनुष्य, पशुओं और वनस्पतियों की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति के लिए इतनी महत्वपूर्ण युक्तियां की हैं वह उन्हें तबाह करने में भी सक्षम है और सभी जीवित वस्तुओं को समाप्त कर सकता है। किसी में भी इस बात की शक्ति व क्षमता नहीं है कि ईश्वर के कार्य में बाधा डाले या जलापूर्ति की इस शैली के स्थान पर कोई अन्य मार्ग खोज ले।

इस आयत से हमने सीखा कि पानी, जो मनुष्य सहित सभी जीवों के जीवन का आधार है, ईश्वरीय युक्ति से आकाश से, धरती के विभिन्न स्थानों पर बरसता है ताकि सभी उससे लाभान्वित हो सकें।



ईश्वरीय अनुकंपाओं का मूल्य उस समय स्पष्ट होता है जब वह थोड़ी देर के लिए भी हम से छिन जाएं। यदि वर्षा का बरसना रुक जाए तो अकाल आ जाता है और उसे रोकना मनुष्य के बस में नहीं है।




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