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मानवता को इमाम हुसैन की बेमिसाल देन -डा. अनवर जमाल -देवबंद

यज़ीद के सामने धार्मिक शक्तियाँ कमज़ोर पड़ चुकी थीं। वे उससे मुक़ाबला नहीं कर सकती थीं लेकिन फिर भी उसके ज़ुल्म को ज़ुल्म कहने से वे न रूके। हज़...

यज़ीद के सामने धार्मिक शक्तियाँ कमज़ोर पड़ चुकी थीं। वे उससे मुक़ाबला नहीं कर सकती थीं लेकिन फिर भी उसके ज़ुल्म को ज़ुल्म कहने से वे न रूके। हज़रत ज़ैद बिन अरक़म एक ऐसे ही धार्मिक शख्स थे। वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथियों में से थे। यज़ीद के वक़्त तक वह बूढ़े हो चुके थे। उन्होंने जो कहा, वह भी सांप्रदायिक शक्तियों के चाल, चरित्र और चेहरे को बेनक़ाब करता है-
‘तो ज़ैद (बिन अरक़म) रोने लगे तो इब्ने ज़ियाद ने कहा ख़ुदा तेरी आंखों को रोता हुआ ही रखे। ख़ुदा की क़सम अगर तू  बुड्ढा न होता जो सठिया गया हो और अक्ल तेरी मारी गई न होती तो मैं तेरी गर्दन उड़ा देता, तो ज़ैद बिन अरक़म खड़े हो गए और यहां से निकल गए, तो मैंने लोगों को यह कहते हुए सुना। वे कह रहे थे अल्लाह, ज़ैद बिन अरक़म ने एक ऐसा कलिमा कहा कि अगर इब्ने ज़ियाद उसे सुन लेता तो उन्हें ज़रूर क़त्ल कर देता। तो मैंने कहा, क्या कलिमा है जो ज़ैद बिन अरक़म ने फ़रमाया। तो कहा कि ज़ैद बिन अरक़म जब हम पर गुज़रे तो कह रहे थे कि ऐ अरब समाज! आज के बाद समझ लो कि तुम ग़ुलाम बन गए हो। तुमने फ़ातिमा के बेटे को क़त्ल कर दिया और सरदार बना लिया इब्ने मरजाना (इब्ने ज़ैद) को। जो तुम में के बेहतरीन लोगों को क़त्ल करेगा और बदतरीन लोगों को पनाह देगा।’
-शहीदे करबला और यज़ीद, पृष्ठ 101
हज़रत ज़ैद बिन अरक़म रज़ि. ने जो कहा था। वह हरफ़ ब हरफ़ सच साबित हुआ। इसी किताब के पृष्ठ 106 पर मशहूर अरबी किताब ‘अल-बदाया वन्-निहाया’ जिल्द 8 पृष्ठ 191 के हवाले से क़ारी तैयब साहब ने लिखा है कि जब इमाम हुसैन रज़ि. के क़त्ल पर इब्ने ज़ियाद ख़ुश हो रहा था। तब उसे हज़रत अब्दुल्लाह बिन अफ़ीफ़ अज़दी ने टोक दिया। इब्ने ज़ियाद ने उसे वहीं फांसी दिलवा दी।
यज़ीद में एक सांप्रदायिक व्यक्ति के सभी लक्षण पूरी तरह से देखे जा सकते हैं। वह एक नमूना है। यज़ीद मर गया लेकिन सांप्रदायिक प्रवृत्ति नहीं मरी। यज़ीद के बाद भी हुकूमत हथियाने के लिए सांप्रदायिकता का सहारा लिया गया और उसे राष्ट्रवाद का चोला ओढ़ाया गया।
वर्तमान पाकिस्तान सांप्रदायिक मुसलिम नेताओं की देन है। इसलाम के नाम पर पाकिस्तान मांगा गया और किसी मुसलिम धार्मिक हस्ती को पाकिस्तान सौंपने के बजाय उस पर सांप्रदायिक शक्तियां क़ाबिज़ हो गईं। 
पाकिस्तानी राजनेता भारत में आतंकवादी भेजते हैं। वे भारत के सैनिकों के सिर काट कर ले जाते हैं। सिर काटने का काम केवल यज़ीदी सोच के ज़ालिम ही कर सकते हैं। इससे इस क्षेत्र में अशान्ति और अस्थिरता पैदा होती है। नेताओं को सुरक्षा के लिए हथियार ख़रीदने का बहाना मिलता है। पाकिस्तानी और भारतीय नेता, दोनों अमेरिका आदि देशों से हथियार ख़रीदते हैं। इसमें इन्हें लाभ के रूप में मोटा कमीशन मिल जाता है।
तमाम आतंकवादी घटनाओं के बाद भी भारत के नेता कहते हैं कि भारत पाकिस्तान को आतंकवाद के मामले में संदेह का लाभ देने के लिए तैयार है। आज आतंकवाद एक इंडस्ट्री बन चुकी है। इसका लाभ हथियार बेचने वाले देश उठा रहे हैं।
सांप्रदायिकता से सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है। पाकिस्तानी आतंकवादियों की चर्चा भारत के सांप्रदायिक तत्वों का पौष्टिक आहार है। ये हर दम पाकिस्तान के सांप्रदायिक नेताओं और आतंकवादियों की चर्चा करते रहते हैं। राष्ट्रवादी कहलाने वाले एक संगठन के प्रशिक्षित सांप्रदायिक विचारक और प्रचारक पाकिस्तान को संदेह का लाभ नहीं देना चाहते। ये उस पर हमला करना चाहते हैं। इससे भी इस क्षेत्र में अशान्ति और अस्थिरता पैदा होगी। इसका लाभ भी यहां के पूंजीपतियों, जमाख़ोरों, कालाबाज़ारी करने वाले ब्याजख़ोरों को ही मिलेगा, आम जनता को नहीं। ये लोग बिना जंग के भी आलू-प्याज़ से लेकर नमक तक महंगा किये हुए हैं। कोई युद्ध हो जाए तो ये खाना, पानी और दवा को मुंह मांगी क़ीमत पर बेच कर कई नस्लों की ऐश का इंतेज़ाम कर लेंगे। 
सांप्रदायिक व्यक्ति निजि स्वार्थ के लिए आतंकवाद का सहारा लेकर धार्मिक हस्तियों का क़त्ल करते हैं क्योंकि वे सामूहिक हित और सामाजिक न्याय के लिए काम करते हैं। जिसकी आज्ञा परमेश्वर ने दी है।
परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना ही धर्म कहलाता है। ‘इसलाम’ शब्द का यही अर्थ है। सांप्रदायिक व्यक्ति धर्म का पालन नहीं कर सकता। वह अपने कुकर्मों को राष्ट्रवाद के आवरण से ढक लेता है। आम जनता उन्हें पहचान नहीं पाती लेकिन धार्मिक व्यक्ति उन्हें पहचानता है। मुजरिम उन लोगों को ज़रूर क़त्ल करते हैं, जो उन्हें जुर्म करते हुए देख ले, पहचान ले और उनके खि़लाफ़ गवाही दे। मारने और बचाने के इसी काम को सत्य-असत्य का संघर्ष कहा जाता है। सत्य और असत्य का संघर्ष इमाम हुसैन रज़ि. से पहले भी हुआ है और उनके बाद आज भी हो रहा है।
हम इसे टाल नहीं सकते लेकिन चुनाव हमारे अपने हाथ में है कि हम किस पक्ष का साथ देंगे ?
इमाम हुसैन रज़ि. केवल शियाओं के ही इमाम नहीं हैं बल्कि वे सुन्नियों के भी हैं। ‘शहीदे करबला और यज़ीद’ नामक किताब एक सुन्नी आलिम की लिखी हुई किताब है। दारूल उलूम देवबन्द के संस्थापक मौलाना क़ासिम नानौतवी साहब रह. का क़ौल भी इसके पृष्ठ 85 पर दर्ज है। जो उनके एक ख़त (क़ासिमुल उलूम, जिल्द 4 मक्तूब 9 पृष्ठ 14 व 15) से लिया गया है। इसमें मौलाना क़ासिम साहब रह. ने ‘यज़ीद पलीद’ लिखा है। 
आलिमों की अक्सरियत ने यज़ीद को फ़ासिक़ माना है और जिन आलिमों पर यज़ीद की नीयत भी खुल गई। उन्होंने उसे काफ़िर माना है। इमाम अहमद बिन हम्बल रहमतुल्लाह अलैहि एक ऐसे ही आलिम हैं। सुन्नी समुदाय में उनका बहुत बड़ा रूतबा है। इस किताब के पृष्ठ 109 पर इस बात का भी तज़्करा है।
इमाम हुसैन शिया और सुन्नी के लिए ही इमाम (मार्गदर्शक) नहीं हैं बल्कि हरेक इंसान के लिए मार्गदर्शक हैं। जो सत्य का मार्ग देखना चाहे, वह उनकी जीवनी पढ़े और ग़ौर व फ़िक्र करे कि ऐसे महान मार्गदर्शक से हम कितना लाभ उठा पाए हैं और कितना लाभ उठा सकते हैं?
आतंकवाद को समाप्त करना है तो इमाम हुसैन रज़ि. की ज़िन्दगी को जाने बिना चारा ही नहीं है वर्ना आतंकवाद को ख़त्म करने के नाम पर उन कमज़ोरों और ग़रीबों को ख़त्म किया जाता रहेगा जिनका आतंकवाद से कोई रिश्ता ही नहीं है। इससे आतंकवाद पहले से ज़्यादा भीषण रूप लेता चला जाएगा।
आज यही हो रहा है और यह सब जानबूझ कर किया जा रहा है।
इमाम हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की शहादत के क़िस्से का ज़िक्र कोई धार्मिक रस्म महज़ नहीं है बल्कि यह ज़माने की एक ज़रूरत है। यह एक आईना है। जिसमें हर शख्स अपना और अपने लीडरों को चेहरा देख सकता है। चाहे उसे कितने ही ख़ूबसूरत नक़ाब से क्यों न ढक दिया हो!
इमाम हुसैन रज़ियल्लाहु इंसानियत के दुश्मनों को पहचानने की नज़र रखते थे। उन्होंने अपनी शहादत के ज़रिये हमें अपनी नज़र (दृष्टि) और अपना नज़रिया सब कुछ अता कर दिया है। अब कोई अंधा न रहेगा सिवाय उसके जिसे सत्य का विरोध ही करना है।

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