रफ़्ता- रफ़्ता जुगनुओं के पर कतर जाएगी रात

जब रसूलुलल्लाह (स.अ.) ने इस्लाम मुकम्मल किया तो उस समय अरब में पहले से चार ताक़तें मौजूद थीं। इन ताक़तों में पहली ताक़त लातो मनातो उज़्...

जब रसूलुलल्लाह (स.अ.) ने इस्लाम मुकम्मल किया तो उस समय अरब में पहले से चार ताक़तें मौजूद थीं। इन ताक़तों में पहली ताक़त लातो मनातो उज़्ज़ा के मानने वाली थी, दूसरी ताक़त यहूदी थे और तीसरी ताक़त ईसाई थे। इसके अलावा चौथी ताक़त वह अल्प संख़्यक थे जो जनाबे इब्राहीम (अ.स) को अपना क़ौमी हीरो समझते थे और उनकी रीति पर चलते थे| लातो मनातो उज़्ज़ा ,यहूदी और ईसाई ताक़तों ने कभी खुलेआम कभी पीठ पीछे इस्लाम का ज़बरदस्त विरोध किया, मगर नाकामी हाथ आई। लेकिन यह तीनों ताक़तें इस्लाम के मुक़ाबले में अपनी हार को कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पायी | आज १४३२ साल बाद दुनिया का नक़्शा कुछ इस तरह़ का है कि लगभग 57 मुसलमान मुल्क हैं लगभग 25 ईसाई मुल्क हैं ,10 10 बुद्धिस्ट मुल्क हैं और एक यहूदी मुल्क है। इसके अलावा और बहुत से छोटे छोटे मुल्क हैं। यु एन ओ आज दुनिया के सारे मामलों में आखिरी फैसला किया करती है लेकिन यह भी इतिहास है कि यू. एन. ओ. के या इन्टरनेशनल एटमिक इनर्जी एजेन्सी के अब तक के सभी सेक्रेटरी उसी मुल्क के निवासी होते हैं, जिनकी ह़ुकूमतें अमरीका के इशारे पर चलती हैं। यु एन ओ के १९३ देश मेम्बर हैं जिनमे से ५ देश (४ ईसाई और एक बुद्धिस्ट) बुद्धिस्ट मुल्क को वीटो का ह़क़ ह़ासिल है |






हम अगर पिछली 30- 40 सालों के इतिहास पर निगाह डालें तो हमें दिखाई देगा कि अमरीकी ताक़तों ने मुसलमानों की ताक़त को कम करने की कोशिश लगातार जारी है |इसके लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं | कभी ताक़त का इस्तेमाल तो कभी दौलत का इस्तेमाल किया गया | इराक और इरान का ही उदाहरण ले लीजिये जब इराक़ के सद्दाम ह़ुसैन ने ईरान पर 8 साला जंग थोपी तो सऊदी अरब और कुवैत की ह़ुकूमत उसे पैसा उपलब्ध करा रही थीं, अमेरिका और ब्रिटेन उसे हथियार दे रहे थे। उसके बाद इराक़ पर जब अमेरिका ने पहली बार हमला किया तो सऊदी अरब और कुवैत ने न केवल हमलावार फ़ौजों को अपनी ज़मीन हमले के लिए दी, बल्कि अमेरिका का भरपूर सहयोग भी किया।दूसरी बार अमेरिका ने अपने घटक दलों के साथ इराक़ पर हमला किया तो फ़िर क़त़र, बह़रैन, सऊदी अरब और कुवैत ने अमेरिका का भरपूर साथ दिया | आज विश्व भर में मुसलमान देशों में जो जनसंहार हो रहा है उसमे उन देशों में बाहरी ताक़तों का असर देखा जा सकता है |





केवल इतना ही नहीं बल्कि इस्लाम की छवि विश्व में खराब करने के लिए भी तरह तरह के हथकंडे अपनाये गए और आज भी अपनाए जा रहे हैं जिसमे रसूले इस्लाम (स.अ.) के कार्टून छापना ,मुस्लिम माहिलाओं के स्कार्फ पे पाबन्दी लगाना ,इत्यादि एक लम्बी लिस्ट है |इसका एक ही मक़सद है कि मुसलमानों की इमेज को सारी दुनिया में ख़राब किया जाये, मुसलमानों की ज़्यादा से ज़्यादा संख्या को क़ुर्आनी शिक्षाओं से दूर कर दिया जाये।





मुसलमानों के मुजतहिद और उलेमाओं को अब यह समझ में आने लगा है कि उनका फिरकों में बाँटना भी ऐसी ही एक साज़िश थी जिसका फायदा आज भी इस्लाम और मुसलमान की ताक़त को कम करने के लिए किया जा रहा है | इसीलिये उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया है की आपस में साम्प्रदायिक मतभेदों के बावजूद एकता को मज़बूती दें।

सह़ीह बुख़ारी पहली जिल्द किताबुस्सलात में रसुलुल्लाह (स.अ.) की एक ह़दीस दो ह़वालों से दर्ज है कि ... जिसने हमारा कलमः पढ़ा हमारी तरह़ क़िबले की तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ी और हमारे हाथ का ज़बीहा खाया, वह मुसलमान है।




23 फ़रवरी 2012 को भोपाल से प्रकाशित होने वाले उर्दू दैनिक नदीम में यह ख़बर छपी है कि मिस्र के शैख़ुल अज़हर ने कहा कि बेदीन पश्चिम और ईसाईयों से बात करने के बजाये शीअः और सुन्नी बुज़ुर्ग शख़्सीयतें आपस में बातचीत करें। उन्होंने यह भी कहा कि शीअः मुसलमान हैं और शीओं और सुन्नियों दोनों में केवल फुरुएदीन में इख़्तिलाफ़ है और यह दोनों इस्लामी फ़िर्क़े कलिमए शहादतैन के क़ायल हैं।

शिया फिरके के मुजतहिद अयातुल्लाह सीस्तानी और अयातुल्लाह खामेनाई ने भी यही कहा की शिया और सुन्नी में कोई फर्क नहीं है और दोनों को एक साथ मिल कर चलना चाहिए |हम शैख़ुल अज़हर, अयातुल्लाह सिस्तानी, अयातुल्लाह खामेनई की अद्ल व इंसाफ़ पर आधारित इन बातों को सम्मान की निगाह से देखते हैं और उनका हार्दिक आभार व समर्थन करते हैं। क्योंकि अगर हम एक न हुए और आपस में लड़ते रहे तो कुछ यूँ होगा कि जैसा कि किसी शायर ने कहा है किः



मुत्तहिद होकर न सूरज की तरह़ चमके तो फ़िर
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