google.com, pub-0489533441443871, DIRECT, f08c47fec0942fa0 लोगों को सुधारने की शैलियों में से एक क्षमाशीलता व दान है। | हक और बातिल

लोगों को सुधारने की शैलियों में से एक क्षमाशीलता व दान है।

कुछ लोग लापरवाही, घमंड और ईर्ष्या या किसी और कारण से दूसरों की अच्छाइयों की सराहना और उन्हें प्रेरित नहीं करते। इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे होते...

M_Id_118944_K_S_Sudarshan_with_Shia_Cleric_Maulana_Hamidul_Hasanकुछ लोग लापरवाही, घमंड और ईर्ष्या या किसी और कारण से दूसरों की अच्छाइयों की सराहना और उन्हें प्रेरित नहीं करते। इसके विपरीत कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बड़ी सहजता से दूसरों की प्रशंसा व सराहना करते हैं। ऐसे लोगों के लिए दूसरों को प्रेरित करना कठिन कार्य नहीं लगता बल्कि वे इस कार्य से आनंदित होते हैं।

मनुष्य को स्वाभाविक रूप से दूसरों की ओर से प्रेरणा की आवश्यकता होती है। दूसरों की ओर से प्रेरणा व्यक्ति की प्रगति में बहुत प्रभावी होती है और उसे आशा व मनोबल प्रदान करती है। इस बात का उल्लेख करना उचित लगता है कि दूसरों को सराहना और उन्हें प्रेरित करने की कुछ शर्तें हैं जिसका पालन करना चाहिए वरना संभव है कि दृष्टिगत परिणाम न निकले।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम लोगों को प्रेरित करने की शर्तों के पालन के बारे में मालिक अश्तर नामक अपने एक साथी से कहते हैः तुम्हारे निकट सदाचारी व चरित्रहीन एक जैसा न हो क्योंकि इस व्यवहार से सदाचारियों की भले कार्य में रुचि नहीं रहेगी और चरित्रहीनों की बुरे कर्मों में और रूचि बढ़ेगी।

जब आप किसी व्यक्ति को प्रोत्साहित करें तो स्पष्ट ढंग से करें। दूसरे शब्दों में आपकी प्रेरणा का पात्र बनने वाला व्यक्ति इस बात से अवगत हो कि किस कार्य के लिए उसकी सराहना की जा रही है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैः प्रंशसा व सराहना सीमा से अधिक चापलूसी समझी जाती है और सही व्यक्ति की उसके कर्म की तुलना में कम सराहना या प्रंशसा ईर्ष्या या अक्षमता की सूचक है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह कथन, सही कर्म और उसके अनुसार प्रशंसा की आवश्यकता पर बल देते हुए इसके पीछे छिपी वास्तविकता की ओर भी संकेत करता है। प्रशंसा या सराहना में अतिश्योक्ति, कर्म की गुणवत्ता व मूल्य से अनभिज्ञता के कारण होती है या फिर चापलूसी है जो अपने आप में अच्छा कर्म नहीं है। किसी व्यक्ति की उसके सदकर्म की तुलना में कम सराहना करना, प्रशंसा करने वाले व्यक्ति की अक्षमता के कारण है या प्रंशसा करने वाले की ईर्ष्या को दर्शाती है।

प्रोत्साहन देना, प्रशिक्षण के प्रभावी साधनों में से एक है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि किसी को प्रोत्साहित करना उस पर दो मार्गों से प्रभाव डालता है। एक तो यह कि जिस व्यक्ति को प्रोत्साहन के रूप में उपहार दिया जाता है तो उसके मन में उपहार देने वाला घर कर लेता है जिससे दोनों के बीच मित्रता पैदा हो जाती है या अगर पहले से मित्रता हो तो वह और प्रगाढ़ हो जाती है। यह घनिष्ठ संबंध इस बात का कारण बनते हैं जिस व्यक्ति को प्रोत्साहित किया जा रहा है वह उपहार देने वाले व्यक्ति की बातों को और अच्छे ढंग से स्वीकार करे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैः लोगों के मन उस व्यक्ति की ओर स्वाभाविक रूप से झुकते हैं जिसने उनके साथ अच्छाई की है और जिसने उनके साथ बुराई की है उससे शत्रुता रखते हैं।

 

पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन प्रशिक्षण के लिए, प्रोत्साहन की शैली का बहुत प्रयोग करते थे। इतिहास में है कि पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्रों में से एक पौत्र इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के पास एक व्यक्ति बारंबार आता और उन्हें बुरा-भला कहता था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के निकटवर्तियों ने जब यह देखा तो इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से कहा कि हमें अनुमति दीजिए कि इस व्याभिचारी को मार डालें। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने उन्हें रोका और उस व्यक्ति के कार्यस्थल व खेत का पता पूछा और फिर सवारी द्वारा उसके खेत पर गए। जब उस व्यक्ति ने देखा कि इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम अपने कुछ साथियों के साथ आ रहे हैं तो वह चिल्लाते हुए कहने लगाः मेरे खेत के बीच से मत आओ, तुम लोग मेरे कृषि उत्पाद को कुचल रहे हैं। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम उस व्यक्ति के निकट गए और उसके पास बैठकर पूछाः तुमने खेती पर कितना ख़र्च किया है? उस व्यक्ति ने कहाः सौ दीनार। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने पूछाः कितनी आय की आशा रखते हो? उस व्यक्ति ने कहाः दो सौ दीनार। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः ये तीन सौ दीनार ले लो और खेत भी तुम्हारी संपत्ति रहे। ईश्वर से जिस चीज़ की तुम्हे आशा है वह तुम्हें प्रदान करेगा। उस व्यक्ति ने पैसा लिया और फिर इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के माथे को चूमा। इमाम मुस्कुराए और पलट आए।

अगले दिन जब इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम मस्जिद पहुंचे तो वह व्यक्ति वहां बैठा हुआ था। जब उसने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को देखा तो पवित्र क़ुरआन के सूरए अनआम की आयत क्रमांक 124 की तिलावत की जिसका अनुवाद हैः ईश्वर बेहतर जानता है कि किसे अपनी पैग़म्बरी का पात्र बनाए।

साथियों ने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से कहाः पहले क्या कहा करता था और आज क्या कह रहा है। पहले बुरा-भला कहता था और आज प्रशंसा कर रहा है।

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने साथियों से कहाः आप लोगों ने कहा था कि मैं आप लोगों को इस व्यक्ति को जान से मारने की अनुमति दूं किन्तु मैंने उपहार स्वरूप कुछ पैसों से इस व्यक्ति को सुधार दिया। लोगों को सुधारने की शैलियों में से एक क्षमाशीलता व दान है।

दूसरी ओर जिस व्यक्ति के साथ भलाई की जा रही है उसे उपहार और प्रोत्साहन दिया जा रहा है ऐसे व्यक्ति के मन में उस मार्ग पर चलने की भावना जागृत होती है जिसके लिए उसे प्रोत्साहित किया जाता है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने भी अपनी पैग़म्बरी की घोषणा से पहले अपने संबंधियों को इकट्ठा कर उन्हें खाना खिलाया था और फिर अपनी पैग़म्बरी की घोषणा की थी किन्तु पैग़म्बरे इस्लाम के संबंधियों में से कुछ उन पर ईमान नहीं लाए। इसका कारण मूर्तिपूजा की ओर झुकाव, और अपने व्यक्तिगत हितों के ख़तरे में पड़ने जैसे कुछ तत्व थे।

प्रोत्साहन के संबंध में यह बिन्दु महत्वपूर्ण है कि प्रोत्साहन केवल भौतिक स्वरूप तक सीमित नहीं है बल्कि प्रोत्साहन के संबंध में भौतिक व आत्मिक दोनों आयामों पर ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि मनुष्य के व्यक्तित्व के भौतिक व आत्मिक दोनों आयाम होते हैं और कभी कभी तो आत्मिक प्रशंसा भौतिक प्रोत्साहन से अधिक प्रभावी होती है।

यह बिन्दु भी महत्वपूर्ण है कि इस्लाम की दृष्टि में उपहार और प्रोत्साहन देना चाहे भौतिक या आत्मिक हो, एक प्रशंसनीय कर्म है इसलिए जो व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को प्रोत्साहित करता है वह ईश्वर के निकट उच्च स्थान पाता है। जैसा कि ईश्वर क़ुरआन में फ़रमता हैः सदकर्म करो कि ईश्वर सदकर्मियों को पसंद करता है।

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  1. Nice post.

    आपके बोल हैं प्यारे प्यारे
    लेकिन हमारा लिंक है न्यारा न्यारा
    यक़ीन न आए तो ख़ुद देख लीजिए
    बिना लाग लपेट के सुना रही हैं खरी खरी Lady Rachna

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