नास्तिकों के साथ ईश्वर में आस्था रखने वाले भी मर जाते हैं।
हम इंसान इस दुनिया मैं रहने वाले सब से अक्लमंद कहलाते हैं. किसी भी बात को मानलेना या उससे इनकार करदेना यह इंसान कि अपनी अक्ल पर निर्भर करता ...
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हम इंसान इस दुनिया मैं रहने वाले सब से अक्लमंद कहलाते हैं. किसी भी बात को मानलेना या उससे इनकार करदेना यह इंसान कि अपनी अक्ल पर निर्भर करता है. जिसके पास जितना ज्ञान और अक्ल हुआ करती है वैसे ही फैसले वो लेता है. कुछ लोग जो किसी अल्लाह या इश्वर को नहीं मानते उनका कहना है कि नास्तिकों के साथ ईश्वर में आस्था रखने वाले भी मर जाते हैं. बात तो उनकी सही है लेकिन यह नहीं समझ पाते कि आखिर यह हर इंसान मर क्यों जाता है? और वो भी ऐसी मौत जिसपे इंसान आज तक काबू ना कर सका.
हम चाँद पे पहुँच गए, टीवी ,इन्टरनेट जैसी सुविधाओं कि इजाद कर चुके लेकिन अपने बूढ़े होने को ना रोक सके और ना ही मौत का समय तै कर सके. ऐसा इसलिए है कि हम अल्लाह के बनाए निजाम को नहीं बदल सकते. यह हमारी ताक़त के बाहर कि बात है. लेकिन चलिए यह भी सत्य है कि हर बात मैं बहस का कोई मतलब नहीं हुआ करता. यदि सामने वाले कि बात माँ भी ली जाए तो भी एक सवाल किसी भी अक्ल मंद इंसान के दिमाग मैं अवश्य आएगा कि क्या मानने मैं उसका फायदा.
एक इंसान पैदा हुआ और एक दिन अपने तरीके से जीते हुए मर गया. अब ना उसका कोई हिसाब होना है और ना सवाल क्यों कि इन लोगों के अनुसार कोई खुदा नहीं. दूसरा इंसान पैदा हुआ जो खुदा को मानता था, वो अल्लाह के बताए रस्ते पे चला, गुनाहों से बचा ,अल्लाह कि ख़ुशी के लिए जिया. और एक दिन मर गया.
दोनों का फायदा और नुकसान देख लें .
मान लो यदि कोई खुदा नहीं तो यह इंसान जिसने अल्लाह के बताए रास्ते पे चलते हुई ज़िंदगी गुजारी उसका क्या नुकसान हुआ? यही कि जीवन मैं थोडा सा कष्ट सहा और शराब नहीं पी, बलात्कार नहीं किया, झूट नहीं बोला, गरीबों कि मदद कि , नमाजें पढी ,रोज़ा रखा इत्यादि
और जिसने इश्वर को नहीं माना उसने क्या पाया ? यही कि नमाज़ नहीं पढनी पडी, दुनिया मैं जिस चीज़ का मज़ा चाहा लेता रहा,जैसे दिल चाहा जीता रहा. बाकी दोनों को मरना था सो मर गए. सब ख़त्म.
अब मान लो कि अल्लाह , इश्वेर है और दोनों के मरने पे हिसाब किताब हुआ तो जिसने अल्लाह के होने से इनकार किया था उसका क्या होगा? नरक मिलेगा और वो भी ऐसी सजा कि जिस से बचना संभव ना होगा और यह सजा दुनिया मैं नमाज़, रोज़ा, और सत्य बोलने से अधिक कष्ट दायक होगी.
अक्लमंद इंसान के लिए अल्लाह के वजूद को मान ने कि बहुत सी दलीलें हैं और अगर कोई फाएदे और नुकसान कि ही बोली समझता है तो अल्लाह को मानने मैं ही फ़ाएदा नजर आता है.
हम चाँद पे पहुँच गए, टीवी ,इन्टरनेट जैसी सुविधाओं कि इजाद कर चुके लेकिन अपने बूढ़े होने को ना रोक सके और ना ही मौत का समय तै कर सके. ऐसा इसलिए है कि हम अल्लाह के बनाए निजाम को नहीं बदल सकते. यह हमारी ताक़त के बाहर कि बात है. लेकिन चलिए यह भी सत्य है कि हर बात मैं बहस का कोई मतलब नहीं हुआ करता. यदि सामने वाले कि बात माँ भी ली जाए तो भी एक सवाल किसी भी अक्ल मंद इंसान के दिमाग मैं अवश्य आएगा कि क्या मानने मैं उसका फायदा.
एक इंसान पैदा हुआ और एक दिन अपने तरीके से जीते हुए मर गया. अब ना उसका कोई हिसाब होना है और ना सवाल क्यों कि इन लोगों के अनुसार कोई खुदा नहीं. दूसरा इंसान पैदा हुआ जो खुदा को मानता था, वो अल्लाह के बताए रस्ते पे चला, गुनाहों से बचा ,अल्लाह कि ख़ुशी के लिए जिया. और एक दिन मर गया.
दोनों का फायदा और नुकसान देख लें .
मान लो यदि कोई खुदा नहीं तो यह इंसान जिसने अल्लाह के बताए रास्ते पे चलते हुई ज़िंदगी गुजारी उसका क्या नुकसान हुआ? यही कि जीवन मैं थोडा सा कष्ट सहा और शराब नहीं पी, बलात्कार नहीं किया, झूट नहीं बोला, गरीबों कि मदद कि , नमाजें पढी ,रोज़ा रखा इत्यादि
और जिसने इश्वर को नहीं माना उसने क्या पाया ? यही कि नमाज़ नहीं पढनी पडी, दुनिया मैं जिस चीज़ का मज़ा चाहा लेता रहा,जैसे दिल चाहा जीता रहा. बाकी दोनों को मरना था सो मर गए. सब ख़त्म.
अब मान लो कि अल्लाह , इश्वेर है और दोनों के मरने पे हिसाब किताब हुआ तो जिसने अल्लाह के होने से इनकार किया था उसका क्या होगा? नरक मिलेगा और वो भी ऐसी सजा कि जिस से बचना संभव ना होगा और यह सजा दुनिया मैं नमाज़, रोज़ा, और सत्य बोलने से अधिक कष्ट दायक होगी.
अक्लमंद इंसान के लिए अल्लाह के वजूद को मान ने कि बहुत सी दलीलें हैं और अगर कोई फाएदे और नुकसान कि ही बोली समझता है तो अल्लाह को मानने मैं ही फ़ाएदा नजर आता है.
मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है.
ReplyDeleteहम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है. इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है. यही हमारा दर्शन है.
जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?
कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं.
कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं. फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है.
कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है.
नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था. उसने चंद लोगों की हत्या की थी. उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए.
और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?
सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं. जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं.
एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं.
तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?
फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं?
... भगतसिंह
मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?
ReplyDeleteसर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?
इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है.
ठीक है, ठीक है. तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?
ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?
इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’
मुसलमानों और ईसाइयों. हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं. मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?
... भगतसिंह
तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है.
ReplyDeleteमैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है.
उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ. उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो.
फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है.
कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं.
और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है...उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है.’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है.
... भगतसिंह
. तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ.
ReplyDeleteऔर तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है.
तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं.
मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे.
उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है.
लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं.
न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार.
आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है.
केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है. इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है.
लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?
... भगतसिंह
तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो.
ReplyDeleteमैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?
अपने पुराणों से उदाहरण मत दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है.
मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?
क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो.
किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता.
वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं.
उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं.
मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?
और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी?
यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा?
... भगतसिंह
मेरे प्रिय दोस्तो. ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं. ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं.
ReplyDeleteजी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो.
वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं.
मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?
ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?
उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?
वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें.
... भगतसिंह
स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है. वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे?
ReplyDeleteमेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे.
अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित.
कुछ उग्र परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे.
यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं.
राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है.
ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की.
अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया.
जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए.
जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है.
इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है.
वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था. विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है.
... भगतसिंह
समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था.
ReplyDeleteइसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं.
मेरी स्थिति आज यही है. यह मेरा अहंकार नहीं है.
मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी.
मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ.
देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ. मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा.
जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा. ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी.
स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा.’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ.
... भगतसिंह
मासूम भाई!
ReplyDeleteआप ने मेरी टिप्पणियाँ यहाँ प्रदर्शित नहीं की हैं। शायद आप इस विषय पर बहस नहीं चाहते। कोई बात नहीं। लेकिन भगतसिंह ने न केवल कहा था। बल्कि तर्क भी दिए थे कि वे नास्तिक क्यों हैं? आप के मुताबिक तो उन्हें जरूर दोज़ख ही नसीब हुई होगी। यदि ऐसा है तो मैं भी उसी दोज़ख में जाना चाहता हूँ। आप का अल्लाह आप को हूरों के पास जन्नत बख़्शे।
.
ReplyDelete.
.
अब मान लो कि अल्लाह , इश्वेर है और दोनों के मरने पे हिसाब किताब हुआ तो जिसने अल्लाह के होने से इनकार किया था उसका क्या होगा? नरक मिलेगा और वो भी ऐसी सजा कि जिस से बचना संभव ना होगा
दिनेश राय द्विवेदी जी की टिप्पणी पर आपकी प्रतिटिप्पणी का इंतजार रहेगा...
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एक सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष जो आप इस स्वर्ग-नर्क-फैसले की अवधारणा से निकाल सकते हैं वह यह है कि Free Will यानी किसी इंसान की स्वतंत्र इच्छा पर ईश्वर का कोई नियंत्रण नहीं है क्योंकि यदि होता तो पृथ्वी का हर इंसान 'उस' का ही कहा मानता और 'फैसले' की कोई जरूरत ही नहीं होती ।
धर्म अपने पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह देता है कि 'फैसले' के खौफ से ज्यादातर इन्सान नियंत्रण में रहते हैं क्योंकि वो नर्क की आग से डरते हैं और स्वर्ग के सुख भोगना चाहते हैं... इसका एक सीधा मतलब यह भी है कि अधिकाँश Hypocrite= ढोंगी,पाखण्डी अपने मूल स्वभाव को छुपाकर, अपनी अंदरूनी नीचता को काबू कर, नियत तरीके से 'उस' का नियमित Ego Massage करके स्वर्ग में प्रवेश पाने में कामयाब रहेंगे...
और एक बार स्वर्ग पहुंच कर मानवता की यह गंदगी (Scum of Humanity) अपने असली रूप में आ जायेगी... क्योंकि इनकी Free Will (स्वतंत्र इच्छा) पर 'उस' का कोई जोर तो चलता नहीं!
और कुछ समय बाद Hypocrite= ढोंगी,पाखण्डी मानवता की यह गंदगी (Scum of Humanity) जन्नत को जहन्नुम से भी बुरा बनाने में कामयाब हो जायेगी।
फिर आप ही सोचो कि, होंगे कितने फैसले... और कितनी बार कयामत होगी ?
...
दिनेशराय द्विवेदी जी @ आपने भगत सिंह का एक पुराना लेख जो इन्टरनेट पे मोजूद है पेश किया ,जिसका जवाब बहुत से लोग दे चुके हैं. इसको पेश करने पे मैं यह मान के चलता हूँ कि यह आप के भी विचार हैं.
ReplyDeleteजैसा मैंने कहां कि हर इंसान अपने ज्ञान और अक्ल के मुताबिक ही चीज़ों को समझता और मानता है. इसलिए मैं आपके विचारों कि इज्ज़त तो अवश्य करता हूँ लेकिन सहमत नहीं. और जो और लोगों ने भगत सिंह के इन सवालों का जवाब दिया है उसको कॉपी पेस्ट करना भी ठीक नहीं समझता. यह और बात है कि मेरे लेख मैं दी गयी दलीलों का आपने कोई जवाब नहीं दिया. जिस से ऐसा लगता है कि आप को जो भी दलील दी जाएगी आप सहमत नहीं होंगे. और ऐसी हालत मैं मेरे जवाब देने का कोई मतलब नहीं होगा . समय कि बर्बादी ही होगी.
फिर भी कोशिश करता हूँ कि एक बार फिर से कुछ समझा सकूँ और यदि इसके बाद भी ना समझ आये तो कोई आपत्ति भी नहीं. आखिर आप के ईमान का जवाब मुझे तो देना नहीं हैं.
सबसे पहले तो यह समझ लें कि अल्लाह या इश्वेर है कौन और कहाँ है?
एक इंसान नदी मैं एक नाव पे जा रहा था कि उसकी नाव बीच नदी मैं डूबने लगी , उसकी पकड़ मैं एक लकड़ी आ गयी उसी के सहारे तेर के जाने लगा, इतने मैं एक लहर आयी और वो लगदी भी हाथ से छूट गयी. अब वो इंसान डूबने लगा कोई सहारा ना मिला आस पास ,जब उसे यकीन हो गया कि अब वो डूब जाएगा तो उसका हाथ दुआ के लिए उठा और उसने मदद मांगी उस से जो ना दिखाए देता था और जिस से उसकी कभी मुलाक़ात भी नहीं थी. यही खुदा है. जब कोई सहारा ना रहे और इंसान किसी कि तरफ उम्मीद से देखे तो उस ताक़त को अल्लाह कहते हैं.
दूसरी बात यह कि यह दुनिया बिना किसी ताक़त के नहीं चल सकती. कोई तो इसे चलाता ही है? वरना आज इंसान मौत पे काबू पा चुका होता.
http://tehalkatodayindia.blogspot.com/2010/11/blog-post.html
शाहनवाज़ सिद्दीकी का सवाल और जवाब मनुष्य दुनिया में आया क्यों है?” पढ़ें तो आप को अपने कुछ सवालों का जवाब भी मिल जाएगा.
http://islamhindi.com/2010/11/aim-of-life/
सृष्टि के मैदान में खुदा की निशानियाँ http://islamhindi.com/2011/04/allah-ka-wajood-and-science-part-18/
इन लेखों के सहारे मैंने कोशिः कि है कि आप शायद कुछ समझें और यदि नहीं समझें तो कुछ और सवाल करें जिनका जवाब दिया जा सके.
मनुष्य के मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि सृष्टि का आरंभ कब हुआ? कैसे हुआ? हर मनुष्य के मन में उठता रहा है यह प्रश्न कि क्या कोई वस्तु बिना किसी बनाने वाले के बन सकती है? यह हमेशा से एक सवाल रहा की चाँद, सितारे, आकाशगंगाएं, पृथ्वी, पर्वत, जंगल, पशु, पक्षी, मनुष्य, जीव-जन्तु यह सब कहाँ से आए और कैसे बने?
ReplyDeleteअल्लामा हिल्ली एक बहुत प्रसिद्ध बुद्धिजीवी थे। उनके काल में एक नास्तिक बहुत प्रसिद्ध हुआ। वह बड़े बड़े आस्तिकों को बहस में हरा देता था, उसने अल्लामा हिल्ली को भी चुनौती दी। बहस के लिए एक दिन निर्धारित हुआ और नगरवासी निर्धारित समय और निर्धारित स्थान पर इकट्ठा हो गए। वह नास्तिक भी समय पर पहुंच गया, किन्तु अल्लामा हिल्ली का कहीं पता नहीं था।
काफ़ी समय बीत गया लोग बड़ी व्याकुलता से अल्लामा हिल्ली की प्रतीक्षा कर रहे थे कि अचानक अल्लामा हिल्ली आते दिखाई दिए। उस नास्तिक ने अल्लामा हिल्ली से विलंब का कारण पूछा तो उन्होंने विलंब के लिए क्षमा मांगने के पश्चात कहा कि वास्तव में मैं सही समय पर आ जाता, किन्तु हुआ यह कि मार्ग में जो नदी है उसका पुल टूटा हुआ था और मैं तैर कर नदी पार नहीं कर सकता था, इसलिए मैं परेशान होकर बैठा हुआ था कि अचानक मैंने देखा कि नदी के किनारे लगा पेड़ कट कर गिर गया और फिर उसमें से तख़्ते कटने लगे और फिर अचानक कहीं से कीलें आईं और उन्होंने तख़्तों को आपस में जोड़ दिया और फिर मैंने देखा तो एक नाव बनकर तैयार थी। मैं जल्दी से उसमें बैठ गया और नदी पार करके यहाँ आ गया।
अल्लामा हिल्ली की यह बात सुनकर नास्तिक हंसने लगा और उसने वहाँ उपस्थित लोगों से कहाः "मैं किसी पागल से वाद-विवाद नहीं कर सकता, भला यह कैसे हो सकता है? कहीं नाव, खुद से बनती है?" यह सुनकर अल्लामा हिल्ली ने कहाः "हे लोगो! तुम फ़ैसला करो। मैं पागल हूँ या यह, जो यह स्वीकार करने पर तैयार नहीं है कि एक नाव बिना किसी बनाने वाले के बन सकती है, किन्तु इसका कहना है कि यह पूरा संसार अपने ढेरों आश्चर्यों और इतनी सूक्ष्म व्यवस्था के साथ स्वयं ही अस्तित्व में आ गया है"। नास्तिक ने अपनी हार मान ली और उठकर चला गया।
इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस सृष्टि का कोई रचयिता है, क्योंकि कोई भी वस्तु बिना बनाने वाले के नहीं बनती। बनाने वाले को पहचानने के लिए विभिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न मार्ग अपनाना पड़ता है। धर्मों में विविधता का कारण यही है। बुद्धि कहती है कि ईश्वर और परलोक की बात करने वालों पर विश्वास किया जाए, क्योंकि अविश्वास की स्थिति में यदि उनकी बातें सही हुईं तो बहुत बड़ी हानि होगी।
प्रवीण शाह @ सबसे पहले तो आने का शुक्रिया. और दूसरा आप के विचार आप के हैं और काबिल इ इज्ज़त हैं . बस आपसे सहमत नहीं हूँ मैं.
ReplyDeleteअल्लाह ने ही इंसान को बनाया है और वो जैसा चाहता वैसा बना सकता था. अल्लाह ने कहा ऐ इंसान मैंने तुम्हें आज़ाद बनाया है और तुम्हारे लिए एक कानून कि किताब भी दी है कुरान कि शक्ल मैं. तुम्हें इस दुनिया मैं उसी पे चलना है लेकिन फिर भी तुम आज़ाद हो इस बात के लिए कि मेरी दी हिदायतें ना मानो,क्यों कि लौट के दुनिया वापस आना है और वो भी मेरी मर्ज़ी से. वंही पे तुमसे सवाल करूँगा.
अल्लाह ने कहा तुम्हारा काबू तुम्हारे दुनियावी कामो पे तो दिया लेकिन मौत पे नहीं दिया. इसी लिए इंसान दुनिया के सारे मज़े तो ले सकता है लेकिन उसी समय तक जब तक मौत ना आये . क्या यह सुबूत नहीं कि अल्लाह ने जहां इंसान को आज़ादी देनी चाही दी और जिस बात कि आज़ादी नहीं देनी चाही नहीं दी?
इसी लिए आज का इंसान शैतान तो आसानी से बन जाता है, ज़ालिम भी आसानी से बन जाता है, पैसे और शोहरत पाने पे अँधा भी हो जाता है, यहाँ तक कि नास्तिक भी बन जाता है लेकिन मौत के काबू नहीं कर पाता. क्योंकि मौत को वश मैं करने कि ताक़त इंसान को अल्लाह ने नहीं बक्शी.
सवालों का अंत नहीं है लेकिन यदि शक हो तो सवाल करें
एक इंसान ने हजरत अली (अ.स) से पूछा कि इस दुनिया मैं मेरी ताक़त कितनी है और किस जगह पे मैं अल्लाह का मोहताज हूँ. हजरत अली (अ.स) ने कहा एक पैर पे खड़े हो जाओ. वो इंसान खड़ा हो गया. हजरत अली ने फ़रमाया यह तुम्हारी ताक़त के अंदर कि बात है.
फिर उस इंसान को हुक्म दिया दोनों पैर उठा के खड़े हो जाओ हवा मैं. उस इंसान ने कहा मुमकिन नहीं. हजरत अली (अ.स) ने कहा यह तुम्हारी ताक़त मैं नहीं. इसी तरह एक इंसान बहुत जगह पे आज़ाद छोड़ा गया और बहुत सी जगह पे उसकी ताक़त छीन ली गए. आज भी और हमेशा जो ताक़त उसे नहीं दी गयी वो नहीं पा सकेगा.
नास्तिक भाई एक ओर तो यह दावा करते हैं कि वे प्रकृति को मानते हैं और यह भी कि वे विज्ञान को मानते हैं लेकिन हक़ीक़त यह है कि उनके मन में नास्तिकता के जो विचार जड़ जमा चुके हैं उनके सामने वे न तो विज्ञान को मानते हैं और न ही प्राकृतिक नियमों को।
ReplyDeleteपिछले दिनों आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी ने हमारी एक पोस्ट पर टिप्पणी की और अपने नास्तिक मत का तज़्करा करते हुए हमसे सवाल किया था। जिसका हमने उचित जवाब दे दिया था। जिसे आप यहां देख सकते हैं
‘न्याय की आशा‘
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/06/dr-anwer-jamal_09.html?showComment=1307680536280#c5702272194528298168
सवाल हल हो चुकने के बावजूद आज उन्होंने फिर वही सवाल दोहरा दिया। अंतर केवल इतना है कि पहले सवाल उन्होंने अपने शब्दों में किया था और इस बार उन्होंने भगत सिंह को उद्धृत किया है
भगत सिंह के दिमाग़ में अगर नास्तिकता भरे सवाल उठे तो उसके पीछे एक बड़ी वजह तो यह रही कि उस समय तक लोगों का ख़याल था कि ईश्वर, आत्मा और धर्म में विश्वास माहौल की देन है लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक रिसर्च के बाद यह हक़ीक़त सामने आई है कि यह इंसान की प्रकृति का अभिन्न अंग है। जो चीज़ इंसान की प्रकृति का अभिन्न अंग है, नास्तिक लोग उससे पलायन कैसे कर सकते हैं और करना ही क्यों चाहते हैं ?
फिर प्रकृति को मानने के दावे का क्या होगा ?
ईश्वर और धर्म के नाम पर पुरोहित वर्ग ने कमज़ोर वर्गों का शोषण किया, इसलिए लोगों को ईश्वर और धर्म से विरक्ति हो गई। अगर इस बात को सही मान लिया जाए तो फिर ईश्वर और आत्मा को न मानने वाले दार्शनिकों के विहारों में भी जमकर अनाचार हुआ और नास्तिक राजाओं ने भी जमकर अत्याचार किया। इससे ज़ाहिर है कि नास्तिकता लोगों के दुखों का हल नहीं है बल्कि यह उनके दुखों को और भी ज़्यादा बढ़ा देती है। अगर ऐसा नहीं है तो किसी एक नास्तिक शासक के राज्य का उदाहरण दीजिए, जहां लोगों की बुनियादी ज़रूरतें किसी धर्म आधारित राज्य से ज़्यादा बेहतर तरीक़े से पूरी हो रही हों ?
हक़ और बातिल की इसी पोस्ट पर प्रिय प्रवीण जी भी अपने हलशुदा सवालों को दोहरा रहे हैं। उन्हें लगता है कि ईश्वर की प्रशंसा करना उसकी ईगो को सहलाने जैसा है।
धर्म अपने पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह देता है कि 'फैसले' के खौफ से ज्यादातर इन्सान नियंत्रण में रहते हैं क्योंकि वो नर्क की आग से डरते हैं और स्वर्ग के सुख भोगना चाहते हैं... इसका एक सीधा मतलब यह भी है कि अधिकाँश Hypocrite= ढोंगी,पाखण्डी अपने मूल स्वभाव को छुपाकर, अपनी अंदरूनी नीचता को काबू कर, नियत तरीके से 'उस' का नियमित Ego Massage करके स्वर्ग में प्रवेश पाने में कामयाब रहेंगे...
और एक बार स्वर्ग पहुंच कर मानवता की यह गंदगी (Scum of Humanity) अपने असली रूप में आ जायेगी... क्योंकि इनकी Free Will (स्वतंत्र इच्छा) पर 'उस' का कोई जोर तो चलता नहीं!
हक़ीक़त यह है कि स्वर्ग-नर्क का कॉन्सेप्ट ख़ुद हिंदू संप्रदायों में भिन्न-भिन्न मिलता है। यह नज़रिया यहूदी मत, ईसाई मत और इस्लाम धर्म में भी एक समान नहीं पाया जाता। इसलिए प्रिय प्रवीण जी के सवाल से यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने स्वर्ग-नर्क के विषय में किस मत या किस धर्म की धारणा को बुनियाद बनाकर सवाल किया है ?
प्रत्येक कर्म का एक परिणाम अनिवार्य है। नेक काम का अंजाम अच्छा हो और बुरे काम का परिणाम कष्ट हो, ऐसा मानव की प्रकृति चाहती है। अगर दुनिया में सामूहिक चेतना परिष्कृत हो जाय तो दुनिया में ऐसा ही होगा लेकिन दुनिया में ऐसा नहीं होता। इसलिए दुनिया के बाद ही सही लेकिन इंसान की प्रकृति की मांग पूरी होनी ही चाहिए।
दुनिया में न्याय होता नहीं है। यह एक सत्य बात है। अब अगर लोगों को यह आशा है कि मरने के बाद उन्हें न्याय मिल जाएगा तो नास्तिक बंधु लोगों को न्याय से पूरी तरह निराश क्यों कर देना चाहते हैं ?
ऐसा करके वे समाज को कौन सी सकारात्मक दिशा देना चाहते हैं ?
जबकि ईश्वर, आत्मा और धर्म में विश्वास रखने की प्रवृत्ति इंसान की प्रकृति का अविभाज्य अंग है।
क्या नास्तिक बंधु इस नई साइंसी खोज को स्वीकार करेंगे ?
मनुष्य का मार्ग और धर्म
ReplyDeleteपालनहार प्रभु ने मनुष्य की रचना दुख भोगने के लिए नहीं की है। दुख तो मनुष्य तब भोगता है जब वह ‘मार्ग’ से विचलित हो जाता है। मार्ग पर चलना ही मनुष्य का कत्र्तव्य और धर्म है। मार्ग से हटना अज्ञान और अधर्म है जो सारे दूखों का मूल है।पालनहार प्रभु ने अपनी दया से मनुष्य की रचना की उसे ‘मार्ग’ दिखाया ताकि वह निरन्तर ज्ञान के द्वारा विकास और आनन्द के सोपान तय करता हुआ उस पद को प्राप्त कर ले जहाँ रोग,शोक, भय और मृत्यु की परछाइयाँ तक उसे न छू सकें। मार्ग सरल है, धर्म स्वाभाविक है। इसके लिए अप्राकृतिक और कष्टदायक साधनाओं को करने की नहीं बल्कि उन्हें छोड़ने की ज़रूरत है।ईश्वर प्राप्ति सरल हैईश्वर सबको सर्वत्र उपलब्ध है। केवल उसके बोध और स्मृति की ज़रूरत है।
प्राचीन धर्म का सीधा मार्ग
ईश्वर का नाम लेने मात्र से ही कोई व्यक्ति दुखों से मुक्ति नहीं पा सकता जब तक कि वह ईश्वर के निश्चित किये हुए मार्ग पर न चले। पवित्र कुरआन किसी नये ईश्वर,नये धर्म और नये मार्ग की शिक्षा नहीं देता।
सर्मपण से होता है दुखों का अन्त
ईश्वर सर्वशक्तिमान है वह आपके दुखों का अन्त करने की शक्ति रखता है। अपने जीवन की बागडोर उसे सौंपकर तो देखिये। पूर्वाग्रह,द्वेष और संकीर्णता के कारण सत्य का इनकार करके कष्ट भोगना उचित नहीं है। उठिये,जागिये और ईश्वर का वरदान पाने के लिए उसकी सुरक्षित वाणी पवित्र कुरआन का स्वागत कीजिए।भारत को शान्त समृद्ध और विश्व गुरू बनाने का उपाय भी यही है।क्या कोई भी आदमी दुःख, पाप और निराशा से मुक्ति के लिये इससे ज़्यादा बेहतर, सरल और ईश्वर की ओर से अवतरित किसी मार्ग या ग्रन्थ के बारे में मानवता को बता सकता है?
मनुष्य दुखों से मुक्ति पा सकता है। लेकिन यह इस पर निर्भर है कि वह ईश्वर को अपना मार्गदर्शक स्वीकार करना कब सीखेगा?
यहां हम यह भी याद दिलाना चाहेंगे कि पवित्र क़ुरआन धर्म के अंदर एक ज़बर्दस्त गणितीय चमत्कार भी पाया जाता है। जिसे हमने ब्लॉग जगत में प्रवेश के साथ ही सबको दिखा दिया था और प्रिय प्रवीण के द्वारा उठाए गए एक सवाल को हल करके यह भी सिद्ध कर दिया था कि ऐसा ग्रंथ रचना किसी मनुष्य के बस की बात नहीं है।सब कुछ देख कर भी आदमी सत्य को माने तो भला क्या किया जा सकता है ?
निम्न लिंक पर आप भी वह लेख और उस पर आए सवाल जवाब देख सकते हैं !!!
''पवित्र कुरआन में गणितीय चमत्कार'' quran-math-II
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@ एस.एम.मासूम साहब,
अच्छी बहस छिड़ गई है, यहाँ पर चंद बातें और कहना चाहूँगा...
१- डूबता किसी अनजाने-अनदेखे से दुआ-मदद माँगता है या नहीं यह तो पता नहीं पर इतना अवश्य पता है कि वही डूबता बच पाता है जिसकी मदद की गुहार समय से किसी तैरना जानने वाले बहादुर इंसान तक पहुंच पाती है।
२- सृष्टि का कोई न कोई रचयिता होगा ही, आपके इस तर्क पर मेरी पोस्ट सूरज, चांद, तारे, जमीन, आकाश, पेड़- पौधे, जीव जंतु... यानी सारे जगत का, कौन यह रचनाकार है ? . . . . . . आईये उस से मुलाकात करें ! देखें।
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@ डॉ० अनवर जमाल साहब,
@ "इसलिए प्रिय प्रवीण जी के सवाल से यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने स्वर्ग-नर्क के विषय में किस मत या किस धर्म की धारणा को बुनियाद बनाकर सवाल किया है ?"
स्वर्ग-नर्क-फैसले की अवधारणा कमोबेश सभी धर्मों में है इसलिये क्या 'स्वर्ग हमेशा ही स्वर्ग रहेगा ???' यह सवाल सभी के लिये है!
@ "दुनिया में न्याय होता नहीं है। यह एक सत्य बात है। अब अगर लोगों को यह आशा है कि मरने के बाद उन्हें न्याय मिल जाएगा तो नास्तिक बंधु लोगों को न्याय से पूरी तरह निराश क्यों कर देना चाहते हैं ?
ऐसा करके वे समाज को कौन सी सकारात्मक दिशा देना चाहते हैं ?"
मुझ जैसा एक संशयवादी यही चाहता/कोशिश करता है कि मानवजाति की सामूहिक चेतना का ऐसा उदय हो कि हर किसी को न्याय समय से उसके जीवनकाल में यहीं जमीं पर मिल जाये... यह निश्चित तौर पर एक सकारात्मक व आशावादी सोच है... जबकि अजन्मे-अनदेखे-अनजाने ईश्वर के फैसले तक न्याय को मुलतवी कर देना एक प्रकार का पलायनवाद व नकारात्मकता ही तो है... कम से कम मैं तो आज ऐसा ही मानता हूँ।
आभार!
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प्रवीण शाह जी @ डूबता दुआ मांगता है या नहीं यह तो मुसीबत मैं पड़ने वाला ही बता सकता है हाँ यह अवश्य है कि दुआ मांगने पे उसकी जान बचाने के लिए जरिया भी अल्लाह ही भेजता है. खुद से नहीं आता. यह बात आप नहीं समझेंगे अभी. लेकिन जब भी समझेंगे उस वक़्त मुझे याद अवश्य करेंगे.
ReplyDeleteवैसे मुझे नहीं लगता कि इस बहस का कोई हल निकलेगा क्यों कि आप जवाब देने कि जगह सवाल ही करने मैं अधिक विश्वास रख रहे हैं.
भाई जान आप क्यों ईश्वर के ऐजेंट बने फिरते हैं ? अगर वो वाकई है तो खुद क्यों नहीं आ जाता अपना अस्तित्व सिद्ध करने । क्यों बार-बार आपको ही उसका अस्तित्व सिद्ध करने की ज़रूरत पड़ती है । अब कोई पैगम्बर क्यों नहीं पैदा होते उसका पैगाम लेकर । जिन पैगम्बर की बात आप किया करते हैं हम कैसे मानलें की वो हमारे जादूगर बाबा की तरह स्वघोषित ईश्वर के अवतार या पैगम्बर नहीं थे । जिस तर्क के द्वारा आपने ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने की कोशिश की है कि किसी के बनाये बिना कोई चीज़ नहीं बन सकती तो कृपया करके यह बताए कि इस सृष्टि को बनाने वाले वो आदि पुरूष आये कहां से ? आसमान से टपक पड़े या फिर अनन्त काल से सोये हुए थे और जैसे ही निद्रा टूटी, लग गये दुनिया बनाने । दुनिया अपने आप नहीं बन सकती ऐसा विश्वास आपके भौतिक ज्ञान की कमी के कारण हैं । प्रकृति के नियम किस तरह कार्य करते हैं इसका ज्ञान आपको भली प्रकार से नहीं है । इन नियमों को भी बनाने वाला कोई नहीं है ये नियम तो प्रकृति के आचरण का विवरण मात्र हैं । इसलिए आपके अज्ञान का दूसरा नाम ही अल्लाह या ईश्वर है । जिस दिन आपकी जानकारी बढ़ जाएगी आप भी हमारी ही तरह ईश्वर या अल्लाह के बंधन से मुक्ति पा जाओगे । ये दुनिया अपने आप कैसे बन सकती है इसका जवाब भी विज्ञान दे चुका है । महान भौतिक शास्त्री स्टीफ़न हॉकिंग की नई किताब 'द ग्रैंड डिजाइन' आप यहां से The Grand Design मुफ्त में डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं ।
ReplyDeleteजब लोग नास्तिकता का दम भरते हैं तो वे रिश्तों की पवित्रता में विश्वास किस आधार पर रखते हैं ?
ReplyDeleteभाईयो और बहनो ! आदरणीय द्विवेदी जनाब मासूम साहब के लेख का अंश उद्धृत करते हुए हस्बे आदत अपनी एक पोस्ट में लिख रहे हैं कि आस्तिक डरते हैं। हमने उनके जवाब में एक कमेंट उनकी पोस्ट पर कर दिया। उसे पढ़ते ही वह तुरंत डर गए और हमारा कमेंट डिलीट कर डाला। यह इस स्तर के बुद्धिजीवी हैं कि अपनी दूसरों की मान्यताओं पर हमले करने में तो हिचकेंगे नहीं और अगर ख़ुद उनकी ही मान्यता ढेर होने लगे तो उस विचार को सामने आने नहीं देंगे।
आप भी देखिए हमारा कमेंट। हमने कहा था :
आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी ! दोज़ख़ इस्लामी पारिभाषिक शब्दावली है। दोज़ख़ में हरेक नहीं भेजा जाएगा बल्कि वही भेजा जाएगा जो कि इसका पात्र होगा। देश के लिए अपनी जान देने वाले भगत सिंह को दोज़ख़ में यातनाएं दी जा रही हैं। ऐसा मैंने न तो किसी इस्लामी साहित्य में पढ़ा है और न ही कभी मुस्लिम सोसायटी में ही कहीं सुना है। आप चाहते तो दोज़ख़ के बजाय संस्कृत शब्द ‘नर्क‘ भी इस्तेमाल कर सकते थे लेकिन तब पाठकों के मन में वितृष्णा मुसलमानों के बजाय पंडों के खि़लाफ़ पैदा होती और ऐसा आप चाहते नहीं हैं।
क्यों इस्लाम और मुसलमानों के बारे में वे बातें कहते हो जिन्हें मुसलमान ख़ुद नहीं कहते ?
ईश्वर है या नहीं ?
इसका पता तो अब बहुत जल्द आपको ख़ुद ही चल जाएगा।
अगर आप उस अटल घड़ी से पहले सचमुच जानना चाहते हैं तो आपको उन मित्र की टिप्पणियों के नीचे वाली दो टिप्पणियों पर भी ध्यान देना चाहिए था।
आप कहते हैं कि आपने उन मित्र की टिप्पणियों पर ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गए। जबकि हक़ीक़त यह है कि उन मित्र की बातों ने आपके मन को इतना जकड़ लिया कि आपने यह पोस्ट लिख डाली।
आस्तिकों के धन की चिंता छोड़िए, आप जैसे नास्तिक अपना धन ही अगर जनसेवा में लगा दें तब भी बहुतों का भला हो जाएगा।
नास्तिक मां, बहन और बेटी के साथ रिश्तों की पवित्रता का आनंद भी उठाते हैं और इसी के साथ वे ईश्वर और धर्म पर चोट भी करते हैं। नास्तिकता रिश्तों की पवित्रता में विश्वास नहीं रखती। पवित्रता की अवधारणा केवल धर्म की देन है। अगर ज़मीन पर नास्तिकता आम हो जाएगी तो ये सारे रिश्ते ध्वस्त हो जाएंगे। आस्तिक इस बात से डरते हैं और रिश्तों को बचाने के लिए ही वे नास्तिकों के मत का खंडन करते हैं। ऐसा हिंदू भी करते हैं और ऐसा मुसलमान भी करते हैं। आप दोनों को एक दूसरे से बदगुमान कर नहीं पाएंगे जनाब। अक्ल आज सबके पास है।
जयहिंद !!!
कुछ और ज्यादा समझाने की कोशिश की है मैंने अपनी श्रृंखला क्रियेटर और क्रिएशंस में.
ReplyDeleteहमारा काम है इस दुनिया मैं रह कर नेक काम करें. अल्लाह के बताए सीधे रस्ते पे चलें. दोज़क और जन्नत भी अल्लाह का बनाया है और उसमें कौन जाएगा यह भी सभी धर्मो की किताब मैं लिखा है. और इसका फैसला भी वही करेगा की कौन दोज़क मैं जाए कौन जन्नत है. इस लिए यहाँ यह सवाल कुछ उचित नहीं लगा.
ReplyDelete.
हाँ जो इश्वेर को नहीं मानता उसके अनुसार ना जन्नत है ना दोज़क. फिर यह सवाल उचित नहीं?
यह तो मरने के बाद ही इंसान को पता लगेगा की जन्नत या दोज़क ,का कोई वजूद है या नहीं. इस दुनिया मैं तो हम बस अपने ज्ञान और तजुर्बे के आधार पे यह फैसला कर लेते हैं की अल्लाह , इश्वेर,भगवान, जन्नत दोज़क है या नहीं. हर इंसान को अपना एक ख्याल बना लेने का अधिकार भी है.
मेरा ज्ञान कहता है अल्लाह है तो मुझे उसके बताए कानून पे चलने दें , आप का ज्ञान कहता है अल्लाह, इश्वेर नहीं है तो आप अपने बताए कानून के चलें. दोनों का इंसानियत के रिश्ते से कोई टकराव नहीं है.
स्टीफ़न हॉकिंग की किताब 'द ग्रैंड डिजाइन' की तारीफ करने वाले मेरा ये लेख अवश्य पढ़ें, 'क्या ग्रैंड डिजाइन स्टीफन हाकिंस ने चोरी की है?'
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