सदात ए फातिमा (स.ए) का रुतबा और मां की अहमियत
अपने आप को ग़लत माहोल के मुताबिक़ ढाल लेना और दूसरों के रंग में रगाँ जाना कमज़ोर इरादा लोगों का काम है, लेकिन माहोल को बदल कर उसको एक नया म...
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अपने आप को ग़लत माहोल के मुताबिक़ ढाल लेना और दूसरों के रंग में रगाँ जाना कमज़ोर इरादा लोगों का काम है, लेकिन माहोल को बदल कर उसको एक नया मुसबत रंग दे देना ताक़तवर और शुजा मोमिनों का काम है। जब कोई इंसान खुद को मुसलमान कहता है तो यह एलान भी करता है की अब वो झूट नहीं बोलेगा, अपनी मां की इज्ज़त करेगा, जो भी कुरान का हुक्म है और रसूल ए खुदा (स.ए.व) की सुन्नत पे ही चलेगा.
अब अगेर कोई मोहतरमा किसी ग़ैर इस्लामिक मोहतरमा को देख के बेहिजाब हो जाएं तो ज़ाहिरी तौर पे यह मालूम होता है की इनकी नज़र मैं कुरान और सुन्नत ए रसूल (स.ए.व) से ज्यादा अहमियत उन ग़ैर इस्लामिक मोहतरमा की है और नतीजे मैं मुसलमान के देरे से बाहर हो जाती हैं वो मोहतरमा.
अगेर कोई शख्स मुसलमान भी है और सय्यद भी तब तो उस शख्स पे यह भी वाजिब हो जाता है की वो अपने जद्द ,अपने बाप दादा (रसूल ए खुदा (स.ए.व), हज़रत अली (ए.स), जनाब ए फातिमा(स.ए) की इज्ज़त अपनी नेकियों से बरक़रार रखेगा और ऐसा शख्स अगर गुनाह खुले आम करता है तो वो अपने बुजुर्गों और अहलेबयत की भी बेईज्ज़ती करता है.
यहाँ यह जानना भी बहुत ज़रूरी है की सदात ए फातिमा या स्य्येद कहते किसको हैं. जो शख्स बनी हाशिम(मोहम्मद साहब के वंशज) से है वो सय्यद कहलाता है. और जो शख्स बनी हाशिम भी है और जनाब ए फातिमा (स.ए) और हज़रत अली(ए.स) की नस्ल से है वो सदात ए फातिमा (स.ए) कहलाता है. इनकी इज्ज़त और एहतेराम इनका खून और रसूल ए खुदा (स.ए.व), हज़रत अली (ए.स) और जनाब ए फातिमा (स.ए) का खून एक होने की वजह से सभी मुसलमानों पे वाजिब है. इनमें से अगेर कोई शख्स ग़रीब है ,उसके पास साल भर के खर्च के पैसे नहीं हैं ,तो उसकी मदद ख़ुम्स की आधी रक़म से करना मुसलमानों का फ़र्ज़ है और यह कुरान का हुक्म है. इन्ही सय्यद पे ग़ैर सय्यद का सदका हराम भी है. सय्यद अगर खुले आम गुनाह अंजाम देता है तो उसका गुनाह भी दोहरा होता है किसी ग़ैर सय्यद से.
शायद यह रुतबा, और यह ख़ुम्स से मदद की लालच मैं कुछ लोग खुद को बनी हाशिम के ना होने के बावजूद, जनाब ए फातिमा (स.ए) की नस्ल से ना होने के बावजूद खुद को सय्यद लिखते हैं और नतीजे मैं कई गुनाह एक साथ करते हैं, जिसकी माफी शायद संभव नहीं.
खुद को झूठा सय्यद कहने वाले शख्स का पहला गुनाह है झूट जो वो खुले आम हजारों गवाह बना के बोल रहा है. दूसरा गुनाह है की वो अपनी मां को गली दे रहे है उसको बदचलन खुले आम करार दे के. बदचलन इस लिए क्यों की जो सय्यद नहीं और खुद को सय्यद कह रहा है वो यह भी कर रहा है की मेरी मां का किसी सय्यद से नाजाएज़ तालूकात का नतीजा है वो.
अपने मां को गली देने वाले, उसको तकलीफ पहुँचाने वाले पे जन्नत तो क्या जन्नत की खुशबू भी हराम है. ऐसा शख्स जो ज़रा सी इज्ज़त के लिए अपनी मां को गली दे दे वो इस समाज मैं क्या काबिल ए भरोसा हो सकता है? यह ग़ौर करने की बात है.
अम्र बिल मारूफ भी वाजिब हो जाता है मुसलमानों पे अगर वो किसी के बारे मैं यकीनी तौर पे जान जाएं की यह सय्यद नहीं है और खुले आम खुद को सय्यद कहता है.
इस लेख़ के ज़रिये मैं सिर्फ एक पैग़ाम देना चाहता हूँ ,की इस्लाम के कानून पे चलने की गवाही देने के बाद बे हिजाब रहना, एक ना काबिल ए माफी गुनाह है और अगर वो मोहतरमा सय्यद भी हैं , तब तो जनाब ए फातिमा (स.ए) की भी बेइज्ज़ती करवा रही हैं. क्या ऐसी कोई औरत इस बात को सुन के अफ़सोस ज़ाहिर कर सकती है की कर्बला मैं जनाब ए जैनब की चादर छीनी गयी?
ठीक उसी तरह खुद को झूठा सय्यद कहने वाला इंसान, ज़रा ग़ौर करे खुद को सय्यद कह के क्या मिलेगा दुनिया मैं और क्या पाएगा आखिरत मैं.
ग़ौर करें और गुनाहों से खुद को बचाएं.
अब अगेर कोई मोहतरमा किसी ग़ैर इस्लामिक मोहतरमा को देख के बेहिजाब हो जाएं तो ज़ाहिरी तौर पे यह मालूम होता है की इनकी नज़र मैं कुरान और सुन्नत ए रसूल (स.ए.व) से ज्यादा अहमियत उन ग़ैर इस्लामिक मोहतरमा की है और नतीजे मैं मुसलमान के देरे से बाहर हो जाती हैं वो मोहतरमा.
अगेर कोई शख्स मुसलमान भी है और सय्यद भी तब तो उस शख्स पे यह भी वाजिब हो जाता है की वो अपने जद्द ,अपने बाप दादा (रसूल ए खुदा (स.ए.व), हज़रत अली (ए.स), जनाब ए फातिमा(स.ए) की इज्ज़त अपनी नेकियों से बरक़रार रखेगा और ऐसा शख्स अगर गुनाह खुले आम करता है तो वो अपने बुजुर्गों और अहलेबयत की भी बेईज्ज़ती करता है.
यहाँ यह जानना भी बहुत ज़रूरी है की सदात ए फातिमा या स्य्येद कहते किसको हैं. जो शख्स बनी हाशिम(मोहम्मद साहब के वंशज) से है वो सय्यद कहलाता है. और जो शख्स बनी हाशिम भी है और जनाब ए फातिमा (स.ए) और हज़रत अली(ए.स) की नस्ल से है वो सदात ए फातिमा (स.ए) कहलाता है. इनकी इज्ज़त और एहतेराम इनका खून और रसूल ए खुदा (स.ए.व), हज़रत अली (ए.स) और जनाब ए फातिमा (स.ए) का खून एक होने की वजह से सभी मुसलमानों पे वाजिब है. इनमें से अगेर कोई शख्स ग़रीब है ,उसके पास साल भर के खर्च के पैसे नहीं हैं ,तो उसकी मदद ख़ुम्स की आधी रक़म से करना मुसलमानों का फ़र्ज़ है और यह कुरान का हुक्म है. इन्ही सय्यद पे ग़ैर सय्यद का सदका हराम भी है. सय्यद अगर खुले आम गुनाह अंजाम देता है तो उसका गुनाह भी दोहरा होता है किसी ग़ैर सय्यद से.
शायद यह रुतबा, और यह ख़ुम्स से मदद की लालच मैं कुछ लोग खुद को बनी हाशिम के ना होने के बावजूद, जनाब ए फातिमा (स.ए) की नस्ल से ना होने के बावजूद खुद को सय्यद लिखते हैं और नतीजे मैं कई गुनाह एक साथ करते हैं, जिसकी माफी शायद संभव नहीं.
खुद को झूठा सय्यद कहने वाले शख्स का पहला गुनाह है झूट जो वो खुले आम हजारों गवाह बना के बोल रहा है. दूसरा गुनाह है की वो अपनी मां को गली दे रहे है उसको बदचलन खुले आम करार दे के. बदचलन इस लिए क्यों की जो सय्यद नहीं और खुद को सय्यद कह रहा है वो यह भी कर रहा है की मेरी मां का किसी सय्यद से नाजाएज़ तालूकात का नतीजा है वो.
अपने मां को गली देने वाले, उसको तकलीफ पहुँचाने वाले पे जन्नत तो क्या जन्नत की खुशबू भी हराम है. ऐसा शख्स जो ज़रा सी इज्ज़त के लिए अपनी मां को गली दे दे वो इस समाज मैं क्या काबिल ए भरोसा हो सकता है? यह ग़ौर करने की बात है.
अम्र बिल मारूफ भी वाजिब हो जाता है मुसलमानों पे अगर वो किसी के बारे मैं यकीनी तौर पे जान जाएं की यह सय्यद नहीं है और खुले आम खुद को सय्यद कहता है.
इस लेख़ के ज़रिये मैं सिर्फ एक पैग़ाम देना चाहता हूँ ,की इस्लाम के कानून पे चलने की गवाही देने के बाद बे हिजाब रहना, एक ना काबिल ए माफी गुनाह है और अगर वो मोहतरमा सय्यद भी हैं , तब तो जनाब ए फातिमा (स.ए) की भी बेइज्ज़ती करवा रही हैं. क्या ऐसी कोई औरत इस बात को सुन के अफ़सोस ज़ाहिर कर सकती है की कर्बला मैं जनाब ए जैनब की चादर छीनी गयी?
ठीक उसी तरह खुद को झूठा सय्यद कहने वाला इंसान, ज़रा ग़ौर करे खुद को सय्यद कह के क्या मिलेगा दुनिया मैं और क्या पाएगा आखिरत मैं.
ग़ौर करें और गुनाहों से खुद को बचाएं.
दयालु मालिक नेक मर्द और नेक औरतों पर अपनी दया और अपना प्रेम बरसाए और उन्हें अखंड शांति दे और हमारी मां जनाब फ़ातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा पर भी, जो कि नेकी में अपनी नज़ीर आप हैं।
ReplyDeleteAmeen !
बिल्कुल सही कहा है आपने "क्या ऐसी कोई औरत इस बात को सुन के अफ़सोस ज़ाहिर कर सकती है की कर्बला मैं जनाब ए जैनब की चादर छीनी गयी?"
ReplyDeleteचादर तो आज भी छीनी जा रही है, पर हाथो से नहीं बल्कि बेहूदा किस्म के टीवी सीरियल और फिल्मों द्वारा...,,,उफ्फ..अफ़सोस!!!