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असहाबे हुसैनी

इमाम हुसैन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया:  इमाम (अ) ने करबला जाने से पहले रास्ते में फ़रमाया था कि जो शख़्स हमारी राह में अपनी ख़ूने जीगर बहान...


इमाम हुसैन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया: इमाम (अ) ने करबला जाने से पहले रास्ते में फ़रमाया था कि जो शख़्स हमारी राह में अपनी ख़ूने जीगर बहाने के लिये तैयार है और आप को अल्लाह की मुलाक़ात के लिये आमादा कर चुका है वही हमारे साथ सफ़र करे। हम इंशा अल्लाह सुबह को सफ़र जा रहै हैं।

इमाम (अ) के अल्फ़ाज़ पर ग़ौर करें तो लफ़्ज़े मोहज ही गुफ़तुगू के लिये काफ़ी है। मोहज सिर्फ़ उस ख़ून को कहते हैं जो इंसान के कलेजे की रगों में होता है। इमाम (अ) की मुराद यह है कि हमारी राह में जो सब कुछ क़ुरबान करने के लिये तैयार हो वह हमारे साथ चले।

सफ़र करने के लिये जिस तरह से ज़ादे राह ज़रूरी होता है उसी तरह से मक़सदे सफ़र का तअय्युन भी ज़रुरी होता है इमाम (अ) के बयानात में मक़सदे सफ़र पर काफ़ी बहस हुई है। सफ़र में एक अहम साथी, हम रकाब और ज़ादे राह के मुतअल्लिक़ भी की जाती है।

नुक़्त ए आग़ाज़े सफ़र, सफ़र में कोई दख़ालत नही रखता लेकिन यह बहस ज़रुर पेश आती है कि इंसान जिस जगह से सफ़र शुरु कर रहा है उस की नज़र में उस का क्या मक़ाम है।

वतन का छोड़ना आसान नही है लिहाज़ा माँ बाप घर बार उसी वक़्त छोड़ता है जब मक़सदे सफ़र उस नुक़्त ऐ आग़ाज़ से ज़्यादा अहमियत रखता हो। मदीने में इमाम हुसैन (अ) के नाना, माँ और भाई की क़ब्र है, मरकज़े इस्लाम है, इन के अलावा ख़ुद वतन की मुहब्बत भी सफ़र में माने हुआ करती है। पैग़म्बर (स) का वतन मक्का है मदीना नही और पैग़म्बर (स) ने मजबूरी के आलम में मक्का छोड़ा लेकिन रात की तारीकी में भी सफ़र के दौरान बार बार मुड़ कर मक्के की जानिब देखते जाते थे और मक़ामे जोहफ़ा पर पहुच कर काबे और मक्के की दीवारों को मुख़ातब करके फ़रमाया: ख़ुदा जानता है कि मैं तुझे बहुत पसंद करता हूँ। ऐ सर ज़मीने मक्का मैं तेरे फ़िराक़ में बहुत रंजीदा हूँ। पैग़म्बर (स) के इस कर्ब को देख कर जिबरईल नाज़िल हुए और फ़रमाया:

...........

लेकिन चूँकि मक़सदे सफ़र बड़ा है इस लिये अपनी मुहब्बत को ख़ैर बाद कह रहे हैं। इमाम हुसैन (अ) के लिये मदीना भी वतन था और मक्का भी आबा व अजदाद का वतन था फिर भी आप ने मक़सदे सफ़र के पेशे नज़र मक्का भी छोड़ा और मदीने को भी ख़ैर बाद कहा।

इमाम (अ) का ख़िताब सिर्फ़ हाज़ेरीन से था या यह आम ख़िताब था? अगर लफ़्ज़े मन काना पर तवज्जो करें तो मालूम होगा कि इमाम (अ) की नज़र में सिर्फ़ मुख़ातेबीन और हाज़ेरीन पर नही थी बल्कि जो भी ख़ूने जीगर बहाने के लिये आमादा हो वह चले चाहे मर्द हो या औरत, बूढ़ा हो या बच्चा। यह मन सब को शामिल है।

जिहाद किस तरह होगा यह भी क़ाबिल गुफ़तुगू है। सूर ए अंकबूत की आख़िरी आयत में इरशाद हुआ कि जो भी हमारी राह में जिहाद करेगा हम उसे अपना रास्ता दिखला देगें। कुछ लोगों ने राह से मुराद जन्नत की राह तो किसी ने इससे मुराद ख़ैर का रास्ता लिया है। इमाम हुसैन (अ) ने लफ़्ज़े फ़ीना का इस्तेमाल किया है। अहले बैत (अ) का रास्ता अगर ख़ुदा के रास्ते से जुदा होता तो इमाम हुसैन (अ) लफ़्ज़े फ़ीना का इस्तेमाल नही करते। इमाम (अ) ने यह बतला दिया कि ख़ुदा की राह में जिहाद करना हो तो वह भी ख़ुदा की राह है और हमारी राह में क़ुर्बानी देनी हो तो भी ख़ुदा की राह में जिहाद करना है।

जो भी हमारी राह में क़ुर्बानी देना चाहे हमारे साथ हो जाये। इमाम (अ) ने इस जुमले में इतनी गुजाईश रखी है कि हर कोई इस में शामिल हो सकता है और यह बहस करने की ज़रुरत नही है कि इमाम (अ) के साथ जो लोग गये उस में कुछ शहीद हुए और कुछ शहीद नही हुए। चूँ कि इमाम का यह जुमला वाज़ेह कर रहा है कि इमाम (अ) ने उन्ही को अपने साथ लिया है जो अपना ख़ूने जीगर इमाम (अ) की राह में बहाने के लिये तैयार थे। यह और बात है कि दरमियाने राह में मक़सदे बदलने की वजह से कुछ को शहादत नसीब हुई और कुछ इस तरह से महरूम रहे।

इमाम (स) के इसी जुमले से यह भी वाज़ेह है कि किसी पर कोई जब्र व जबरदस्ती नही है वर्ना मुहम्मद हनफ़िया और अब्दुल्लाह बिन जाफ़र जैसी शख़्सियतों को इमाम (अ) के साथ नही ले गये और इमाम ने अपने साथ सफ़र करना वालों को बता दिया कि इस सफ़र में दौलत मिलने वाली नही है। इमाम (अ) ने बारहा यह जुमला इस लिये इरशाद फ़रमाया कि लोग मुसलसल इमाम (अ) की हमराही के लिये आ रहे थे लिहाज़ा इमाम ने बार बार लोगों को ख़बरदार किया कि इस सफ़र में दौलत व मंसब नही मिलने वाला है। मैं मौत को गले लगाने के लिये जा रहा हूँ जो अपनी क़ुर्बानी पेश करने के लिये तैयार हो वही मेरे हमराह चले।

इमाम (अ) चाहते थे कि मेरी नुसरत में किसी पर जब्र न हो। आपने पूरे सफ़र में कहीं यह नही कहा कि तुम अगर मेरा साथ न दोगे तो क़यामत में रसूले ख़ुदा (स) को क्या जवाब दोगे, ख़ुदा के यहाँ क्या जवाब दोगे बल्कि साथ आने वालों को भी यही कि तुम सब चले जाओ। इस लिये कि यह लोग हमारे दुश्मन है तुम से इन का कोई वास्ता नही है इस लिये कि हमारे साथ आओंगे तो तुम्हे भी शहीद होना पड़ेगा।

बाज़ लोग यह सवाल करते हैं कि इमाम (अ) इस सफ़र में अपने अहले व अयाल को साथ लेकर आये और रास्ते में ऐसे बहुत से काम किये जिन से यह पता चलता है कि इमाम (अ) को अपनी ज़िन्दगी की उम्मीद थी। इसी लिये हम देखते हैं कि पूरे सफ़र में इमाम (अ) ने ज़ादे राह में कोई कमी महसूस नही की और न ही कहीं ग़ल्ला ख़रीदा, पानी इतना लेकर चले थे कि अपनों के लिये काफ़ी था ही हुर के लशकर को भी सैराब किया। लेकिन ऐसा नही है बल्कि यह रसूल (स) के नवासे हैं, यह शरीयत के पाबंद हैं। इमाम हसन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया: अपनी दुनिया के लिये ऐसे अमल करो जैसै कि तुम्हे इस दुनिया में हमेशा रहना है और इमाम (अ) ने ऐसा ही किया। इसी लिये इमाम (अ) के जिस्म में ताक़त थी जंग में अपना दिफ़ाअ करते रहे, घोड़े से गिरने के बाद भी इमाम ने अपनी क़ुव्वत भर दिफ़ा किया। इमाम (अ) ने यह अमल अपने नाना से सीखा था। पैग़म्बर (स) के एक सहाबी का इंतेक़ाल हुआ आपने उस की तजहीज़ व तकफ़ीन के बाद उसे दफ़्न करने के लिये क़ब्र में उतरे, सहाबी का जनाज़ा कब्र में रख कर अपने एक सहाबी से मिट्टी का एक टुकड़ा उठाने के लिये कहा, उस ने एक टुकड़ा उठाया तो वह नर्म था पैग़म्बर (स) ने दूसरा टुकड़ा माँगा और उस के सरहाने रख कर उसे दफ़्न किया। तदफ़ीन के बाद सहाबी ने सवाल किया कि या रसूलल्लाह (स) आप फ़रमाते हैं कि इंसान का बदन चंद दिनों के बाद बोसीदा हो जाता है तो फिर आप ने मिट्टी का वह सख़्त टुकड़ा क्यो रखा जब कि कुछ दिन के बाद उस का बदन बोसीदा हो जायेगा तो पैग़म्बर इस्लाम (स) ने फ़रमाया: ख़ुदा ने हमे हुक्म दिया है कि जो भी काम करो मुसतहकम और मज़बूती के साथ अंजाम दो, ख़ुदा उस बंदे पर रहमत नाज़िल करे जो अपने काम को इस्तेहकाम व मज़बूती के साथ अंजाम देता हो। इमाम हुसैन (अ) ने भी उसी सीरत पर अमल करते हुए सामान ने सफ़र में कोई कमी नही रखी बल्कि करबला में जो अमल भी अंजाम दिया उसे मुसतहकम व मज़बूत अंजाम दिया और हमें यह दर्स दिया कि हमारे चाहने वालों को चाहिये कि जब कोई अमल अंजाम दें तो इसतेहकाम और मज़बूती से अंजाम दें।


मौला ए कायनात (अ) के लिये भी मिलता है कि जब आप के सर पर ज़रबत लगाई गई तो आप ने एक अजीब व ग़रीब काम अँजाम दिया। चूँ कि वह ज़रबत उसी जगह पर लगी थी जहाँ अम्र बिन अब्दवद ने जंगे ख़ंदक़ में ज़रबत लगाई थी। इस लिये सर शिगाफ़ता हो गया और ख़ून जारी हो गया लेकिन ख़ून एक तरफ़ से बह रहा था इस लिये जब मौला ए कायनात ने दूसरा सजदा करना चाहा तो सर का दूसरा हिस्सा सजदे में रखा ता कि सजदा खाक पर हो ख़ून पर न हो इस लिये कि खू़न पर सजदा सही नही है।

इसी तरह जब इमाम हुसैन (अ) घोड़े से ज़मीन पर तशरीफ़ लाये तो सर को उस तरफ़ से सजदे में रखा जिधर ख़ून कम था ता कि अपने मअबूद का आख़िरी सजदा सही तरीक़े से अदा हो जाये।

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