इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद

इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद   समाज से बुराईयों को दूर कर के अदालत (न्याय) को स्थापित करना और लोगों के   जीवन को पवित्र बनाना है। यह उसी स...


इमामत व ख़िलाफ़त का मक़सद समाज से बुराईयों को दूर कर के अदालत (न्याय) को स्थापित करना और लोगों के जीवन को पवित्र बनाना है। यह उसी समय संभव हो सकता है जब इमामत का ओहदा लायक़आदिल व हक़ परस्त इंसान के पास हो। कोई समाज उसी समय अच्छा व सफ़ल बन सकता है जब उसके ज़िम्मेदार लोग नेक हों। इस बारे में हम आपके सामने दो हदीसे पेश कर रहे हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि “ दीन को नुक़्सान पहुँचाने वाले तीन लोग हैं
१) बे अमल आलिमज़ालिम 
२)बदकार इमाम और 
३) जाहिल जो दीन के बारे में अपनी राय दे।


इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से और उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से रिवायत की है कि आपने फ़रमाया कि दो गिरोह ऐसे हैं अगर वह बुरे होंगे तो उम्मत में बुराईयाँ फैल जायेंगी और अगर वह नेक होंगे तो उम्मत भी नेक होगी। 

आप से पूछा गया कि या रसूलल्लाह वह दो गिरोह कौन हैं आपने जवाब दिया कि उम्मत के आलिम व हाकिम।

मुहम्मद ग़िज़ाली मिस्री ने बनी उमैय्याह के समय में हुकूमत में फैली हुई बुराईयों को इस तरह बयान किया है।
ख़िलाफ़त बादशाहत में बदल गयी थी।
हाकिमों के दिलों से यह एहसास ख़त्म हो गया थाकि वह उम्मत के ख़ादिम हैं। वह निरंकुश रूप से हुकूमत करने लगे थे और जनता को हर हुक्म मानने पर मजबूर करते थे।
कम अक़्लमुर्दा ज़मीरगुनाहगारगुस्ताख़ और इस्लामी तालीमात से ना अशना लोग ख़िलाफ़त पर क़ाबिज़ हो गये थे।
बैतुल माल (राज कोष) का धन उम्मत की ज़रूरतों व फ़क़ीरों की आवश्यक्ताओं पर खर्च न हो कर ख़लीफ़ाउसके रिश्तेदारों व प्रशंसको की अय्याशियों पर खर्च होता था।
तास्सुबजिहालत व क़बीला प्रथा जैसी बुराईयाँजिनकी इस्लाम ने बहुत ज़्यादा मुख़ालेफ़त की थीफिर से ज़िन्दा हो उठी थीं। इस्लामी भाई चारा व एकता धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही थी। अरब विभिन्न क़बीलों में बट गये थे। अरबों और अन्य मुसलमान के मध्य दरार पैदा हो गयी थी। बनी उमैय्याह ने इसमें अपना फ़ायदा देखा और इस तरह के मत भेदों को और अधिक फैलायाएक क़बीले को दूसरे क़बीले से लड़ाया। यह काम जहाँ इस्लाम के उसूल के ख़िलाफ़ था वहीं इस्लामी उम्मत के बिखर जाने का कारण भी बना।
चूँकि ख़िलाफ़त व हुकूमत ना लायक़बे हया व नीच लोगों के हाथों में पहुँच गई थी लिहाज़ा समाज से अच्छाईयाँ ख़त्म हो गयी थीं।
इंसानी हुक़ूक (आधिकारों) व आज़ादी का ख़ात्मा हो गया था। हुकूमत के लोग इंसानी हुक़ूक़ का ज़रा भी ख़्याल नही रखते थे। जिसको चाहते थे क़त्ल कर देते थे और जिसको चाहते थे क़ैद में डाल देते थे। सिर्फ़ हज्जाज बिन यूसुफ़ ने ही जंग के अलावा एक लाख बीस हज़ार इंसानों को क़त्ल किया था।
अखिर में ग़ज़ाली यह लिखते हैं कि बनी उमैय्याह ने इस्लाम को जो नुक़्सान पहुँचाया वह इतना भंयकर थाकि अगर किसी दूसरे दीन को पहुँचाया जाता तो वह मिट गया होता।

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