कौन सा काम करते वक़्त या कहते वक़्त इंशाल्लाह कहा जाये |
सूरए कह्फ़ की आयत २४ में ज़िक्र है की कौन सा काम करते वक़्त या कहते वक़्त इंशाल्लाह कहा जाये | और कदापि किसी वस्तु के बारे में यह मत कहिए ...
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सूरए कह्फ़ की आयत २४ में ज़िक्र है की कौन सा काम करते वक़्त या कहते वक़्त इंशाल्लाह कहा जाये |
और कदापि किसी वस्तु के बारे में यह मत कहिए कि मैं उसे कल करूंगा (18:23) (बल्कि यह कहिए कि) यदि ईश्वर ने चाहा तो (मैं कल यह काम करूंगा) और यदि आप इसे भूल जाएं तो (जब भी याद आए) अपने पालनहार को याद कीजिए और कहिए कि आशा है कि मेरा पालनहार उस मार्ग की ओर मेरा मार्गदर्शन करेगा जो अधिक निकट है। (18:24)
ये आयतें एक मूल आदेश का वर्णन करती हैं। यद्यपि इस आदेश का प्राथमिक संबोधन पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से है किंतु मूल रू से सभी मुसलमान इसके संबोधन के पात्र हैं और उन्हें इसका पालन करना चाहिए। इन आयतों के अनुसार ईमान वाले व्यक्ति को भविष्य के संबंध में अपने हर कथन और कर्म के बारे में बात करते हुए इन शाअल्लाह अर्थात यदि ईश्वर ने चाहा तो, कहना चाहिए।
इसका अर्थ यह है कि स्वयं उस व्यक्ति को भी और जिससे वह बात कर रहा है उसे भी यह बात समझनी चाहिए कि उसने जो भी कहा है कि वह उसी स्थिति में संभव है जब ईश्वर चाहे और ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी बात नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में ईमान वाले व्यक्ति जब भी कोई बात करते हैं तो इन शाअल्लाह अवश्य कहते हैं जैसा कि स्वयं क़ुरआने मजीद में भी हज़रत याक़ूब, शुऐब, ख़िज़्र और इस्माईल अलैहिमुस्सलाम जैसे पैग़म्बरों के कथनों में यह वाक्य वर्णित है।
स्पष्ट है कि यह वाक्य केवल मौखिक उद्धरण नहीं है बल्कि एक सच्चे मुसलमान की आस्था और उसके दृष्टिकोण का वर्णन करता है। यद्यपि हर व्यक्ति की अपनी इच्छा और अपना अधिकार होता है किंतु स्पष्ट है कि किसी काम का वास्तव में होना लोगों की इच्छा पर निर्भर नहीं है बल्कि उसके लिए विभिन्न कारकों और कारणों की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी काम नहीं होता।
इन आयतों से हमने सीखा कि हमें केवल अपनी इच्छा और क्षमता पर भरोसा नहीं करना चाहिए, स्वयं को ईश्वर से आवश्यकतामुक्त नहीं समझना चाहिए और अपने निर्णयों में उसे नहीं भूलना चाहिए।
जब पैग़म्बरों तक को अपने जीवन के मामलों में ईश्वरीय मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है तो हम जैसे साधारण लोगों को तो उसकी अधिक आवश्यकता है अतः हमें सदैव ईश्वर से ये प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उत्तम मार्ग की ओर हमारा मार्गदर्शन करे।
और कदापि किसी वस्तु के बारे में यह मत कहिए कि मैं उसे कल करूंगा (18:23) (बल्कि यह कहिए कि) यदि ईश्वर ने चाहा तो (मैं कल यह काम करूंगा) और यदि आप इसे भूल जाएं तो (जब भी याद आए) अपने पालनहार को याद कीजिए और कहिए कि आशा है कि मेरा पालनहार उस मार्ग की ओर मेरा मार्गदर्शन करेगा जो अधिक निकट है। (18:24)
ये आयतें एक मूल आदेश का वर्णन करती हैं। यद्यपि इस आदेश का प्राथमिक संबोधन पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से है किंतु मूल रू से सभी मुसलमान इसके संबोधन के पात्र हैं और उन्हें इसका पालन करना चाहिए। इन आयतों के अनुसार ईमान वाले व्यक्ति को भविष्य के संबंध में अपने हर कथन और कर्म के बारे में बात करते हुए इन शाअल्लाह अर्थात यदि ईश्वर ने चाहा तो, कहना चाहिए।
इसका अर्थ यह है कि स्वयं उस व्यक्ति को भी और जिससे वह बात कर रहा है उसे भी यह बात समझनी चाहिए कि उसने जो भी कहा है कि वह उसी स्थिति में संभव है जब ईश्वर चाहे और ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी बात नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में ईमान वाले व्यक्ति जब भी कोई बात करते हैं तो इन शाअल्लाह अवश्य कहते हैं जैसा कि स्वयं क़ुरआने मजीद में भी हज़रत याक़ूब, शुऐब, ख़िज़्र और इस्माईल अलैहिमुस्सलाम जैसे पैग़म्बरों के कथनों में यह वाक्य वर्णित है।
स्पष्ट है कि यह वाक्य केवल मौखिक उद्धरण नहीं है बल्कि एक सच्चे मुसलमान की आस्था और उसके दृष्टिकोण का वर्णन करता है। यद्यपि हर व्यक्ति की अपनी इच्छा और अपना अधिकार होता है किंतु स्पष्ट है कि किसी काम का वास्तव में होना लोगों की इच्छा पर निर्भर नहीं है बल्कि उसके लिए विभिन्न कारकों और कारणों की आवश्यकता होती है। दूसरे शब्दों में ईश्वर की इच्छा के बिना कोई भी काम नहीं होता।
इन आयतों से हमने सीखा कि हमें केवल अपनी इच्छा और क्षमता पर भरोसा नहीं करना चाहिए, स्वयं को ईश्वर से आवश्यकतामुक्त नहीं समझना चाहिए और अपने निर्णयों में उसे नहीं भूलना चाहिए।
जब पैग़म्बरों तक को अपने जीवन के मामलों में ईश्वरीय मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है तो हम जैसे साधारण लोगों को तो उसकी अधिक आवश्यकता है अतः हमें सदैव ईश्वर से ये प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उत्तम मार्ग की ओर हमारा मार्गदर्शन करे।