कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए आले इमरान 3:77-104

  सूरए आले इमरान की आयत संख्या ७७ इस प्रकार है। निःसन्देह, जो लोग ईश्वरीय प्रतिज्ञा और अपनी सौगंधों को सस्ते दामों में बेच देते हैं उनको...

 सूरए आले इमरान की आयत संख्या ७७ इस प्रकार है।
निःसन्देह, जो लोग ईश्वरीय प्रतिज्ञा और अपनी सौगंधों को सस्ते दामों में बेच देते हैं उनको प्रलय के दिन कोई लाभ नहीं होगा और उस दिन ईश्वर न उनसे बात करेगा और न उनपर (दया व कृपा) की दृष्टि डालेगा और उन्हें (पापों के मैल) से पवित्र नहीं करेगा और उनके लिए कड़ा दण्ड है। (3:77)

 ईश्वर ने मनुष्य के कल्याण के लिए उसका दो प्रकार से मार्गदर्शन किया है। एक स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा जो स्वयं उसके भीतर से प्रवाहित होती है और उसे भले तथा बुरे में अंतर सिखाती है। दूसरे वहि अर्थात ईश्वरीय संबोधन द्वारा जिसका स्रोत ईश्वर का अनंत ज्ञान है और जो धर्म तथा धार्मिक आदेशों के रूप में क़दम-क़दम पर परिपूर्णता की ओर मनुष्य का मार्गदर्शन करती है।
 धर्म व प्रवृत्ति के ये आदेश ईश्वरीय वचन हैं जिनपर बुद्धि ने हस्ताक्षर किये हैं और उसने मनुष्य को इस वचन के पालन पर प्रतिबद्ध किया है परन्तु मनुष्य के एक गुट ने अपना वचन तोड़ दिया और संसार की प्राप्ति के लिए अपनी इच्छाओं को ईश्वरीय इच्छा पर प्राथमिक्ता दी। स्वभाविक है कि इस अनुचित व्यवहार के परिणाम भी सामने आएंगे जिनमें सबसे महत्वपूर्ण उस दिन ईश्वर की विशेष कृपा से वंचित होना है जिस दिन सब उसकी कृपा के मोहताज होंगे।
 इस आयत से हमने सीखा कि प्रतिज्ञा व वचन का तोड़ना धर्म से बाहर निकाल जाने तथा नरक की आग में जलने का कारण है। अमानतदारी ईश्वरीय प्रतिज्ञा है। पिछली आयतों में लोगों की अमानतों की बात कही गई थी। यह आयत अमानत की सुरक्षा को ईश्वर की ऐसी प्रतिज्ञा बताती है जिसका पालन करना सभी का कर्तव्य है।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ७८ इस प्रकार है।
और आसमानी किताब वालों में से एक गुट ऐसा भी है जो (अपने हाथ की लिखी) किताब पढ़ते समय अपनी जीभ को ऐसे फिराता है कि तुम लोग यह समझने लगते हो कि यह आसमानी किताब में से है जबकि वह आसमानी किताब में से नहीं है। (यहां तक कि वे स्पष्ट रूप से) कहते हैं (जो कुछ हम पढ़ रहे हैं) वह ईश्वर की ओर से है जबकि वह ईश्वर को ओर से नहीं है और वे ईश्वर पर झूठ बांध रहे हैं जबकि वे (स्वयं वास्तविकता को) जानते हैं। (3:78)

 जैसा कि हमने विगत कार्यक्रमों में कहा था कि पूरे इतिहास में लोगों की पथभ्रष्टता का एक कारण ऐसे धार्मिक विद्वान रहे हैं जो कभी तो अपने समाजिक व धार्मिक स्थान की सुरक्षा के लिए और कभी ईर्ष्या तथा हठधर्मी के कारण लोगों को सत्य से अवगत कराने पर तैयार नहीं हुए बल्कि सत्य छिपाने से बढ़कर उन्होंने सत्य में फेर-बदल भी कर दिया और अपने विचारों व विश्वासों को धर्म का नाम देकर जनता के समक्ष प्रस्तुत किया।
 क़ुरआन मुसलमानों को ऐसे लोगों के ख़तरों की ओर से सचते करता है ताकि वे लोगों के दिखावे के रूप में या उनकी मीठी-मीठी बातों से धोखा न खा जाएं और यह जान लें कि बहुत से लोग धर्म के नाम पर ही ईश्वर पर बड़े से बड़ा आरोप लगा सकते हैं।
 इस आयत से हमने सीखा कि हर बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए। हो सकता है कि कोई सुन्दर कथन, जिसे मनुष्य क़ुरआन समझ रहा हो वह क़ुरआन से बिल्कुल ही विपरीत हो। हमें जानना चाहिए कि कुछ लोग धर्म के नाम पर धर्म को ही क्षति पहुंचाते हैं।
 ईश्वर से न डरने वाले विद्वानों के ख़तरे की ओर से निश्चेत नहीं रहना चाहिए। वे लोगों को बहकाने और पथभ्रष्ट करने के अतिरिक्त ईश्वर पर झूठ बांधते हैं और अपनी बातों को ईश्वरीय कथन बताते हैं।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ७९ और ८० इस प्रकार है।
(हे आसमानी किताब रखने वालों के विद्वानों! क्या तुम नहीं जानते कि) किसी भी मनुष्य (और पैग़म्बर) को यह अधिकार नहीं है कि चूंकि ईश्वर ने उसे किताब तथा पैग़म्बरी दी है तो वह लोगों से कहे कि मेरे बंदे बनो न कि ईश्वर के। इस आधार पर तुम जो दूसरों को ईश्वरीय किताब सिखाते थे और स्वयं भी उसको पढ़ते थे तो तुमको ईश्वरीय (विद्वान) होना चाहिए (न यह कि तुम स्वयं को लोगों का स्वामी समझ लो। कोई भी पैग़म्बर इसकी अनुमति नहीं देता) (3:79) और आदेश नहीं देता कि फ़रिश्तों और अन्य पैग़म्बरों को अपना स्वामी बना लो। क्या यह संभव है कि (कोई पैग़म्बर) तुम्हें मुस्लिम होने के पश्चात कुफ़्र का आदेश दे? (3:80)

 पिछली आयतों में पथभ्रष्ट विद्वानों की ओर से सचेत करने के पश्चात इन दो आयतों में ईश्वर उन्हें संबोधित करते हुए कहता है कि ईश्वर की ओर से किताब लाने वाले पैग़म्बर भी, जिन्हें तत्वदर्शिता के आधार पर शासन का अधिकार है अपनी ओर लोगों को नहीं बुला सकते बल्कि उन्हें लोगों को ईश्वर तथा उसकी बंदगी की ओर बुलाना चाहिए, तो तुम जो केवल पैग़म्बरों के अनुयाई और आसमानी किताबों के शिक्षक हो, किस प्रकार स्वयं को ईश्वरीय आदेशों से फेर-बदल की अनुमति देते हो? और वह भी इस प्रकार कि मानो तुम स्वयं को लोगों का स्वामी और प्रभु समझते हो।
 ईश्वरीय किताब से अधिक परिचित होने और सदैव लोगों को उसकी शिक्षा देने के नाते तुम विद्वानों से आशा है कि तुम अन्य लोगों से अधिक उसके आदेशों पर कार्यबद्ध रहोगे और ईश्वरीय विद्वान बनो।
 किसी भी मनुष्य को ईश्वर के रूप में स्वीकार करना या उसके नाम पर कोई क़ानून बनाना या उनमें फेर-बदल करना, कुफ़्र के समान है और किसी भी पैग़म्बर ने स्वयं को या फ़रिश्तों तक ने स्वयं को यह अधिकार नहीं दिया है तो किस प्रकार से तुम ईश्वरीय किताब रखने वाले विद्वानों ने स्वयं को एक प्रकार का ईश्वर दर्शाया है और किस प्रकार तुम अपने व्यक्तिगत विश्वासों को धर्म के नाम पर लोगों में प्रचलित करते हो या धर्म के आदेशों में परिवर्तित करत हो।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि अपनी स्थिति, लोकप्रियता और पद से किसी भी प्रकार का अनुचित लाभ उठाना वर्जित है। यहां तक कि पैग़म्बरों को भी अपनी उच्च स्थिति से लाभ उठाने का अधिकार नहीं है।
 केवल ईश्वरीय विद्वानों को ही क़ुरआन की व्याख्या का अधिकार है और ईश्वरीय विद्वान बनने का मार्ग क़ुरआन से परिचित होना और उसको पढ़ना तथा पढ़ाना है।
 ईश्वरीय पैग़म्बरों तथा ईश्वर के प्रिय बंदों के बारे में किसी भी प्रकार का अतिवाद और उन्हें उनकी वास्तविक सीमा से आगे बढ़ाना वर्जित है। वे ईश्वर के बंदे हैं जो ईश्वर की उपासना और बंदगी द्वारा परिपूर्णता के उच्च चरणों तक पहुंचे हैं परन्तु वे कदापि ईश्वर नहीं हैं।
 कुफ़्र का अर्थ केवल ईश्वर का इन्कार नहीं है बल्कि ईश्वरीय क़ानूनों के विरूद्ध कोई भी क़ानून बनाने में मनुष्य की किसी भी प्रकार की भूमिका की स्वीकार करना, ईश्वर के स्वामित्व के इन्कार के समान है और स्वयं यह ईश्वर का इन्कार है।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ८१ और ८२ इस प्रकार है।
और जब ईश्वर ने (पहले वाले) पैग़म्बरों से प्रतिज्ञा ली कि जब भी मैं तुम्हें (आसमानी) किताब और तत्वदर्शिता दूं और फिर तुम्हारे पास (मेरी ओर से भेजा हुआ) रसूल आए जो उन चीज़ों की पुष्टि करने वाला हो जो तुम्हारे पास हैं तो उनपर ईमान लाओ और उसकी सहायता करो। ईश्वर ने कहा क्या तुम मेरे इस भारी बोझ को स्वीकार करते हो और मानते हो? (सब ने) कहा हां, हमने स्वीकार किया तो ईश्वर ने कहा कि फिर मेरी इस प्रतिज्ञा के गवाह रहो और मैं भी तुम्हारे साथ गवाहों में से हूं । (3:81) तो जिन्होंने इसके बाद मुंह मोड़ा तो निःसन्देह, वही लोग व्यभिचारी हैं। (3:82)

 पैग़म्बरे इस्लाम व उनके परिजनों के कथनों तथा क़ुरआन की व्याख्याओं में कहा गया है कि ईश्वर ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम व हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम जैसे पहले वाले पैग़म्बरों से वचन लिया था कि वे लोगों को पैग़म्बरे इस्लाम के आने की शुभ सूचना देंगे तथा उनकी विशेषताओं का उल्लेख करके लोगों के उनपर ईमान लाने की भूमि समतल करेंगे क्योंकि सारे पैग़म्बर एक ही ईश्वर की ओर से आए हैं तथा उनकी आसमानी किताबें एक दूसरे की पुष्टि व समर्थन करती हैं तो नए पैग़म्बर के आने के पश्चात पुराने पैग़म्बर के अनुयाइयों को उसपर ईमान लाना चाहिए और शत्रुओं के मुक़ाबले मे उसकी सहायता करनी चाहिए।
 यद्यपि पैग़म्बरे इस्लाम के समय में अन्य पैग़म्बर मौजूद नहीं थे जो उन पर ईमान लाते परन्तु महत्वपूर्ण बात इस काम के लिए उनकी तत्परता है। जैसाकि ईश्वर के मार्ग में युद्ध पर जाने वाले शहादत के लिए तैयार रहते हैं हालांकि यह भी संभव है कि वे शहीद न हों। दूसरे शब्दों में ईश्वर के आदेश के सामने झुकना महत्वपूर्ण है चाहे उस आदेश के पालन का अवसर न मिल सके।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि ईश्वरीय संदेश पहुंचाने में, पैग़म्बरों के बीच अंतर, शिक्षा देने के संबंध में एक विद्यालय के शिक्षकों के बीच अंतर की भांति है। उन सबका लक्ष्य एक ही है और प्रत्येक शिक्षक अपने छात्र को पढ़ाई जारी रखने के लिए अगले शिक्षक से परिचित कराता है।
 केवल ईमान ही पर्याप्त नहीं है। धर्म तथा धार्मिक नेताओं की सहायता और उनका समर्थन भी आवश्यक है।
 जब सारे ही पैग़म्बर एक दूसरे को स्वीकार करते हैं तो फिर इस बात का कोई औचित्य तथा तर्क नहीं है कि ईश्वरीय धर्म के अनुयाई, इतनी अधिक और अनुचित सांप्रदायिकता दिखाएं।


सूरए आले इमरान की आयत संख्या ८३ इस प्रकार है।
तो क्या वे ईश्वरीय धर्म के अतिरिक्त (कोई धर्म) खोजते हैं? जबकि जो कुछ भी आकाशों तथा धरती में है, चाहते हुए और न चाहते हुए, उसके सामने सिर झुकाए हुए है। और (सभी) उसी की ओर पलटाए जाएंगे। (3:83)
 ईश्वर ने जिन वस्तुओं की सृष्टि की है वे दो प्रकार की हैं। एक गुट स्वयं ही अपने अधिकार और इरादे के साथ काम करता है और अपने मार्ग के पालन में स्वतंत्र है जैसे कि मनुष्य। दूसरा गुट ईश्वरीय सृष्टि की आवश्यकता के अनुसार बिना अधिकार और इरादे के बुद्धि के अधीन रहता है और उसमें कोई भी भावना नहीं होती जैसे फ़रिश्ते।
 यह आयत कहती है कि प्रकृति और उसमें मौजूद सभी विभिन्न वस्तुएं, सृष्टि के संबंध में ईश्वरीय क़ानूनों के समक्ष नतमस्तक हैं चाहे उन्हें स्वयं का अधिकार प्राप्त हो या न हो। तो जब ऐसा है और तुम सब सृष्टि में उसकी इच्छा के अधीन हो तो क़ानून बनाने में क्यों मानवीय विचारधाराओं को स्वीकार करते हो और ईश्वरीय क़ानून से निश्चेत हो जाते हो?
 मूल रूप से क्या सृष्टिकर्ता के अतिरिक्त किसी को सृष्टि के लिए क़ानून बनाने का अधिकार है? और क्या यह बात उचित है कि लोग अपने रचयिता के क़ानून को छोड़कर किसी अन्य की ओर जाएं।
 इस आयत से हम सीखते हैं कि अपनी पूरी महानता और वैभव के साथ पूरी प्रकृति ईश्वर के समक्ष नतमस्तक है। यदि हम ईश्वर के समक्ष नतमस्तक न हुए तो प्रकृति में एक भद्दे पैवंद की भांति दिखाई देंगे।
 प्रकृति और हमारा अंत ईश्वर के हाथ में है तो क्यों न हम स्वयं अपनी इच्छा और अधिकार से उसकी ओर जाएं।
 धर्म की वास्तविकता, ईश्वर के सामने पूर्ण रूप से नतमस्तक रहना है। ईश्वर की इच्छा के आगे ईमान वाले व्यक्ति की कोई इच्छा नहीं होती।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ८४ और ८५ इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर!) कह दो कि हम ईश्वर पर और जो कुछ हम पर उतरा है और जो कुछ इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक़, याक़ूब और अस्बात अर्थात याक़ूब के वंश के पैग़म्बरों पर उतरा है और जो कुछ मूसा, ईसा तथा अन्य पैग़म्बरों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया है सब पर ईमान लाए। हम उनमें से किसी के बीच कोई अंतर नहीं समझते हैं और हम सब उसके (आदेश के) आगे सिर झुकाने वाले हैं। (3:84) और जो कोई भी इस्लाम के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म में चला गया तो उससे कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह प्रलय के दिन घाटा उठाने वालों में से होगा। (3:85)
 इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व अन्य मोमिनों से कहा गया है कि वे पिछले पैग़म्बरों तथा उनकी किताबों के बारे में अपने ईमान की घोषणा करें तथा ईश्वरीय आदेशों के समक्ष नतमस्तक होने पर बल दें क्योंकि वे सभी एक ईश्वर की ओर से आए हैं, वहीं ईश्वर जिसने सृष्टि के आरंभ से ही कल्याण की ओर मनुष्य के मार्दर्शन के लिए सदैव अपनी ओर से पैग़म्बर भेजे हैं।
 स्वाभाविक है कि हर पैग़म्बर के आने के पश्चात उससे पहले वाले पैग़म्बर की शिक्षाओं पर बाक़ी रहना मानवीय मार्गदर्शन की प्राप्ति व परिपूर्णता में बाधा है और पैग़म्बरों ने एक विद्यालय के शिक्षकों की भांति मनुष्य को विभिन्न क्लासों में पढ़ाकर आगे की ओर बढ़ाया है। ईश्वर के अन्तिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लललाहो अलैहे व आलेही व सल्लम हैं जिन्होंने अपनी शिक्षाओं को इस्लामी विचारधारा के अंतर्गत पेशा किया। स्पष्ट सी बात है उनके आने के पश्चात पिछले पैग़म्बरों के अनुयाइयों का यह कर्तव्य है कि उनका अनुसरण करें और यदि कोई अन्य धर्म पर बाक़ी रहता है तो उससे स्वीकार नहीं किया जाएगा।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि सभी पैग़म्बरों का लक्ष्य एक ही था चाहे समय व स्थान के अनुसार निमंत्रण देने की उनकी पद्धतियां विभिन्न रही हों।
 सबसे अच्छा तथा परिपूर्ण धर्म होते हुए किसी अन्य धर्म को स्वीकार करना घाटा है।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ८६ तथा ८७ इस प्रकार है।
ईश्वर किस प्रकार मार्गदर्शन करे उस गुट का जो ईमान लाने के पश्चात काफ़िर हो गया। और उन्होंने आरंभ में पैग़म्बरे इस्लाम की सत्यता की गवाही दी और स्पष्ट तर्क व निशानियां उनके पास आईं थीं। निःसन्देह ईश्वर अत्याचारी गुट का मार्गदर्शन नहीं करता। (3:86) (जो लोग धर्मभ्रष्ट हो गए) उनका बदला यह है कि ईश्वर, फ़रिश्तों और सभी लोगों की लानत अर्थात धिक्कार उन पर है। (3:87)
 मोमिनों को जो ख़तरे लगे रहते हैं उनमें से एक ईमान से पलट जाना है। इतिहास से पता चलता है कि बहुत से लोग ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर पर ईमान लाए परन्तु उनमें से कुछ लोग सत्य को पहचानने और इस्लाम की सत्यता को जानने के बावजूद, सत्य के मार्ग से विचलित हो कर काफ़िर बन गए।
 स्पष्ट है कि सत्य को समझने और उन पर ईमान न लाने वाले तथा सत्य को समझने परन्तु शत्रुता व द्वेष या ग़लत इच्छाओं के कारण उस पर ईमान न लाने वाले के मध्य भारी अंतर है और दूसरे प्रकार का व्यक्ति स्वयं अपने ऊपर अत्याचार करने के कारण, ईश्वर की विशेष कृपा व दया से वंचित रह जाता है जो कि केवल मोमिनों के लिए है। न केवल ईश्वर बल्कि फ़रिश्ते और सत्य प्रेमी लोग भी ऐसे लोगों पर धिक्कार करते हैं और स्वयं को उनसे अलग बताते हैं जो पैग़म्बरों के फ़रिश्तों के परिश्रमों और ईश्वरीय मार्गदर्शन के साधनों को व्यर्थ कर देते हैं।
 इन आयतों से हमने सीखा कि केवल प्राथमिक ईमान ही पर्याप्त नहीं है। अपनी आयु के अंत तक ईमान को बचाना आवश्यक है क्योंकि मनुष्य को सदैव ही धर्मभ्रष्टता का ख़तरा लगा रहता है।
 ईश्वरीय मार्गदर्शन से लाभान्वित होना और वंचित रहना स्वयं हमारे हाथ मं है। ईश्वर किसी पर अत्याचार नहीं करता। हम स्वयं ही सत्य की ओर से मुंह मोड़कर अपने आप पर अत्याचार करते हैं।
 लोगों को धर्मभ्रष्ट लोगों की वैचारिक भ्रष्टता के विरूद्ध प्रतिक्रिया दिखानी चाहिए और उनसे अपनी दूरी की घोषणा करनी चाहिए।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ८८ और ८९ इस प्रकार है।
उनपर सदैव ईश्वरीय धिक्कार रहेगी, न उनसे दंड कम किया जाएगा और न उन्हें मोहलत दी जाएगी। (3:88) सिवाए उन लोगों के जो धर्म भ्रष्टता के पश्चात अपने कुफ़्र से तौबा अर्थात पश्चाता कर लें और (अपने विचारों और विश्वासों को) सुधार लें तो निःसन्देह, ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (3:89)
 जो लोग सत्य को समझने, परखने और पहचानने के पश्चात, ईमान से फिर जाएं उनके लिए कड़ा दण्ड है। संसार में भी वे सत्यप्रेमियों की धिक्कार के पात्र बने रहते हैं और प्रलय में भी उन्हें कड़ा ईश्वरीय दण्ड भोगना होगा। यह लोग दण्ड में किसी भी प्रकार की कमी या देरी के योग्य नहीं हैं और ईश्वरीय दया से दूर हैं।
 अलबत्ता तौबा और पश्चाताप का द्वार कभी बंद नहीं है यहां तक कि ऐसे लोग भी यदि वास्तव में अपने कार्य से लज्जित हो जाएं तथा अपने चरित्र व विचारों को सुधार लें तो वे ईश्वरीय क्षमा के पात्र बन जाएंगे और ईश्वरीय दया उनके पास पलट आएगी।
 इन आयतों से हमने सीखा कि तौबा केवल ज़बान से नहीं होती है। वास्तविक तौबा अपने पिछले ग़लत कर्मों और विचारों में सुधार है।
 ईश्वर न केवल यह कि पापी की तौबा को स्वीकार कर लेता है और उसे क्षमा कर देता है बल्कि तौबा करने वाले को पसंद भी करता है।


सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९० और ९१ ।
निःसन्देह जो लोग ईमान लाने के पश्चात काफ़िर हो गए और अपने कुफ़्र में वृद्धि करते रहे, उनकी तौबा स्वीकार नहीं की जाएगी और वही लोग पथभ्रष्ट हैं। (3:90) निःसन्देह जो लोग काफ़िर हुए और तौबा किये बिना ही कुफ़्र की अवस्था में मर गए तो यदि वे धरती को सोने से भर कर (प्रलय के दण्ड के) बदले में देंगे तब भी उनमें से किसी एक से भी स्वीकार नहीं किया जाएगा। ऐसे ही लोगों के लिए भारी दण्ड है और उनका कोई सहायक नहीं होगा। (3:91)
 मनुष्य अपने मार्ग के चयन में स्वतंत्र है और ईमान तथा कुफ़्र के बीच किसी एक का चयन कर सकता है। कुछ लोग अपने पूर्वजों का अनुसरण करते हुए या अनुचित इच्छाओं के कारण या समय की आवश्यकता के दृष्टिगत ईमान लाते हैं परन्तु चूंकि उनके ईमान का आधार ठीक नहीं हैं अतः वे बड़ी ही सरलता से उसे छोड़ कर काफ़िर हो जाते हैं बल्कि अधिकतर कुफ़्र के चयन में वे दूसरों से आगे रहते हैं।
 यह लोग पथभ्रष्टता में इतना आगे बढ़ जाते हैं कि अपनी वापसी तथा सुधार की हर संभावना को समाप्त कर देते हैं। वे निश्चेतना की इतनी गहरी नींद सोते हैं कि मौत के ख़तरे या मुसलमानों की विजय के अतिरिक्त कोई भी चीज़ उन्हें नहीं जगाती और तौबा पर विवश नहीं करती है। और ऐसी तौबा जो भय या जान की रक्षा के लिए हो, कोई महत्व नहीं रखती और उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा क्योंकि तौबा को आंतरिक पश्चाताप के आधार पर होना चाहिए न कि भय और मृत्यु जैसे तत्वों के आधार पर जो बाहर से मनुष्य पर थोपे जाते हैं।
 न केवल यह कि ज़बानी तौबा ऐसे लोगों को मुक्ति नहीं देगी बल्कि किसी भी प्रकार की धन-दौलत भी उन्हें प्रलय के ईश्वरीय दण्ड से बचा नहीं पाएगा और इसी प्रकार उस दिन कोई मित्र और सहायक भी नहीं होगा जो उन्हें नरक की आग से बचा सके।
 इन आयतों से हमने सीखा कि ईमान की सुरक्षा तथा उसे बाक़ी रखना, स्वयं ईमान से अधिक महत्वपूर्ण है। बहुत से ऐसे लोग हैं जो ईमान रखने के बाद भी काफ़िर हो जाते हैं।
 ईश्वर, तौबा स्वीकार करने वाला है परन्तु कुछ लोग, कुफ़्र और अवज्ञा पर अपने आग्रह के कारण तौबा की संभावना खो बैठते हैं।
 अपने वर्तमान पर प्रसन्न नहीं होना चाहिए क्योंकि हर मोमिन को काफ़िर बन कर मरने का ख़तरा लगा रहता है।



सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९२ ।
(हे ईमान वालो!) तुम कदापि भलाई तक नहीं पहुंच सकते सिवाए इसके कि जो कुछ तुम पसंद करते हो, उनमें से (ईश्वर के मार्ग में) ख़र्च करो और (जान लो कि) जो कुछ तुम (ईश्वर के मार्ग में) ख़र्च करते हो, निःसन्देह, ईश्वर उससे अवगत है। (3:92)
 इस आयत में प्रयोग होने वाले शब्द "बिर्र" के व्यापक अर्थ हैं और यह विचार तथा व्यवहार में की जाने वाली हर प्रकार की भलाई पर लागू होता है। जैसा कि क़ुरआने मजीद में ईश्वर पर ईमान तथा नमाज़, जेहाद व वचन के पालन जैसे कर्मों को भी बिर्र कहा गया है। यह आयत बिर्र का एक अन्य उदाहरण ईश्वर के मार्ग में इनफ़ाक़ अर्थात ख़र्च करना बताती है और कहती है कि वास्तविक भलाई यह है कि मनुष्य को चाहिए कि जो कुछ अपने लिए पसंद करता है उसी में से दूसरों को भी दान करे न यह कि जो कुछ वह प्रयोग कर चुका है और वह उसके लिए लाभदायक नहीं है उसे अन्य लोगों को दे दे।
 इतिहास में है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की प्रिय सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अलैहस्लाम के विवाह की रात एक दरिद्र व्यक्ति ने उनसे कोई पहना हुआ पुराना कपड़ा मांगा परन्तु उन्होंने उसे शादी का नया जोड़ा दे दिया। यह घटना इस आयत का स्पष्टतम उदाहरण है जिसमें कहा गया है कि जो कुछ तुम स्वयं अपने लिए पसंद करते हो वही दूसरों को दान करो न कि उस चीज़ को जिसे दरिद्र लोग पसंद करते हैं क्योंकि हो सकता है कि वे लोग अपनी दरिद्रता के कारण तुच्छ वस्तुओं पर भी संतुष्ट हो जाएं।
 अलबत्ता इनफ़ाक़ के और व्यापक अर्थ भी हैं जिनमें दूसरों की हर प्रकार की सहायता शामिल है चाहे वह दान के रूप में हो या फिर ऋण के रूप में या केवल वक़्फ़ और मान-मनौती के रूप में।
 इस आयत से हमने सीखा कि धर्म की दृष्टि से भलाई केवल नमाज़ और उपासना ही नहीं है। वंचितों व दरिद्रों की सहायता और समाज में उत्पन्न होने वाली आर्थिक खाइयों को पाटना भी मोमिन का कर्तव्य है।
 जब ईश्वर हमारे दान-दक्षिणा को देख रहा है तो हमें सबसे अच्छी वस्तुओं को दान करना चाहिए तथा उसके प्रकार या उसकी संख्या पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
 बिर्र का उच्चतम दर्जा, शहीदों को प्राप्त है क्योंकि वे ईश्वर के मार्ग में अपनी सबसे प्रिय व मूल्यवान संपत्ति अर्थात जान को लुटाते हैं।
 इस्लाम में दान का लक्ष्य केवल भूखों का पेट भरना नहीं है बल्कि इसमें दानी की प्रगति भी निहित है। काल्पनिक तथा भौतिक वस्तुओं से दिल हटाना दान व त्याग की भावना आत्मा को प्रभुल्लित होने का कारण है।



 सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९३ और ९४ ।
बनी इस्राईल के लिए हर प्रकार का भोजन हलाल था सिवाए उसके जिसे (बनी) इस्राईल (के पैग़म्बर, हज़रत याक़ूब) ने तौरेत आने से पूर्व स्वयं पर हराम कर लिया था। (हे पैग़म्बर! मदीने में यहूदियों से) कह दो कि यदि तुम सच्चे हो तो तौरेत को लाओ और उसे पढ़ो (ताकि स्पष्ट हो जाए कि स्वयं तुम लोगों ने उन्हें हराम किया है)। (3:93) तो इसके बाद जो कोई भी ईश्वर पर झूठ बांधे तो निःसन्देह, वही लोग अत्याचारी हैं। (3:94)
 मदीने के यहूदी पैग़म्बरे इस्लाम पर जो आपत्तियां करते थे उनमें से एक यह थी कि इस्लाम के आदेशों और हज़रत मूसा तथा हज़रत ईसा के आदेशों में भिन्नता और विराध पाया जाता है। इसका उदाहरण वे यह देते थे कि पिछले पैग़म्बरों के धर्म में ऊंट का मांस व दूध हराम था जबकि इस्लाम में यह हलाल है।
 उनके जवाब में यह आयत कहती है कि ऊंट का मांस तथा दूध उन भोजनों में से हैं जो हज़रत मूसा के काल में भी हलाल थे। केवल हज़रत याक़ूब इस भोजन से परहेज़ करते थे और वे भी इस कारण कि यह भोजन उनके शरीर के लिए ठीक नहीं था। बनी इस्राईल ने सोचा कि यह एक धार्मिक तथा सर्वकालीन आदेश है जबकि यह तो एक व्यक्तिगत परहेज़ था न कि ईश्वर का आदेश।
 आयत आगे चलकर कहती है कि हज़रत मूसा के धर्म व आदेशों का आधार तौरेत है न कि तुम्हारी कही और सुनी हुई बातें। तौरेत में यदि किसी वस्तु को हराम कहा गया है तो तुम उसे हराम समझो अन्यथा निराधार किसी बात को ईश्वर की ओर संबंधित न करो।
 इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वरीय हलाल को हराम और हराम को हलाल नहीं करना चाहिए। जिसे धर्म ने हलाल या हराम कहा है केवल उसी को स्वीकार करना चाहिए। हमें उन बातों को स्वीकार नहीं करना चाहिए जो हम लोगों की ज़बान से सुनते हैं या जिन बातों को हम समाज की परंपराओं में देखते हैं।
 खाने-पीने की वस्तुओं में मूल आधार, उनका हलाल होना है अर्थात किसी वस्तु के हलाल होने को सिद्ध करने के लिए हमें किसी तर्क की आवश्यकता नहीं है बल्कि यदि हम किसी वस्तु को हराम कहें तो हमारे पास उसके लिए तर्क होना चाहिए।
 अपने व्यक्तिगत विचारों और विश्वासों को धर्म के नाम पर प्रस्तुत नहीं करना चाहिए क्योंकि यह धर्म, धार्मिक नेताओं और लोगों के प्रति सबसे बड़ा अपराध है।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९५ ।
(हे पैग़म्बर, आसमानी किताब वालों से) कह दो (कि अब जबकि स्पष्ट हो गया है कि) ईश्वर ने सच कहा है तो इब्राहीम के धर्म का अनुसरण करो जो सत्यवादी थे और कभी भी अनेकेश्वरवादियों में से न हुए। (3:95)
 पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि यहूदियों ने कुछ खाद्य सामग्रियों को स्वयं पर हराम अर्थात वर्जित कर लिया था और इसे वे ईश्वरीय आदेश बताया करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम ने उनसे कहा कि यदि तुम सच बोल रहे हो तो इन वस्तुओं के वर्जित होने का आदेश तौरेत में दिखाओ।
 यह आयत उन्हें याद दिलाती है कि तुम जो स्वयं को हज़रत इब्राहीम के धर्म के अनुयायी बताते हो, तो तुम्हें व्यवहार में भी हज़रत इब्राहीम की भांति सत्य की पहचान और उसके अनुसरण के प्रयास में रहना चाहिए। यही ईश्वरीय किताब का आदेश है। ऐसा न हो कि तुम लोग अपने पूर्वजों की संस्कृति एवं परंपरा के प्रति अपनी अनुचित इच्छाओं के पालन या समाज में प्रचलित ग़लत प्रथाओं के पालन के प्रयास में रहो कि यह वास्तव में एक प्रकार का अनेकेश्वरवाद है।
 इस आयत से हमने सीखा कि सत्य की खोज और सत्य का अनुसरण, इतिहास में महान लोगों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता रही है। हमें भी ऐसे लोगों से प्रेरणा लेने और उनको अपना आदर्श बनाने का प्रयास करना चाहिए।
 ईश्वरीय क़ानूनों के समक्ष किसी भी क़ानून या परंपरा को स्वीकार करना, क़ानून बनाने के मामले में ईश्वर के साथ किसी अन्य को जोड़ने की भांति है।



 सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९६ और ९७।
निःसन्देह, लोगों (की उपासना) के लिए जो पहला घर बनाया गया वही है जो मक्का नगर की धरती पर है (ऐसा घर) जो पूरे संसार के लिए विभूति और मार्गदर्शन (का कारण) है। (3:96) उस घर में इब्राहीम के स्थान (जैसी) स्पष्ट निशानियां हैं और जो भी उस घर में प्रविष्ट हो गया वह सुरक्षित है। लोगों पर ईश्वरीय कर्तव्य है कि जिस किसी में भी उस घर तक पहुंचने की क्षमता हो वह इस घर का हज करे और जो कोई इन्कार करे तो निःसन्देह, ईश्वर पूरे संसार के आवश्यकतामुक्त है। (3:97)
 मुसलमानों पर यहूदियों की ओर से जो आपत्तियां की जाती थीं उनमें से एक यह थी कि बैतुलमुक़द्दस का निर्माण हज़रत ईसा मसीह के जन्म से लगभग एक हज़ार वर्ष पूर्व हज़रत सुलैमान के हाथों हुआ था तो तुम लोगों ने काबे को क़िबला क्यों बना लिया जबकि वह अधिक पुराना नहीं है।
इसके उत्तर में क़ुरआने मजीद कहता है कि काबा वह पहला स्थान है जो लोगों की उपासना के लिए बनाया गया है और वह प्रत्येक उपासनागृह से अधिक पुराना है। पैग़म्बरे इस्लाम तथा उनके परिजनों के कथनानुसार काबे की नीव हज़रत आदम ने रखी थी और सभी पैग़म्बरों ने उसके दर्शन किये हैं। इस ऐतिहासिक इमारत का पुनर्निर्माण हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने किया और इसकी ज़ियारत के लिए विशेष नियम निर्धारित किये।
काबा न केवल क़िबला है, जिसकी ओर मुख करके मुसलमान प्रतिदिन पांच बार नमाज़ पढ़ते हैं बल्कि वह ईश्वरीय शक्ति की एक निशानी भी है जिसके समीप प्रतिवर्ष पूरे संसार के मुसलमान एकत्रित होते हैं और जिस किसी में भी आर्थिक तथा शारीरिक क्षमता हो उसे अपने जीवन में कम से कम एक बार इस वार्षिक सम्मेलन अर्थात हज में अवश्य उपस्थित होना चाहिए।
काबे की दीवारों को ऊंचा उठाते समय हज़रत इब्राहीम एक ऊंचे पत्थर पर खड़े हो जाया करते थे। हर काल में लोगों ने उस पत्थर का भी आदर किया और इस समय वह काबे के समीप मक़ामे इब्राहीम अर्थात इब्राहीम के स्थान के रूप में सुरक्षित है। काबे का पुनर्निर्माण भी हज़रत ईसा और हज़रत मूसा से शताब्दियों पूर्व हुआ था और इस बीच बाढ़ तथा विध्वंस जैसे कई परिवर्तन भी हुए किंतु आज भी काबे के समीप इस पत्थर का बाक़ी रहना स्वयं एक स्पष्ट ईश्वरीय निशानी है जिसे ईश्वरीय घर के दर्शन अर्थात काबे की ज़ियारत को जाने वालों के लिए शिक्षा सामग्री बनना चाहिए।
आज हम इस काबे के समीप मक़ामे इब्राहीम की ज़ियारत करते हैं और एक दिन ऐसा आएगा जब धरती पर ईश्वर की अन्तिम निशानी और उसके अन्तिम प्रतिनिधि इमाम महदी अलैहिस्सलाम, काबे की दीवार से टेक लगाकर मानवता के कल्याण का नारा लगाएंगे और अपने विश्वव्यापी आन्दोलन द्वारा संसार में न्याय स्थापित करेंगे।
दूसरी ओर मक्का और काबा, ईश्वर की ओर से घोषित सुरक्षित क्षेत्र हैं जहां पर कीड़ों-मकोड़ों और घास-फूस को भी सुरक्षा प्राप्त है। किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह वहां पर कोई पौधा तोड़े या किसी पक्षी का शिकार करे। इस्लामी शिक्षाओं में मिलता है कि यदि कोई अपराधी मस्जिदुल हराम में प्रविष्ट हो जाए तो उसे बाहर नहीं निकाला जा सकता, हां उसे खाने पीने की दृष्टि से कठिनाई में डालकर स्वयं बाहर निकलने पर विवश किया जा सकता है।
इन आयतों से हमने यह सीखा कि यदि आज विभिन्न राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के एकत्रित होने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ नामक संस्था बनाई गई है तो ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में भी काबे को लोगों के घर के रूप में बनाया है कि जो उपासना का भी स्थान है और सभी जातियों व संप्रदायों के प्रतिनिधियों के एकत्रित होने का स्थल भी।
ईश्वरीय कर्तव्यों का पालन हर एक की क्षमता पर निर्भर है। ईश्वर ने सभी वस्तुओं को एक समान कर्तव्य दिये हैं और हर किसी के कंधों पर उसकी आर्थिक व शारीरिक क्षमताओं के अनुसार भार डाला है।
 ईश्वरीय कर्तव्यों के पालन का लाभ स्वयं हमें होता है और ईश्वर को हमारी उपासनाओं या कर्तव्य पालन की कोई आवश्यक्ता नहीं है जैसा कि उसे हमारे अस्तित्व की भी कोई आवश्यकता नहीं है।




सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९८ और ९९ |
(हे पैग़म्बर) कह दो कि है (आसमानी) किताब (रखने) वालों, तुम क्यों ईश्वरीय निशानियों का इन्कार करते हो जबकि ईश्वर तुम्हारे कर्मों का साक्षी है। (3:98) कह दो कि हे (आसमानी) किताब (रखने) वालों, जो लोग ईमान ला चुके हैं तुम उन्हें ईश्वर के मार्ग (पर चलने) से क्यों रोकते हो और उस (सीधे मार्ग) में पथभ्रष्टता उत्पन्न करने का प्रयास करते हो, जबकि तुम स्वयं गवाह हो (कि उनका ही मार्ग सही है) और जान लो कि जो कुछ तुम करते हो, ईश्वर उससे निश्चेत नहीं है। (3:99)
 इस्लाम के उदय से अरब में यद्यपि अधिकांश ईश्वरीय धर्म के अनुयायी, यहूदी थे और तौरेत तथा इंजील की भविष्यवाणियों के आधार पर वे अन्तिम ईश्वरीय पैग़म्बर की प्रतीक्षा कर रहे थे परन्तु पैग़म्बरे इस्लाम के मदीना नगर पहुंचने पर बहुत से यहूदियों और ईसाइयों ने उन पर ईमान लाने के स्थान पर उनकी किताब अर्थात पवित्र क़ुरआन का ही इन्कार कर दिया और मुसलमानों का साथ देने के बजाए वे शत्रुओं से जा मिले।
 वे लोग न केवल यह कि स्वयं ईमान नहीं लाते थे बल्कि दूसरों के ईमान लाने में भी बाधाएं डालाते थे। वे इस्लाम की छवि को इतना बिगाड़ कर प्रस्तुत करते थे कि किसी को भी उसमें रूचि न हो और कोई भी पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान न लाए। इन आयतों में ईश्वर अपने पैग़म्बर से कहता है कि उन लोगों से कह दो कि क्या तुम यह नहीं जानते कि ईश्वर तुम्हारी गुप्त गतिविधियों से परिचित है और वह कभी भी तुम्हारे कर्मों की ओर से निश्चेत नहीं रहता, तो तुम ईश्वर के मार्ग में क्यों रोड़े अटकाते हो और मोमिनों को पथभ्रष्ट करने का प्रयास करते हो?
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि यदि हम ईश्वर को अपने कार्यों का साक्षी मानें तो फिर हम बहुत से कार्य नहीं करेंगे। ईश्वर के ज्ञान व विश्वास, मनुष्य को बहुत से पापों से रोकने का सबसे अच्छा मार्ग है।
 ईश्वरीय धर्म के बहुत से शत्रु उसके सत्य और अपने मार्ग के ग़लत होने से अवगत हैं किंतु फिर भी लोगों को भटकाने का प्रयास करते हैं क्योंकि वे सांसारिक हितों की प्राप्ति को हर चीज़ पर वरीयता देते हैं।


 सूरए आले इमरान की आयत संख्या १००-१०१ ।
हे ईमान वालो! यदि तुम (आसमानी) किताब (रखने) वालों के एक गुट का अनुसरण करोगे तो वह तुमको ईमान के पश्चात, कुफ़्र की ओर पलटा देगा। (3:100) और तुम किस प्रकार कुफ़्र अपनाते हो जबकि तुम्हारे लिए ईश्वरीय आयतों की तिलावत की जाती है और ईश्वर का पैग़म्बर तुम्हारे बीच है। और जो कोई भी ईश्वर (के धर्म और उसकी किताब) से नाता जोड़े रहे निःसन्देह, सीधे मार्ग की ओर उसका मार्गदर्शन हुआ है। (3:101)
 पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के मदीना नगर आने और वहां इस्लामी शासन स्थापित होने के पश्चात इस नगर के विभिन्न क़बीलों के बीच शांति स्थापित हो गई। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की छत्रछाया में औस तथा ख़ज़रज नामक दो क़बीलों के बीच शांति स्थापित हो गई। यह दोनों क़बीले दसियों वर्षों से एक-दूसरे के साथ युद्धरत थे। अब वे मिल-जुलकर रहने लगे।
 यहूदियों के कुछ नेताओं ने जो मुसलमानों की इस एकता तथा समरसता को अपने लिए हानिकारक समझ रहे थे पुनः मुसलमानों के बीच युद्ध भड़काने का षड्यंत्र रचना आरंभ किया। इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने एक मुसलमान व्यक्ति को यह दायित्व सौंपा कि वह पुराने युद्धों की बातें याद दिला कर औस तथा ख़ज़रज नामक दोनों क़बीलों के सरदारों को उत्तेजित करे। यहूदियों की यह चाल पूरी हो गई और मुसलमानों के बीच एक गंभीर युद्ध की संभावना उत्पन्न हो गई।
 उसी समय ये आयतें उतरी जिनमें ईश्वर ने मुसलमानों को चेतावनी दी कि वे शत्रुओं के षड्यंत्रों की ओर से सचेत रहें और यह जान लें कि शत्रु का लक्ष्य उन्हें ईश्वर तथा एक-दूसरे से दूर करना है। लोगों के बीच एकता का सबसे अच्छा केन्द्र बिंदु, ईश्वर की किताब का अस्तित्व है तथा ईश्वर के मार्ग और पैग़म्बर के आदेशों का पालन है अतः मुसलमानों को सदैव एकता की इस रस्सी को मज़बूती से थामे रहना चाहिए और कभी भी मित्र समान शत्रुओं के फूट डालने वाली बातों से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि शत्रु की इच्छा ईश्वर के पैग़म्बर औउ उसकी किताब के प्रति हमारे ईमान को कमज़ोर बनाना है अतः हमें ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे उसकी यह इच्छा पूरी हो सके।
 अपने आज के ईमान पर घमण्ड नहीं करना चाहिए, कितने ही ऐसे ईमान वाले थे जिनका अंत बुरा हुआ और वे काफ़िर होकर मरे।
 समाज में ईश्वरीय क़ानून और आसमानी किताब का होना ही, पथभ्रष्टता को रोकने के लिए काफ़ी नहीं है बल्कि ईश्वरीय नेता की उपस्थिति और उसका अनुसरण भी आवश्यक है।
 मनुष्य का प्रयास उसी दशा में उसे लक्ष्य तक पहुंचा सकता है कि जब वह सीधे मार्ग पर चल रहा हो न कि ग़लत तथा टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर।



 सूरए आले इमरान की आयत संख्या १०२ और १०३ ।
हे ईमान लाने वालो, ईश्वर से वैसे डरो जैसे उससे डरना चाहिए और मुस्लिम रहते हुए ही मरना। (3:102) और तुम सब मिलकर ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से थामे रहो और बिखरो नहीं और अपने ऊपर ईश्वर की उस विभूति को याद करो जब तुम एक-दूसरे के शत्रु थे तो उसने तुम्हारे दिलों में एक-दूसरे के लिए प्रेम जगाया तो तुम उसकी विभूति की छाया में एक-दूसरे के भाई बन गए (जैसा कि) तुम नरक की कगार पर थे और ईश्वर ने तुम्हें उससे मुक्ति दिलाई। ईश्वर अपनी निशानियों को इस प्रकार तुम्हारे लिए स्पष्ट रूप से वर्णित करता है कि शायद तुम लोग मार्गदर्शित हो जाओ। (3:103)
 ईश्वरीय पैग़म्बरों को विद्यालय में, ईमान वालों के प्रशिक्षण व प्रगति के लिए, जो इस विद्यालय के छात्र हैं, बड़ी कक्षाओं में मौजूद हैं। हर भलाई और परिपूर्णता के कुछ चरण हैं अतः ईश्वर पर ईमान रखने वाले व्यक्ति को सदा ही अगले चरण तक पहुंचने के प्रयास करते रहना चाहिए। ईश्वर की ओर से मनुष्य को दी गई एक विभूति, ज्ञान, उन परिपूर्णताओं में से है जिसमें अपनी प्रगति के लिए पैग़म्बरे इस्लाम भी सदैव ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा करते थे कि प्रभुवर मेरे ज्ञान में वृद्ध कर दे। ईमान तथा ईश्वर से डरने के भी कुछ चरण हैं। इस आयत में ईश्वर, ईमान वालों को उसके अगले चरण की ओर बढ़ने की सिफ़ारिश और प्रोत्साहन करते हुए कहता है कि ईश्वर से ऐसा भय रखो कि जो उस पर ईमान के लाएक़ हो, ऐसा भय जो तुम्हें बुराइयों से दूर भी रखे और भलाई करने पर प्रोत्साहित भी करे।
 आयत संख्या १०३ मुसलमानों को ईश्वरीय धर्म की छत्र-छाया में एकता व एकजुटता का निमंत्रण देते हुए कहती है कि यह मत भूलो कि ईश्वर पर ईमान लाने से पूर्व तुम लोगों के बीच किस प्रकार विवाद और द्वेष व्याप्त था और तुम लोग बुराई की ऐसी कगार पर जीवन व्यतीत कर रहे थे जहां से तबाही और गंदगी में तुम्हारे गिरने और तबाह होने की संभावना हर पल पाई जाती थी अतः तुम लोग ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहो कि उसने तुम्हारे दिलों को समीप लाकर तुम्हारे बीच ऐसा प्रेम उत्पन्न कर दिया कि तुम भाइयों के समान जीवन व्यतीत करने लगे।
 इन आयतों से हमने सीखा कि अच्छा अंत तथा ईमान के साथ मृत्यु, ईश्वर से भय और पवित्रता से ही संभव है। मनुष्य किस प्रकार मरता है यह उसकी जीवन शैली पर निर्भर है।
 भाषा, संप्रदाय और राष्ट्रीयता के आधार पर समाज में एकता, सुदृढ़ व स्थायी नहीं हो सकती। वास्तविक एकता ईश्वरीय धर्म की छाया में ही प्राप्त हो सकती है जो सदैव ठोस, सुदृढ़ व स्थायी है।
 अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक व सामरिक समझौतों के आधार पर होने वाली एकता टिकाऊ नहीं होती, वास्तविक एकता दिलों के प्रेम से प्राप्त होती है जो ईश्वर के हाथ में है।
 ईश्वर की दी हुई विभूतियों का स्मरण उससे प्रेम और उसके आदेशों के पालन का कारण बनता है जैसा कि ईश्वरीय कृपाओं की ओर से निश्चेतना विभूतियों के समाप्त होने का कारण बनती है।




सूरए आले इमरान की आयत नंबर 104 |
और तुम मुसलमानों के बीच एक ऐसा गुट होना चाहिए जो लोगों को भलाई का निमंत्रण दे, अच्छे कार्यों की ओर आमंत्रित करे और बुराइयों से रोके और ऐसे ही लोग सफलता प्राप्त करने वाले हैं। (3:104)
 मनुष्य का जीवन सामाजिक है अर्थात वह अन्य लोगों के साथ मिल कर रहता है और सामाजिक जीवन में लोगों क व्यवहार व्यक्तिगत परिणामों के अतिरिक्त समाज के अन्य सदस्यों पर भी प्रभाव डालता है। मानव समाज एक बड़ी नौका के समान है जिसके किसी भाग में यदि कोई अनभिज्ञ व्यक्ति या शत्रु छेद कर देता है तो यह कार्य संपूर्ण नौका और उसमें सवार अन्य लोगों के डूबने का कारण बनता है अतः बुद्धि के आदेशानुसार समाज के सभी लोग एक दूसरे के प्रति उत्तरदायी हैं ताकि मानवता की इस नौका को कोई क्षति न पहुंच सके।
बुद्धि के इस आदेश को धर्म ने अच्छे काम के निमंत्रण और बुराई से रोकने जैसे कर्तव्य का नाम दिया है और हर मुसलमान को प्रतिबद्ध किया है कि जहां कहीं भी भलाई और अच्छे कर्मों को छोड़ दिया गया हो वह लोगों को उनकी ओर आमंत्रित करे और जहां कहीं भी बुराई देखे उससे लोगों को रोके। इस सीमा तक भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना हर एक का कर्तव्य है सभी को अपनी क्षमता के अनुसार यह काम करना चाहिए।
परंतु यह आयत कहती है कि सभी मुसलमानों के अतिरिक्त इस काम क लिए एक प्रशिक्षित एवं व्यवस्थित गुट भी होना चाहिए जो पूरी गंभीरता और शक्ति के साथ समाज में भलाई प्रचलित करने और बुराई करने का प्रयास करे। जैसा कि यदि कोई अनभिज्ञ या क़ानून तोड़ने वाला चालक वनवे सड़क पर गाड़ी ले जाए तो दूसरे चालक भी उसे हार्न बजा कर या हेडलाइट्स जला कर चेतावनी देते हैं और ट्रेफ़िक पुलिस भी जुर्माना करके उसे दंडित करती है।
रोचक बात यह है कि भलाई का आदेश देने और बुराई से रोकने की यह आयत ऐसी दो आयतों के बीच में है जिनमें लोगों को एकता व एकजुटता की सिफ़ारिश की गई है। इसका अर्थ यह है कि भलाई का आदेश और उसका प्रचलन ऐसे समाज में संभव है जिसमें फूट न पड़ी हो और सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त न हो अन्यथा इस प्रकार का निमंत्रण प्रभावी नहीं होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लामी समाज में लोगों के सामाजिक व्यवहार पर भी दृष्टि रखने के लिए कुछ गुटों का होना आवश्यक है ताकि जहां भी आवश्यक हो वे बुराइयों की रोकथाम करें और समाज में बुराइयों व अशिष्ट बातों को प्रचलित न होने दें।
सफलता व कल्याण समाज की बुराइयों को समाप्त करने हेतु प्रयासरत रहने में है न कि सामाजिक मामलों से कट कर अलग-थलग रहने में।
ईमान वालों को केवल अपने कल्याण व मोक्ष के विचार में नहीं रहना चाहिए बल्कि उन्हें समाज के अन्य सदस्यों की प्रगति व मोक्ष का भी ध्यान रखना चाहिए।
भलाइयों का आदेश देने को बुराइयों से रोकने पर वरीयता प्राप्त है क्योंकि यदि समाज में सही और भले कामों के मार्ग खुल जाएं ग़लत मार्ग अपने आप कम हो जाएंगे।

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