कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2 : 26 -27 - धार्मिक शिक्षाओं की प्राप्ति में शर्म और लज्जा अच्छी बात नहीं है|

सूरए बक़रह की आयत क्रमांक २६ इस प्रकार है। निश्चित रूप से ईश्वर को इस बात से लज्जा नहीं आती कि वह मच्छर या उससे भी तुच्छ वस्तु की उपमा ...

सूरए बक़रह की आयत क्रमांक २६ इस प्रकार है।

निश्चित रूप से ईश्वर को इस बात से लज्जा नहीं आती कि वह मच्छर या उससे भी तुच्छ वस्तु की उपमा दे। जो लोग ईमान लाए हैं वे जानते हैं कि यही सच है और उनके पालनहार की ओर से है। और जिन लोगों ने ईश्वर का इन्कार किया वे कहते हैं कि ऐसी उपमा देने से ईश्वर का क्या अभिप्राय है? ईश्वर इसी उपमा से बहुत से लोगों को पथभ्रष्ट करता है और इसी से बहुत से लोगों का मार्गदर्शन करता है और जान लो कि वह उसके द्वारा उन्हीं लोगों को पथभ्रष्ट करता है जो अवज्ञाकारी होते हैं। (2:26)

इस्लाम के विरोधी जो क़ुरआन जैसी कोई किताब लाने में असमर्थ थे और क़ुरआन के दृढ़ तर्क के समक्ष उनका कोई तर्क नहीं था, क़ुरआने की उपमाओं को बहाना बना कर कहते थे कि ईश्वर इससे कहीं महान है कि वह इस प्रकार की उपमा दे। उपमा देना मनुष्य का काम है न कि ईश्वर का, ईश्वर को शोभा नहीं देता कि वह मक्खी या मकड़ी की उपमा दे। यह बात उसके लिए उचित नहीं है।
इस्लाम विरोधी, जो स्वयं ईश्वर को स्वीकार नहीं करते थे, इस प्रकार की बातें करके केवल मुसलमानों को क़ुरआन व पैग़म्बर के बारे में असमंजस में डाल कर उनके ईमान को डांवाडोल करना चाहते थे। जबकि प्रथम यह कि क़ुरआन की सारी उपमाएं ऐसी नहीं हैं जैसा कि गत आयतों में ईश्वर ने मिथ्याचारियों को एक भटके हुए यात्री की उपमा दी थी जिसे कई प्रकार के ख़तरे लगे रहते हैं और उसके पास अपनी यात्रा जारी रखने के लिए प्रकाश नहीं होता। दूसरे यह कि उपमा, वास्तविकता को व्यवहारिक बनाने का साधन है और जब बोलने वाला किसी कि तुच्छता या कमज़ोरी का उल्लेख करता है तो उसे मक्खी या मच्छर की उपमा देता है।
इसी कारण इस आयत में कहा गया है कि ईश्वर मच्छर या उससे तुच्छ वस्तु की उपमा देने में लज्जित नहीं होता क्योंकि आध्यात्मिक एवं मानसिक वास्तविकताओं को आभास योग्य उपमाओं के सांचे में प्रस्तुत किया जाना चाहिए ताकि लोग समझ सकें और उपमा में हाथी और मच्छर के बीच कोई अंतर नहीं होता और हर एक को विषय के अनुसार प्रयोग किया जाता है।
इस आयत के आधार पर क़ुरआने मजीद की उपमाओं के संबन्ध में दो प्रकार के लोग पाए जाते हैं। एक गुट ऐसे लोगों का है जो सत्य पर आधारित दृष्टि रखता है और क़ुरआन की उपमाओं के तर्क को समझता है। ऐसे लोगों के लिए यह उपमाएं मार्गदर्शन और वास्तविकता को समझने का कारण बनती हैं किंतु जो लोग हठधर्म, द्वेष और शत्रुता की दृष्टि से क़ुरआन और पैग़म्बर को देखते हैं वे न केवल यह कि क़ुरआने मजीद की शिक्षाओं से लाभान्वित नहीं हो पाते बल्कि संदेह और असमंजस के कारण, ईश्वरीय मार्गदर्शन से भी दूर हो जाते हैं और पथभ्रष्टता में ग्रस्त हो जाते हैं। अलबत्ता इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ईश्वर केवल वास्तविकताओं का वर्णन करता है। मार्गदर्शन प्राप्त करना या पथभ्रष्ट होना, उन वास्तविकताओं के प्रति मनुष्य की प्रतिक्रिया का परिणाम होता है, जैसा कि ईश्वर भी बल देकर कहता है कि केवल अवज्ञाकारी लोग ही पथभ्रष्ट होते हैं।

इस आयत से मिलने वाले पाठः
वास्तविकता और धार्मिक शिक्षाओं की प्राप्ति में शर्म और लज्जा अच्छी बात नहीं है बल्कि लज्जा उन बातों में होनी चाहिए जिन्हें धर्म, बुद्धि या जनाधार पसंद न करता हो।

उच्च वास्तविकताओं और शिक्षाओं को सरल भाषा में प्रस्तुत करना चाहिए ताकि सामान्य लोग भी समझ सकें।
क़ुरआने मजीद की उपमाएं काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविकताओं पर आधारित हैं इसी कारण वह कभी विभिन्न पशुओं की उपमा देता है तो कभी प्राकृतिक बातों जैसे बिजली, वर्षा और गरज इत्यादि की।
पाप और अवज्ञा, वास्तविकताओं को सही ढंग से पहचानने में रुकावट और मनुष्य की पथभ्रष्टता का कारण बनती है।
ईश्वर का काम वास्तविकता को प्रस्तुत करना है। मार्गदर्शन प्राप्त करना या पथभ्रष्ट होना उस वास्तविकता के समक्ष, मनुष्य की प्रतिक्रिया का परिणाम होता है। 

सूरए बक़रह; आयत २७ 

सुरए बक़रह की आयत नंबर २७ इस प्रकार है।

ये (अवज्ञाकारी) ऐसे लोग हैं जो ईश्वर की प्रतिज्ञा को सुदृढ़ करने के पश्चात तोड़ देते हैं और जिन (संबन्धों) को ईश्वर ने जोड़ने का आदेश दिया है उन्हें तोड़ देते हैं तथा धरती पर बिगाड़ पैदा करते हैं। निःसंदेह ऐसे ही लोग घाटा उठाने वाले हैं। (2:27)

 इससे पूर्व की आयतों में हमने जाना कि फ़ासिक़ या अवज्ञाकारी लोग वे हैं जो मार्गदर्शन के सीधे रास्ते से दूर होकर पथभ्रष्ट हो गए हैं। इस आयत में अवज्ञाकारियों की तीन विशेषताओं का वर्णन किया गया है। उनकी सबसे पहली विशेषता, उस प्रतिज्ञा को तोड़ना है जो प्राकृतिक रूप से सभी मनुष्यों की प्रवृति में निहित होती है।
अवज्ञाकारियों की दूसरी विशेषता यह है कि वे पैग़म्बरों, ईमान वाले लोगों तथा अपने परिजनों से अपने सभी नैतिक संबन्धों को तोड़ लेते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार करते हैं। क़ुरआने मजीद की अनेक आयतों में लोगों को एक दूसरे से मित्रता, समरसता, वंचितों की सहायता करने और अपने परिजनों एवं पड़ोसियों का ध्यान रखने का निमंत्रण दिया गया है। संबन्धों को बनाए रखने और मनुष्यों द्वारा एक दूसरे से हार्दिक संपर्क स्थापित करने पर इस्लाम ने इस कारण बल दिया है कि इससे समाज का ढांचा सुदृढ़ होता है, आध्यात्मिक एवं नैतिक संबन्धों को बल मिलता है और अंततः समाज प्रगति करता है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि अपने परिजनों एवं नातेदारों से जुड़े रहने से नगर आबाद होते हैं और आयु में वृद्धि होती है चाहे यह काम करने वाले, भले लोग न हों।
अवज्ञाकारियों की तीसरी विशेषता यह कि वे धरती में पापों और बुराइयों को बढ़ाते हैं। शायद वे सोचते हैं कि पाप एक निजी कार्य है और इसका प्रभाव केवल उन्हीं पर पड़ता है जबकि पाप का सामाजिक प्रभाव उसके निजी प्रभाव से किसी प्रकार कम नहीं है और समाज को बुराई की ओर खींचता है।
स्पष्ट सी बात है कि जो ईश्वरीय प्रतिज्ञाओं तथा मानवीय रिश्तों का सम्मान नहीं करता और जैसा उसका मन करता है वही करता है वह अपने अस्तित्व को बड़े-बड़े घाटे पहुंचाता है और अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक पूंजी खो कर दुर्भाग्य ख़रीद लेता है।

इस आयत से मिलने वाले पाठ।

वचन तोड़ना धार्मिकता के विपरीत है। मोमिन कभी भी काफ़िर तक को दिए गए अपने वचन को नहीं तोड़ता, ईश्वर को दिए गए वचन को तोड़ने की तो वह सोच भी नहीं सकता।
प्रकृति तथा अंतरात्मा की आवाज़ को दबाने से मनुष्य हर प्रकार के पाप की ओर उन्मुख होता है और अंततः धरती में पाप फैल जाता है।

इस्लाम नाता तोड़ने पर नहीं बल्कि जोड़ने पर बल देता है इसी लिए सदैव परिजनों विशेष कर माता-पिता के साथ अच्छे व्यवहार और उनसे मिलने-जुलने का आदेश दिया गया है।


परिजनों से संबंध बनाए रखने से मृत्यु तथा प्रलय का हिसाब सरल हो जाता है और इसके कारण स्वर्ग में विशेष स्थान प्राप्त होता है। 



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