tag:blogger.com,1999:blog-35215626632107245902024-03-18T15:18:00.528+05:30हक और बातिलइस्लाम अमन का पैग़ाम-The Message of Peace.S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.comBlogger805125tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-61542091659236730012024-01-02T06:40:00.001+05:302024-01-02T06:42:04.824+05:30मासूमा ऐ क़ुम हजरत फातेमा मासूमा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<blockquote class="article-intro" itemprop="description" style="background-color: white; border-left: 5px solid rgb(229, 229, 229); box-sizing: border-box; color: #111111; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 18.24px; margin: 0px 0px 24px; padding: 0px 24px;">
<div style="box-sizing: border-box;">
आप का इस्मे मुबारक फ़ातिमा है! आप का मशहूर लक़ब "मासूमा" है!</div>
</blockquote>
<section class="article-content" itemprop="articleBody" style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: Roboto, "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVE8kYBVLJbe_kUmVFk2bk2RVOWiGx0ihYs3mbqHgAS1T-bomVh4JkGjBNSCiHmlakKHzclWWaGKuaXPPg2vA6WXXeXLEE5X7MeOjIqsYaXxp1ZB7ymadf1HZ8bMSC1Qtv7FRSNvhUl08M0suo5mFjDgEmAMegajpExr_Kw_mERYR2dhnHQcLs29jJ92E/s424/1cf04d29a369f28792d3dabe492b47fe.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="424" data-original-width="283" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiVE8kYBVLJbe_kUmVFk2bk2RVOWiGx0ihYs3mbqHgAS1T-bomVh4JkGjBNSCiHmlakKHzclWWaGKuaXPPg2vA6WXXeXLEE5X7MeOjIqsYaXxp1ZB7ymadf1HZ8bMSC1Qtv7FRSNvhUl08M0suo5mFjDgEmAMegajpExr_Kw_mERYR2dhnHQcLs29jJ92E/w268-h400/1cf04d29a369f28792d3dabe492b47fe.jpg" width="268" /></a></div><br /><div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;"><br /></div><div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
आप के पिता शियों के सातवें इमाम हज़रत मूसा इब्न जाफ़र (अ:स) हैं और आप की माता हज़रत नजमा ख़ातून हैं और यही महान स्त्री आठवें इमाम (अ:स) की भी माता हैं! बस इसी वजह से हज़रत मासूमा (स:अ) और इमाम रज़ा (अ:स) एक माँ से हैं!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
आप की विलादत पहली ज़िल'क़ाद 173 हिजरी क़ो मदीना मुनव्वरा में हुई!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
अभी ज़्यादा दिन न गुज़रे थे की बचपने ही में आप अपने शफीक़ बाप की शफ़क़त से महरूम हो गईं! आप के वालिद की शहादत हारुन के क़ैदख़ाना बग़दाद में हुई!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
बाप की शहादत के बाद आप अपने अज़ीज़ भाई हज़रत अली इब्न मूसा अल-रज़ा (अ:स) की देख रेख में आ गयीं!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
200 हिजरी में मामून अब्बासी के बेहद इसरार और धमकियों की वजह से इमाम (अ:स) सफ़र करने पर मजबूर हुए! इमाम (अ:स) ने ख़ुरासान के इस सफ़र में अपने अजीजों में से किसी एक क़ो भी अपने हमराह न लिया!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
इमाम (अ:स) की हिजरत के एक साल बाद भाई के दीदार के शौक़ में और रिसालत ज़िंबी और पयामे विलायत की अदाएगी के लिये आप (स:अ) ने भी वतन क़ो अलविदा कहा और अपने कुछ भाइयों और भतीजों के साथ ख़ुरासान की तरफ़ रवाना हुईं!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
हर शहर और हर मोहल्ले में आप का ज़बरदस्त स्वागत हो रहा था, और यही वो वक़्त था के आप अपनी फूफी हज़रत ज़ैनब (स:अ) की सीरत पर अमल करके मज़लूमियत के पैग़ाम और अपने भाई की ग़ुरबत मोमिनीन और मुसलमान तक पहुंचा रहीं थीं और अपनी व अहलेबैत की मुखाल्फ़त का इज़हार बनी अब्बास की फ़रेबी हुकूमत से कर रहीं थीं, यही वजह थी की जब आप का क़ाफ्ला सावाह शहर पहुंचा तो कुछ अहलेबैत (अ:स) के दुश्मनों (जिन के सरों पर हुकूमत का हाथ था) रास्ते में रुकावट बन गए और हज़रत मासूमा (स:अ) के कारवां से ईन बदकारों ने जंग शुरू कर दी! इस जंग में कारवां के तमाम मर्द शहीद कर दिए गए, और एक रिवायत के मुताबिक़ हज़रत मासूमा (स:अ) क़ो भी ज़हर दिया गया!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
इस तरह हज़रत मासूमा (स:अ) इस अज़ीम ग़म के असर से या ज़हर के असर से बीमार हो गयीं और अब हालात ऐसे हो गए की ख़ुरासान तक के सफ़र क़ो जारी रखना बहुत कठिन हो गया! इसी कारण सावाह शहर से क़ुम शहर तक जाने का निर्णय लिया गया! जब आप ने पूछा की सावाह शहर से शहरे क़ुम का कितना फ़ासला है जिसके जान्ने के बाद आप ने कहा मुझे क़ुम शहर ले चलो, इसलिए की मैंने अपने वालिदे मोहतरम से सुना है के इन्हों ने फ़रमाया, शहरे क़ुम हमारे शियों का मरकज़ (केंद्र) है!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
इस ख़ूशी की ख़बर सुनते ही, क़ुम के लोगों और अमीरों में एक ख़ूशी की एक लहर दौड़ गयी और वो सब के सब आप के स्वागत में दौड़ पड़े! मूसा इब्न ख़ज़'रज जो के अशारी ख़ानदान के एक बुज़ुर्ग थे इन्हों ने आपके नाक़े की मेहार (ऊँट का लगाम) क़ो आगे बढ़ कर थाम लिया! और बहुत से लोग जो सवार और पैदल भी थे किसी परवाने की तरह इस कारवां का चारों तरफ़ चलने लगे! 23 रबी उल-अव्वल 201 हिजरी वो अज़ीम-उष-शान तारीख़ थी जब आपके पाक क़दम क़ुम की सरज़मीन पर आये! फिर इस मोहल्ले में जिसे आज कल मैदाने मीर के नाम से याद किया जाता है हज़रत (स:अ) की सवारी मूसा इब्न ख़ज़'रज के घर के सामने बैठ गयी, जिस के नतीजे में आप की मेजबानी और आव-भगत का सबसे पहला शरफ़ मूसा इब्न ख़ज़'रज क़ो मिल गया!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
इस अज़ीम हस्ती ने सिर्फ 17 दिन इस शहर में ज़िंदगी गुज़ारी और ईन दिनों में आप अपने ख़ुदा से राज़ो-नियाज़ की बातें करतीं और इस की इबादत में मशगूल रहीं!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
मासूमा (स:अ) की इबादतगाह और क़याम'गाह मदरसा-ए-सतिय्याह थी, जो आज कल "बैतूल नूर" के नाम से मशहूर है, यहाँ अब हज़रत (स:अ) के अक़ीदतमंदों की ज़्यारतगाह बनी हुई है!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
आख़िर'कार रबी उस-सानी के दसवें दिन और एक कौल/रिवायत के मुताबिक़ 12 वें दिन, सन 201 हिजरी में, क़ब्ल इसके के आप की आँखें अपने भाई की ज़्यारत करतीं, ग़रीब-उल-वतनी में बहुत ज़्यादा ग़म देखने और उठाने के बाद, बंद हो गयीं!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
क़ुम की सरज़मीन आप के ग़म में मातम कदा हो गयी! क़ुम के लोगों ने काफ़ी इज़्ज़त व एहतराम के साथ आप के जनाज़े क़ो बाग़े बाबिलान जो इस वक़्त शहर के बाहर था ले गए और वहीँ दफ़न का इंतज़ाम किया, जहाँ आज आपकी क़ब्रे अतहर बनाई गयी! अब जो सबसे बड़ी मुश्किल कौम वालों के लिये थी वोह यह थी की ऐसा कौन बा-कमाल शख्स हो सकता है जो आप के जिसमे-अतहर क़ो सुपर्दे लहद करे! अभी लोग यह सोच ही रहे थे की नागाह दो सवार जो नक़ाबपोश थे क़िबला की जानिब से नज़र आने लगे और बहुत बदी सर'अत के साथ वोह मजमा के क़रीब आये, नमाज़ पढ़ने के बाद इनमें से एक बुज़ुर्गवार क़ब्र में उतरे और दुसरे बुज़ुर्गवार ने जिसमे अतहर क़ो उठाया और इस क़ब्र में उतरे हुए बुज़ुर्गवार के हवाले किया ताकि उस नूरानी पैकर क़ो सुपुर्दे ख़ाक करे!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
यह दो शख्सीयतें हुज्जते परवर'दिगार थीं, यानी इमाम रज़ा (अ:स) और हज़रत इमाम जवाद (अ:स) थे क्योंकि मासूमा (स:अ) की तज्हीज़ो-तकफ़ीन एक मासूम ही अंजाम देता है, तारीख़ में ऐसी मिसालें मौजूद हैं, उदाहरण स्वरुप हज़रत ज़हरा (स:अ) के जिसमे अतहर की तज्हीज़ो-तकफ़ीन हज़रत अली (अ:स) के हाथों अंजाम पायी, इसी तरह हज़रत मरयम (स:अ) क़ो हज़रत ईसा (अ:स) ने स्वयं ग़ुस्ल दिया!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
हज़रत मासूमा (स:अ) के जिसमे अतहर की तद्फीन की बाद मूसा इब्न ख़ज़'रज ने एक हसीरी सायेबान आप की क़ब्रे अतहर पर डाल दिया! इसके बाद हज़रत ज़ैनब (स:अ) जो इमाम जवाद (अ:स) की औलाद में से थीं इन्हों ने 256 हिजरी में पहला गुम्बद अपनी अज़ीम फूफी की क़ब्रे अतहर के लिये निर्माण कराया!</div>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
इस अलामत की वजह से इस अज़ीम खातून की तुर्बते पाक मोहिब्बाने-अहलेबैत (अ:स) के लिये क़िबला हो गयी जहाँ नमाज़े मोवद'दत अदा करने के लिये मोहिब्बाने अहलेबैत जूक़ दर जूक़ आने लगे! आशिक़ाने विलायत और इमामत के लिये यह बारगाह "दारुल-शिफ़ा" हो गयी जिस में बेचैन दिलों क़ो सुकून मिलने लगा! मुश्किल'कुशा की बेटी, लोगों क़ो बड़ी बड़ी मुश्किलों की मुश्किल'कुशाई करती रहीं और न'उम्मीदों के लिये उम्मीद का केंद्र बन गयीं!</div>
</section><span style="font-size: small;"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="https://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></span><br />
<div align="center"><br /></div></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br />
S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-569359984630452582024-01-02T06:20:00.000+05:302024-01-02T06:20:49.808+05:30What is soul according to American physicist Dr. Stuart Hameroff<h2 style="text-align: center;">What is soul according to American physicist Dr. Stuart Hameroff </h2><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">The soul is maintained in micro-tubules of brain cells. The two scientists refer to this process as “Orchestrated Objective Reduction,” or “Orch-OR.” Allegedly, when human beings are “clinically dead,” microtubules in the brain lose their quantum state but are still able to retain the information inside of them.<br />
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If the patient is resuscitated, revived, this quantum information can go back into the micro-tubules and the patient says ‘I had a near-death experience.’<br />
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Hameroff’s words suggest that human souls are much more than mere “interactions” of neurons in the brain.<br />
<br />
According to two leading scientists, the human brain is, in fact, a ‘biological computer’ and the consciousness of people is a program run by the quantum computer located inside the brain that even continues to exist after we die.<br />
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As experts explain it; “after people die, their soul comes back to the universe, and it does not die.”<br />
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“Let’s say the heart stops beating, the blood stops flowing; the micro-tubules lose their quantum state. The quantum information within the microtubules is not destroyed, it can’t be killed, and it just distributes and dissipates to the universe at large. If the patient is resuscitated, revived, this quantum information can go back into the microtubules, and the patient says ‘I had a near-death experience.’ If they’re not revived, and the patient dies, it’s possible that this quantum information can exist outside the body, perhaps indefinitely, as a soul.”<br />
<br />https://www.technopediasite.com/2019/09/where-does-soul-resides-after-death.html</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div class="story-intro" style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><p style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: black; font-family: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: LiberationSerifBold, "Times New Roman", Times, serif; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;"><br /></span></p><p style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: black; font-family: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: LiberationSerifBold, "Times New Roman", Times, serif; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">A PAIR of world-renowned quantum scientists say they can prove the existence of the soul.</span></p></div><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">American Dr Stuart Hameroff and British physicist Sir Roger Penrose developed a quantum theory of consciousness asserting that our souls are contained inside structures called microtubules which live within our brain cells.</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">Their idea stems from the notion of the brain as a biological computer, "with 100 billion neurons and their axonal firings and synaptic connections acting as information networks".</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">Dr Hameroff, Professor Emeritus at the Departments of Anesthesiology and Psychology and Director of the Centre of Consciousness Studies at the University of Arizona, and Sir Roger have been working on the theory since 1996.</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">They argue that our experience of consciousness is the result of quantum gravity effects inside these microtubules - a process they call orchestrated objective reduction (Orch-OR).</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">In a near-<a href="http://www.speakingtree.in/public/topics/beliefs/death" style="background-color: transparent; box-sizing: border-box; color: #62a385; cursor: pointer; font-family: RobotoBold; text-decoration-line: none;">death</a> experience the microtubules lose their quantum state, but the information within them is not destroyed. Or in layman's terms, the soul does not die but returns to the universe.</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">Dr Hameroff explained the theory at length in the Morgan Freeman-narrated documentary Through the Wormhole, which was recently aired in the US by the Science Channel.</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">The quantum soul theory is now trending worldwide, thanks to stories published this week by The Huffington Post and the Daily Mail, which have generated thousands of readers comments and social media shares.</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">"Let's say the heart stops beating, the blood stops flowing, the microtubules lose their quantum state," Dr Hameroff said.</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">"The quantum information within the microtubules is not destroyed, it can't be destroyed, it just distributes and dissipates to the universe at large.<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />'If the patient is resuscitated, revived, this quantum information can go back into the microtubules and the patient says "I had a near death experience".'</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">In the event of the patient's death, it was "possible that this quantum information can exist outside the body indefinitely - as a soul".</p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;">Dr Hameroff believes new findings about the role quantum physics plays in biological processes, such as the navigation of birds, adds weight to the theory.</p><h2 style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 24px; font-weight: 500; line-height: 1.3em; margin: 0px 0px 20px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; color: purple; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Researched by two scientists Where does the soul resides after death</span></h2><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: 0px 0px; background-repeat: initial; background-size: initial; border: 0px; color: #656565; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">The recognition of the soul as being immortal is also getting scientific support. Two scientists in physics and mathematics have claimed after long research that the soul never dies, only the body dies. After death, the soul returns to the universe, but the information contained in it is never destroyed.</span><br style="color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /></p><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">All type of religions of this world also tells this, but some people believe in it and some don't.All religions have to say that after death, the soul goes to God in the universe and then by living, God asks about the deeds. But it seems like a interesting story to a lot of people which is made by a human being.</span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">But now science has discovered, then people might not think it is an interesting story. Sir Roger Penrose, professor of mathematics and physics at Oxford University and Dr. Stuart Hameroff, a physics scientist at the University of Arizona, have published six papers on the subject after nearly two decades of research. Recently on his research, America's famous science channel has made a documentary film which is going to be aired soon.</span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><h2 style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 24px; font-weight: 500; line-height: 1.3em; margin: 0px 0px 20px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; color: purple; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Human brain like a computer</span></h2><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: LiberationSerifRegular, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 19px; font-variant-alternates: normal; font-variant-east-asian: normal; font-variant-numeric: normal; line-height: 23px; margin: 0px; padding: 0px 0px 14px; vertical-align: baseline; word-break: break-word;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: 0px 0px; background-repeat: initial; background-size: initial; border: 0px; color: #656565; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Researchers say that the human brain is like a biological computer. The program of this biological computer is the consciousness or soul which is operated through a quantum computer inside the brain. </span><br style="color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px;" /></p><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">A quantum computer refers to microscopic tubules located in brain cells that are made up of protein-based molecules. These subtle sources of energy in a large number of molecules combine to form a quantum state which is actually consciousness or spirit.</span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><h2 style="background: 0px 0px; border: 0px; color: black; font-size: 24px; font-weight: 500; line-height: 1.3em; margin: 0px 0px 20px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; color: purple; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Soul reside in the universe</span></h2><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">According to scientists, when a person starts to die mentally, then these microscopic tubes start losing the quantum state. Micro-energy particles move out of the brain tubes into the universe.</span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Sometimes a dying person becomes alive, then these particles return to the microscopic tubes.</span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><h2 style="background: 0px 0px; border: 0px; color: black; font-size: 24px; font-weight: 500; line-height: 1.3em; margin: 0px 0px 20px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; color: purple; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Quantum theory basis</span></h2><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">This research to scientists is based on the quantum theory of physics. According to this, the soul resides in microscopic tubes of protein in the cells of the conscious mind in the form of molecules and sub-cells of energy. Information is stored in these microscopic particles.</span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><h2 style="background: 0px 0px; border: 0px; color: black; font-size: 24px; font-weight: 500; line-height: 1.3em; margin: 0px 0px 20px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; color: purple; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Notifications are not lost</span></h2><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">According to research, even though the subtle energy particles go into the universe, the information contained in them is not destroyed. The Plunk Institute in Munich is named after Max Plunk, a scientist who has proposed the quantum theory, which is also confirmed by the scientist Hannes Peter Tur.</span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><br /></span></div><div style="background: 0px 0px rgb(255, 255, 255); border: 0px; color: #656565; font-family: "Fira Sans", Arial, sans-serif; font-size: 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><h2 style="background: 0px 0px; border: 0px; color: black; font-size: 24px; font-weight: 500; line-height: 1.3em; margin: 0px 0px 20px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; color: blue; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Last Word</span></h2><span face="arial, helvetica, sans-serif" style="background: 0px 0px; border: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">Tell me how you felt about the information " Where does the soul resides after death " given by Technopediasite. If you have any religious knowledge in this subject " Where does the soul resides after death " then kindly share me.Information given by you will be shared with friends</span></div>
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<span style="font-size: small;"></span><br />
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<span style="font-size: small;"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="https://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></span><br />
<div align="center">
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Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-68241902058791615082023-10-07T10:27:00.003+05:302023-10-07T10:28:37.978+05:30मनुष्य के जीवन को केवल सांसारिक जीवन तक सीमित करना, उसे पशुओं के स्तर पर नीचे ले आने के समान है| सूरए मोमिनून, <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><h2 style="text-align: center;"><span style="font-size: 24px;">मनुष्य के जीवन को केवल सांसारिक जीवन तक सीमित करना, उसे पशुओं के स्तर पर नीचे ले आने के समान है</span></h2><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj492xLTDUr0TzO60ZQyaFanCKjCSjH-YUrKMq7h1CzhoHzvNGfLN0KZDSW8hx9kTfhywZvgixiPQ1-Pp41K5ZxwhrzVUZfxqKkvYKE_NjiOoYHnm9fhB2ha7dI0rqrLRrtWjIifgcU_0CHbROs59meGa2G2kl6-nwYjjFqb0JcV2RSJ1xWgkzMlvzKA8M/s3264/52718699896_28de3dae7e_o.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1836" data-original-width="3264" height="180" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj492xLTDUr0TzO60ZQyaFanCKjCSjH-YUrKMq7h1CzhoHzvNGfLN0KZDSW8hx9kTfhywZvgixiPQ1-Pp41K5ZxwhrzVUZfxqKkvYKE_NjiOoYHnm9fhB2ha7dI0rqrLRrtWjIifgcU_0CHbROs59meGa2G2kl6-nwYjjFqb0JcV2RSJ1xWgkzMlvzKA8M/s320/52718699896_28de3dae7e_o.jpg" width="320" /></a></div><br /><h2 style="text-align: center;"><br /></h2><h2 style="text-align: center;">सूरए मोमिनून, आयतें 31-37</h2>
<br />
फिर उनके पश्चात हमने एक दूसरी जाति को बनाया। (23:31) तोउनमें हमने स्वयं उन्हीं में से एक पैग़म्बर भेजा कि (जो लोगों से कहे कि) ईश्वर की उपासना करो कि उसके अतिरिक्त तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है तो क्या तुम डरते नहीं?(23:32)<br />
<br /><br />
इससे पहले की आयतों में हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की जाति के वृत्तांत का वर्णन हुआ और बताया गया कि उनकी जाति के सभी काफ़िर, ईश्वर की ओर से दंड स्वरूप भेजे गए तूफ़ान में हताहत हो गए। ये आयतें समूद जाति के बारे में बताती हैं कि ईश्वर ने हज़रत सालेह अलैहिस्सलाम नामक एक पैग़म्बर को उनके बीच भेजा। उन्होंने भी अन्य पैग़म्बरों की भांति लोगों को अनन्य ईश्वर की उपासना का निमंत्रण दिया और उन्हें उसके अतिरिक्त किसी की भी उपासना करने से रोका क्योंकि कुफ़्र एवं अनेकेश्वरवाद, किसी से भी न डरने का कारण बनता है और हर प्रकार के ग़लत एवं अनुचित कार्य का मार्ग मनुष्य के समक्ष खोल देता है जबकि ईश्वर पर सच्चा ईमान और उसके दंड का भय, बुरे कर्मों व पापों से रोकता है।<br /><br />
<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि पैग़म्बरों को भेज कर लोगों का मार्गदर्शन करना और उन्हें नरक की आग से डराना ईश्वर की परंपराओं में से एक रहा है।<br />
<br />
पैग़म्बर, मनुष्य ही होते हैं और लोगों के बीच से ही नियुक्त होते हैं ताकि पूरे समाज के लिए आदर्श रहें और कोई भी व्यक्ति ईमान के संबंध में किसी भी प्रकार का बहाना न बना सके।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />सूरए मोमिनून की 33वीं और 34वीं आयतों <br />
<br />और उनकी जाति के सरदारों ने, जिन्होंने इन्कार किया और प्रलय के दिन की भेंट को झुठलाया और जिन्हें हमने सांसारिक जीवन में सुख प्रदान किया था, (लोगों से) कहा कि यह तो बस तुम्हीं जैसा एक मनुष्य है, जो तुम खाते हो, उसी में से यह भी खाता है और जो तुम पीते हो उसी में से यह भी पीता है। (23:33) और यदि तुम अपने ही जैसे किसी मनुष्य के आज्ञाकारी हुए तो निश्चय ही तुम घाटा उठाने वाले होगे। (23:34)<br /><br />
<br />
पैग़म्बरों के स्पष्ट तर्क के मुक़ाबले में, जो लोगों को सत्य के मार्ग पर चलने और भले कर्म करने का निमंत्रण देते थे, विभिन्न जातियों के धनवान और तथाकथित प्रतिष्ठित लोग उनका विरोध करते थे क्योंकि वे उनकी बातों को अपने लिए हानिकारक समझते थे और सोचते थे कि यदि लोग, पैग़म्बरों का अनुसरण करेंगे तो समाज में उनका स्थान कमज़ोर हो जाएगा।<br />
<br /><br />
उनकी सबसे पहली आपत्ति यह थी कि ये लोग, अर्थात पैग़म्बर, हमारे ही जैसे हैं और इनमें तथा हममें कोई अंतर नहीं है। यदि ईश्वर हमारा मार्गदर्शन करना चाहता है तो उसे फ़रिश्तों जैसे हमसे अधिक श्रेष्ठ जीवों को भेजना चाहिए ताकि हम उनकी बात मान लें। ये लोग, जो हमारी ही भांति जीवन बिताते हैं, हमारी ही तरह खाते और पहनते हैं किस प्रकार जीवन में हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं?<br />
<br /><br />
रोचक बात यह है कि हज़रत सालेह की जाति के सरदारों को अपेक्षा थी कि लोग उनकी बात को मानें और विरोध न करें किंतु वे लोगों द्वारा उस व्यक्ति के अनुसरण को ग़लत और घाटा बताते थे जिसकी कथनी और करनी सच्चाई और भलाई के अतिरिक्त कुछ और न थी।<br /><br />
इन आयतों से हमने सीखा कि एकेश्वरवाद का निमंत्रण, अत्याचारी शासकों और धनवानों के वर्चस्व से लोगों की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करता था और इसी कारण ये दो गुट, पैग़म्बरों का सबसे अधिक विरोध किया करते थे।<br />
<br />
दूसरों की बातों का अनुसरण, यदि तर्क और बुद्धि पर आधारित हो तो न केवल यह कि अप्रिय एवं निंदनीय नहीं है बल्कि यह मनुष्य की प्रगति व परिपूर्णता का कारण भी बनता है। वस्तुतः शिक्षा व प्रशिक्षा की व्यवस्था इसी पर आधारित है।<br />
<br />
<br /><br /><b> सूरए मोमिनून की 35वीं, 36वीं और 37वीं आयतों </b><br />
<br />
<br />
<br />
أَيَعِدُكُمْ أَنَّكُمْ إِذَا مِتُّمْ وَكُنْتُمْ تُرَابًا وَعِظَامًا أَنَّكُمْ مُخْرَجُونَ (35) هَيْهَاتَ هَيْهَاتَ لِمَا تُوعَدُونَ (36) إِنْ هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا نَمُوتُ وَنَحْيَا وَمَا نَحْنُ بِمَبْعُوثِينَ (37)<br />
<br />
क्या यह तुमसे वादा करता है कि जब तुम मर जाओगे और मिट्टी व हड्डियाँ बन जाओगे तो (क़ब्र से बाहर) निकाले जाओगे?(23:35) असंभव सी बात है, असंभव सी बात है जिसका तुमसे वादा किया जा रहा है। (23:36) जीवन तो हमारे इस सांसारिक जीवन के अतिरिक्त कुछ नहीं है। (यहीं) हम मरते और जीते हैं और हम (मरने के बाद) कदापि पुनः उठाए जाने वाले नहीं हैं। (23:37)<br /><br />
<br />
<br />
पैग़म्बरों के निमंत्रण का पहला चरण अनेकेश्वरवाद से दूरी और एकेश्वरवाद को मानने पर आधारित था। फिर जो लोग एकेश्वरवाद को स्वीकार कर लेते थे उनके समक्ष प्रलय और मृत्यु के पश्चात परलोक में लोगों को पुनः जीवित किए जाने की बात प्रस्तुत की जाती थी। किंतु विरोधी एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद के बारे में बात करने के स्थान पर प्रलय की बात करते थे और उसे असंभव एवं तर्कहीन बात बताते थे ताकि लोगों को पैग़म्बरों के अनुसरण से दूर रख सकें।<br />
<br />
<br />
<br />
जबकि प्रलय को मानने का नंबर, एकेश्वरवाद की स्वीकृति के बाद आता है और तार्किक दृष्टि से भी उसे रद्द करने का कोई कारण नहीं है चाहे केवल भौतिक अनुभवों और विदित इंद्रियों पर भरोसा करने वालों को उसका आना असंभव ही क्यों न प्रतीत होता हो।<br />
<br />
<br />
<br />
जिन धनवानों और सत्ताप्रेमियों को निरंकुश स्वतंत्रता और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन की आदत हो और जो केवल भौतिक आनंदों की प्राप्ति के ही प्रयास में रहते हैं वे जानते हैं कि उस स्वर्ग में उनका कोई स्थान नहीं जिसका वचन पैग़म्बरों ने दिया है, अतः वे उसे असंभव बताने का प्रयास करते हुए निराधार तर्कों से उसका इन्कार करते हैं।<br />
<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि जिस ईश्वर ने मनुष्य को मिट्टी से बनाया है क्या वह उसे मिट्टी में मिल जाने के पश्चात पुनः जीवित नहीं कर सकता?<br />
<br />
मनुष्य के जीवन को केवल सांसारिक जीवन तक सीमित करना, उसे पशुओं के स्तर पर नीचे ले आने के समान है क्योंकि उनका जीवन केवल इसी भौतिक संसार तक सीमित है।<br />
<span style="font-size: small;"></span><br />
<br />
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S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-31442454295947991232023-10-07T10:21:00.002+05:302023-10-07T10:21:09.945+05:30तफ़सीरे सूरऐ हम्द-लेखकः आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<!--s--><h2 style="text-align: left;">
तफ़सीरे सूरऐ हम्द-लेखकः आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी</h2>
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</script><blockquote class="article-intro" itemprop="description" style="background-color: white; border-left: 5px solid rgb(229, 229, 229); box-sizing: border-box; color: #111111; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 18.24px; margin: 0px 0px 24px; padding: 0px 24px;"><div style="box-sizing: border-box;"><span style="color: #333333; font-family: Roboto, "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px;">बिस्मिल्लाह हिर्रेहमान निर्रहीम</span></div></blockquote><section class="article-content" itemprop="articleBody" style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: Roboto, "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6m02RBODaXHASw1cc3wQFdAxK_I3nS36R9OoXhfHKDej6AHk2AzUist1X7tMvDIuQ1f3cNidRPjhVTzDuegxZReukE4T73ULuenjPXuu_qqL3f2l3djUd-TdDPqsb7NDmcSIdCRPBPjRi_Qv2P9PybvbVEStazfhCXpP-H0i5x6cpHxYBjrggwRLyT0I/s480/10492083_267909480074572_3657239345247253872_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="360" data-original-width="480" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi6m02RBODaXHASw1cc3wQFdAxK_I3nS36R9OoXhfHKDej6AHk2AzUist1X7tMvDIuQ1f3cNidRPjhVTzDuegxZReukE4T73ULuenjPXuu_qqL3f2l3djUd-TdDPqsb7NDmcSIdCRPBPjRi_Qv2P9PybvbVEStazfhCXpP-H0i5x6cpHxYBjrggwRLyT0I/w400-h300/10492083_267909480074572_3657239345247253872_n.jpg" width="400" /></a></div><br /><div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;"><br style="box-sizing: border-box;" />सूरऐ हम्द<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />मक्की सूरत है और इस मे 7 आयात है<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" /><strong style="box-sizing: border-box;">सूरऐ हम्द की ख़ुसूसियात</strong><br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ये सूरत क़ुराने मजीद के दीगर सूरतो की निस्बत बहुत सी ख़ुसूसियात की हामिल है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इन इम्तियाज़त का सर चश्मा नीचे लिखी खूबियां है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" /><strong style="box-sizing: border-box;">1. लबो लहजे और असलूब बयानः</strong><br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ये सूरत दीगर सूरतो से इस लिहाज़ से वाज़ेह इम्तियाज़ रखती है कि वो ख़ुदा की गुफ़्तुगू के उन्वान के हामिल है और ये बन्दों की ज़बान के तौर पर नाज़िल हुई है। दूसरे लफ़्ज़ों में इसमें ख़ुदावंदे आलम ने बन्दों को ख़ुदा से गुफ़्तुगू और मुनाजात के तरीक़े सिखाये है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />सूरे की इब्तेदा ख़ुदावंदे आलम की हम्दो सना से की गयी है। ख़ुदा शनासी और क़यामत पर ईमान के इज़हार के साथ साथ गुफ़्तुगू को जारी रख़ते हुए बन्दों के तक़ाज़ों , हाजात और ज़रूरीयात पर क़लाम को ख़त्म किया गया है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" /><strong style="box-sizing: border-box;">2. असासे क़ुरानः</strong><br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />नबी अकरम के इरशाद के मुताबिक़ सूरह हम्द उम्मुल किताब है। एक मर्तबा जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी हज़रत (स.अ.व.व.) के ख़िदमत में हाज़िर हुए तो आप (स.अ.व.व.) ने फ़रमायाः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />क्या तुम्हें सबसे फज़ीलत वाली सूरत की तालीम दूँ जो ख़ुदा ने अपनी किताब में नाज़िल फ़रमाई है। जाबिर ने अर्ज़ किया जी हां मेरे माँ बाप आप पर क़ुर्बान हो मुझे इसकी तालीम दीजिये। हज़रत ने सूरह हम्द जो उम्मुल किताब है उन्हें तालीम फ़रमाई और ये भी इरशाद फ़रमाया कि सूरह हम्द मौत के अलावा हर बीमारी के लिए शिफ़ा है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(मजमउल बयान , नूरूस्सक़लैन)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हम जानते है कि उम्म का मतलब है बुनियाद और जड़। शायद इसी बिना पर आलमे इस्लाम के मशहूर मुफ़स्सिर इब्ने अब्बास कहते हैः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हर चीज़ की कोई असास व बुनियाद होती है और कुरआन की असास सूरे फ़ातेहा है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" /><strong style="box-sizing: border-box;">3. पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के लिए ऐज़ाज़:</strong><br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ये बात क़ाबिल ऐ ग़ौर है कि क़ुरानी आयात मे सूरह हमद का तार्रुफ़ रसूले अकरम के लिए एक अज़ीम इनाम के तौर पर कराया गया है और इसे पूरे कुरआन के मुक़ाबले मे पेश फ़रमाया गया है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />जैसा के इरशादे इलाही है :<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हमनें आपको सात आयतो पर मुश्तमिल सूरह हम्द अता किया जो दो मर्तबा नाज़िल किया गया और कुरआन ऐ अज़ीम भी इनायत फ़रमाया गया।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सूरऐ हिज्र आयात 87)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />कुरआन मजीद अपनी तमाम तर अज़मत के बावजूद यहाँ सूरह हम्द के बराबर क़रार पाया। इस सूरह का दो मर्तबा नुज़ूल भी इस की बहुत ज़्यादा अहमियत की बिना पर है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इन्ही कारणो की बिना पर इस सूरह की फ़ज़ीलत के सिलसिले में रसूल अल्लाह से मनक़ूल हैः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />जो मुसलमान सूरह हम्द पढ़े उसका अजर व सवाब उस शख्स के बराबर है जिसने दो तिहाई कुरआन की तिलावत की हो ( एक और हदीस में पूरे कुरआन की तिलावत के बराबर सवाब मज़कूर है) और इसे इतना सवाब मिलेगा गोया उसनें हर मोमीन और मोमिना को हदीया पेश किया हो।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" /><strong style="box-sizing: border-box;">4. तिलावत की ताकीद:</strong><br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इसी बिना पर हज़रत इमामे सादिक़ (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया हैं।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />शैतान ने चार दफा नाले व फ़रयाद कियाः पहला वो मौक़ा था जब उसे बहार निकाला गया। दूसरा वो वक़्त था जब उसे जन्नत से ज़मीन की तरफ़ उतारा गया। तीसरा वो लम्हा था जब हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.व.) को मबऊस ऐ बारिसालत किया गया और आख़िर वो मुक़ाम था जब सूरह हम्द को नाज़िल किया गया।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(तफ़सीरे नूरूस्सक़लैन जिल्द 1 पेज न. 4)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इस सूरे का नाम फ़ातेहा क्यों है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />फ़ातेहातुल किताब का माने है आग़ाज़े किताब (कुरआन) करने वाला सूरह। मुख्तलिफ़ रिवायात जो नबी अकरम (स.अ.व.व.) से नक़ल हुई है उनसे वाज़े होता है के ये सूरत ऑनहज़रत के ज़माने में भी उसी नाम से पहचाना जाता था यही से दुनियाए इस्लाम के एक अहमतरींन मसले की तरफ फ़िक्र का दरीचा कहलाता है और वो है कुरआन के जमा करने के बारे में एक गिरोह में ये बात मशहूर है कि कुरआने मजीद नबी अकरम (स.अ.व.व.) के ज़माने में मुन्तशिर व जुदा जुदा सूरत में था और आप के बाद हज़रत अबु बकर , हज़रत उस्मान , हजऱत उमर के ज़माने में जमा हुआ लेकिन फ़ातेहातुल किताब से ज़ाहिर होता है कुरआन मजीद पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के ज़माने में उसी मौजूदा सूरत में जमा हों चुका था और इसी सूरह हम्द से उसकी इब्तेदा हुई थी वरना ये कोई सब से पहले नाज़िल होने वाली सूरत तो नही जो ये नाम रखा जाये और वो ही इस सूरत के लिए फ़ातेहतुल किताब नाम के इंतेखाब के लिए कोई दूसरी दलील मौजूद है बहुत से दीगर मदारिक भी हमारे पेशे नज़र है जो इसकी हकीक़त के निशानदेह है कि कुरआने मजीद बेसुरते मजमुए जिस तरह हमारे ज़माने में मौजूद है इसी तरह पैयम्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के ज़माने में आप के हुक्म के मुताबिक जमा हो चुका था इनमे से चंद एक हम पेश करते है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />1. अली इब्ने इब्राहिम ने हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) से रिवायात की है रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) से फ़रमाया के कुरआन रेशम के टुकड़ों , कागज़ के पुर्ज़ों और ऐसी दूसरी चीज़ों में मुन्तशिर है उसे जमा करो। उस पर हज़रत अली (अ.स.) मजलिस से उठ खड़े हुए और कुरआन को ज़र्द रंग के पारचे में जमा किया और फिर उस पर मोहर लगा दी अलावा इसके हदीस सकलैन जिसे शिया और सुन्नी दोनों ने नक़ल किया है गवाही देती है कि कुरआन किताबी सूरत में रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) के ज़माने में जमा हो चुका था पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया मैं तुमसे रुख़्सत हो रहा हुँ और तुम में दो चीज़े बतौर यादगार छोड़े जा रहा हूः ख़ुदा की किताब और मेरा ख़ानदान।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" /><strong style="box-sizing: border-box;">एक अहम सवाल!</strong><br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />यहां ये सवाल पैदा होगा कि इस बात को कैसे बावर किया जा सकता है कि कुरआन रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) के ज़माने में जमा हुआ जबकि उलेमा के एक गिरोह में मशहूर है कि कुरआन पैगम्बर के बाद जमा हुआ है। हज़रत अली (अ.स.) के ज़रिये या दीगर अशखास के ज़रिये।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />जवाब: जो कुरआन हज़रत अली (अ.स.) ने जमा किया था वो कुरआन तफ़सीरे शाने नुज़ूल आयात वग़ैरह का मजमुआ था।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />1. बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्हीम<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />2. अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />3. अर्रहमा निर्रहीम<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />4. मालेके योमिद्दीन<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />5. इय्याका नअबोदो व इय्यका नसतईन।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />6. ऐहदे नस सिरातल मुस्तकीम।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />7. सिरातल लज़ीना अनअमता अलैहिम। ग़ैरिल मग़ज़ूबे अलैहिम वलज्जाल लीन।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" /><strong style="box-sizing: border-box;">तर्जुमा</strong><br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />1. शूरू अल्लाह के नाम से जो रहमान ओ रहीम है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />2. हम्द मख़सूस उस ख़ुदा के लिए जो तमाम जहानो का मालिक है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />3. ख़ुदा जो मेहरबान और बख़्शने वाला है। जिसकी रहमत आम खा़स सब पर फैली हुई है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />4. वो ख़ुदा जो रोज़े जज़ा का मालिक है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />5. परवरदिगार हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ ही से मदद चाहते है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />6. हमे सीधी राह की हिदायत फ़रमा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />7. उन लोगो की राह जिन पर तुने इनाम फ़रमाया। उनकी राह नहीं जिन पर तेरा गज़ब हुआ और ना वो जो कि गुमराह हो गए।</div><div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;"><br /></div>
<h1 style="box-sizing: border-box; color: inherit; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 41.12px; line-height: 1.5; margin: 24px 0px 12px;">1. बिस्मिल्ला हिर्रहमानिर रहीम</h1>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />शूरू अल्लाह के नाम से जो रहमान ओ रहीम है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तफ़सीर<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तमाम लोगों में यह रस्म है कि हर अहम और अच्छे काम का आगाज़ किसी बुज़ुर्ग के नाम से करते है। किसी अज़ीम इमारत की पहली ईंट उस शख़्स के नाम पर रखी जाती है। जिसमें बहुत ज्यादा क़ल्बी लगाव हो यानी उस काम को अपनी पसंदीदा शख्सीयत के नाम मनसूब कर देते है। मगर क्या ये बेहतर नहीं है कि प्रोग्राम को दावाम बख़्शने और किसी मिशन को बरकरार रखने के लिए किसी ऐसी हसती से मनसूब किया जाए जो पायेदार हमीशा रहने वाली हो और जिसकी ज़ात में फना का गुज़र ना हो इस जहान की तमाम मौजूदात पुरानी होने वाली है और ज़वाल की तरफ रवां दवां है। सिर्फ वही चीज़ बाक़ी रह जाएगी जो इस ज़ात ला यज़ाल से वाबस्ता होगी तमाम मौजूदात में फख़त ख़ुदा अज़ली व अबदी है। इसलिए चाहिए कि तमाम अमूर को उसी के नाम से शुरू किया जाऐ। उसके साये में तमाम चीज़ो को क़रार दिया जाये और उसी से मदद तलब की जाये।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इसी लिए कुरआन का आगाज बिस्मिल्ला से होता है। यही वजह है कि रसूले अकरम की मशहूर हदीस में हम पढ़ते हैः जो भी अहम काम खुदा के नाम के बगैर शुरू होगा नाकामी से हमकिनार होगा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(तफ़सीरे अलबयान जिल्द न. 1 पेज न. 461)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इंसान जिस काम को अंजाम देना चाहे चाहिए कि बिस्मिल्लाह कहे और जो अमल खुदा के नाम से शुरू हो वह मुबारक है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इमाम मुहम्मद बाकिर फरमाते हैं कि जब कोई काम शुरू करने लगो बडा हो या छोटा बिस्मिल्लाह कहो ताकी वो बा बरकत भी हो और पुर अज अमनो सलामती भी।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />खुलासा ये हैं कि किसी अमल कि पायदारी और बका बिस्मिल्लाह के राबते खुदा से वाबस्ता है। इसी मुनासबात से जब खुदा तआला ने पैगम्बर ए अकरम पर वही नाजिल फरमाई तो उन्होंने हुक्म दिया कि तबलीग ए इस्लाम की अजीम जिम्मेदारी को खुदा के नाम से शुरू करें।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इक़रा बिस्मे रब्बेकल लज़ी खलक़। (सूरे इक़रा आयत न. 1)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हम देखते है कि जब तअज्जुबखेज़ और सख्त तूफान के आलम मे हज़रत नूह किश्ती पर सवार हुऐ , पानी की मौजे पहाड़ो की तरह बुलंद थी और हर सेकेन्ड खतरो का सामना था। ऐसे मे मंज़िले मक़सूद तक पहुँचने और मुश्किलात पर क़ाबू पाने के लिऐ आपने अपने साथियो को हुक्म दिया कि किश्ती के चलते और रूकते बिस्मिल्ला कहो। (सूरह हूद आयत 41)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />लेहाज़ा उन लोगो ने इस खतरो से भरे सफर को तोफीक़े इलाही के साथ कामयाबी से तय कर लिया और अमनो सलामती के साथ कश्ती से उतरे (सूरे हूद आयत 48)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />जब जनाबे सुलैमान ने मलीकाऐ सबा को खत लिखा तो उसका उनवान बिस्मिल्ला ही को रखा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ये (खत) सुलैमान की तरफ से है और बेशक इस का मज़मून ये है कि शूरू करता हुँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान और निहायत रहम वाला है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सूरऐ नमल आयत 30)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इसी बिना पर कुरआन हकीम की तमाम सूरतो की इब्तेदा बिस्मिल्लाह से ही होती है। ताकि नोऐ बशर की हिदायत व सआदत का असली मक़सद कामयाबी से हमकिनार हो और बग़ैर किसी नुकसान के अंजाम पज़ीर हो सिर्फ सूरे तौबा ऐसी सूरत है। जिसकी इब्तेदा में बिस्मिल्लाह नज़र नही आती। क्योंकि उसका आग़ाज़ मक्का के मुजरिमो और वादा तोड़ने वालो से ऐलाने जंग के साथ हो रहा है। लिहाज़ा ऐसे मौकों पर ख़ुदा की सिफत रहमानो रहीम का ज़िक्र मुनासिब नहीं।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />यहां एक नुक़ते कि तरफ तवज्जो देना ज़रूरी है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />1. क्या बिस्मिल्लाह सूरह हम्द का जुज़ है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />शिया उलेमा व मुहक़्क़ीन मे इस मसले पर कोई इख़्तेलाफ नहीं किया कि बिस्मिल्लाह सूरऐ हम्द और दिगर सूरे कुरआन का जुज़ है। बिस्मिल्लाह का तमाम सूरतो की इब्तेदा में होना उसूली तौर पर इस बात का ज़िंदा सबूत है के ये जुज़े कुरआन है। क्योंकि हमें मालूम है कि कुरआन में कोई इज़ाफ़ी चीज़ नहीं लिखी गई और बिस्मिल्लाह ज़माना ऐ पैगम्बर से लेकर अब तक सूरतो की इब्तेदा मौजूद है। इन सबके अलावा मुसलमानों की ये सीरत रही है कि वो कुरआन मजीद की तिलावत के वक्त बिस्मिल्लाह हर सूरत की इब्तेदा में पढ़ते रहे है। तवातुर से यह साबित है कि पैगम्बर अकरम भी इसकी तिलावत फरमाते थे। ये कैसे मुमकिन है कि जो चीज़ कुरआन का जुज़ न हो उसे पैगम्बर और मुसलमान हमेशा कुरआन के ज़मन पढ़ते रहे हो और सदा इस अमल को जारी रखा हो।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />एक दिन माविया ने अपनी हुकुमत के ज़माने में नमाज़े जमात में बिस्मिल्लाह नही पढ़ी तो नमाज के बाद मुहाजरीन और अंसार के एक गिरोह ने पुकार कर कहाः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />क्या मुआविया ने बिस्मिल्लाह को छोड़ दिया है या भूल गए है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(बेहक़ी जुज़ 2 पेज 49)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />2. ख़ुदा के नामो में से अल्लाह जामेतरीन नाम है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />बहरहाल कलमऐ अल्लाह जो ख़ुदा के नामो में से सबसे ज्यादा जामे है। ख़ुदा के इन नामो को जो कुरआन मजीद या दीगर मसादरे इस्लामी में आए है। अगर देखा जाए तो पता चलता है कि वो ख़ुदा की किसी एक सिफ़त को मुनअकिस करते है। लेकिन वो नाम जो तमाम सिफ़तो कमालाते इलाही की तरफ इशारा करते है। दूसरे लफ़्ज़ों में जो सिफ़त जलालो जमाल का जामे है। वो सिर्फ अल्लाह है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />यही वजह है कि ख़ुदा के दूसरे नाम अमूमन कलमऐ अल्लाह की सिफ़त की हैसियत से ज़िक्र किए जाते है। मिसाल के तौर पर चंद एक का ज़िक्र किया जाता है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />फइन्नल्लाहा गफूरूर रहीम<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सुरऐ बक़रा आयत 226)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ये सिफ़ते ख़ुदा की सिफ़त बख़्शिश की तरफ इशारा है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />समीउन अलीम<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />समीअ इशारा है इस बात की तरफ़ की ख़ुदा तमाम सुनी जाने वाली चीज़ो से आगाही रखता है। और आलिम इशारा है कि वो तमाम चीजों से बा ख़बर है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />फइन्नल लाहा समीउन अलीम<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सूरऐ बक़रा आयत 227)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ज़ाहिर हुआ कि अल्लाह ही ख़ुदा के तमाम नामो में से जामेतरीन है। यही वजह है कि एक ही आयत मे हम देखते हैं कि बहुत से नाम अल्लाह करार पाए है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />अल्लाह वो है जिसके सिवा कोई माबूद नही वो हाकिमे मुतलक है। मुनज़्ज़ा है। हर ज़ुल्मो सितम से पाक है। अमन बख़्शने वाला है। सबका निगेहबान है। तवाना है। किसी से शिकस्त खाने वाला नहीं और तमाम मौजूदात पर क़ाबिर ओ ग़ालिब है और बा अज़मत है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सुरऐ हशर आयत 23)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इस नाम की जामीयत की एक वजह शायद यह है कि इमान ओ तौहीद का इज़हार सिर्फ़ (ला इलाहा इल्लल लाह) के जुमले से हो सकता है। और जुमला (ला इलाहा इल्लल अलीम इल्लल खालिक़ इल्लल राज़िक़) और दिगर इस किस्म के जुमले ख़ुदा से तौहीदो इस्लाम की दलील नहीं हो सकते यही वजह है कि दिगर मज़हब के लोग जब मुसलमानों के माबूद की तरफ इशारा करना चाहते हैं तो लफ्ज़ अल्लाह का जिक्र करते है। क्योंकि खुदावंद आलम की तारीफो तौसीफ लफ्ज़े अल्लाह से मुसलमानों के साथ मख़सूस है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />खुदा की रहमते आम और रहमते ख़ास<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />मुफास्सिरीन के एक तबके में मशहूर है कि सिफ़त रहमान रहमत ए आम की तरफ इशारा है। यह वो रहमत है जो दोस्त व दुश्मन , मोमीन और काफिर , नेक और बद सबके लिए है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />क्योंकि उसकी रहमत की बेहिसाब बारिश सबको पहुंचती है और इसका खवान ए नेमत हर कहीं बिछा हुआ है। उसके बंदे की जिंदगी का गुनागून रेनाइयो से भरा हुआ है। अपनी रोज़ी इसके दस्तर ख्वान से हासिल करते है। जिसपर बेशुमार नेमते रखी है। यह वो रहमते उमूमी है। जिसने आलमे हसती का इहाता कर रखा है और सबके सब इस दरिया ए रहमत में गोताज़न है। रहमते ख़ुदावंदे आलम की रहमते ख़ास की तरफ इशारा है यह वो रहमत है जो इसके सालेह और फ़रमा बरदार बंदो के साथ मख़सूस है। क्योंकि उन्होंने ईमान और अमले सालेह के बिना पर यह शाइस्तगी हासिल कर ली है कि वो इस रहमते एहसाने ख़ुसूसी से बेहरमंद हो जो गुनहगारो और ग़ारत गरो के हिस्से में नहीं हैं।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />एक चीज़ जो मुमकिन है। उसी मतलब की तरफ इशारा हो यह है कि लफ्ज़ रहमान कुरआन में हर जगह मुतलक़ आया है जो उमूमियत की निशानी है जब के रहीम कभी मुक़य्द ज़िक्र हुआ है। मसलनः व काना बिल मोमेनीना रहीमा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ख़ुदा मोमीनीन के लिए रहीम है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सुरऐ अहज़ाब आयत 43)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />और कभी मुतलक़ जैसे के सूरह हम्द में है। एक रिवायत में है कि हज़रत इमाम जाफर सादिक़ ने फरमाया<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ख़ुदा हर चीज का माबूद है। वो तमाम मख़लूक़ात के लिए रहमान और मोमीनीन पर ख़ुसूसियात के साथ रहीम है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(अल मीज़ान बे सनदे काफ़ी , तौहीद सदूक़ और मआनीउल अख़बार)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />खुदा की दीगर सिफ़त बिस्मिल्लाह में क्यूं मज़कूर नहीं<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />यह बात क़ाबिले तवज्जो है कि कुरआन की तमाम सूरते सिवाऐ सुराऐ बरात के जिसकी वजह बयान हो चुकी है बिस्मिल्लाह से शुरू होती है और बिस्मिल्लाह में मख़सूस नाम अल्लाह के बाद सिर्फ सिफ़त ए रहमानियत का ज़िक्र है। इससे सवाल पैदा होता है कि यहाँ पर बाक़ी सिफ़त का ज़िक्र क्यूं नहीं है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />अगर हम एक नुक़्ते की तरफ तवज्जो करें तो उस सवाल का जवाब वाज़े हो जाता है और वो यह है कि हर काम की इब्तेदा में ज़रूरी है कि ऐसी सिफ़त से मदद ले जिसके असर तमाम जहान पर साया फिगन हो जो तमाम मौजूदात का इहाता किए हो और आलमे बोहरान में मुसीबतज़दो को निजात बख़्शने वाली हो। मुनासिब है कि इस हकीक़त को कुरआन की ज़बान से सुना जाऐ<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इरशादे इलाही है<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />मेरी रहमत तमाम चीज़ों पर फैली है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सुरऐ आराफ आयत 154)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />एक और जगह हामेलान ए अर्श की एक दुआ ख़ुदा वंदे करीम ने यूँ बयान फ़रमाया है<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />परवरदिगार तूने अपना दामने रहमत हर चीज़ तक फैला रखा है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सुरऐ मोमीन आयत 7)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हम देखते हैं कि अम्बिया कराम निहायत सख़्त हवादिस और ख़तरनाक दुश्मनों के चंगुल से निजात के लिए रहमते ख़ुदा के दामन में पनाह लेते है। क़ौमे मूसा फिरओनियो के ज़ुल्म से निजात के लिए पुकारती है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ख़ुदाया हमें ज़ुल्म से निजात दिला और अपनी रहमत का साया अता फ़रमा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सुरऐ युनूस आयत 86)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हज़रत हुद (अ.स.) और उनके पैरोकार के सिलसिले में इरशाद है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हज़रत हुद (अ.स.) और उनके साथियों को हमनें अपनी रहमत के वसीले से निजात दी।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सुरऐ आराफ आयत 72)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />बिस्मिल्ला से वाज़ेह तौर पर ये दरस हासिल किया जा सकता हैं कि ख़ुदा वंदे आलम के हर काम की बुनियाद रहमत पर है और बदला या सज़ा तो अलग सूरत है जब तक यक़ीनी अवामिल पैदा नही हो सज़ा मुतहक़्क़ नही होती। जैसा कि हम दुआ में पढ़ते है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ऐ वो ख़ुदा के जिसकी रहमत इसके ग़जब पर सबक़त ली गयी है। (दुआऐ जोशने कबीर)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इंसान को चाहिये के वो ज़िन्दगी के प्रोग्राम पर यूं अमल पैदा हो के हर काम की बुनियाद रहमतो मोहब्बत को क़रार दे और सख़्ती को फ़क़त बवक़्ते ज़रुरत इख़्तियार करे। कुरआन मजीद के 114 सूरतो में से 113 की इब्तेदा रहमत से होती है और फ़क़त एक सूरह तोबा है जिस का आग़ाज़ बिस्मिल्लाह की बजाये ऐलान ऐ जंग और सख़्ती से होता है।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEheWa9Sq8Ra62GfK52VX73VeKlMYI05k8TqJmzdRethffVKyT6cvxqcdORAazYtjwOYxX6K0LoCPs9OFKGamKsdwywGqSDB_dCxw1t8vHlfHUstXy9m1Drhv9CRlQqzosSM1RHxlNVr863jdbiaVG2zCEE5UuphkTEJXFdwaWxbyrf5N2SHwOrVuwzSn38/s306/Maula%20Ali%5B1%5D" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="207" data-original-width="306" height="207" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEheWa9Sq8Ra62GfK52VX73VeKlMYI05k8TqJmzdRethffVKyT6cvxqcdORAazYtjwOYxX6K0LoCPs9OFKGamKsdwywGqSDB_dCxw1t8vHlfHUstXy9m1Drhv9CRlQqzosSM1RHxlNVr863jdbiaVG2zCEE5UuphkTEJXFdwaWxbyrf5N2SHwOrVuwzSn38/s1600/Maula%20Ali%5B1%5D" width="306" /></a></div><br />
<h1 style="box-sizing: border-box; color: inherit; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 41.12px; line-height: 1.5; margin: 24px 0px 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />2. अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन</h1>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हम्द ओ सना उस ख़ुदा के लिए है जो तमाम जहानों का परवरदिगार और मालिक है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तफ़सीर<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />सारा जहान उसकी रहमत में डूबा हुआ है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />बिस्मिल्लाह जो सूरत की इब्तेदा है उस के बाद बन्दों की पहली ज़िम्मेदारी ये है के वो आलमे वजूद के अज़ीम मबदा और उस की तमाम न होने वाली नेमतों को याद करें। वो बेशुमार नेमतें जिन्होंने हमारे पूरे वजूद को घेर रखा है। परवरदिगारे आलम की मारेफ़त की तरफ रहनुमाई करती है बल्कि उस रास्ते का सबब भी यही है क्योंकि किसी इंसान को जब कोई नेमत हासिल होती है तो वो फ़ौरन चाहता है कि उस नेमत के बख़्शने वाले को पहचाने और फरमाने फ़ितरत के मुताबिक़ उस की शुक्रगुज़ारी के लिए खड़ा हो और उस के शुक्रिया का हक़ अदा करे। यही वजह है कि उलेमाऐ इल्म कलाम इस इल्म की पहली बहस में जब गुफ़्तुगू मारेफ़त ख़ुदा की इल्लत व सबब के मुताल्लिक़ करते है तो वो कहता है कि फ़ितरी व अक़्ली हुक्म के मुताबिक़ मारेफ़ते ख़ुदा इस लिए वाजिब है क्योंकि मोहसिन के एहसान का शुक्रिया वाजिब है। ये जो हम कहते है कि मारेफ़त की रहनुमाई उस की नेमतों से हासिल होती है तो उसकी वजह ये है कि ख़ुदा को पहचानने का बेहतरीन और जामेतरीन रास्ता असरारे आफरीनश व ख़िलक़त का मुतालेआ करना है। इन मे ख़ास तौर पर उन नेमतों का वजूद है जो नोऐ इंसान की ज़िंदगी को एक दूसरे से मरबूत करती है। उन दो वजह की बिना पर सूरऐ फ़ातेहातुल किताब -अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन- से शुरू होती है। इस जुमले की गहराई और अज़मत तक पहुँचने के लिए ज़रूरी है कि हम्द , मदह और शुक्र के दरम्यान फ़र्क़ और इसके नतायज की तरफ तवज्जो की जाये।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हम्दः नेक़ इख़्तियारी काम या नेक़ सिफ़त की तारीफ़ को अरबी ज़बान में हम्द कहते है यानी जब कोई सोच समझ कर कोई अच्छा काम अंजाम दे या किसी अच्छी सिफ़त को इंतेख़ाब करे जो नेक़ इख़्तियारी आमाल का सर चश्मा हो तो उस पर की गयी तारीफ व तौसीफ़ को हम्दो सताएश कहते है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />1. जो इंसान भी ख़ैर और बरक़त का सर चश्मा है वो पैग़म्बर और खुदायी रहनुमा नूर हिदायत से दिलो को मुनव्वर करता है और दरस देता है। जो सखी भी सख़ावत करता है और जो कोई तबीब जानलेवा ज़ख़्म पर मरहम पट्टी लगाता है। इनकी तारीफ़ का मबदा भी ख़ुदा की तारीफ़ है और इनकी सना दर असल उसी की सना है बल्कि अगर ख़ुर्शीद नूर अफ़शानी करता है। बादल बारिश बरसाता है और ज़मीन अपनी बरकते हमें देती है तो ये सबकुछ भी उसकी जानिब से है लिहाज़ा तमाम तारीफों की बाज़ गश्त इसी ज़ात बा बरक़त की तरफ़ है दूसरे लफ़्ज़ों में -अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन- तौहीदे ज़ात , तौहीदे सिफ़ात और तौहीद अफआल की तरफ इशारे है। इस बात पर ख़ुसूसी ग़ौर किया जाऐ।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />2. क़लमऐ हम्द से ये बात वाज़े तौर पर मालूम होती है कि ख़ुदा वंदे आलम ने ये तमाम इनायात और नेकीयां अपने इरादे व इख़्तियार से ईजाद की। इसलिए ये बात इन लोगो के नुक़्ते नज़र के ख़िलाफ़ है जो ये कहते है कि ख़ुदा भी सूरज की तरह एक मजबूर फैज़ बख़्श (मुफीद चीज़) है यहाँ ये बात भी क़ाबिले ग़ौर है कि हम्द सिर्फ इब्तेदायी कार में ज़रूरी नही बल्के इख़्तेताम कार पर भी लाज़िम है जैसा के कुरआन हमें तालीम देता है ।</div>
<h1 style="box-sizing: border-box; color: inherit; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 41.12px; line-height: 1.5; margin: 24px 0px 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />अहलेबहीश्त के बारे में कुरआन की नज़र से</h1>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />पहले तो वो कहेंगे के अल्लाह तो हर ऐब व नक़्स से पाक है एक दूसरे से मुलाक़ात के वक़्त सलाम कहेंगे और हर बात के ख़ात्मे पर कहेंगे -अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन-<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />3. क़लमऐ रब के असली माना है किसी चीज़ का मालिक या साहिब जो इसकी तरबियत व इस्लाह करता हो क़लमेऐ -रबीबा- किसी शक़्स की बीवी की उस बेटी को कहते है जो इसके किसी पहले शोहर से हो लड़की अगरचे दूसरे शोहर से होती है लेकिन मुँह बोले बाप की निगरानी में परवरिश पाती है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />लफ़्ज़े -रब- मुतलक़ और अकेला तो सिर्फ़ ख़ुदा के लिए बोला जाता है अगर ग़ैरे ख़ुदा के लिए इस्तेमाल हो तो ज़रूरी है कि इज़ाफ़त भी साथ हो। मसलन हम कहते है रब्बुल्दार (घर का मालिक) ,या रब्बुल सफ़ीना (कश्ती वाला)।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तफ़्सीरे मजमउल बयान में एक और माने भी हैः बड़ा शख़्स जिसके हुक्म की इताअत की जाती हो. बईद नही के दोनों माने के बाज़गश्त एक ही असल की तरफ हो।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />लफ्ज़े आलमीन आलम का बहुवचन है और आलम के माने है मुख़्तलिफ़ मौजूदात का वो मजमुआ जो मुशतरक सिफ़ात का हामिल हो या जिन का ज़मान और मकान मुशतरक हो। मसलन हम कहते है आलमे इंसान , आलमे हैवान या आलमे ग्याह या फिर हम कहते है आलमे मशरिक़ , आलमे मग़रिब , आलमे इमरुज़ या आलमे दीरुज़। लिहाज़ा आलम अकेला जमीयत (ज़्यादती) का माना रखता है और जब आलमीन की शक़्ल मे जमा का सेगा हो तो फिर उससे इस जहान के तमाम मजमुओ की तरफ इशारा होगा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />एक रिवायत में जो शैख़ सूदूक़ ने उयूनूल अख़बार में हज़रत अली (अ.स.) से नक़्ल की है। उसमें है के इमाम ने अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन की तफ़्सीर के ज़िम्न में फ़रमायाः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />रब्बुल आलेमीन से मुराद तमाम मख़लूक़ात का मजमूआ है चाहे वो बेजान हो या जानदार।</div>
<h1 style="box-sizing: border-box; color: inherit; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 41.12px; line-height: 1.5; margin: 24px 0px 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />3. अर्रहमा निर्रहीम</h1>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />वो ख़ुदा जो मेहरबान और बख़्शने वाला है उसके आम व ख़ास रहमत ने सबको घेर रखा है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तफ़सीर<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />रहमान व रहीम के माने व मफहूम की वुसअत और उनका फ़र्क हम बिस्मिल्लाह की तफ़्सीर में तफ़्सील से बयान कर चुके है। अब दूबारा बयान की ज़रूरत नही।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />जिस नुक़्ते का यहाँ इज़ाफ़ा होना चाहिये वो ये है कि दोनों सिफ़ात जो अहम तरीन औसाफ खुदावंद है। हर रोज़ की नमाज़ों में कम अज़ कम 30 मरतबा ज़िक्र होती है। 2 मरतबा सूरह हम्द में और एक मरतबा बाद वाली सूरत में। इस तरह 60 मरतबा हम ख़ुदा की तारीफ़ सिफ़ते रहमत के साथ करते है। दर हक़ीक़त ये तमाम इंसानो के लिए एक दरस है कि वो अपने आप कों ज़िन्दगी में हर चीज़ से ज़्यादा इस अख़लाक़े ख़ुदावंदी को अपनाऐ। इसके अलावा वाक़ेईयत की तरफ़ भी इशारा है अगर हम अपने आप को ख़ुदा का बंदा समझते है तो ऐसा न हो के बेरहम मालिक अपने ग़ुलामो से जो सलूक रवा रखते है , हमारी निगाह में जचने लगे।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />लिहाज़ा रब्बुलआलेमीन के बाद अर्रेह्मांनिर्रहीम को लाना इस नुक़्ते की तरफ़ इशारा करता है कि हम क़ुदरत के बावजूद जो कि हमारी ऐने ज़ात है। अपने बन्दों पर मेहरबानी और लुत्फो करम करते है। ये बंदा नवाज़ी और लुत्फ़ बन्दे को ख़ुदा का ऐसा शीफ्ता व फरीफ्ता (महबूब) बना देता है कि वो इंतेहाई शग़फ़ से कहता है अर्रहमा निर्रहीम यहा से इंसान इस बात की तरफ मुतवज्जे होता है कि ख़ुदावंदे आलम का अपने बन्दों से और मालिकों के अपने मातहतों से सलूक में किस क़द्र फ़र्क़ है ख़ुसूसन ग़ुलामी के बदक़िस्मत दौर में।</div>
<h1 style="box-sizing: border-box; color: inherit; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 41.12px; line-height: 1.5; margin: 24px 0px 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />4. मालेके योमिद्दीन</h1>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />वो ख़ुदा जो रोज़े जज़ा का मालिक है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तफ़सीर<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />क़यामत पर ईमान दूसरी असल है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />यहाँ इस्लाम की दूसरी अहम असल यानी क़यामत और दूबारा क़ब्रो से उठने की तरफ़ तवज्जो दिलायी गयी है और फ़रमाया गया है कि वो ख़ुदा जो जज़ा के दिन का मालिक है। इस तरह महवर और मबदा व मआद जो हर किस्म की अख़लाक़ी और मआशरती इस्लाह की बुनियाद है वुजुद इंसानी में इस की तकमील होती है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ये बात क़ाबिले ग़ौर है कि क़यामत ख़ुदा की मिलकियत से ताबीर की गयी है और ये बात उस दिन के लिए ख़ुदा के इंतेहाई तसल्लुत और अश्या व अशख़ास पर उस के नूफूज़ को मुशख्ख़स करती है वो दिन कि जब तमाम इंसान उस बड़े दरबार में हिसाब के लिए हाज़िर होंगें। अपनी तमाम कही हुई बाते , काम यहा तक के सोचे हुए अफ़कार को अपने अंदर मौजूद पाऐगे। हत्ता के सुई की नोक के बराबर भी कोई बात नाबूद न होगी और फ़रामोश न की गयी होगी। अब वो इंसान हाज़िर है जिसे अपने तमाम आमाल अफ़आल की जवाब देही का बोझ अपने कांधे पर उठाना होगा। नोबत ये होगी कि जिन अमूर को वो खुद बजा नही लाया बल्कि किसी तऱीके या प्रोग्राम का बानी था उसमे भी इसे अपने हिस्से की जवाब देही का सामना होगा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />उसमे शक़ नही है कि खुदावंद आलम की ये मिलकियत उस तरह से ऐतबरी नही जिस तरह इस दुनिया में चीज़े हमारी मिल्कियत है क्योंकि हमारी मिलकियत तो एक कोनट्रेक्ट की बिना पर है या ऐज़ाज़ी व सनदी है। दूसरी सनदो व ऐज़ाज़ो के साथ ये मिलकियत ख़त्म भी हो सकती है लेकिन जहाने हस्ती के लिए ख़ुदा की मिलकियत हक़ीक़ी है और मौजूदात का ख़ुदा के साथ एक राबेता है कि जो एक लम्हे के लिए कट हो जाये तो दुनिया नाबूद हो जाये जैसे बिजली के बल्ब का राब्ता अपने बिजलीघर से टूट जाये तो उसी लम्हे में रौशनी ख़त्म हो जायेगी। दूसरे लफ़्ज़ों में इसकी मिलकियत ख़ालेकियत और रुबूबियत का नतीजा है वो ज़ात जिसने मौजूदात को ख़ल्क़ किया। अपनी रहमत के ज़ेरे नज़र इन की परवरिश की और लम्हे बा लम्ह उन्हें जिन्दगी बख़्शी वही मौजूदात का हक़ीक़ी मालिक है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />यहाँ एक सवाल पैदा होता कि क्या ख़ुदा उस जहान का मालिक नही अगर है तो फिर क़्यो हम उसे मालिके रोज़े जज़ा कहते है। इस सवाल का जवाब एक नुक़्ते की तरफ़ मुतवज्जे होने से वाज़ेह हो जाता है वो है कि ख़ुदा की मिलकियत अगरचे दोनों जहानों पर फैली है लेकिन इस मिलकियत का ज़हूर क़यामत के दिन बहुत ज़्यादा होगा क्योंकि उस दिन तमाम मादी रिश्ते और ऐतबारी मिलकियत ख़त्म हो जायेगी उस दिन किसी शख़्स की कोई चीज़ नही होगी। यहा तक के शिफ़ाअत भी फरमाने ख़ुदा से होगी।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />योमा ला यमलेको नफसन लेनफसिन शैआ वलअमरो योमाऐज़िन लिल्लाह।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तरजुमाः वो दिन के जब कोई शख़्स किसी चीज़ का मालिक न होगा कि उस के ज़रिए किसी की मदद कर सके और तमाम मामलात ख़ुदा के हाथ में होंगे।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(सूरे इनफेतार आयत 19)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />क़यामत के दिन पर और उस बड़ी अदालतगाह पर ईमान के जिस में तमाम चीज़ो का बड़ी बारीक़ी से हिसाब लिया जायेगा। इंसान को ग़लत और नाशाइस्ता अमल से रोकने के लिए बहुत मोअस्सिर है नमाज़ के क़बीह और बड़े आमाल से रोकने की एक वजह ये है कि एक तो ये इंसान को आखेरत की याद दिलाती है जो इस के तमाम कामो से वाकिफ़ है और दूसरी अद्ले ख़ुदा की बड़ी अदालत को भी याद दिलाती है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />एक हदीस में इमाम सज्जाद (अ.स.) के बारे में है कि आप जब आयत मालिके योमिददीन तक पहुँचते थे तो उसका इस तरह से तकरार करते कि यूं लगता जैसे आप की रूह बदन से परवाज़ कर जायेगी।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(तफ़सीरे नूरूस्सकलैन जिल्द 1 पेज न. 19)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />बाक़ी रहा लफज़े योमिददीन ये ताबीर कुरआन में जहाँ जहाँ इस्तेमाल हुई उस से मुराद क़यामत है जैसा के कुरआन मजीद में सूरह इन्फेतार की आयत 17 , 18 और 19 में वज़ाहत के साथ उस मफ़हूम की तरफ़ इशारा हुआ है। (ये ताबीर कुरआन मजीद में दस से ज़्यादा मरतबा इसी माने में इस्तेमाल हुई है।)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />अब रही ये गुफ़्तुगू के उस दिन को योमिददीन क्यूँ कहते है तो इसकी वजह ये है कि वो दिन जज़ा का दिन है और दिन लुगत में जज़ा के माने में है और क़यामत का वाज़ेह तरीन प्रोग्राम जज़ा व सज़ा और एवज़ व सवाब है। उस दिन परदे हट जाऐगे और तमाम आलम का तमाम तर बारीक़ तफ़सीलात के साथ हिसाब होगा और हर शख़्स अपने अच्छे बुरे आमाल की जज़ा व सज़ा पालेगा।</div>
<h1 style="box-sizing: border-box; color: inherit; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 41.12px; line-height: 1.5; margin: 24px 0px 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />5. इय्याका नअबोदो व इय्यका नसतईन।</h1>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />परवरदिगार हम तेरी ही इबादत करते है और तुझसे मदद चाहते है ।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तफ़सीर<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />वाक़ई ये है कि गुज़िशता आयात तौहीद ज़ात व सिफ़ात बयान कर रही है और यहा तौहीद इबादत और तौहीद अफ़आल से मुताल्लिक़ गुफ़्तुगू है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तौहीद इबादत ये है कि किसी शख़्स या चीज़ को ज़ाते ख़ुदा के अलावा इबादत के लायक न समझा जाये सिर्फ उसके हुक्म के सामने सर तस्लीम ख़म किया जाये। सिर्फ उसके क़वानीन और अहकाम को क़ुबूल किया जाये और उसकी ज़ाते पाक के अलावा किसी की किसी किस्म की इबादत व बंदगी करने और किसी और के सामने सर झुकाने से परहेज़ किया जाये।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />सिर्फ ख़ुदा की ज़ात क़ाबिले एतमाद व हम्द है और ये लियाकत रख़ती है कि इंसान उसे तमाम चीज़ो में अपना सहारा क़रार दे। ये फ़िक्र और एतमादे इंसान का नाता तमाम मौजूदात से तोड़ कर सिर्फ ख़ुदा से जोड़ देगा। यहा तक के अब वो आलमे असबाब की तलाश भी हुक्मे ख़ुदा के तहत करता है यानी असबाब में भी वो क़ुदरत ख़ुदा का मुशाहेदा करता है क्योंके ख़ुदा ही तमाम असबाब का पैदा करने वाला है।</div>
<h1 style="box-sizing: border-box; color: inherit; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 41.12px; line-height: 1.5; margin: 24px 0px 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />6. ऐहदे नस सिरातल मुस्तकीम।</h1>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />हमे सीधी राह की हिदायत फ़रमा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तफ़सीर<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />सिराते मुस्तक़ीम पर चलना।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />परवरदिगार के सामने इज़हारे तस्लीम , इस की ज़ात की उबुदीयत इससे मदद की तलब के मरहले तक पहुँच जाने के बाद बन्दे का पहला तक़ाज़ा ये है के उसे सीधी राह , पाकीज़गी व नेक़ी की राह , अद्लो इंसाफ की राह और ईमान व अमले सालेह की हिदायत नसीब हो। ताके ख़ुदा जिसने उसे तमाम नेमतों से नवाज़ा है , हिदायत से भी सरफ़राज़ फरमाये।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />यहा ये मशहूर सवाल सामने आता है कि हम हमेशा ख़ुदा से सिराते मुस्तक़ीम की हिदायत की दरख़्वास्त करते रहते है। क्या हम गुमराह है और अगर बा फ़र्ज़ ये बात हमारे लिए दुरुस्त है तो पैग़म्बर अकरम (स.अ.व.व) और आइम्मा ऐ अहलेबेयत जो इंसाने कामिल का नमूना है। उनके लिए क्योंकर सही है। इस सवाल के जवाब में हम कहते हैः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />जैसे पहले इशारा किया जा चुका है कि इंसान के लिए राहे हिदायत में हर लम्हा लग़ज़िश व ग़लती का ख़ौफ है लिहाज़ा चाहिये कि अपने आप को परवरदिगार के इख़तियार में दे दें और उससे तक़ाज़ा करे कि वो उसे सीधी राह पर साबित क़दम रखे। दूसरी बात ये है कि हिदायत के माने भी तरीक़ तक़ामुल को तै करना यानी इंसान धीरे धीरे मराहिल नुक़्स को पीछे छोड़ता जाये और बुलंद मरहलो तक पहुँचता जाये। हम ये भी जानते है कि राहे कमाल यानी एक कमाल से दूसरे कमाल तक पहुँचने का रास्ता नामहदूद है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इस बिना पर कोई ताज्जब नही कि अम्बिया व आइम्मा अलैहिमुस्सलाम भी ख़ुदा से सीराते मुस्तक़ीम की हिदायत का तक़ाज़ा करे क्योंकि कमाले मुतलक़ तो सिर्फ ज़ाते ख़ुदा है और बाक़ी सब बग़ैर किसी को अलग किऐ तकामुल के रास्ते में हैं। लिहाज़ा क्या हर्ज है कि वो भी ख़ुदा से बालातर दर्जात की तमन्ना करे।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />खुदावंद हमे उस रास्ते पर जो तेरी मोहब्बत और जन्नत तक है साबित क़दम रख कि यही रास्ता हलाक करने वाले ख़्वाहिशात और इन्हेराफी व तबाह करने वाली फिक्रो को रोकने वाला है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />(तफ़सीरे नूरूस्सकलैन जिल्द 1 पेज न. 19)<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />सिराते मुस्तक़ीम क्या है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />आयाते कुरआने मजीद के पढ़ने से मालूम होता है कि सिराते मुस्तक़ीम ख़ुदा परस्ती , दीने हक़ और अहकामे खुदावंदी की पाबन्दी का नाम है। जैसा सूरे अनआम की आयत 161 में है<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तरजुमाः कह दीजिये कि मेरे परवरदिगार ने मुझे सिराते मुस्तक़ीम की हिदायत की है जो सीधा दीन है वो कि जो उस इब्राहीम का आईन है जिसने कभी ख़ुदा से शिर्क़ नही किया।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />दीने साबित यानी वो दीन जो अपनी जगह क़ायम रहे। इब्राहिम के आईने तौहीद और हर किस्म के शिर्क़ की नफ़ी का तआरुफ़ यहा पर सिराते मुस्तक़ीम के उन्वान से हुआ है और यही बात उस ऐतक़ादी पहलू को मुशख्खस करती है।</div>
<h1 style="box-sizing: border-box; color: inherit; font-family: "Roboto Slab", Cambria, Georgia, "Times New Roman", Times, serif; font-size: 41.12px; line-height: 1.5; margin: 24px 0px 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />7. सिरातल लज़ीना अनअमता अलैहिम। ग़ैरिल मग़ज़ूबे अलैहिम वलज्जाल लीन।</h1>
<div style="box-sizing: border-box; margin-bottom: 12px;">
<br style="box-sizing: border-box;" />उन लोगो की राह जिन पर तूने इनाम किया। उनकी राह नही जिन पर तेरा ग़ज़ब हुआ और न वो कि जो गुमराह हुए।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तफ़सीर<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />दो ग़लत रास्ते<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />ये आयत हक़ीक़त में सिराते मुस्तक़ीम की वाज़े तफ़्सीर है जिसे हम पिछली आयत के ज़ैल में पढ़ चुके है । दुआ है कि मुझे उन लोगो के रास्ते की हिदायत फ़रमा जिन्हे किस्म किस्म की नेमतों से नवाज़ा है (नेमते हिदायत व नेमते तौफ़ीक़ , मर्दाने हक़ की रहबरी की नेमत , नेमते इल्म व अमल , नेमते जिहाद व शहादत)। उन लोगो की राह नही जिन के बुरे आमाल और टेढ़े अकीदे की वजह से तेरा ग़ज़ब उन्हे दामन गीर हुआ और न ही उन लोगो की राह जो शाहराहे हक़ को छोड़ कर एक तरफ बैठ जाने वालो के आलम में है और गुमराह व सरगर्दां है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />सिरातल लज़ीना अनअमता अलैहिम। ग़ैरिल मग़ज़ूबे अलैहिम वलज्जाल लीन।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />हक़ीक़त ये है कि चूंकि हम राहो रस्मे हिदायत से पूरे तौर से आशना नही लिहाज़ा ख़ुदा हमें दस्तूर हिदायत दे रहा है कि हम अम्बियाए सालेहीन और दीगर वो लोग जो नेमतो अल्ताफे इलाही से नवाज़े गये है उनके रास्ते की ख़्वाहिश करें और हमे ख़बरदार किया गया है कि तुम्हारे सामने दो टेढ़े रास्ते मौजूद है। मग़जूब अलैहिम का रास्ता और ज़ालीन का रास्ता उन दोनों कि तफ़्सीर हम बहुत जल्द ज़िक्र करेंगे।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" /><strong style="box-sizing: border-box;">चंद अहम नुकते</strong><br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />1- अल्लज़ीना अनअमता अलैहिम कौन है। सूरह निसाए आयत 69 में इस गिरोह की निशानदेही इस तरह की गयी हैः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तरजुमा आयतः जो लोग ख़ुदा व रसूल (स.अ.व.व.) के अहकाम की इताअत करते है ख़ुदा उन्हें उन लोगो के साथ क़रार देगा जिन्हे नेमतो से नवाज़ा गया है और वो है अम्बिया , सादेक़ीन , शोहदाये राह हक़ और सालेह इंसान और ये लोग बेहतरीन साथी है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />जैसा कि हम देख रहे है उस आयत में शायद उस मानें की तरफ़ इशारा हो कि एक सही व सालिम तरक़्क़ी याफ़्ता और मोमिन मुआशरे की तशकील के लिए पहले अम्बिया और रहबराने हक़ को मैदान अमल में आना चाहिये इन के बाद सच्चे और रास्त बाज़ मुबल्लिग हो जिनकी गुफ़्तार और किरदार में एक से हो ताके वो उस रास्ते से अम्बिया के मक़ासिद को तमाम एतराफ़ में फैला दे।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />फ़िक्री तरबियत के इस प्रोग्राम पर अमल दर आमद के दौरान में बाज़ गुमराह अनासिर राह हक़ में हाईल होने की कोशिश करेंगे। उनके मुक़ाबिल एक गिरोह को क़याम करना चाहिये उनमे से कुछ लोग शहीद होंगे और अपने ख़ून मुक़द्दस से शजरे तौहीद की आब्यारी करेंगे। चौथे मरहले में उन कोशिशों के नतीजे में सालेह लोग वजूद में आऐगे और इस तरह एक पाको पाकिज़ा , काबिल और मानवियत व रूहानियत से भरपूर मुआशरा वजूद में आ जायेगा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />इसलिए हम रोज़ाना सुबह शाम सूरह हम्द में पै दर पै ख़ुदा से दुआ करते है कि हम भी उन चार गिरोह की तरफ़ हक़ के राही क़रार पाऐ हक़ का रास्ता अम्बिया का रास्ता , सिद्दीक़ीन का रास्ता , शोहदा का रास्ता और सालेहीन का रास्ता है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />वाज़े है कि हर ज़माने को अंजाम तक पहुँचाने के लिए हमे उनमें से किसी रास्ते की पैरवी में अपनी ज़िम्मेदारी को अंजाम देना होगा।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />2- मगज़ूब अलैहिम और ज़ालीन कौन है उन दोनों को आयात में अलग अलग बयान करने से ज़ाहिर होता है कि उनमे से हर एक किसी ख़ालिस गिरोह की तरफ़ इशारा है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />दोनों में फ़र्क़ के सिलसिले में तीन तफ़सीरें मौजूद है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />1. कुरआन मजीद में दोनों अल्फ़ाज़ के इस्तेमाल के मवाके से ज़ाहिर होता है कि मगज़ुब अलैहिम का मरहला ज़ालींन से सख़्त तर और बद तर है। बा अल्फ़ाज़ दीगर ज़ालीन से मुराद आम गुमराह लोग है और मगज़ुब अलैहिम से मुराद लजुज , गुमराही पर अड़े हुऐ या मुनाफ़िक़ हैं। यही वजह है कई एक मौक़ो पर ऐसे लोगो के लिए ख़ुदा का अज़ाब और लानत का ज़िक्र हुआ है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />सूरह नहल आयत 106 में आया है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तरजुमाः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />जिन्होंने कुफ्र के लिए अपने सीनो को खोल रखा है उन पर अल्लाह का ग़ज़ब है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />सूरऐ फतेह आयत 6 में है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तरजुमाः<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />मुनाफेक़ीन मर्द और औरतों और मुशरिक मर्द और औरतें जो ख़ुदा के बारे में बड़े गुमान करते है ख़ुदा उन सब पर अज़ाब नाज़िल करेगा। उन सब पर अल्लाह का अज़ाब और उस की लानत है। वो उन्हें अपनी रहमत से दूर रखता है और उन्ही के लिए उसने जहन्नुम तैयार कर रखा है।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />बहरहाल मगज़ुब अलैहिम वो है जो राहे कुफ़्र में अड़ियलपन और हक़ से दुश्मनी रखने के अलावा रहबराने इलाही और अम्बिया मुर्सलीन अलैहिस्सलाम को हर मुमकिन अज़ीयत व नुक़सान पहुँचाने से भी गुरेज़ नहीं करते।<br style="box-sizing: border-box;" /><br style="box-sizing: border-box;" />तमाम शुद।</div>
</section><span style="font-size: small;"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="https://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></span><br />
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<span style="font-size: medium;"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </span><span style="font-size: medium;"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></span></div>
<div align="center">
<span style="font-size: medium;"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </span><span style="font-size: medium;"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></span></div>
<div align="center">
<br /></div>
</div>
S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-10410750451525072292023-08-28T12:27:00.002+05:302023-08-28T12:27:27.019+05:30 मोहल्ला कटघरा में नसीर हाउस का 39 वां क़दीमी अशरा ऐ मजलिस माह ए सफर<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<p><br /></p><p> </p><h2 style="text-align: center;"> मोहल्ला कटघरा में नसीर हाउस का 39 वां क़दीमी अशरा ऐ मजलिस माह ए सफर</h2><p><font size="3"></font></p><h2 style="background-color: #efefef; overflow-wrap: break-word; text-align: center;"><p dir="ltr" style="font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 14px; font-weight: 400; overflow-wrap: break-word; text-align: left;">रिपोर्ट एस एम् मासूम </p><p dir="ltr" style="font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 14px; font-weight: 400; overflow-wrap: break-word; text-align: left;">जौनपुर | मोहल्ला कटघरा में नसीर हाउस में क़दीमी अशरा ऐ मजलिस माह ए सफर में तक़रीबन 39 सालों से होती रही है | अपने बुज़ुर्गों की क़ायम की गयी इस ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते हुए जनाब अहसन रिज़वी उर्फ़ नजमी साहब ने इस साल भी पहली सफर से दस सफर तक यह अशरा क़ायम रखा जिसमे नौ उलेमा और ज़किरीन ने पैगाम ऐ इंसानियत दिया जिसमे उन्होंने लोगों को पैगम्बर ऐ इस्लाम हज़रत मुहम्मद के नवासे की कर्बला में शहादत का मक़सद बताया और लोगों को हिदायत की के अगर वो इमाम हुसैन के इंसानियत पे पैगाम पे चले और इसे आगे बढ़ाएं तो दुनिया में भी शांति रहेगी और आख़िरत में भी कामयाबी मिलेगी |</p><div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://www.youtube.com/channel/UC0cj-4VfCNvvZcEi20nnbqw" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;" target="_blank"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1600" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhG2pZdmtX0vYzF3pvZB44MI2o9PnlbL1Lm9H01ey3lNjsZk0xPK3FWzBPVbNOzuHUaPhbEQwcp4z_C255leU269ZbR-8pmdq1fT6s8QpZVV40PxoGyrMMBrsTbZ5eVAxMFfYJCROvY6o6NBZpRHV4zcaPB-dzvUeC-9yLbFxEdO8qY6mFnqXy-TjMqCUyA/w320-h320/NASEER.jpeg" title="https://www.youtube.com/channel/UC0cj-4VfCNvvZcEi20nnbqw" width="320" /></a></div><div align="center" style="font-family: Roboto, sans-serif; font-size: 14px; font-weight: 400; overflow-wrap: break-word;"><p dir="ltr" style="overflow-wrap: break-word;">इस मजलिसों की खिताबत का काम जौनपुर के मशहूर उलेमा और ज़किरीन ने किया |</p><p dir="ltr" style="overflow-wrap: break-word; text-align: start;">1.ज़ाकिर ए अहलेबैत जनाब असलम नकवी साहब , 2.मौलाना सय्यद सफदर ज़ैदी साहब किब्ला,3.मौलाना उरूज हैदर साहब किबला,4.ज़ाकिर ए अहलेबैत मौलाना अली अब्बास हायरी ,5.मौलाना महफ़ूज़ल हसन साहब किबला,6.ज़ाकिर ए अहलेबैत डॉ. कमर अब्बास साहब,7 .मौलाना हसन अकबर खान साहब,8. मौलाना तनवीर हैदर खान साहब ,9.ज़ाकिर ऐ अहलेबैत मोहम्मद हसन नसीम साहब साबिक प्रिंसिपल आरडीएम शिया कॉलेज इन मजलिसों में सोअज़ ख्वानी जनाब जनाब मेहताब साहब और साथियों ने किया | निज़ामत और पेशख्वानी जनाब का काम तालिब राजा अधिवक्ता ने और मिर्ज़ा मोहम्मद बादशाह ने अंजाम दिया |</p><p dir="ltr" style="overflow-wrap: break-word; text-align: start;">इसमें शिरकत हुसैन नसीर , मोहसिन ,फैसल, अहमद ,फ़राज़ , मिर्ज़ा बाबर , यावर खान और ज़ियारत ऐ हुसैन इत्यादि मोमिनीन जौनपुर ने किया | </p><p dir="ltr" style="overflow-wrap: break-word; text-align: start;">इस मजलिस ऐ अशरा के अंतिम दिन में बाद मजलिस अलम हज़रत अब्बास अलमदार और तुर्बत ऐ सकीना की ज़ियारत की और नाम आँखों से नौहा अंजुमन ए बज़्म ए अज़ा ने पढ़ा और हुसैन पे हुए ज़ुल्म को याद कर के आंसू बहाया <br style="overflow-wrap: break-word;" />|<br style="overflow-wrap: break-word;" />जुलूस के आखिर में मुंतज़मींन ए अशरा ने सभी मोमिनीन और ज़किरीन का शुक्रिया अदा किया |</p><div class="separator" style="clear: both;"><a href="https://www.youtube.com/channel/UC0cj-4VfCNvvZcEi20nnbqw" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1066" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEib_b5Fxpb3XijxcBMqqj8Yt-_053U2D16GdA6YQaUf4OnELNk0lRC4bSpttnnrvCw_WCFFY3M2QByQdwpL6-3Tuj9TPsgPPyADQP88fXDYbBvI2pMDSpo80OiEf6j9DhtpZBWW0ualpdOt8tUxRQ42ouW2c8LyAPo6_Wz4Uws_dLWanGv3H5Q6OLLiEvvq/s320/22d22e5f-9b1a-483b-bda6-b503adc77f3e.jpg" width="213" /></a></div><br /><p dir="ltr" style="overflow-wrap: break-word; text-align: start;">रिपोर्ट एस एम् मासूम </p></div></h2><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"> </font></p>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-76810187691590598202023-07-30T12:28:00.007+05:302024-01-02T06:33:59.508+05:30एहसान को भूलने वाला मलऊन है।" हज़रत मुहम्मद (स ) <script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<ins class="adsbygoogle" data-ad-client="ca-pub-0489533441443871" data-ad-format="auto" data-ad-slot="8396935525" style="display: block;"></ins>
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</script><h2 style="text-align: center;">एहसान को भूलने वाला मलऊन है </h2><div>रसूले ख़ुदा (स.) इर्शाद फ़रमाते हैं किः- "एहसान को भूलने वाला मलऊन है जो लोगों पर नेकियों के दरवाज़े को बंद करता है।" जब एहसान को भूला दिया जाता है तो इंसान एहसान करने से हाथ खींच लेता है क्यों कि वह चाहता है कि उसका अहसन अमल याद रखा जाए। बेहतर तो यह है कि एहसान का बदला एहसान ही से अदा किया जाए। अल्लाह ने लालच और ग़रज़ की ख़्वाहिश में एहसान करने की मनाही की है। ऐसा भी अक्सर देखा गया है कि ज़बरदस्ती किसी के साथ एहसान किया जा रहा है क्यों कि कल हमें उस शख़्स से अपना कोई बड़ा काम लेना है|</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzKywe29LcVmk7_O6kzWr_-31RNezvsWmBjWM4gVUyUkbJUITsjuc8xqkkEE3025HlDEmanguHgiO-BMifiKnw7OQ04PQG9yL_hbA1zqiNgIrxdJWDLSmSfEJfxLNyceScsZ1l4ikSQj-gfqXrSRd1q5blVpQR6yyWLyNfVu7jBIg6cZR-koeGETI1wVo/s640/WhatsApp%20Image%202018-09-14%20at%2023.48.03.jpeg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="480" data-original-width="640" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzKywe29LcVmk7_O6kzWr_-31RNezvsWmBjWM4gVUyUkbJUITsjuc8xqkkEE3025HlDEmanguHgiO-BMifiKnw7OQ04PQG9yL_hbA1zqiNgIrxdJWDLSmSfEJfxLNyceScsZ1l4ikSQj-gfqXrSRd1q5blVpQR6yyWLyNfVu7jBIg6cZR-koeGETI1wVo/w400-h300/WhatsApp%20Image%202018-09-14%20at%2023.48.03.jpeg" width="400" /></a></div><br /> <br /><br />1- वालदैन के साथ एहसान करो चाहे वह गैर मुस्लिम ही क्यों न हों।<br />2- पड़ेसी के साथ एहसान एहसान करो चाहे वह गैर मुस्लिम ही क्यों न हो।<br />3- मेहमान के साथ एहसान करो चाहे वह गैर मुस्लिम ही क्यों न हों।<br />4- माँगने वाले के साथ एहसान करो चाहे वह गैर मुस्लिम ही क्यों न हो।<br />.....इस्लाम में माफ़ कर देना एहसान है।<br />....सलाम करना एहसान है।<br />.....खाना खिलाना एहसान है।<br />...मुसाफ़िर को पनाह देना एहसान है।<br />......परेशान की मदद करना एहसान है।<br />.....मोमिन को ख़ुश करना एहसान है।<br />...किसी की तारीफ़ करना एहसान है।<br />.....ताज़ियत करना एहसान है।<br />......मरीज़ों की अयादत (यानी देख भाल करना) करना एहसान है।<br />......किसी की ख़ैरियत पूछना एहसान है।<br />......बैठने के लिए किसी के लिए जगह बनाना एहसान है।<br />......किसी के लिए मुस्कुराना एहसान है।<br />......किसी के ऐब से अकेले में उसे बाख़बर करना एहसान है।<br />......इल्म बांटना एहसान है।<br />......पानी पिलाना भी एहसान है जिसे हमारा समाज एहसान नहीं समझता क्यों कि हमारी नज़र में पानी बहुत छोटी सी चीज़ है जबकि सच यह है कि पानी एक बहुत बड़ी नेमत है जिसे ख़ुदा ने हमारे लिए बेक़ीमत बना दिया है ताकि ग़रीबों को भी आसानी से मिल सके।<p><font size="3"><br /></font></p><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></font></p>
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<p align="center"><font size="4"> </font></p></div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-44610754934763788522023-07-12T07:15:00.004+05:302023-07-12T07:17:18.175+05:30सूरए यूसुफ़ तर्जुमा और तफ़्सीर <h2 style="text-align: center;">सूरए यूसुफ़</h2><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="174" data-original-width="290" height="174" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGo_Ap_lPjv6FUOgwS7Y9mEt_4nBPMaGV1lPTWPF2MRzSwPwVtNkGZFk_kweZYl-LxShzSW1sjEaSghhT-wtflsu4CreYsNuv6qvmaVHKD4Y7pm_aZ8p9IohzZHM5DeVa655DQQeawN6IRgyK8jGn1ueNc86oCdIYF_trnvkpG2BVGyzRDiJMxM6wRxSQ/s1600/yusuf.jpg" width="290" /></div><br /><br /><b style="text-align: center;">सूरए यूसुफ़, आयतें 1-3,</b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: center;"><b><br /></b></div>
आज से हम सूरए यूसुफ़ की व्याख्या आरंभ करेंगे जिसमें ईश्वरीय दूत हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के जीवन की विभिन्न उतार चढ़ाव भरी घटनाओं का उल्लेख है। क़ुरआने मजीद के अन्य सूरों के विपरीत जिनमें आस्था, शिष्टाचार और धार्मिक आदेशों संबंधी बातों और पिछले पैग़म्बरों तथा जातियों के वृत्तांत का उल्लेख किया गया है, इस सूरए में केवल हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना का निरंतरता के साथ वर्णन है और अन्य विषयों की ओर संकेत नहीं किया गया है।<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की जीवनी का उल्लेख तौरैत में भी है किन्तु उसमें और क़ुरआने मजीद में बहुत अंतर है। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के बारे में क़ुरआने मजीद की आयतों पर ध्यान देने से इस ईश्वरीय किताब की सत्यता अधिक स्पष्ट और सिद्ध हो जाती है और कुछ अन्य पुस्तकों में इस घटना में फेर बदल किए जाने को भलिभांति समझा जा सकता है,<br />
<br />
<b><span style="color: #990000;">अल्लाह के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावन है। अलिफ़ लाम रा। यह स्पष्ट करने वाली किताब की आयतें हैं। (12: 1) निश्चित रूप से हमने क़ुरआन को अरबी भाषा में उतारा है, शायद तुम लोग चिंतन करो। (12: 2)</span></b><br />
<b><span style="color: #990000;"><br /></span></b>
यह सूरा भी क़ुरआने मजीद के 29 अन्य सूरों की भांति हुरूफ़े मुक़त्तेआत अर्थात भिन्न भिन्न अक्षरों से आरंभ हुआ है। ये अक्षर वस्तुतः ईश्वर और उसके पैग़म्बर के बीच रहस्य हैं किन्तु साथ ही ये एक प्रकार से क़ुरआन के ईश्वरीय चमत्कार होने को भी दर्शाते हैं क्योंकि इनमें से अधिकांश सूरों में हुरूफ़े मुक़त्तेआत के बाद क़ुरआने मजीद और उसकी महानता की बात कही गई है। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर ने अपने चमत्कार अर्थात क़ुरआने मजीद को इन्हीं साधारण से अक्षरों के माध्यम से उतारा है। यदि तुम में भी क्षमता हो तो इन्हीं अक्षरों से क़ुरआन जैसी किताब ला कर दिखाओ।<br />
<br />
इन आयतों में दो महत्त्वपूर्ण बिंदुओं की ओर संकेत किया गया है, प्रथम यह कि क़ुरआने मजीद स्पष्ट करने वाली किताब है, ऐसी किताब जो सत्य के मार्ग को स्पष्ट करती है और जीवन के मार्ग का दीपक जिसके प्रकाश से गंतव्य तक पहुंचा जा सकता है।<br />
दूसरे यह कि सभी का दायित्व है कि क़ुरआने मजीद की आयतों में चिंतन और सोच विचार करें और अपनी बुद्धि तथा विचारों के विकास के लिए उनसे लाभ उठाएं। क़ुरआने मजीद इसलिए नहीं आया है कि लोग उसकी तिलावत करके प्रलय का पारितोषिक प्राप्त करें बल्कि क़ुरआन इसलिए आया है कि लोग अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के कार्यक्रमों को उसके आधार पर तैयार करें और क़ुरआन की शिक्षाओं को अपने जीवन का आधार बनाएं।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि अरबी, क़ुरआन की भाषा है। क़ुरआन की आयतों में चिंतन के लिए उचित है कि मनुष्य अरबी भाषा सीखे।<br />
<br />
क़ुरआन केवल तिलावत करने और घर में रखने के लिए नहीं है बल्कि मनुष्य के चिंतन मनन का साधन है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की तीसरी आयत<br />
<br />
<span style="color: #990000;"><b>(हे पैग़म्बर!) हम इस क़ुरआन के माध्यम से जिसे हमने वहि द्वारा आपकी ओर भेजा है, सबसे उत्तर वृत्तांत आपको सुनाते हैं, जिनसे आप पहले अवगत नहीं थे। (12:3)</b></span><br />
<br />
इस आयत में ईश्वर अपने पैग़म्बर से कहता है कि हम अपने विशेष संदेश वहि द्वारा आपकी ओर क़ुरआन भेजते हैं और इसके माध्यम से पिछली जातियों के वृत्तांतों को भी उत्तम ढंग से आपको सुनाते हैं और यह भी क़ुरआन का एक भाग है।<br />
मूल रूप से मनुष्यों के प्रशिक्षण में पिछली जातियों की कहानियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है विशेष कर यदि वह पिछली जातियों की सच्ची घटनाएं हों और सुनने वाला उन्हें एक कहानीकार की कल्पनाओं का परिणाम न समझे। वस्तुतः क़ुरआन के वृत्तांतों की सबसे बड़ी विशेषता उनका वास्तविक होना है। यह ऐसी बात है जिसे आज कल इतिहास के रूप में पहचाना जाता है और शैक्षणिक केन्द्रों में विभिन्न आयामों से इस पर ध्यान दिया जाता है।<br />
हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र इमाम हसन अलैहिस्सलाम के नाम एक पत्र में इस प्रकार लिखते हैं। प्रिय पुत्र! मैंने अपने से पहले वाले लोगों की जीवनी का ऐसा अध्ययन किया है मानो मैंने उन्हीं के बीच जीवन बिताया हो।<br />
क़ुरआने मजीद में इतिहास का महत्त्व इतना अधिक है कि क़ुरआन को अहसनुल क़सस अर्थात सर्वोत्तम वृत्तांत कहा गया है। इसके अतिरिक्त यह कि ईश्वर स्वयं को कहानी सुनाने वाला बताता है और उसने पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को हज़रत यूसुफ़ का वृत्तांत सुनाते हुए इसे क़ुरआन का एक भाग बताया है।<br />
<br />
यदि इस आयत में हज़रत यूसुफ़ के वृत्तांत को सबसे महत्त्वपूर्ण वृत्तांत बताया गया है तो इसका कारण यह है कि इस घटना का नायक ऐसा युवा है जिसका पूरा अस्तित्व, पवित्रता अमानतदारी, धैर्य और ईमान से परिपूर्ण है। इस घटना का मूल बिंदु यह है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने भरपूर जवानी में अपनी आंतरिक इच्छाओं से संघर्ष किया और उसमें विजयी रहे। इस घटना में बहुत सी विरोधाभासी बातें एकत्रित हैं, जैसे विरह और मिलाप, दुख और सुख, अभाव और बहुतायत, वफ़ा और बेवफ़ाई, दास्ता और शासन तथा पवित्रता और आरोप।<br />
इस आयत में निश्चेतना के लिए प्रयोग होने वाला ग़फ़लत का शब्द न जानने के अर्थ में प्रयोग हुआ है कि जो स्वयं कोई बुरी बात नहीं है। ऐसी ग़फ़लत बुरी होती है जो जानने और पहचानने के बाद भी बाक़ी रहे। जैसे ईश्वर और उसकी महान निशानियों से ग़फ़लत। पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत यूसुफ़ के वृत्तांत को नहीं जानते थे और ईश्वर ने अपने विशेष संदेश वहि द्वारा उन्हें इससे अवगत करा दिया।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि सकारात्मक आदर्श प्रस्तुत करने के लिए हमें ऐसे ऐतिहासिक पात्रों का परिचय कराना चाहिए जिनका अस्तित्व वास्तव में सफल और प्रभावी रहा हो।<br />
चूंकि क़ुरआन ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करता है अतः वह पूर्ण रूप से वास्तविक व विश्वसनीय है क्योंकि क़ुरआन, ज्ञान व तत्वदर्शी ईश्वर की ओर से हम तक पहुंचा है।<br />
<br />
<br /><b>
सूरए यूसुफ़, आयतें 4-6</b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><b><br /></b><span style="color: #990000;"><b>जब यूसुफ़ ने अपने पिता से कहा कि हे मेरे पिता! मैंने सपने में ग्यारह तारों तथा सूर्य और चंद्रमा को देखा है और देखा कि वे मुझे सज्दा कर रहे हैं। (12: 4)</b></span><br />
<br />
क़ुरआने मजीद में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना एक ऐसे स्वप्न से आरंभ होती है जिसमें उन्हें उज्जवल भविष्य की शुभ सूचना दी गई है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम कहते हैं कि स्वप्न तीन प्रकार के होते हैं, एक ईश्वर की ओर से शुभ सूचना होती है, दूसरा शैतान की ओर से दुख होता है और तीसरा मनुष्य की प्रतिदिन की समस्याएं होती हैं जिन्हें वह स्वप्न में देखता है और दुखी होता है।<br />
अलबत्ता ईश्वर के प्रिय और पवित्र बंदों के स्वप्न सच्चे होते हैं अर्थात उनके लिए वे ईश्वर के संदेश होते हैं जैसे हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सपने में देखा था कि वे ईश्वर के आदेश से अपने पुत्र इस्माईल की बलि चढ़ा रहे हैं। इसी प्रकार ऐसे लोगों के स्वप्न ऐसी वास्तविकताओं का उल्लेख करते हैं जो भविष्य में घटने वाली होती हैं जैसे हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का यही स्वप्न जिसके अनुसार वे बहुत ही उच्च स्थान तक पहुंचे और उनके ग्यारह भाइयों तथा माता पिता ने उनकी प्रशंसा की।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि स्वप्न, वास्तविकताओं को समझने का एक मार्ग है जो कुछ लोगों को प्राप्त होता है।<br />
माता-पिता को अपने बच्चों के साथ आत्मीय संबंध स्थापित करना चाहिए ताकि बच्चे भी उन पर भरोसा करें और उन्हें अपनी समस्याओं से अवगत कराएं।<br />
<br /><b>
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या पांच</b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<span style="color: #cc0000;"><b>यूसुफ़ के पिता ने कहा कि हे मेरे पुत्र! अपने स्वप्न का अपने भाइयों से उल्लेख न करना कि वे तुम्हारे विरुद्ध षड्यंत्र करने लगेंगे। निश्चित रूप से शैतान, मनुष्य का खुला हुआ शत्रु है। (12: 5)</b></span><br />
हज़रत यूसुफ़ के पिता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम, ईश्वरीय पैग़म्बर थे, वे समझ गए कि उनके पुत्र का स्वप्न एक साधारण बात नहीं है बल्कि भविष्य में उसकी महानता और परिपूर्णता का सूचक है। अतः उन्होंने हज़रत यूसुफ़ से कहा कि वे अपने स्वप्न का उल्लेख अपने भाइयों से न करें क्योंकि संभव है कि उनके भीतर ईर्ष्या की भावना उत्पन्न हो जाए और वे उन्हें कोई क्षति पहुंचा दें।<br />
मूल रूप से बच्चों के बीच ईर्ष्या ऐसी बात है जिसकी ओर से माता पिता और संतान सभी को सचेत रहना चाहिए। माता पिता को एक बच्चे की विशेषता का उल्लेख करके दूसरे बच्चों के बीच ईर्ष्या की भूमि प्रशस्त नहीं करना चाहिए। यही कारण था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाइयों से छिपकर अपने पिता को अपने स्वप्न के बारे में बताया और उन्होंने भी उनसे कहा कि वे इस बारे में अपने भाइयों को कुछ न बताएं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि जिस प्रकार से एक सपने के बारे में दूसरों को बताने से संकट उत्पन्न हो सकता है उसी प्रकार जागते में भी जो बातें हम देखते हैं उनका हर स्थान पर और हर किसी से उल्लेख नहीं करना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि इससे संकट उत्पन्न हो जाए।<br />
घर और समाज के वातावरण में ईर्ष्या का ख़तरा, एक गंभीर विषय है और बहुत सी बातों को छिपाकर अनेक समस्याओं को रोका जा सकता है।,</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><b>
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या छह</b><br />
<br />
<b><span style="color: #990000;">और इस प्रकार तुम्हारा पालनहार तुम्हारा चयन कर लेगा और सपनों की व्याख्या का ज्ञान तुम्हें सिखा देगा अपनी विभूतियां तुम पर और याक़ूब के परिवार पर पूरी कर देगा जिस प्रकार से कि उसने इससे पूर्व तुम्हारे पिताओं इब्राहीम और इसहाक़ पर अपनी विभूतियां पूरी कर दी थीं। निश्चित रूप से तुम्हारा पालनहार अत्यंत ज्ञानी और तत्वदर्शी है। (12: 6)</span></b><br />
<br />
हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम अपने पुत्र को नसीहत जारी रखते हुए कहते हैं कि भविष्य में ईश्वर तुम्हें अपना पैग़म्बर बनाएगा और इस प्रकार हमारे परिवार पर अपनी विभूतियों को पूरा कर देगा। इसके अतिरिक्त वह तुम्हें सपनों की व्याख्या का ज्ञान भी प्रदान करेगा ताकि तुम लोगों को सपनों की वास्तविकताओं से अवगत करा सको।<br />
हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम की यह भविष्यवाणी, ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर थी कि जो ईश्वर अपने पैग़म्बरों को प्रदान करता है और उन्हें भविष्य की बातों से अवगत करा देता है। इसके अतिरिक्त वे अपने पुत्र के स्वप्न से भी यह बात समझ सकते थे।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर मनुष्यों के बीच से सबसे उत्तम लोगों को अपनी पैग़म्बरी के लिए चुनता है और उन्हें आवश्यक ज्ञान प्रदान करता है ताकि वे लोगों के मार्गदर्शन का माध्यम बनें।<br />
अपने परिवार में पैग़म्बरी जारी रखने के संबंध में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की प्रार्थना को ईश्वर ने स्वीकार कर लिया था और उनके वंश में हज़रत इसहाक़ और हज़रत इस्माईल जैसे पैग़म्बर जन्में जिससे इस परिवार की पवित्रता का पता चलता है।<br />
<br />
<b><br />
सूरए यूसुफ़, आयतें 7-10,</b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><b><br /></b>
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या सात और आठ<br />
<br />
<b><span style="color: #990000;">निश्चित रूप से यूसुफ़ और उनके भाईयों के वृत्तांत में (वास्तविकता की) खोज में रहने वालों के लिए (मार्गदर्शन) की निशानियां हैं। (12:7) उस समय कि जब (यूसुफ़ के भाईयों ने) कहा कि यूसुफ़ और उनके भाई (बिनयामिन) हमारे पिता के निकट हमसे अधिक प्रिय हैं जबकि हम अधिक शक्तिशाली हैं। निसंदेह हमारे पिता खुली हुई पथभ्रष्टता में हैं। (12:8)</span></b><br />
<br />
क़ुरआने मजीद की आयतों के अनुसार हज़रत यूसुफ़ की घटना एक स्वप्न से आरंभ होती है जिसमें भविष्य में उनके उच्च स्थान की ओर संकेत किया गया है किन्तु इस स्थान की प्राप्ति सरल नही है बल्कि इसके लिए अनेक उतार चढ़ाव से गुज़रना होगा। वास्तविकता की खोज में रहने वालों को इस पर ध्यान देते हुए इससे पाठ सीखना चाहिए।<br />
जो कुछ पिछली आयत में कहा गया है वह हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के स्वप्न के बारे में था किन्तु उनके जागने के पश्चात घटना एक दूसरे ढंग से आरंभ होती है। यूसुफ़ के भाईयों को, जो उनके सौतेल भाई थे, उनसे और उनके सगे भाई बिनयामिन से ईर्ष्या होने लगी। वे यूसुफ़ और उनके भाई से पिता के स्वाभाविक प्रेम को देखकर ईर्ष्या करने लगे और कहने लगे कि पिता उन दोनों को हमसे अधिक चाहते हैं जबकि हम शक्तिशाली युवा हैं, इस दृष्टि से पिता भूल कर रहे हैं।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि क़ुरआने मजीद में वर्णित बातों से केवल वही लोग लाभान्वित होते हैं जो वास्तविकता की खोज में रहते हैं।<br />
अपने बच्चों के प्रति अपने व्यवहार की ओर से सतर्क रहना चाहिए क्योंकि यदि उन्हें भेदभाव का आभास हुआ तो ईर्ष्या की ज्वाला उनके अस्तित्व को अपने घेरे में ले लेगी।<br />
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आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 9<br />
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<b><span style="color: #cc0000;">(यूसुफ़ के भाइयों ने एक दूसरे से कहा कि) यूसुफ़ की हत्या कर दो या उसे दूर किसी स्थान पर फेंक दो ताकि तुम्हारे पिता का ध्यान केवल तुम्हारी ओर रहे और इसके बाद तुम (अपने पापों से तौबा करके) भले लोग बन जाना। (12:9)</span></b><br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के साथ उनके पिता के प्रेमपूर्ण व्यवहार से भ्रांति ने उनके भाइयों को इस सीमा तक पहुंचा दिया कि वे यह सोचने लगे कि उन्हें किसी प्रकार मार्ग से हटा दिया जाए ताकि पिता का ध्यान हमारी ओर आकृष्ट हो जाए फिर बाद में हम तौबा कर लेंगे और ईश्वर हमें क्षमा कर देगा और हम भले लोगों में शामिल हो जाएंगे।<br />
उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि तौबा पाप करने के बहाने का नहीं बल्कि पाप से पश्चाताप का नाम है। यदि कोई मनुष्य यह कहे कि मैं अभी पाप कर लेता हूं और भविष्य में तौबा कर लूंगा तो वह केवल अपने आपको धोखा देता है, उस व्यक्ति की भांति जो यह कहे कि मैं अभी यह विषाक्त भोजन खा लेता हूं और बाद में चिकित्सक के पास चला जाऊंगा और वह मेरा उपचार कर देगा।<br />
प्रत्येक दशा में यूसुफ़ की हत्या या उन्हें किसी दूरवर्ती मरुस्थल में छोड़ने की योजना, एक शैतानी विचार और यूसुफ़ से उनके भाइयों की गहरी ईर्ष्या को दर्शाती थी। यह बात सभी परिवार के लिए ख़तरे की घंटी और माता पिता के लिए चेतावनी हो सकती है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि ईर्ष्या, मनुष्य को अपने भाई की हत्या की सीमा तक ले जा सकती है। केवल हज़रत यूसुफ़ और उनके भाइयों के मामले में ही नहीं बल्कि हाबील और क़ाबील के मामले में ईर्ष्या के कारण एक भाई ने दूसरे भाई की हत्या कर दी।<br />
बच्चे माता पिता की दृष्टि में प्रिय बनना चाहते हैं और प्रेम का आभाव एक बहुत बड़ा ख़तरा है जो उन्हें सही मार्ग से भटका सकता है।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 10<br />
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<b><span style="color: #cc0000;">उनमें से एक ने कहा कि यदि तुम करना चाहते हो तो यूसुफ़ की हत्या न करो और उसे कुंए की अधंकारमयी गहराईयों में फेंक दो कि शायद कोई कारवां उसे उठा ले जाए। (12:10)</span></b><br />
<br />
चूंकि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के कुछ भाइयों में ईर्ष्या कम और कुछ में अधिक थी अतः उनके कुछ भाईयों ने उनकी हत्या की योजना का विरोध किया। उनमें से एक ने कहा कि यूसुफ़ की हत्या की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे एक कुंए में डाल देना काफ़ी होगा जिससे हमारी समस्या का समाधान हो जाएगा और हम अपने भाई के ख़ून से अपने हाथों को भी नहीं रंगेंगे। यूसुफ़ भी कुंए में सुरक्षित रहेगा और पानी निकालने के लिए आने वाला कोई कारवां उसे कुएं से बाहर निकाल लेगा।<br />
इस योजना पर सभी भाइयों ने सहमति जताई और इस प्रकार हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम मौत से बच गए। विचित्र बात यह है कि कभी कभी बुराई के रोकने का कोई आदेश कि जिसके कारण किसी की जान बच गई हो, इतिहास के महान परिवर्तनों का कारण बना है। इस घटना में एक भाई के विरोध के कारण हज़रत यूसुफ़ की जान बच गई, हज़रत यूसुफ़ ने सत्ता में आने के बाद मिस्र को सूखे और पतन से मुक्ति दिलाई।<br />
इसी प्रकार फ़िरऔन की पत्नी ने उसे हज़रत मूसा की हत्या से रोका और उसकी जान बचाई। आगे चलकर हज़रत मूसा ने बनी इस्राईल को फ़िरऔन के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई। यह स्पष्ट उदाहरण क़ुरआने मजीद की इस आयत की पुष्टि करते हैं कि जिस किसी ने एक व्यक्ति को जीवन दिया तो मानो उसने समस्त मनुष्यों को जीवन दिया।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि यदि हम पूर्ण रूप से किसी बुरे काम को नहीं रोक सकते तो जितना संभव हो उसे कमज़ोर बना देना चाहिए, जैसा कि हज़रत यूसुफ़ के एक भाई ने कहा कि उनकी हत्या करने के बजाए उन्हें कुएं में डाल दो।<br />
ग़लत काम में बहुसंख्या के सामने नहीं झुकना चाहिए बल्कि अपना विचार प्रस्तुत करना चाहिए कि शायद उसे स्वीकार कर लिया जाए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 11-15,</b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><b><br /></b>
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या ग्यारह और बारह<br />
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<b><span style="color: #990000;">(यूसुफ़ के भाईयों ने) कहा, हे पिता आपको क्या हो गया है कि हमें यूसुफ़ के संबंध में अमानतदार नहीं समझते? जबकि हम उसके शुभ चिंतक हैं। (12:11) कल उसे हमारे साथ भेजिए ताकि वह (हमारे साथ मरुस्थल में) खेले और निश्चित रूप से हम उसकी रक्षा करने वाले हैं। (12:12)</span></b><br />
<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने आरंभ में उनकी हत्या करने का निर्णय किया किन्तु बाद में अपने निर्णय को बदल कर उन्हें कुएं में छिपाने की योजना बनाई। उन्होंने यूसुफ़ को पिता से अलग करने के लिए एक षड्यंत्र रचा और अपने पिता से कहा कि आप यूसुफ़ को हमसे अलग क्यों रखते हैं। उसे हमारे साथ भेजिए ताकि जब हम वहां काम कर रहे हों तो वह मरुस्थल में खेले कूदे।<br />
खेल कूद की आवश्यकता ऐसा सशक्त तर्क था जिसके माध्यम से यूसुफ़ के भाइयों ने उन्हें अपने पिता से अलग करने के लिए तैयार कर लिया क्योंकि मनोरंजन और खेलकूद हर बच्चे और युवा की आवश्यकता है। यही कारण था कि हज़रत याक़ूब ने अनिच्छा के बावजूद यूसुफ़ को उनके साथ भेजने का विरोध नहीं किया।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि हर दावे पर भरोसा नहीं करना चाहिए और हर नारे के धोखे में नहीं आना चाहिए। हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने जो उन्हें क्षति पहुंचाना चाहते थे स्वयं को उनका हितैषी और शुभ चिंतक बनाकर प्रस्तुत किया।<br />
ईर्ष्या इस बात का कारण बनती है कि मनुष्य अपने निकटतम लोगों से भी झूठ बोले और उन्हें धोखा दे।<br />
युवा को मनोरंजन और खेल कूद की आवश्यकता होती है किन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दूसरे इससे अनुचित लाभ न उठाएं।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 13<br />
<b><span style="color: #990000;">(याक़ूब ने) कहा, मुझे इस बात से दुख है कि तुम उसे अपने साथ लिए जा रहे हो और मुझे इस बात का भय है कि उसे भेड़िया खा ले और तुम उसकी ओर से निश्चेत रहो। (12:13)</span></b><br />
यद्यपि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ईश्वर के पैग़म्बर थे किन्तु यूसुफ़ के लिए पिता ही थे और पुत्र के प्रति पिता का प्रेम इस बात की मांग करता था कि वे यूसुफ़ को स्वयं से अलग न करें किन्तु इसी के साथ यूसुफ़ एक बालक थे जिन्हें धीरे धीरे अपने पैरों पर खड़ा होना था, अतः उन्होंने इस बात की अनुमति दे दी कि वे अपने भाइयों के साथ खेलने के लिए मरुस्थल जाएं।<br />
दूसरे शब्दों में संतान के लिए ख़तरे की आशंका, उसे घर में बंद करने का कारण नहीं बनना चाहिए बल्कि स्वाधीनता, प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है और संतान से प्रेम के बावजूद माता पिता को अवश्य ही उसका मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। ऐसे अवसरों पर जहां ख़तरों का आभास हो, संतान को सावधान कर देना चाहिए।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि बच्चे के प्रशिक्षण में दो सिद्धांतों को दृष्टिगत रखना चाहिए, प्रथम उसकी स्वाधीनता का मार्ग प्रशस्त करना और दूसरे उसे ख़तरों से सावधान करते रहना।<br />
ख़तरों से निश्चेतना, क्षति उठाने का कारण बनती है और कभी कभी उसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं होती।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 14<br />
<span style="color: #cc0000;"><b>(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा कि यदि हम शक्तिशाली लोगों के होते हुए भेड़िये ने उसे खा लिया तो उस स्थिति में हम घाटा उठाने वालों में होंगे। (12:14)</b></span><br />
यूसुफ़ को मार्ग से हटाने का षड्यंत्र रचने वाले उनके भाइयों ने अपने पिता की ओर से ख़तरे की आशंका जताए जाने के उत्तर में केवल अपनी शक्ति पर भरोसा किया और कहा कि वे हर प्रकार के ख़तरे से यूसुफ़ की रक्षा करेंगे। इस प्रकार से उन्होंने अपने पिता को यूसुफ़ को साथ न भेजने से रोक दिया।<br />
किन्तु स्पष्ट है कि किसी का सशक्त होना, उसके अमानतदार होने का तर्क नहीं हो सकता। यूसुफ़ के भाई शक्तिशाली थे किन्तु वे उन्हें क्षति पहुंचाना चाहते थे जिसका हज़रत याक़ूब को आभास हो गया था किन्तु उनके पास अपनी बात सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं था।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि प्रायः युवाओं को अपनी शक्ति पर घमंड होता है और वे ख़तरों को गंभीरता से नहीं लेते, जबकि बड़े लोग ख़तरों के संबंध में अधिक संवेदनशील होते हैं।<br />
कुछ लोग अपने घृणित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कोई भी काम करने के लिए तैयार रहते हैं और झूठ तथा धोखे द्वारा अपनी मर्यादा को ख़तरे में डाल देते हैं।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की 15वीं आयत<br />
<span style="color: #990000;"><b>तो जब वे यूसुफ़ को अपने साथ ले गए और सब इस बात पर एकमत हो गए कि उसे कुएं की गहराइयों में डाल दें तो हमने उसकी ओर अपना विशेष संदेश वहि भेजा (और कहा कि घबराओ मत) भविष्य में तुम इन्हें इनके इस काम से अवगत कराओगे जबकि इन्हें कुछ भी पता नहीं होगा। (12:15)</b></span><br />
<span style="color: #990000;"><b><br /></b></span>
अंततः हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई उन्हें उनके पिता से अलग करके अपने साथ ले गए और जैसा कि उन्होंने पहले से योजना बना रखी थी उन्हें कुएं में डाल दिया किन्तु पानी में नहीं बल्कि कुएं की दीवार के साथ बने हुए एक ताक़ पर उतार दिया ताकि वे प्यास से भी न मरें और पशुओं के ख़तरे तथा मरुस्थल की सर्दी और गर्मी से भी सुरक्षित रहें। इसके अतिरिक्त व्यापारिक कारवानों के वहां आने पर वे उनकी सहायता से मुक्ति प्राप्त कर सकते थे।<br />
इस स्थिति में ईश्वर ने, यूसुफ़ को जिनकी आयु बहुत अधिक नहीं थी और संभावित रूप से एकांत और कुएं के अंधकार से भयभीत हो सकते थे, सांत्वना दी और अपने विशेष संदेश के माध्यम से उनसे कहा कि इस बात से दुखी मत हो कि उन्होंने तुम्हें इस कुएं में डाल दिया है। शीघ्र ही ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी कि यही लोग तुम्हारे पास आएंगे और तुम इन्हें इनके इस बुरे कर्म से अवगत कराओगे।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वरीय संदेश केवल पैग़म्बरों से विशेष नहीं है बल्कि वह अपने अन्य पवित्र बंदों के पास भी अपना संदेश भेजता है। उस समय हज़रत यूसुफ़ पैग़म्बर नहीं बने थे किन्तु ईश्वर ने उनके पास अपना संदेश भेजा।<br />
भविष्य के प्रति आशा, जीवन जारी रखने के लिए सबसे बड़ी पूंजी है। ईश्वर ने अपने संदेश द्वारा यूसुफ़ को अपने जीवन के प्रति आशावान बना दिया है।<br />
कठिनाइयों और संकटों में ईश्वर की दया व कृपा की ओर से आशावान रहना चाहिए और किसी भी स्थिति में निराश नहीं होना चाहिए।<br />
<br /><b>सूरए यूसुफ़, आयतें 16-18, </b><br /><br /><br />
और (यूसुफ़ के भाई) रात के समय रोते हुए अपने पिता के पास आए। (12:16)<br /><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने अपने षड्यंत्र को व्यवहारिक बनाया और उन्हें एक कुएं में डाल दिया और फिर लौट आए। स्वाभाविक सी बात थी कि उनके पिता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम सबसे पहले हज़रत यूसुफ़ के बार में प्रश्न करते। यूसुफ़ के भाई रोते हुए ही घर में प्रविष्ट हुए ताकि स्वयं को अपने पिता का शुभचिंतक दर्शाएं और उनके मन से किसी भी प्रकार के षड्यंत्र की संभावना को समाप्त कर दें।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि हर किसी के आंसूओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए, संभव है कि कुछ मिथ्याचारी आंसू बहाकर स्वयं को निर्दोष सिद्ध करना चाहें।<br />
भावनाओं को भड़काना और रोने जैसे भावनात्मक हथकंडों का प्रयोग, षड्यंत्रकारियों की शैलियों में से एक है।<br /> </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 17 <br /><br /><span style="color: #990000;"><b>
(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा कि हे पिता! हम दौड़ की प्रतियोगिता करने के लिए गए और यूसुफ़ को अपने सामान के पास छोड़ दिया तो भेड़िए ने उसे खा लिया और आप तो हमारी बात का विश्वास नहीं करेंगे, चाहे हम सच्चे ही क्यों न हों। (12:17)</b></span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने बनावटी आंसूओं के साथ ही एक बड़ा झूठ भी गढ़ा उन्होंने कहा कि जब हम खेलने गए तो यूसुफ़ सामान के पास रह गए और चूंकि वे अकेले थे इस लिए भेड़िए ने उन्हें खा लिया। जबकि वे यह बात भूल गए कि वे यूसुफ़ को खेलकूद के लिए ही अपने पिता के पास से ले गए थे और तय यह था कि यूसुफ़ उनके साथ मरुस्थल में खेलने के लिए जाए न यह कि उनके भाई खेलें और वे सामान की रखवाली करें।<br />
यूसुफ़ के भाइयों ने झूठ बोलने पर ही संतोष नहीं किया बल्कि उन्होंने अपने पिता पर आरोप लगाया कि उन्हें उन पर भरोसा नहीं है। उन्होंने कहा कि हम सच कह रहे हैं किन्तु आप हमारी बातों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, आपको हम पर भरोसा नहीं है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि कभी कभी एक झूठ कई झूठों का कारण बनता है। यूसुफ़ के भाइयों ने अपनी ग़लती को छिपाने के लिए कई झूठ बोले और अपने काम के परिणाम के बारे में यह नहीं सोचा कि इससे उनका अपमान हो सकता है।<br />
झूठा व्यक्ति इस बात पर आग्रह करता है कि लोग उसे सच्चा समझें क्योंकि उसे सच्चाई के सामने आने का भय रहता है।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><b><span style="color: #cc0000;">सूरए यूसुफ़ की आयत संख्य 18 <br />
और (यूसुफ़ की) क़मीस में झूठा ख़ून लगा कर अपने पिता के पास ले आए। उन्होंने कहा (ऐसा नहीं है कि यूसुफ़ को भेड़िया खा गया हो) बल्कि तुम्हारी (शैतानी) इच्छाओं ने इस को सजा संवार कर तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया अतः अब भले प्रकार से धैर्य व संयम से काम लेना आवश्यक है और जो कुछ तुम कह रहे हो उसके बारे में मैं ईश्वर से सहायता चाहता हूं। (12:18)</span></b><br />
यूसुफ़ के भाईयों ने अपनी झूठी कहानी को आगे बढ़ाते हुए कि जो रोने धोने से आरंभ हुई थी, हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के वस्त्र में एक पशु का रक्त लगा कर उसे अपने पिता के समक्ष प्रस्तुत कर दिया और इसे भेड़िए द्वारा यूसुफ़ को खा लेने के अपने दावे का ठोस प्रमाण बताया।<br />
किन्तु हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम जो ईश्वर के पैग़म्बर थे, वास्तविकता से अवगत थे और जानते थे कि हज़रत यूसुफ़ जीवित हैं, उन्होंने अपने पुत्रों के धोखे में आए बिना कहा कि यह सब तुम लोगों की ईर्ष्या का परिणाम है। यूसुफ़ से ईर्ष्या के कारण ही तुम लोगों ने यह घृणित कार्य किया और मुझे उससे अलग कर दिया। तुम यह सोच रहे थे कि यूसुफ़ को मुझसे दूर करके उसे क्षति पहुंचाओगे जबकि यूसुफ़ के अतिरिक्त तुमने मुझे भी ऐसा दुख दे दिया है कि ईश्वर की सहायता के बिना मुझे धैर्य नहीं आएगा।<br />
हज़रत याक़ूब की ओर से अपने बेटों के विरुद्ध और यूसुफ़ की खोज के लिए कोई कार्यवाही न किए जाने का कारण शायद वह स्वप्न था जो हज़रत यूसुफ़ ने उन्हें बताया था और उसके आधार पर वे जानते थे कि उनका पुत्र जीवित भी है और सुरक्षित भी और साथ ही बहुत उच्च स्थान तक पहुंचेगा, इसी कारण उन्होंने केवल अपने संबंध में अप्रसन्नता प्रकट की और कहा कि ईश्वर मुझे धैर्य प्रदान करे कि मैं यूसुफ़ के विरह को सहन कर सकूं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि आंतरिक इच्छाएं, मनुष्य की दृष्टि में पापों को भी सुंदर बना कर प्रस्तुत करती हैं और पाप का औचित्य दर्शाने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।<br />
सभी घटनाएं एक आयाम से ईश्वरीय परीक्षाएं होती हैं और हमें अपनी तैयारी के साथ धैर्य और संयम का प्रदर्शन करना चाहिए।<br />
भला संयम यह है कि मनुष्य को दुखों और कठिनाइयों के बावजूद अनुकंपाओं के प्रति कृतघ्न नहीं होना चाहिए बल्कि ईश्वर से सहायता मांगते रहना चाहिए।<br />
<br />
<br />
सूरए यूसुफ़, आयतें 19-22, (<br /><b><span style="color: #990000;">
और एक कारवां वहां पहुंचा तो उन लोगों ने अपने पानी भरने वाले को भेजा तो जब उसने अपना डोल डाला तो पुकार उठा, अरे शुभ सूचना! यह तो एक बालक है। और उन लोगों ने उसे माल समझ कर छिपा लिया (ताकि कोई उस पर स्वामित्व का दावा न करे) और जो कुछ वे कर रहे थे ईश्वर उससे भलि भांति अवगत था। (12:19) और उन्होंने उसे बहुत ही कम दाम पर कुछ दिरहमों में बेच दिया और उन्हें उससे कोई विशेष लगाव नहीं था। (12:20)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने उन्हें कुएं में डाल दिया और उनकी क़मीस को झूठे रक्त में रंगा और फिर रोते हुए अपने पिता के पास आए और उन्हें बताया कि यूसुफ़ को भेड़िया खा गया और इस संबंध में अपने को दुखी दर्शाने लगे।</span></b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइये अब देखते हैं कि यूसुफ़ का क्या बना। वे कुछ समय तक कुएं में पड़े रहे, यहां तक कि एक कारवां आया और उसने अपनी प्यास बुझाने के लिए कुएं में डोल डाला। हज़रत यूसुफ़ ने डोल की रस्सी पकड़ ली और ऊपर आ गए। कारवां वालों ने उन्हें दास समझा जिसे मंडी में बेचकर धन कमाया जा सकता था।<br />
उन्होंने इस भय से कि कहीं कोई यूसुफ़ को पहचान कर उन पर अपने स्वामित्व का दावा न कर दे, उन्हें अपने सामान में छिपा दिया और फिर बाज़ार में जा कर बहुत सस्ते दामों में उन्हें बेच दिया क्योंकि उन्हें प्राप्त करने के लिए कारवां वालों को न तो कोई कष्ट उठाना पड़ा और न ही कोई राशि ख़र्च करनी पड़ी थी। कभी कभी ऐसा होता है कि जिस वस्तु को मनुष्य सरलता से प्राप्त करता है उसे सरलता से गंवा भी देता है और उसके मूल्य को नहीं समझता।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि कभी कभी मनुष्य के निकटवर्ती लोग ही उसे समस्याओं के कुएं में ढकेल देते हैं किन्तु ईश्वरीय कृपा इस बात का कारण बनती है कि अनजान लोग उसे मुक्ति दें, चाहे उनका लक्ष्य उसे मुक्ति देना न हो।<br />
कुछ लोग मनुष्यों को सामान समझते हैं और उसके मानवीय आयामों की ओर से अनभिज्ञ रहते हैं।<br /> सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 21 </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><b><span style="color: #990000;">
और मिस्र के जिस व्यक्ति ने उसे ख़रीदा था उसने अपनी पत्नी से कहा कि इसे आदर सत्कार के साथ रखना, हो सकता है कि यह भविष्य में हमें लाभ पहुंचाए या हम इसे अपना बेटा ही बना लें। और इस प्रकार हमने यूसुफ़ को (मिस्र की उस) धरती में स्थान दिया और उन्हें सपनों की व्याख्या का ज्ञान प्रदान किया। और ईश्वर को अपने मामले पर पूरा अधिकार है किन्तु अधिकांश लोग इसे नहीं समझते। (12:21)</span></b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
जब कारवां वालों ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को बेचने के लिए मंडी में रखा तो मिस्र के दरबार के एक प्रतिनिधि ने उन्हें ख़रीद लिया और शासक के पास ले गया। मिस्र का शासक उन्हें अपने घर ले गया ताकि वे घर का काम काज भी करें और उसकी पत्नी का दिल भी बहलाएं क्योंकि उनकी कोई संतान नहीं थी और अब उन्हें संतान की कोई आशा भी नहीं रह गई थी।<br />
इस स्थान पर ईश्वर कहता है कि मिस्र के शासक के घर में यूसुफ़ के आने से उनके सत्ता में आने और जो कुछ उन्होंने स्वप्न में देखा था उसके व्यवहारिक होने का मार्ग प्रशस्त हो गया।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों के हृदय ईश्वर के हाथ में हैं, यूसुफ़ का प्रेम मिस्र के शासक के हृदय में इस प्रकार बस गया कि वह उन्हें अपने बच्चे के समान चाहने लगा, जबकि विदित रूप से वे एक दास के अतिरिक्त कुछ नहीं थे।<br />
ईश्वर की परंपरा है कि कठिनाइयों के बाद सुख प्रदान करता है। जैसा कि ईश्वर ने यूसुफ़ को कुएं की गहराइयों से उठाकर सम्मान के शिखर तक पहुंचा दिया।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 22 की तिलावत सुनते हैं।<br />
وَلَمَّا بَلَغَ أَشُدَّهُ آَتَيْنَاهُ حُكْمًا وَعِلْمًا وَكَذَلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِنِينَ (22)<br />
और जब यूसुफ़ युवावस्था की सीमा को पहुंचे तो हमने उन्हें पैग़म्बरी और ज्ञान प्रदान किया और इस प्रकार हम भलाई करने वालों को बदला दिया करते हैं। (12:22)</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना में ईश्वर उनके आध्यात्मिक स्थान की ओर संकेत करते हुए कहता है कि वे मिस्र के शासक के घर में बड़े हुए किन्तु चूंकि वे भले व पवित्र व्यक्ति थे अतः जब वे पैग़म्बरी और ईश्वरीय ज्ञान जैसी विशेष ईश्वरीय कृपाएं प्राप्त करने के योग्य हो गये तो हमने उन्हें यह वस्तुएं प्रदान कर दीं। यह ईश्वरीय परंपरा है कि वह इस संसार में भले लोगों को भला बदला देता है।<br />
जी हां! ईश्वर अपने पैग़म्बरों को समाज के लोगों के बीच से ही चुनता है और विभिन्न घटनाओं द्वारा उनकी परीक्षा लेता है ताकि उनमें इस महान दायित्व को ग्रहण करने की क्षमता उत्पन्न हो जाए और लोगों के बीच भी उनकी उपयोगिता सिद्ध हो जाए।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों के ज्ञान का एक भाग, अर्जित करने योग्य नहीं होता बल्कि ईश्वर की ओर से प्रदान होता है।<br />
ईश्वर की ओर से प्राप्त होने वाले दायित्व के लिए ऐसी योग्यता की आवश्यकता होती है जिसकी लोगों में उपस्थिति के बारे में केवल ईश्वर को ज्ञान होता है।<br />
केवल ज्ञान और शरीर संबंधी योग्यताएं ही ईश्वर की विशेष कृपाओं की प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि भला और पवित्र होना भी आवश्यक है।<br />
<br />
<br />
सूरए यूसुफ़, आयतें 23-24, (कार्यक्रम 380)<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 23 की तिलावत सुनते हैं।<br />
وَرَاوَدَتْهُ الَّتِي هُوَ فِي بَيْتِهَا عَنْ نَفْسِهِ وَغَلَّقَتِ الْأَبْوَابَ وَقَالَتْ هَيْتَ لَكَ قَالَ مَعَاذَ اللَّهِ إِنَّهُ رَبِّي أَحْسَنَ مَثْوَايَ إِنَّهُ لَا يُفْلِحُ الظَّالِمُونَ (23)<br /><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
और जिस स्त्री के घर में यूसुफ़ थे उसने उन पर डोरे डाले और दरवाज़े बंद कर दिए और कहने लगी लो आओ। यूसुफ़ ने कहा, मैं ईश्वर की शरण चाहता हूं, निश्चित रूप से मेरे पालनहार ने मुझे अच्छा ठिकाना प्रदान किया है और निसंदेह अत्याचारी कभी सफल नहीं होते। (12:23)</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि मिस्र के शासक ने किसी को दासों की मंडी में भेजा और हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को अपने घर में सेवा के लिए ख़रीद लिया किन्तु जब उसने उनके सौंदर्य को देखा तो अपनी पत्नी से कहा कि इनका आदर सत्कार करो। इस प्रकार से हज़रत यूसुफ़ को उसके घर में विशेष सम्मान प्राप्त हो गया और उनके तथा अन्य दासों एवं सेवकों के बीच अंतर रखा जाने लगा।<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को जिन्हें अपने भाइयों की उपेक्षा और तिरस्कार का सामना करना पड़ा था और उन्हें कुएं में डाल दिया गया था, मिस्र के शासक के घर में एक अन्य कड़ी परीक्षा का सामना करना पड़ा। यह ऐसी परीक्षा थी जो हज़रत यूसुफ़ की आयु के किसी भी युवा को देनी पड़ सकती है और उसे कठिन अवसरों पर अपनी आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित रखने के लिए स्वयं को तैयार करना चाहिए।<br />
मिस्र के शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा हज़रत यूसुफ़ पर मोहित हो गई और उसने उनसे कि जो उसके दास थे, अपनी वासना की पूर्ति करनी चाही। उसने एक दिन अपने आप को और यूसुफ़ को कमरे में बंद कर लिया और उनसे अपनी अवैध इच्छा की पूर्ति करनी चाही किन्तु हज़रत यूसुफ़ का उत्तर अत्यंत स्पष्ट था। उन्होंने कहा कि यद्यपि मैं तेरा दास हूं किन्तु उससे पहले मैं ईश्वर का दास हूं और मैं ईश्वर की शरण चाहता हूं कि इस प्रकार का पाप करूं।<br />
हज़रत यूसुफ़ ने कहा कि किस प्रकार मैं तेरी इच्छा को ईश्वर की इच्छा पर प्राथमिकता दे सकता हूं। ईश्वर ने ही मुझे कुएं की गहराईयों से मिस्र के दरबार तक पहुंचाया और मुझे सम्मानित किया। मैं कदापि ऐसा काम नहीं कर सकता। और यदि मैंने ऐसा किया तो मैं अपने आप पर भी अत्याचार करूंगा और अपने मालिक अर्थात मिस्र के शासक पर भी क्योंकि उसने मुझे अमानतदार समझकर अपने घर में रखा है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि काम वासना इतनी सशक्त होती है कि यदि इसे नियंत्रित न किया जाए वह मिस्र के शासक की पत्नी को एक दास के क़दमों में डाल देती है।<br />
पुरुषों और महिलाओं का सीमा से अधिक मेलजोल, उनके बहकने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, घटना से पहले ही उसे रोकने का मार्ग खोज लेना चाहिए और पुरुषों और महिलाओं के अनुचित मेलजोल को रोक कर व्यभिचार पर अंकुश लगाना चाहिए।<br />
ईश्वर का आज्ञापालन, लोगों की प्रसन्नता से अधिक महत्त्वपूर्ण है। ईश्वर का आज्ञापालन, माता पिता, कार्यालय के अधिकारी और शासक सभी के आदेशों के पालन पर प्राथमिकता रखता है।<br />
जब सारे द्वार बंद हो जाते हैं तो ईश्वर की दया का द्वार खुला रहता है और पाप से बचने के लिए ईश्वर की शरण में जाया जा सकता है ताकि वह मनुष्य की मुक्ति के लिए कोई मार्ग खोल दे।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 24 की तिलावत सुनते हैं।<br />
وَلَقَدْ هَمَّتْ بِهِ وَهَمَّ بِهَا لَوْلَا أَنْ رَأَى بُرْهَانَ رَبِّهِ كَذَلِكَ لِنَصْرِفَ عَنْهُ السُّوءَ وَالْفَحْشَاءَ إِنَّهُ مِنْ عِبَادِنَا الْمُخْلَصِينَ (24)<br />
और निसंदेह उस स्त्री ने यूसुफ़ से बुराई का इरादा किया और यदि वे भी अपने पालनहार का तर्क न देख लेते तो उसकी ओर बढ़ते। इस प्रकार हमने ऐसा किया ताकि बुराई और अश्लीलता को उनसे दूर रखें कि निश्चित रूप से यूसुफ़ हमारे चुने हुए बंदों में से थे। (12:24)</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
पिछली आयतों में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की ओर से कठिन और कड़ी परिस्थिति में ईश्वर की शरण चाहने की ओर संकेत के बाद इस आयत में कहा गया है कि यदि उनका ध्यान ईश्वर और उसकी सहायता की ओर न होता तो स्वाभाविक रूप से वे भी पाप की ओर उन्मुख हो जाते किन्तु यूसुफ़ के हृदय में ईमान की जो ज्योति प्रकाशमान थी वह सबसे उत्तम तर्क थी और उसी ने उन्हें इस बुरे कर्म से रोके रखा।<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम यदि अपनी विदित बुद्धि पर भरोसा करते तो बड़ी सरलता से कह सकते थे कि मैंने उससे किसी बात की इच्छा नहीं जताई है और वह मेरी मालकिन है तथा मेरा अधिकार उसके हाथ में है तो यदि मैं उसकी बात मान लूं तो मैं दास होने के अपने कर्तव्य का पालन करूंगा।<br />
किन्तु ईमान की शक्ति, बुद्धि की शक्ति से कहीं अधिक सशक्त होती है। बुद्धि आंतरिक इच्छाओं से संघर्ष में बहुत जल्दी घुटने टेक देती है किन्तु ईश्वर पर ईमान की शक्ति इतनी मज़बूत होती है कि उसके माध्यम से केवल व्यभिचार ही नहीं बल्कि हर प्रकार की अनैतिक आंतरिक इच्छाओं के समक्ष डटा जा सकता है और सफल भी हुआ जा सकता है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि यदि हम वास्तव में और मन की गहराइयों से ईश्वर की शरण में जाएं तो ईश्वर अवश्य ही हमारी सहायता करता है और यदि ईश्वरीय सहायता न हो तो हर किसी के पांव लड़खड़ा सकते हैं।<br />
ईश्वर की उपासना में निष्ठा के फल, प्रलय के अतिरिक्त इस संसार में भी मिलते हैं जिनमें जीवन के कठिन अवसरों पर ईश्वरीय सहायता की प्राप्ति शामिल है।<br />
सामान्य लोगों की भांति पैग़म्बरों की भी इच्छाएं होती हैं और उन्हें भी पाप में ग्रस्त होने का ख़तरा होता है किन्तु ईश्वर पर दृढ़ ईमान के चलते वे पाप में ग्रस्त नहीं होते और ईश्वर उन्हें पापों और बुराइयों से बचाए रखता है।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 25-27, (कार्यक्रम 381)<br />
आइये पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 25 की तिलावत सुनते हैं।<br />
وَاسْتَبَقَا الْبَابَ وَقَدَّتْ قَمِيصَهُ مِنْ دُبُرٍ وَأَلْفَيَا سَيِّدَهَا لَدَى الْبَابِ قَالَتْ مَا جَزَاءُ مَنْ أَرَادَ بِأَهْلِكَ سُوءًا إِلَّا أَنْ يُسْجَنَ أَوْ عَذَابٌ أَلِيمٌ (25)<br /><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
और (यूसुफ़ तथा मिस्र के शासक की पत्नी) दोनों दरवाज़े की ओर दौड़े। उस महिला ने यूसुफ़ के कुर्ते को पीछे से फाड़ दिया, इसी समय उन दोनों ने उसके पति को द्वार पर पाया। वह बोल पड़ी जो तुम्हारी पत्नी के संबंध में बुरी नीयत रखे उसका बदला इसके अतिरिक्त क्या है कि उसे कारावास में डाल दिया जाए या कड़ी यातना दी जाए? (12:25)</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मिस्र के शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम पर मोहित हो गई थी और अपनी वासना की पूर्ति करना चाहती थी। एक दिन उसने यूसुफ़ और स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिया, यद्यपि सारे द्वार बंद थे किन्तु यूसुफ़ उसकी अनैतिक इच्छा के समक्ष नहीं झुके और दरवाज़े की ओर भागे कि शायद बचने का कोई मार्ग निकल आए।<br />
ज़ुलैख़ा भी यूसुफ़ को रोकने के लिए उनके पीछे भागी और उनके कुर्ते को पीछे से पकड़ लिया किन्तु हज़रत यूसुफ़ रुके नहीं और इसी कारण उनका कुर्ता पीछे से फट गया। इसी बीच अचानक ही दरवाज़ा खुला और मिस्र का शासक दिखाई पड़ा। उसने उन दोनों से स्पष्टीकरण चाहा। इससे पूर्व कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कुछ कहते ज़ुलैख़ा बोल पड़ी और उसने यूसुफ़ पर बुरी नीयत का आरोप लगा कर उन्हें कारावास में डालने और कड़ी यातना देने की मांग की।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि केवल ज़बान से ईश्वर की शरण चाहना पर्याप्त नहीं है, व्यवहारिक रूप से भी पापों से दूर भागना चाहिए, चाहे सारे द्वार बंद ही क्यों न हों।<br />
कभी कभी विदित रूप से कुछ कर्म एक समान दिखाई पड़ते हैं किन्तु उनके लक्ष्य विभिन्न होते हैं। यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा दोनों दौड़े थे किन्तु एक पाप करने के लिए और दूसरा पाप से बचने के लिए।<br />
सदैव सचेत रहना चाहिए क्योंकि कभी कभी आरोप लगाने वाला ही अपराधी होता है और अपने को बचाने के लिए, दूसरों की भावनाओं से लाभ उठाता है।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 26 और 27 </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
यूसुफ़ ने कहा कि इसी ने मुझ पर डोरे डाले थे। इस पर उस महिला के परिजनों में से एक ने गवाही दी कि यदि यूसुफ़ का कुर्ता आगे से फटा हो तो वह सही कर रही है और यूसुफ़ झूठ बोलने वालों में से हैं। (12:26) और यदि उसका कुर्ता पीछे से फटा है तो वह झूठ बोल रही है और यूसुफ़ सच्चों में से है। (12:27)<br />
ज़ुलैख़ा की ओर से हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम पर लांछन लगाए जाने के बाद उन्होंने अपना बचाव करते हुए स्वयं को हर प्रकार की बुरी नीयत से दूर बताया और कहा कि मैं ज़ुलैख़ा के संबंध में बुरी नीयत नहीं रखता था बल्कि वही मुझ पर डोरे डाल रही थी।<br />
मिस्र का शासक जो दोनों पक्षों की बात सुन चुका था, इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता था कि उसकी पत्नी एक दास से अपनी कामेच्छा की पूर्ति चाहती है और दूसरी ओर वह भी नहीं मान सकता था कि एक दास में इतना दुस्साहस हो कि वह उसकी पत्नी को बुरी नज़र से देखे। यही कारण था कि वह असमंजस में था।<br />
इसी बीच उसके एक बुद्धिमान सलाहकार ने या फिर पालने में लेटे हुए एक बच्चे ने जिसने यह सारी बातें सुनी थीं, कहा कि यदि यूसुफ़ की बुरी नीयत होती तो स्वाभाविक रूप से उनके और ज़ुलैख़ा के बीच झड़प होती और इस स्थिति में यदि यूसुफ़ का कुर्ता फटता तो आगे का फटता किन्तु यूसुफ़ का कुर्ता पीछे से फटा हुआ है जो इस बात का प्रमाण है कि वे भाग रहे थे अतः ज़ुलैख़ा झूठ बोल रही है। रोचक बात यह है कि यह व्यक्ति या पैग़म्बरे इस्लाम के कथनानुसार एक शिशु जो स्वयं ज़ुलैख़ा के परिजनों में से था उसने उसके विरुद्ध निर्णय सुनाया।<br />
यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा की घटना से हज़रत मरयम की घटना याद आ जाती है और समझ में आता है कि जो जितना अधिक पवित्र होता है, उतना ही अधिक उस पर आरोप लगता है। हज़रत मरयम अपने काल की सबसे पवित्र महिला थीं किन्तु उन पर भी ऐसा लांछन लगाया गया कि वे मृत्यु की कामना करने लगीं। हज़रत यूसुफ़ भी अपने काल के सबसे पवित्र मनुष्य थे किन्तु उन पर भी लांछन लगाया गया किन्तु दोनों अवसरों पर ईश्वर ने उत्तम ढंग से दोनों को निर्दोष सिद्ध कर दिया।<br />
हज़रत यूसुफ़ की घटना में तीन स्थानों पर कुर्ते की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पहली बार जब उन्हें कुएं में डाला गया और ख़ून से सने उनके कुर्ते को उनके पिता के पास ले जाया गया तो चूंकि कुर्ता फटा नहीं था इसलिए उनके भाइयों का यह झूठ खुल गया कि यूसुफ़ को भेड़िये ने खा लिया है। दूसरी बात इसी स्थान पर जब कुर्ते के पीछे से फटने के कारण उन्हें दोषमुक्त कर दिया गया और तीसरी बात घटना के अंत में जब उनके कुर्ते को नेत्रहीन हो चुके उनके पिता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सालाम की आंखों पर डाला जाता है तो उनकी आंखें लौट आती हैं।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि आरोप लगाए जाने की स्थिति में अपना बचाव करते हुए वास्तविक अपराधी को सामने लाना चाहिए, चाहे अपने बचने और उसके दंडित किए जाने की आशा न हो।<br />
जब ईश्वर चाह लेता है तो अपराधी के परिजन भी उसके विरुद्ध गवाही देने लगते हैं।<br />
फ़ैसला करते समय अपराध के चिन्हों की गहन समीक्षा करना आवश्यक है क्योंकि अभियोजक और अभियुक्त के बयानों के अतिरिक्त अपराध के लक्षणों की भी गहरी समीक्षा होनी चाहिए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 28-30, <br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 28 <br />
तो जब मिस्र के शासक ने देखा कि यूसुफ़ का कुर्ता पीछे से फटा हुआ है तो (वह वास्तविकता को समझ गया और उसने) कहा, निसंदेह यह तुम महिलाओं की चालों में से है और निश्चय की तुम्हारी चाल बड़ी गहरी होती है। (12:28)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने बताया था कि भागते समय हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का कुर्ता ज़ुलैख़ा के हाथों से पीछे से फट गया और जब बात खुल गई तो ज़ुलैख़ा के एक परिजन ने फ़ैसला सुनाया कि यदि उनका कुर्ता पीछे से फटा हो तो वे निर्दोष हैं और ज़ुलैख़ा झूठ बोल रही है।<br />
यह आयत कहती है कि मिस्र के शासक ने इस फ़ैसले के बाद देखा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का कुर्ता पीछे से फटा हुआ है कि जो उनके निर्दोष होने का प्रमाण है अतः उसने अपनी पत्नी को संबोधित करते हुए कहा कि जो कुछ तुमने कहा वह मुझे धोखा देने और अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए था जबकि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए तुम महिलाओं की चालें बहुत गहरी होती हैं और मनुष्य को आश्चर्य में डाल देती हैं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि सत्य कभी छिपा नहीं रहता और अपराधी को एक न एक दिन अपमानित होना ही पड़ता है।<br />
सत्य बात को स्वीकार कर लेना चाहिए चाहे वह हमारे अहित में ही क्यों न हो, जैसा कि मिस्र के शासक ने स्वीकार कर लिया कि यूसुफ़ निर्दोष हैं और उसकी पत्नी दोषी है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 29</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
(मिस्र के शासक ने) कहा, हे यूसुफ़ इस बात को जाने दो और तू (हे ज़ुलैख़ा) अपने इस पाप के कारण क्षमा मांग कि निश्चित रूप से तू पापियों में से है। (12:29)</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
इन आयतों से पता चलता है कि मिस्र का शासक वास्तविकताओं को स्वीकार करने वाला और न्यायप्रेमी व्यक्ति था क्योंकि जब उसकी समझ में आ गया कि यूसुफ़ निर्दोष हैं तो उसने कहा कि वे उसके और उसकी पत्नी के सम्मान की रक्षा के लिए इस बात का कहीं और उल्लेख न करें किन्तु उसने यह बात धमकी के स्वर में नहीं बल्कि निवेदन के रूप में कही।<br />
दूसरी ओर उसने अपनी पत्नी को, जिसे वह दोषी पा चुका था, क्षमा मांगने का आदेश दिया कि जो ईश्वर की ओर से हिसाब किताब और पारितोषिक तथा दंड दिए जाने की व्यवस्था पर आस्था को दर्शाता है। अलबत्ता, दोषी पत्नी को केवल इतना ही शाब्दिक दंड नहीं देना चाहिए था बल्कि इस बुरे कर्म के लिए उसके साथ और कड़ा व्यवहार करना चाहिए था।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि दूसरों के किसी भी बुरे कर्म को देखने या सुनने के बाद हमें उसे अन्य लोगों को नहीं बताना चाहिए।<br />
पुरुषों और महिलाओं के बीच बेलगाम संबंध, इतिहास के समस्त कालों में और सभी जातियों के बीच बुरे समझे जाते रहे हैं।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या तीस </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
नगर की महिलाओं ने (ज़ुलैख़ा की आलोचना करते हुए) कहा कि मिस्र के शासक की पत्नी अपने युवा दास पर डोरे डाल रही थी और उसका प्रेम उसके हृदय में घर कर चुका है और हम देख रहे हैं कि वह खुली हुई पथभ्रष्टता में है। (12:30)<br />
यद्यपि मिस्र के शासक ने आदेश दिया था कि यह घटना लोगों के कान तक न पहुंचे किन्तु स्वाभाविक है कि शासकों के दरबारों में बहुत से लोग रहते हैं, उनमें से किसी ने यह बात दूसरों तक पहुंचा दी और फिर यह बात पूरे नगर में फैल गई। स्पष्ट है कि यह बात लोगों विशेष कर महिलाओं के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं थी कि मिस्र के शासक की पत्नी एक दास से अपनी वासना की पूर्ति चाहती थी। अतः उन्होंने ज़ुलैख़ा की आलोचना आरंभ कर दी और उसे इस मामले में दोषी ठहराया।<br />
अलबत्ता दूसरी ओर वे यह भी समझ गई थीं कि वह दास कोई साधारण व्यक्ति नहीं है और उसमें विशेष शारीरिक और नैतिक गुण होने चाहिए कि जिन पर ज़ुलैख़ा मंत्रमुग्ध हो गई थी, अतः वे भी अपने मन में यूसुफ़ को देखने की इच्छा रखती थीं और वे जो ताने दे रही थीं, उसका एक भाग ईर्ष्या के कारण था जो आलोचना के रूप में सामने आ रहा था।<br />
रोचक बात यह है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के जीवन में दो गुटों ने उनसे अत्यधिक प्रेम को पथभ्रष्टता का चिन्ह बताया। प्रथम उनके भाई थे जिन्होंने यूसुफ़ से अपने पिता के गहरे प्रेम को उनकी पथभ्रष्टता की निशानी बताया और कहा कि हम देखते हैं कि हमारे पिता खुली हुई पथभ्रष्टता में हैं और दूसरा गुट महिलाओं का था जिन्होंने यूसुफ़ से ज़ुलैख़ा के गहरे प्रेम के कारण कहा कि वह खुली हुई पथभ्रष्टता में है।<br />
यद्यपि हज़रत यूसुफ़ से उनके पिता का प्रेम अत्यंत पवित्र और ईश्वरीय था और ज़ुलैख़ा का प्रेम अपवित्र और शैतानी था किन्तु इससे यह पता चलता है कि प्रेम का संबंध उन लोगों की समझ से परे है जो प्रेम में ग्रस्त नहीं हुए हैं और इसी लिए वे प्रेमी को पथभ्रष्ट कहते हैं, जिस प्रकार से ईश्वर के प्रेम में डूबे हुए उसके सच्चे प्रेमियों को बहुत से लोग पागल और बहका हुआ कहते हैं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि पाप करने के लिए द्वार बंद करने के बावजूद अपमान का मार्ग खुला ही रहता है और पाप एक न एक दिन मनुष्य को अपमानित करके ही रहता है।<br />
पुरुष, परिवार का ज़िम्मेदार होता है और परिवार के लोगों की ग़लतियों को उसी से संबंधित किया जाता है, जैसा कि इस घटना में लोगों ने मिस्र के शासक की पत्नी के रूप में ज़ुलैख़ा की आलोचना की।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 31-33, (कार्यक्रम 383)<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 31 <br />
तो जब (मिस्र के शासक की पत्नी ने) नगर की महिलाओं की आलोचना को सुना तो उन्हें बुला भेजा और उनके लिए भव्य सभा का आयोजन किया और (फल काटकर खाने के लिए) हर एक के हाथ में एक चाक़ू दे दिया। और (यूसुफ़ से) कहा कि इनके सामने से निकल जाओ। तो जैसे ही उन्होंने यूसुफ़ को देखा तो उन्हें बड़ा (ही सुंदर) पाया और अपने हाथों को काट लिया और बोल उठीं धन्य है ईश्वर! यह तो मनुष्य है ही नहीं बल्कि यह तो कोई भला फ़रिश्ता है। (12:31)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि जब मिस्र की महिलाओं ने सुना कि उनके शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा अपने दास पर मोहित हो गई है तो उन्होंने उसकी आलोचना की किन्तु साथ ही वे उस दास को देखना चाहती थीं कि वह कैसा है कि ज़ुलैख़ा रानी होने के बावजूद उस पर मोहित हो गई है।<br />
दूसरी ओर ज़ुलैख़ा भी अपने काम का औचित्य और यूसुफ़ से प्रेम का कारण दर्शाने के प्रयास में थी अतः उसने मिस्र के दरबार की महिलाओं तथा अन्य प्रतिष्ठित महिलाओं को एक भव्य सभा में आमंत्रित किया और उनके खाने पीने का प्रबंध किया। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का सौंदर्य ऐसा था कि सारी महिलाएं आश्चर्यचकित रह गई और ईश्वर का गुणगान करने लगीं कि उसने इस प्रकार के सुंदर मनुष्य की रचना की है कि जो मनुष्य लगता ही नहीं और उसे फ़रिश्ता कहा जाना चाहिए।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि कभी कभी आलोचना, सद्भावना और शुभचिंतन के कारण नहीं बल्कि ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता के कारण होती है।<br />
कभी कभी लोग काम के लिए दूसरों की आलोचना करते हैं किन्तु यदि उन्हें भी उसी परीक्षा से गुज़रना पड़े तो वे भी वही ग़लती करते हैं। मिस्र की महिलाएं जो ज़ुलैख़ा का परिहास कर रही थीं, यूसुफ़ को क्षण भर देख कर स्वयं भी स्तब्ध रह गईं।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 32 <br />
(ज़ुलैख़ा ने मिस्र की महिलाओं से) कहा, यह वही है जिसके कारण तुमने मेरी आलोचना की थी। और मैंने इसे रिझाने का प्रयास किया था किन्तु यह बच निकला। और जो कुछ मैं इसे आदेश दे रही हूं, उसका इसने पालन नहीं किया तो क़ैद कर दिया जाएगा और अपमानित भी होगा। (12:32)<br />
यद्यपि ज़ुलैख़ा ने अपने पति के समक्ष यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को पापी और अपने को निर्दोष बताया था किन्तु जब उसने मिस्र की प्रतिष्ठित महिलाओं की प्रतिक्रिया देखी तो अपने कर्म को स्वीकार किया और कहा कि अब तो तुम ने भी मान लिया होगा कि मैं अकारण उस पर मोहित नहीं हूं और अब तुम मेरी आलोचना नहीं करोगी।<br />
किन्तु इसके साथ ही यह भी जान लो कि यूसुफ़ ने मेरी इच्छा की पूर्ति नहीं की अतः मैं उसे जेल में डलवा दूंगी ताकि उसे पता चल जाए कि दास को अपने स्वामी के आदेश की अवमानना नहीं करनी चाहिए। विचित्र बात यह है कि इस स्थान पर ज़ुलैख़ा ने हज़रत यूसुफ़ की पवित्रता को भी स्वीकार किया और उन्हें कारावास में डालने का भी आदेश दिया ताकि दूसरों के लिए पाठ रहे और कोई उसके विरोध का साहस न करे।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 33<br />
यूसुफ़ ने कहा, प्रभुवर मेरी दृष्टि में कारावास उस काम से अधिक प्रिय है जिसकी ओर मुझे ये बुला रही हैं। और यदि तूने मुझे इनकी चालों से न बचाया तो मैं इनकी ओर झुक सकता हूं और ऐसी स्थिति में मैं अज्ञानियों में से हो जाऊंगा। (12:33)<br />
यद्यपि मिस्र के शासक को यूसुफ़ के निर्दोष होने का विश्वास था और उसकी पत्नी ने मिस्र की महिलाओं के समक्ष अपने पाप को स्वीकार भी किया था किन्तु उसने ज़ुलैख़ा के कहने पर हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को कारावास में डाल दिया। इससे पता चलता है कि अत्यधिक सुख और ऐश्वर्य, पुरुषार्थ को महिलाओं की वासना के अधीन बना देता है और ऐसे लोग जनता पर राज करते हैं।<br />
किन्तु इसके मुक़ाबले में पवित्र लोग दूसरों की वासनाओं की पूर्ति करने के स्थान पर कारावास में जाने के लिए तैयार रहते हैं। वे ईश्वर की प्रसन्नता को अपनी और दूसरों की इच्छा पर प्राथमिकता देते हैं और कभी भी ईश्वर की अवज्ञा के मूल्य पर दूसरों की इच्छा को स्वीकार नहीं करते चाहे वह उनका अभिभावक ही क्यों न हो।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि नैतिक पवित्रता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इतिहास में बहुत से लोगों को अपनी नैतिक पवित्रता के कारण कारवास में जाना पड़ा है। इसके मुक़ाबले में यदि विदित रूप से स्वतंत्र रहना, अनेक मानवीय मान्यताओं को छोड़ने के मूल्य पर हो तो उसका कोई मूल्य नहीं है।<br />
पाप के वातावरण से दूर रहना मूल्यवान है चाहे इस मार्ग में कठिनाइयां सहन करनी पड़ें।<br />
अज्ञानता केवल निरक्षरता का नाम नही है। अनैतिक और बेलगाम इच्छाओं का पालन भी अज्ञानता ही है।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 34-36, <br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 34 <br />
ईश्वर ने यूसुफ़ की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और उन्हें महिलाओं की चालों से दूर रखा। निसंदेह वह सबकी सुनने वाला और सबसे अधिक जानकार है। (12:34)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को ज़ुलैख़ा ने कारावास में डालने की धमकी दी और उन्होंने स्वयं भी ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उन्हें ज़ुलैख़ा की अनैतिक इच्छाओं से बचाने के लिए कुछ समय के लिए कारवास में भेज दे ताकि वे महिलाओं की चालों और वासनाओं से बच जाएं।<br />
यह आयत कहती है कि ईश्वर ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन्हें महिलाओं की चालों से मुक्ति दिला दी। रोचक बात यह है कि यूसुफ़ को कारावास में डालना, ज़ुलैख़ा की इच्छा थी जो उसके आदेश पर पूरी भी हुई किन्तु यह आयत कहती है कि उनका जेल में जाना, उनकी इच्छा थी जो ईश्वर ने पूरी की।<br />
मानो क़ुरआने मजीद यह कह रहा है कि यद्यपि ज़ुलैख़ा यूसुफ़ को कारवास में डालना चाहती थी किन्तु यदि ईश्वर की इच्छा न होती तो यह काम न होता। यह ईमान वालों के लिए बड़ा पाठ है कि शत्रुओं की चालें और हथकंडे, ईश्वर की इच्छा के बिना व्यवहारिक नहीं हो सकते। अतः उसी पर भरोसा करना चाहिए ताकि वह शत्रुओं के षड्यंत्रों को विफल बना दे।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि यदि हम स्वयं को बुराइयों से दूर रखना चाहें तो ईश्वर उसका मार्ग प्रशस्त कर देता है और हमारी इच्छा की पूर्ति करता है।<br />
ज़ुलैख़ा यूसुफ़ को दंडित करने के लिए उन्हें कारावास में डलवा देना चाहती थी किन्तु हज़रत यूसुफ़ की दृष्टि में कारावास, पाप और ईश्वर की अवज्ञा से बचने का साधन था।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 35 <br />
फिर( यूसुफ़ की पवित्रता के) चिन्ह देखने के बाद उनके मन में विचार आया कि कुछ अवधि के लिए उन्हें कारावास में डाल दिया जाए। (12:35)<br />
अत्याचारी शासन व्यवस्था की विशेषताओं में से एक यह है कि हर बात शासकों और दरबारियों की वैध या अवैध इच्छाओं के आधार पर होती है और आम जनता को शासकों का दास समझा जाता है, इस प्रकार से कि शासकों को यह अधिकार होता है कि जनता के बारे में जो चाहें निर्णय करें। उनके निर्णय के सही या ग़लत होने की कोई बात ही नहीं होती।<br />
हज़रत यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा के मामले में भी सब को ज्ञात हो गया कि दोष ज़ुलैख़ा का है यहां तक कि उसने यूसुफ़ के निर्दोष होने की बात लोगों के बीच स्वीकार भी की किन्तु अंततः मिस्र के शासक के दरबार वालों ने निर्णय किया कि शासक की पत्नी के सम्मान की रक्षा के लिए यूसुफ़ को कारावास भेजा जाए ताकि कुछ दिनों के बाद लोग इस विषय को भूल जाएं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि पवित्र होना और पवित्र बाक़ी रहना सरल कार्य नहीं है क्योंकि अत्याचारी शासनों में उसी को सबसे अधिक क्षति होती है जो सबसे अधिक पवित्र होता है।<br />
दूषित समाज में बुरे और व्यभिचारी लोग स्वतंत्र रहते हैं जबकि पवित्र लोगों को कारावास में डाला जाता है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 36 की<br />
और यूसुफ़ के साथ दो अन्य युवा भी कारावास में पहुंचे। उनमें से एक ने (यूसुफ़) से कहा कि मैंने स्वप्न में देखा कि शराब (के लिए अंगूर) निचोड़ रहा हूं। दूसरे ने कहा कि मैंने स्वप्न में देखा है कि मैं अपने सर पर रोटी उठाए हुए हूं और चिड़ियां उसमें से खा रही हैं। हमें इसका अर्थ बता हो कि हम तुम्हें भले लोगों में देखते हैं। (12:36)<br />
मिस्र के शासक के आदेश पर हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को कारावास में डाल दिया गया। उनके साथ ही दो अन्य लोग भी कारावास में आए जिन्हें दरबार ने किसी अपराध के दंड स्वरूप कारावास में भेजा था। उन दोनों ने सपना देखा और अपने सपने का हज़रत यूसुफ़ से उल्लेख किया क्योंकि उन्होंने भी ज़ुलैख़ा की अनैतिक इच्छा और हज़रत यूसुफ़ की पवित्रता की बात सुनी थी और वे उन्हें भला आदमी समझते थे।<br />
जी हां, यदि भला मनुष्य कारावास में भी डाल दिया जाए तो वह बंदियों के भरोसे का पात्र बन जाता है और दूसरे उसे अपने रहस्य बताते हैं और वह बंदियों को भी प्रभावित कर सकता है।<br />
उन दो बंदियों के स्वप्न भी अलग अलग और विचित्र थे। अतः वे स्वयं भी समझ गए थे कि उनके स्वप्न अर्थपूर्ण और उनके कारावास के जीवन से संबंधित हैं। एक ने स्वयं को शराब बनाते हुए देखा था दूसरे ने पक्षियों को खाना खिलाते हुए।<br />
प्रत्येक दशा में जो बात महत्त्वपूर्ण है वह कारावास में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का विशेष स्थान और सम्मान है कि जिसने उन्हें दूसरों से भिन्न बना दिया था और सभी लोग उन पर विशेष ध्यान देने लगे थे। इतिहास में वर्णित है कि वे कारावास में रोगियों का ध्यान रखते थे और दरिद्रों की सहायता करते थे। वे कारावास में थे किन्तु मनुष्य थे और उनके नैतिक गुण उनके पूरे अस्तित्व से प्रकाशमान थे।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 37-40,</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">आइये पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 37 <br />
(यूसुफ़ ने) कहा, जो भोजन तुम्हें दिया जाता है उसके आने से पूर्व ही मैं तुम्हें तुम्हारे सपनों का अर्थ बता दूंगा। यह उन बातों में से है जिसकी शिक्षा मुझे मेरे पालनहार ने दी है। मैंने उस जाति का पंथ छोड़ दिया है जो ईश्वर पर ईमान नहीं रखती और प्रलय का इन्कार करती है। (12:37)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम दरबार के दो अन्य बंदियों के साथ कारावास में पहुंचे। उन दोनों ने अलग अलग सपना देखा और हज़रत यूसुफ़ से उसका उल्लेख किया।<br />
यह आयत कहती है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने पहले तो उनसे कहा कि वे उन्हें उनके सपनों का अर्थ बताएंगे ताकि वे उनकी बात सुनें और उन्होंने कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद के विषय के बारे में बात आरंभ की और कहा कि यदि ईश्वर ने मुझे यह विशेषता प्रदान की है कि मैं सपनों का अर्थ बता सकता हूं तो यह इस कारण है कि मैंने अनेकेश्वरवाद की रीति और कुफ़्र के पंथ को छोड़ दिया है और ईश्वर की छाया में आ गया हूं। यदि तुम यह देख रहे हो कि मैं तुम्हारे सपनों का अर्थ बता सकता हूं तो यह मेरी व्यक्तिगत विशेषता नहीं है बल्कि ईश्वर की कृपा है कि उसने मुझे यह ज्ञान सिखाया है। मेरा ईश्वर वही है जिस पर मेरी जाति वाले ईमान नहीं रखते तथा प्रलय का इन्कार करते हैं और संसार को ही अंत समझते हैं।<br />
रोचक बात यह है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम जानते थे कि वे दोनों बंदी ईश्वर पर ईमान नहीं रखते और अनेकेश्वरवादी हैं किन्तु वे उन्हें संबोधित करके नहीं कहते कि तुम लोग ईश्वर पर ईमान नहीं रखते बल्कि कहते हैं कि मेरी जाति के लोग ऐसे हैं और उनका मार्ग सही नहीं है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि जो कोई कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद के अंधकारों से दूर हो जाता है ईश्वर उसके मन और हृदय को ज्ञान व तत्वदर्शिता के प्रकाश से उज्जवलित कर देता है और वह ऐसी वास्तविकताओं से अवगत हो जाता है जिन्हें दूसरे नहीं जान पाते।<br />
अवसरों से उत्तम ढंग से लाभ उठाना चाहिए। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने कारावास में सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य किया और अवसर से सही ढंग से लाभ उठाया।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 38 <br />
(यूसुफ़ ने) कहा, मैं अपने पूर्वजों इब्राहीम, इस्हाक़ और याक़ूब के (सच्चे) पंथ का अनुसरण करता हूं। किसी को ईश्वर का समकक्ष ठहराना हमें शोभा नहीं देता। यह हम पर और लोगों का अनुग्रह है किन्तु अधिकांश लोग कृतज्ञता नहीं दर्शाते। (12:38)<br />
कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद से दूर रहने के संबंध में अपनी बात को जारी रखते हुए हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यदि मैंने अपनी जाति के मार्ग को छोड़ दिया है तो अपनी आंतरिक इच्छाओं का पालन नहीं करना चाहता हूं बल्कि मैंने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम जैसे महान पैग़म्बरों का मार्ग अपनाया है कि जो मेरे पूर्वज हैं। हज़रत इब्राहीम के वंशज होने के नाते हमें यह बात शोभा नहीं देती कि हम उनके मार्ग को छोड़ कर अनेकेश्वरवादियों के मार्ग पर चल पड़ें। इन पैग़म्बरों का अस्तित्व हम पर और सभी लोगों पर ईश्वर की कृपा है किन्तु खेद की बात यह है कि अधिकांश लोगों ने उनका मूल्य नहीं समझा और उनकी बातों पर ध्यान देने के बजाए अपने मार्ग पर चलते रहे।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि पूर्वजों पर गर्व और उनका अनुसरण, ऐसी स्थिति में प्रिय कार्य हो सकता है जब उनका मार्ग सही और सच्चा रहा हो।<br />
पैग़म्बरों का अस्तित्व ईश्वर की महान कृपाओं में से एक है और उनका अनुसरण, इस कृपा के प्रति कृतज्ञता के समान है जबकि उनकी अवज्ञा एक प्रकार से कृतघ्नता है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 39 और 40 <br />
(यूसुफ़ ने) कहा, हे कारावास के मेरे दोनों साथियों! अनेक ईश्वर बेहतर हैं या एकमात्र ईश्वर जो प्रभुत्वशाली है? (12:39) तुम ईश्वर के अतिरिक्त जिनकी उपासना करते हो वे उन नामों के अतिरिक्त कुछ नहीं जिनका नाम भी स्वयं तुमने और तुम्हारे पिताओं ने रखा है। ईश्वर ने उनके लिए कोई तर्क नहीं उतारा है। हुक्म अर्थात शासन का अधिकार केवल ईश्वर के लिए ही है। उसने आदेश दिया है कि तुम उसके अतिरिक्त किसी की उपासना न करो। यही सीधा और सही धर्म है किन्तु अधिकांश लोग नहीं जानते। (12:40)<br />
कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद से दूरी व एकेश्वरवाद के अनुसरण के संबंध में अपनी बात को जारी रखते हुए हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कारावास के अपने दोनों साथियों को संबोधित करते हुए कहते हैं, तुम स्वंय ही एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद की तुलना करो। अनेकेश्वरवादी इस संसार में हर वस्तु के लिए पालनहार बना देते हैं और फिर उसे प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।<br />
जबकि ईमान वाले केवल अनन्य ईश्वर पर ईमान रखते हैं कि जो पूरे ब्रह्ममांड का स्वामी है। हर वस्तु पर उसका नियंत्रण है और ईमान वाले केवल उसी को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं, तो अब बताओ कि इनमें से कौन सा पंथ उत्तम है?<br />
अनेकेश्वरवादियों ने हर वस्तु के लिए एक देवता बना रखा है और वे कहते हैं कि यह वर्षा का देवता है और वह वायु का देवता है जबकि यह सब काल्पनिक बातें हैं। यह ऐसे शीर्षक हैं जिनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। ये केवल नाम हैं कि जो लोगों की ज़बान पर आते हैं। न किसी बाहरी वास्तविकता ने और न ही किसी बौद्धिक तर्क ने इस प्रकार के देवताओं के अस्तित्व की पुष्टि की है बल्कि इसके विपरीत ईश्वर ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि उसके अतिरिक्त किसी की उपासना न की जाए।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि आस्था संबंधी समस्याओं को प्रश्न और तुलना के रूप में प्रस्तुत करना, लोगों को धर्म की ओर बुलाने की शैलियों में से एक है।<br />
मनुष्य की आस्थाओं को, पूर्वजों की रीतियों के अंधे अनुसरण पर नहीं बल्कि बौद्धिक अथवा ईश्वरीय तर्क पर आधारित होना चाहिए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 41-43,<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 41 <br />
(यूसुफ़ ने कहा) हे मेरे बंदी साथियो! तुम में से एक तो (रिहा होकर) अपने स्वामी को मदिरापान कराएगा और दूसरे को सूली पर चढ़ा दिया जाएगा और पक्षी उसका सिर खा जाएंगे। जिस बारे में तुमने मुझ से पूछा था उसका फ़ैसला हो चुका है और निश्चित ही वह होकर रहेगा। (12:41)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने बंदी साथियों के सपनों की व्याख्या से पूर्व अवसर से लाभ उठाते हुए उन्हें एकेश्वरवाद की ओर निमंत्रित किया। इसके पश्चात वे उनके सपनों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जिसने स्वप्न में यह देखा कि वह शराब बना रहा है वह रिहा होगा और इसी कार्य में व्यस्त रहेगा और जिसने यह देखा था कि पक्षी उसके सिर पर मौजूद रोटियों में से खा रहे हैं वह सूली पर लटकाया जाएगा और इतने दिनों तक सूली पर लटका रहेगा कि पक्षी उसका सिर खा जाएंगे और यह बात अटल है और हो कर ही रहेगी।<br />
इस घटना से पता चलता है कि कभी कभी अनेकेश्वरवादी भी ऐसे स्वप्न देखते हैं जो सच्चे होते हैं और व्यवहारिक होते हैं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि कुछ सपने ऐसी वास्तविकताओं को दर्शाते हैं जो भविष्य में घटने वाली होती हैं और जो सपनों की सही व्याख्या कर सकता है वह वास्तविकता बता सकता है चाहे वह कुछ लोगों के लिए अप्रिय ही क्यों न हो।<br />
ईश्वर के प्रिय बंदे बिना सोचे समझे और अटकल व अनुमान लगाकर बात नहीं करते बल्कि वे अनन्य ईश्वर की ओर से प्रदान किए गए ज्ञान के आधार पर बात करते हैं।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 42<br />
और (यूसुफ़ ने) उन दोनों में से जिसके बारे में वे जानते थे कि वह रिहा होगा, उससे कहा कि अपने स्वामी के समक्ष मेरी बात करना किन्तु शैतान ने उसे यह बात भुलवा दी कि वह अपने स्वामी के समक्ष यूसुफ़ की बात करता, तो वे कई वर्षों तक कारावास में रहे। (12:42)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के साथी बंदियों के सपनों की व्याख्या के पश्चात उन्होंने रिहा होने वाले बंदी से कहा कि मिस्र के शासक के समक्ष मेरे विषय पर बात करना, चूंकि मुझे निर्दोष होने के बावजूद बंदी बने हुए काफ़ी समय बीत चुका है अतः शायद वह मुझे रिहा करने पर तैयार हो जाए। किन्तु वह व्यक्ति रिहा होने के बाद यह बात भूल गया जिसके परिणाम स्वरूप हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को अन्य सात वर्षों तक कारावास में रहना पड़ा।<br />
रोचक बात यह है कि इस आयत में भूलने को कि जो स्वाभाविक बात है, शैतानी कार्य बताया गया है, मानो जब शैतान किसी अनेकेश्वरवादी पर वर्चस्व जमाता है तो उसकी बुद्धि और स्मरण शक्ति पर नियंत्रण कर लेता है, इस प्रकार से कि मनुष्य वह बातें भूल जाता है जिन्हें शैतान उसे भुलवाना चाहता है किन्तु ईश्वर के प्रिय व पवित्र बंदों के संबंध में ऐसा नहीं होता और वे कभी कोई बात नहीं भूलते क्योंकि शैतान उन पर वर्चस्व नहीं जमा सकता।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि अपने अधिकार की प्राप्ति और अत्याचार की समाप्ति के लिए दूसरों से निवेदन करना एक स्वाभाविक बात है किन्तु ईश्वर के प्रिय बंदों को सबसे पहले ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए।<br />
पवित्र लोगों का बंदी बनना शैतान और शैतान रूपी लोगों की इच्छा होती है तथा पवित्र लोगों पर से आरोपों का हटना शैतान और उसके अनुयाइयों के मार्ग से मेल नहीं खाता।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 43 <br />
और (मिस्र) के शासक ने कहा कि मैंने सपने में देखा है कि सात दुर्बल गायें, सात मोटी गायों को खा रही हैं और इसी प्रकार मैंने अनाज की सात हरी और सात सूखी बालियों को देखा है। हे मेरे सरदारो! यदि तुम स्वप्न की व्याख्या करते हो तो मुझे स्वप्न का अर्थ बताओ। (12:43)<br />
हज़रत यूसुफ़ की घटना के आरंभ से अब तक तीन स्वप्न सामने आए हैं, एक हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का स्वप्न और दो उनके साथी बंदियों के सपने, अलबत्ता अभी तक हज़रत यूसुफ़ का स्वप्न व्यवहारिक नहीं हुआ है।<br />
इस आयत में मिस्र के शासक के सपने का इस प्रकार वर्णन किया गया है कि वह सात मोटी गायों के साथ साथ हरी बालियां देखता है और सात दुर्बल गायों के साथ साथ सूखी बालियों को देखता है। यद्यपि वह जानता है कि कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटने वाली है किन्तु उसे और उसके दरबारियों को इस सपने का अर्थ ज्ञात नहीं हो पाता अतः चिंतित हो जाता है कि कहीं ऐसा न हो कि सत्ता उसके हाथ से निकल जाए।<br />
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इस आयत से हमने सीखा कि सपनों में सभी वस्तुओं और पशुओं का एक विशेष अर्थ होता है और वे किसी न किसी बात के प्रतीक होते हैं जैसे दुर्बल गाय, अकाल का प्रतीक जबकि मोटी गाय संपन्नता की निशानी होती है।<br />
हर कोई सपनों की व्याख्या नहीं कर सकता, सपनों का अर्थ जानने के लिए दक्ष लोगों से संपर्क करना चाहिए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 44-49, <br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 44 और 45 <br />
(मिस्र के शासक के दरबारियों ने) कहा, ये तो बिखरे हुए स्वप्न हैं और हम ऐसे सपनों की व्याख्या से अवगत नहीं हैं। (12:44) और उन दोनों में से जो रिहा हो गया था उसे कुछ समय बाद (यूसुफ़ की) याद आई उसने कहा कि मैं तुम्हें इस स्वप्न की व्याख्या बता सकता हूं तो मुझे (यूसुफ़ के पास) भेज दो। (12:45)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मिस्र के शासक ने एक विचित्र स्वप्न देखा कि कुछ मोटी गायों को दुर्बल गायें खा रही हैं। उसने अपने दरबार के दक्ष लोगों से कहा कि वे उसके स्वप्न की व्याख्या करें।<br />
ये आयतें कहती हैं कि दरबार वालों ने शासक के सपने को एक बिखरा हुआ सपना बताया कि जिसकी व्याख्या का कोई लाभ नहीं है। किन्तु वह व्यक्ति जो कारावास में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के साथ था और उन्होंने उसके स्वप्न की सही व्याख्या की थी, उसे याद आया कि उसने उन्हें वचन दिया था कि वह शासक के सामने उनकी बात करेगा। अतः उसने शासक से कहा कि वह उसे कारावास में हज़रत यूसुफ़ के पास भेज दे ताकि वह उसके स्वप्न की व्याख्या करें।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि केवल ईश्वर के प्रिय बंदे ही सच्चे सपने नहीं देखते, संभव है कि कोई अत्याचारी शासक भी ऐसा स्वप्न देखे जो आगे चलकर सच्चा सिद्ध हो।<br />
दक्ष और विशेषज्ञ लोगों को जो एकांत में रहते हैं संसार के सामने लाना चाहिए ताकि लोग उनसे लाभ उठा सकें।<br /><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 46 और 47<br />
(उसने) कहा, यूसुफ़! हे सच्चे पुरुष! हमें इस सपने का अर्थ बताओ कि सात मोटी गायों को सात दुर्बल गायें खा रही हैं और सात बालिया हरी हैं और सात बालिया सूखी हैं। ताकि जब मैं वापस लौटकर लोगों के पास जाऊं तो शायद वे भी सपने की व्याख्या को जान जाएं। (12:46) यूसुफ़ ने कहा कि निरंतर सात वर्षों तक खेती बाड़ी करते रहो तो जो कुछ तुम काटो, अपने खाने के थोड़े से भाग के अतिरिक्त सभी दानों को उनकी बालियों में ही रहने देना। (12:47)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने जो काम किया उससे उनकी महानता पूर्ण रूप से स्पष्ट है। उन्होंने अपने बंदी साथी से यह नहीं कहा कि क्यों तुम मुझे भूल गए थे और अब मेरे पास क्यों आए हो। इसी प्रकार उन्होंने यह भी नहीं कहा कि मैं शासक के स्वप्न की व्याख्या उसी समय करूंगा जब वह मुझे कारावास से रिहा कर देगा। उन्होंने बिना किसी शर्त के तुरंत ही न केवल यह कि स्वप्न की व्याख्या कर दी बल्कि अकाल से बचने का मार्ग भी बता दिया ताकि लोगों को अधिक कठिनाई न हो। इससे हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के ज्ञान व संचालन शक्ति का पता चलता है।<br />
इस आयत में हज़रत यूसुफ़ को सिद्दीक़ अर्थात अत्याधिक सच्चा व्यक्ति कहा गया है अर्थात ऐसा व्यक्ति जिसकी करनी उसकी कथनी की पुष्टि करती है। ऐसे अनेक लोगों के विपरीत जिनकी करनी उनकी कथनी से समन्वित नहीं होती बल्कि अधिकांश अवसरों पर उनकी कथनी और करनी में विरोधाभास होता है। अलबत्ता हज़रत यूसुफ़ के अतिरिक्त हज़रत इब्राहीम और हज़रत इदरीस को भी क़ुरआने मजीद में अत्याधिक सच्चा कहा गया है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को भी सिद्दीक़ की उपाधि प्रदान की थी।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि सरकारों को समस्याओं और संकटों की समाप्ति के लिए समाज के विद्वानों और दक्ष लोगों से लाभ उठाना चाहिए।<br />
भविष्य के लिए कार्यक्रम बनाना और आर्थिक संकटों से निपटने की तैयारी करना, सरकारों के मुख्य दायित्वों में से एक है।<br />
ईश्वर के प्रिय बंदे अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान के बारे में विचार करने से पूर्व सामाजिक कठिनाइयों की समाप्ति और लोगों के कल्याण के बारे में सोचते हैं।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 48 और 49 </div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
फिर इसके बाद सात वर्ष बड़े कठिन आएंगे और जो कुछ तुमने उनके लिए इकट्ठा कर रखा होगा वह खा जाएंगे सिवाय उस थोड़े से भाग के जो तुम बीज डालने के लिए बचाए रखते हो। (12:48) फिर उसके बाद एक वर्ष ऐसा आएगा जिसमें लोगों के लिए भरपूर वर्षा होगी और उसमें वे फलों के रस निचोड़ेंगे। (12:49)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने मिस्र के शासक के सपने की पूर्ण रूप से व्याख्या की और कहा कि सात वर्षों तक अच्छी वर्षा होगी और इन वर्षों में जो कुछ तुम उगाओ उसमें से बहुत थोड़ा खाओ और बाक़ी सब सुरक्षित रखते जाओ। इसके बाद के सात वर्षों में अकाल पड़ेगा और जो कुछ तुमने पहले एकत्रित किया था उसमें से खाओ और अगले वर्ष की खेती बाड़ी के लिए थोड़ा बीज व अनाज सुरक्षित रखो। उसके बाद एक वर्ष ऐसा होगा जिसमें भरपूर वर्षा होगी और इतनी संपन्नता आएगी कि लोग फलों का रस निचोड़ेंगे और उससे लाभ उठाएंगे।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि विशेष परिस्थितियों के लिए खाद्य सामग्री के भंडारण की सिफ़ारिश की गई है और यह बात ईश्वर पर भरोसे से विरोधाभास नहीं रखती।<br />
मौसम तथा वर्षा का पूर्वानुमान, ऋतु के कार्यक्रमों के लिए एक लाभदायक बात है और इससे लाभ उठाया जाना चाहिए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 50-52, (कार्यक्रम 388)<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या पचास <br />
और मिस्र के शासक ने कहा, (यूसुफ़ को) मेरे पास लाओ, तो जब दूत उनके पास आया तो यूसुफ़ ने कहा, अपने स्वामी के पास लौट जाओ और उससे पूछो कि उन महिलाओं का क्या मामला है जिन्होंने अपने हाथ काट लिए थे? निश्चित रूप से मेरा पालनहार उनके छल से भलिभांति अवगत है। (12:50)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम से मिस्र के शासक के स्वप्न की व्याख्या करने को कहा गया तो उन्होंने बिना किसी शर्त के यह काम कर दिया बल्कि सूखे और अकाल से बचाव का मार्ग भी बताया किन्तु जब शासक ने उन्हें अपने पास बुलाया तो उन्होंने यह बात स्वीकार नहीं की और कहा कि उन्हें कारावास में डाले जाने का कारण स्पष्ट होना चाहिए। इसी कारण वे उन महिलाओं के बारे में जांच के लिए कहते हैं जिन्होंने छल कपट द्वारा उन्हें देखने के लिए बुलाया था।<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का यह व्यवहार शायद इस कारण था कि उस घटना को वर्षों बीत चुके थे और संभवतः मिस्र का शासक और उसके दरबार के लोग यह बात भूल चुके थे और सोच रहे थे कि वस्तुतः यूसुफ़ दोषी थे, इसी कारण वे कारावास में हैं। इसके अतिरिक्त हज़रत यूसुफ़ नहीं चाहते थे कि उनके ऊपर उपकार किया जाए और राजकीय क्षमा के माध्यम से वे कारवास से बाहर आएं बल्कि वे मिस्र के शासक को यह समझाना चाहते थे कि उसके शासन में निर्दोष लोगों पर कितना अन्याय व अत्याचार हो रहा है।<br />
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम का कथन है कि मुझे हज़रत यूसुफ़ के संयम पर आश्चर्य होता है कि जब मिस्र के शासक को अपने स्वप्न की व्याख्या के लिए उनकी आवश्यकता हुई तो उन्होंने यह नहीं कहा कि जब तक मुझे रिहा नहीं किया जाता, मैं यह काम नहीं करूंगा। और जब उन्हें रिहा किया जाने लगा तो उन्होंने कहा कि जब तक मेरा निर्दोष होना सिद्ध नहीं हो जाता, मैं कारावास से बाहर नहीं आऊंगा।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि सरकार के विद्वानों के विचारों से लाभ उठाना चाहिए चाहे वे कारावास में ही क्यों न हों, अलबत्ता इसी के साथ उनकी रिहाई का मार्ग भी प्रशस्त करना चाहिए।<br />
किसी भी मूल्य पर रिहाई मूल्यवान नहीं होती, सम्मान की बहाली और निर्दोष सिद्ध होना, रिहाई से भी अधिक मूल्यवान है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 51 <br />
मिस्र के शासक ने (महिलाओं से) कहा, जब तुमने यूसुफ़ पर डोरे डाले तो तुम्हारा क्या मामला था? उन्होंने कहा, धन्य है ईश्वर, हमने तो उसमें कोई बुराई नहीं पाई। (इसी बीच) मिस्र के शासक की पत्नी बोली, अब सच बात सामने आ गई है। वह मैं ही थी जिसने उस पर डोरे डाले थे और निसंदेह वह सच्चों में से है। (12:51)<br />
क़ुरआने मजीद में ईश्वर की एक परंपरा, पवित्रता एवं ईश्वरीय भय के कारण कठिन मामलों में राहत दिलाने पर आधारित है। मिस्र के शासक की पत्नी, जिसने हज़रत यूसुफ़ पर यह आरोप लगाया था कि वे उस पर बुरी दृष्टि रखते थे जिसके कारण उन्हें कारावास में जाना पड़ा था, आज अपनी ज़बान से उनके सच्चे होने की बात स्वीकार कर रही है। उसकी इसी स्वीकारोक्ति के कारण हज़रत यूसुफ़ की रिहाई का मार्ग प्रशस्त हुआ और वे सम्मान के साथ कारावास से बाहर आए।<br />
यह ईश्वर का इरादा है कि वास्तविक दोषी अपने अपराध को स्वीकार करता है ताकि सबके समक्ष हज़रत यूसुफ़ का निर्दोष होना सिद्ध हो जाए, यद्यपि कुछ वास्तविकताओं के स्पष्ट होने के लिए समय बीतने की आवश्यकता होती है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि सत्य, सदैव छिपा नहीं रहता, इसी कारण झूठ सदैव बाक़ी नहीं रहता।<br />
सामाजिक व नैतिक मामलों में पवित्रता ऐसी बात है जिसके मूल्य को व्यभिचारी लोग भी स्वीकार करते हैं।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 52 <br />
(यूसुफ़ ने कहा कि) मैंने यह बात इसलिए कही कि (मिस्र का शासक) जान ले कि मैंने एकांत में उसके साथ विश्वासघात नहीं किया है और निश्चित रूप से ईश्वर विश्वासघात करने वालों की चालों को सफल नहीं होने देता। (12:52)<br />
इस आयत के संबंध में व्याख्याकारों के बीच दो मत पाये जाते हैं। एक गुट का मानना है कि यह कथन मिस्र के शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा का है जो यह कहना चाहती है कि यद्यपि मैं पाप करना चाहती थी किन्तु ऐसा हो नहीं सका। किन्तु अधिकांश व्याख्याकारों का मानना है कि यह कथन हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का है जो यह कहना चाहते हैं कि यदि मैंने कारावास से अपनी स्वतंत्रता के लिए महिलाओं के विषय के स्पष्ट होने की शर्त लगाई थी तो उसका कारण यह था कि मिस्र के शासक और उसकी पत्नी को यह ज्ञात हो जाए कि मैंने अतीत में कोई विश्वासघात नहीं किया था और मैं निर्दोष हूं। मैं पिछली बातों को फिर से सामने लाकर मिस्र के शासक की पत्नी से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था बल्कि मैं अपने सम्मान की बहाली का इच्छुक था ताकि मेरे संबंध में पाई जाने वाली भ्रांतियां समाप्त हो जाएं।<br />
रोचक बात यह है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम इस मामले के स्पष्ट होने को ईश्वर से संबंधित बताते हैं ताकि शासक का ध्यान इस ओर आकृष्ट करें कि घटनाओं के संबंध में ईश्वर की इच्छा की निर्णायक भूमिका होती है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि किसी के साथ भी विश्वासघात अप्रिय है चाहे वह अत्याचारी और काफ़िर ही क्यों न हो।<br />
वास्तविक ईमान का चिन्ह, एकांत में पाप से बचना है।<br />
यदि हम पवित्र हों तो ईश्वर इस बात की अनुमति नहीं देगा कि अपवित्र लोग हमारे सम्मान को ठेस पहुंचाएं बल्कि वे स्वयं ही अपमानित होंगे और हमारी पवित्रता सिद्ध हो जाएगी।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 53-55,<br />
आइये सबसे पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 53 <br />
और मैं कदापि अपने आपको मुक्त नहीं करता क्योंकि निश्चित रूप से मन सदैव ही बुराई पर उकसाता है सिवाय इसके कि मेरा पालनहार दया करे। निसंदेह मेरा पालनहार अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (12:53)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने कारावास से अपनी रिहाई के लिए अपने निर्दोष सिद्ध होने की शर्त रखी थी। मिस्र के शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा ने शासक के समक्ष अपने पाप को स्वीकार किया और यूसुफ़ को निर्दोष बताया।<br />
यह आयत एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु की ओर संकेत करती है और वह यह कि मनुष्य की आंतरिक इच्छाएं, उसे बुराइयों की ओर बुलाती रहती हैं और उसे पाश्विक व्यवहारों पर उकसाती हैं जिनका बुद्धि, तर्क अथवा सामाजिक नियमों से कोई संबंध नहीं है बल्कि परिणामों पर ध्यान दिए बिना केवल व्यक्तिगत कामनाओं की पूर्ति के लिए ऐसे कर्म किए जाते हैं।<br />
इस बीच वह एकमात्र वस्तु जो बुद्धि पर आंतरिक इच्छाओं की विजय के मार्ग में बाधा बनती है, ईश्वर की दया व कृपा है कि जो मनुष्य को ख़तरों और बुराइयों से सुरक्षित रखती है और मनुष्य को यह अनुमति नहीं देती कि जो कुछ उसके मन में आए वह करता चला जाए। स्वाभाविक है कि वही व्यक्ति इस दया व कृपा का पात्र बनेगा जो ईश्वर पर ईमान रखता हो और सदैव उससे सहायता चाहता हो।<br />
क़ुरआने मजीद में मनुष्य के मन के लिए कई चरणों का उल्लेख हुआ। पहला चरण उस मन का है जो पाश्विक चरणों में है और मनुष्य को पाश्विक व्यवहार का आदेश देता रहता है। इसे नफ़से अम्मारा कहा जाता है। इसके ऊपर वाले चरण में नफ़से लव्वामा अर्थात धिक्कारने वाला मन होता है जो मनुष्य की ग़लतियों के लिए उसे धिक्कारता रहता है और तौबा व प्रायश्चित का मार्ग प्रशस्त करता है। और सबसे ऊपरी चरण में नफ़से मुतमइन्ना अर्थात संतुष्ट मन होता है। इस चरण तक केवल ईश्वर के पैग़म्बर और उसके प्रिय बंदे ही पहुंच पाते हैं। कठिन से कठिन स्थिति में ईश्वर के प्रति उनकी आशा और संतोष में कमी नहीं आती और वे ईश्वरीय परीक्षाओं में सफल रहते हैं।<br />
इस घटना में भी हज़रत यूसुफ़ अपने को निर्दोष सिद्ध करने के पश्चात, घमंड में ग्रस्त होने से बचने के लिए कहते हैं कि मैं भी एक मनुष्य हूं और मेरा मन भी मुझे उसकी बात के लिए उकसाता था जो ज़ुलैख़ा चाहती थी किन्तु यह ईश्वर की कृपा थी जिसने मुझे मुक्ति दिलाई और पाश्विक वासनाओं में ग्रस्त नहीं होने दिया।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि कभी भी स्वयं को ग़लतियों और भटकाव से सुरक्षित नहीं समझना चाहिए और न ही कभी पवित्रता के लिए अपनी सराहना करनी चाहिए कि सदैव ही ख़तरा सामने होता है।<br />
मनुष्य के समक्ष चाहे जितने भी ख़तरे हों उसे ईश्वर की दया व कृपा की ओर से निराश नहीं होना चाहिए कि वह अत्यंत क्षमाशील और दयावान है।<br />
आइये अब सूरए युसुफ़ की आयत संख्या 54 <br />
मिस्र के शासक ने कहा, यूसुफ़ को मेरे पास लाओ ताकि मैं उसे अपना विशेष सलाहकार बनाऊं। तो जब उसने बात की तो कहा, आज हमारे निकट तुम्हारा बहुत उच्च स्थान है और एक अमानतदार व्यक्ति हो। (12:54)<br />
जब मिस्र के शासक ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम और ज़ुलैख़ा की वार्ता सुनी और उसकी दृष्टि में हज़रत यूसुफ़ का निर्दोष और साथ ही महान होना सिद्ध हो गया तो उसने उन्हें अपने पास बुलाया और देश तथा सरकार के बारे में उसने उन्हें अपना निजी सलाहकार बना लिया ताकि देश के सभी अधिकारियों को यह बात समझ में आ जाए कि उन्हें हज़रत यूसुफ़ के आदेशों का पालन और उनका सम्मान करना चाहिए।<br />
मिस्र के शासक और हज़रत यूसुफ़ के वार्तालाप से दो बातें सिद्ध हो गईं, एक हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की महानता और दूसरे उनकी अमानतदारी और ये दोनों विशेषताएं सरकार के संचालन में बहुत प्रभावी होती हैं। जब कभी महानता और अमानतदारी एकत्रित हो जाती हैं, समाज की प्रगति और योग्यताओं के निखरने का कारण बनती हैं और जहां कहीं इनमें से एक का आभाव होता है तो समस्याएं और कठिनाइयां उत्पन्न होने लगती हैं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के लिए लोगों के अनुभव के साथ दायित्व निर्वाह की उनकी क्षमता भी महत्त्वपूर्ण है। केवल पवित्रता, सच्चाई और अमानतदारी पर्याप्त नहीं है बल्कि शक्ति और योग्यता भी आवश्यक है।<br />
सच्चा और अमानतदार व्यक्ति सभी की दृष्टि में सम्मानीय होता है, चाहे निर्धन हो या धनवान, काफ़िर हो या ईमान वाला।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 55 <br />
(यूसुफ़ ने) कहा, मुझे मिस्र की धरती के ख़ज़ानों का अधिकारी बना दो कि निसंदेह मैं जानकार रक्षक हूं। (12:55)<br />
जब मिस्र के शासक ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलाया और अपना निजी सलाहकार नियुक्त किया तथा उन्हें एक अमानतदार और योग्य व्यक्ति घोषित किया तो उन्होंने प्रस्ताव दिया कि उन्हें सरकारी ख़ज़ाने की देखभाल का दायित्व सौंपा जाए और उन्हें स्वयं को इस कार्य के लिए योग्य बताया।<br />
मिस्र के शासक ने जो स्वप्न देखा था उसके आधार पर हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम जानते थे कि पहले सात वर्षों तक अकाल पड़ेगा और उन्हें अनाज एकत्रित करना होगा जबकि दूसरे सात वर्षों में एक सटीक कार्यक्रम के अंतर्गत उन्हें लोगों के बीच अनाज बांटना था। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम इस कार्य में दक्ष थे अतः उन्होंने इस दायित्व को निभाने के लिए अपनी तत्परता की घोषणा की।<br />
वस्तुतः हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने कोई सरल और साधारण नहीं बल्कि एक कठिन और ख़तरनाक दायित्व संभालने का प्रस्ताव दिया था उन्हें पद और परिस्थिति की चाह नहीं बल्कि वे तो अकाल के दौरान लोगों को राहत पहुंचाने के विचार में थे। जैसा कि इतिहास में वर्णित है कि हज़रत यूसुफ़ ने दूसरे सात वर्षों की समाप्ति पर मिस्र के शासक से कहा कि मेरे पास जो कुछ संपत्ति और सरकारी माल है वह मैं सब का सब वापस देता हूं। सत्ता मेरे लिए लोगों की मुक्ति का साधन थी और मैं तुम से भी कहता हूं कि लोगों के साथ न्याय का व्यवहार करो।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि जहां आवश्यकता हो अपनी योग्यता का वर्णन करना चाहिए तथा संवेदनशील दायित्वों को अपने हाथ में लेने के लिए स्वेच्छा से आगे बढ़ना चाहिए।<br />
दायित्व और पद प्रदान करने के संबंध में जाति, क़बीला, राष्ट्रीयता और भाषा मानदंड नहीं बल्कि सबसे महत्त्वपूर्ण बात योग्यता व क्षमता है। हज़रत यूसुफ़ मिस्र के नहीं थे और एक दास के रूप में मिस्र पहुंचे थे किन्तु मिस्र के शासक ने उन्हें सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा था।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 56-60, (कार्यक्रम 390)<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या छप्पन और सत्तावन <br />
और इस प्रकार हमने यूसुफ़ को मिस्र की धरती में सत्ता प्रदान की कि वे उसमें जहां चाहें रहें। हम जिसे चाहते हैं अपनी दया का पात्र बनाते हैं और हम भलाई करने वालों के बदले को व्यर्थ नहीं जाने देते। (12:56) और जो लोग ईमान लाए और ईश्वर से डरते रहे तो निसंदेह उनके लिए प्रलय का प्रतिफल सबसे उत्तम है। (12:57)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मिस्र के शासक ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलाया और उन्हें अपना विशेष सलाहकार नियुक्त किया। ये आयतें कहती हैं कि यह मिस्र का शासक नहीं था जिसने यूसुफ़ के लिए इस प्रकार का मार्ग प्रशस्त किया था बल्कि ईश्वर ने यूसुफ़ की पवित्रता और भलाई का प्रतिफल उन्हें देना चाहा था इसीलिए उसने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि यूसुफ़ ऐसे स्थान तक पहुंच गए कि सरकारी मामलों में जिस प्रकार का चाहें निर्णय करें।<br />
आगे चलकर आयत कहती है कि यह ईश्वर की परंपरा है कि वह भले कर्म करने वालों को इसी संसार में प्रतिफल देता है और उन्हें अपनी विशेष दया का पात्र बनाता है। इसके अतिरिक्त प्रलय में उनका प्रतिफल सुरक्षित रहता है कि जो सांसारिक प्रतिफल से कहीं अधिक व उत्तम होता है। अलबत्ता शर्त यह है कि भला कर्म वास्तविक ईमान और ईश्वर से भय के साथ हो अन्यथा ईश्वर पर ईमान के बिना किए गए भले कर्म का केवल इसी संसार में प्रतिफल मिलता है।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि भले लोगों को जो ईश्वरीय भय रखते हैं सम्मानित करना ईश्वर की परंपरा है चाहे अपवित्र लोगों और अत्याचारियों को यह बात बुरी ही क्यों न लगे और वे उनका अनादर ही क्यों न करें।<br />
ईश्वरीय विचारधारा में हर कर्म का प्रतिफल मिलता है अतः भले कर्म करने वालों को चिंतित नहीं होना चाहिए।<br />
ईश्वरीय पारितोषिक, सांसारिक पारितोषिक से कहीं उच्च होता है क्योंकि वह किसी समय अथवा स्थान तक सीमित नहीं होता और नहीं उसमें कोई दोष होता है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 58 <br />
और (अकाल के कारण) यूसुफ़ के भाई (खाद्य सामग्री लेने के लिए मिस्र) आए और उनके पास पहुंचे। उन्होंने उन्हें पहचान लिया जबकि वे उन्हें नहीं पहचान पाए। (12:58)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्साम की भविष्यवाणी के अनुसार सात वर्षों तक निरंतर वर्षा हुई और लोग हर प्रकार से संपन्न रहे किन्तु उसके बाद सात वर्षों तक अकाल पड़ा और अकाल का प्रभाव फ़िलिस्तीन और कन्आन तक पहुंचा।<br />
हज़रत याक़ूब ने अपने पुत्रों को अनाज के लिए मिस्र भेजा। वे मिस्र के वित्त विभाग के प्रमुख अर्थात हज़रत यूसुफ़ के पास पहुंचे। वे तुरंत अपने भाइयों को पहचान गए किन्तु वे लोग उन्हें पहचान न सके क्योंकि हज़रत यूसुफ़ को कुएं में डालने की घटना को वर्षों बीत चुके थे और उन्हें उनके जीवित होने की अपेक्षा नहीं थी। किन्तु समय चक्र ने ऐसा काम किया कि वही यूसुफ़ मिस्र के शासक के बाद उस देश के सबसे बड़े अधिकारी बन चुके थे और उनके घमंडी और अहंकारी भाई उनके समक्ष बड़े अपमान से खड़े होकर उनसे अन्न मांग रहे थे।<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने भी उचित नहीं समझा कि इन परिस्थितियों में उन्हें अपना परिचय दें अतः उन्होंने एक अज्ञात व्यक्ति की भांति उनके साथ व्यवहार किया और आदेश दिया कि दूसरों की भांति उन्हें भी परिजनों की संख्या के अनुसार गेहूं दिया जाए।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान का दायित्व मनुष्य से मांग करता है कि वह वंचित और अकाल ग्रस्त क्षेत्रों के संबंध में संवेदनशील रहे और उनकी सहायता करे चाहे वह स्वयं किसी अन्य क्षेत्र का ही क्यों न हो और वहां के लोग उसके धर्म के न हों।<br />
कठिन और संकटमयी स्थिति में सभी लोगों को एक दृष्टि से देखना चाहिए। न्याय की मांग है कि संभावनाओं की सही वितरण शैली अपनाकर सभी को एक समान संभावनाएं प्रदान की जानी चाहिए।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 59 और 60 <br />
और जब यूसुफ़ ने उनका सामान तैयार कर दिया तो उनसे कहा कि अगली बार अपने पिता के पुत्र को भी मेरे पास लाना। क्या तुम नहीं देखते कि मैं सही ढंग से नाप तोल करता हूं और मैं सबसे अच्छा मेज़बान हूं। (12:59) और यदि तुम उसे मेरे पास नहीं लेकर आए तो न तो तुम्हें कोई सामान मिलेगा और न ही तुम मुझ से निकट हो पाओगे। (12:60)<br />
जैसा कि इतिहास में वर्णित है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने अकाल के समय अनाज लेते हुए उनसे कहा कि पिता की ओर से हमारा एक अन्य भाई भी है। हज़रत यूसुफ़ ने कहा कि यदि तुम्हें उसका भाग चाहिए तो उसे मेरे पास लेकर आओ। उन्होंने कहा कि हमारे पिता वृद्ध हो चुके हैं और हमने उसे अपने पिता की सेवा के लिए उनके पास छोड़ दिया है। हज़रत यूसुफ़ ने कहा कि इस बार मैं तुम्हें उसका और तुम्हारे पिता का भी संपूर्ण भाग दिए देता हूं किन्तु यदि अगली बार तुम अनाज लेना चाहो तो तुम्हें उसे साथ लाना होगा अन्यथा मैं तुम्हें न तो उसका भाग दूंगा और न ही तुम्हारा भाग।<br />
ये आयतें अकाल के समय लोगों के बीच अनाज बांटने में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की सीधी उपस्थिति और देख रेख का उल्लेख करती हैं जिससे लोगों के अधिकारों पर भरपूर ढंग से ध्यान दिए जाने और दायित्व पालन का पता चलता है। खेद की बात यह है कि आजकल की सरकारें और अधिकारी इस बात पर ध्यान नहीं देते और अधिकारी केवल आदेश देते हैं, मामलों की देख रेख नहीं करते।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि सत्ता का ग़लत लाभ उठाते हुए प्रतिशोध लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए। हज़रत यूसुफ़ ने अपने अत्याचारी भाइयों को अनाज दिया और उनसे प्रतिशोध नहीं लिया। उन्होंने अपने भाइयों का सत्कार किया कि जो पैग़म्बरों की विशेषता है।<br />
क़ानून लागू करने में साधारण लोगों और अपने परिजनों में अंतर नहीं रखना चाहिए बल्कि सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिए।<br />
पूरी दृढ़ता के साथ क़ानून लागू करना चाहिए और इसमें प्रेम और स्नेह आड़े नहीं आना चाहिए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 61-65,<br />
आइये पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 61 <br />
उन्होंने कहा, हम उसके पिता से वार्ता (उन्हें सहमत करने का प्रयास) करेंगे और हमें यह काम तो करना ही है। (12:61)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई अनाज लेने के लिए उनके पास आए तो उन्हें पहचान नहीं पाए और कहने लगे, हमारे वृद्ध पिता और छोटा भाई नहीं आ सके हैं अतः हमें उनका भाग भी दिया जाए। हज़रत यूसुफ़ ने स्वीकार कर लिया किन्तु उनसे कहा कि अगली बार जब तुम अनाज लेने के लिए आना तो अपने छोटे भाई को भी साथ लाना अन्यथा तुम्हें उसका भाग नहीं दिया जाएगा।<br />
यह आयत कहती है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने यह बात स्वीकार कर ली और कहा कि यद्यपि हमारे पिता उसे हमारे साथ भेजने के लिए तैयार नहीं होंगे किन्तु हम उन्हें तैयार करने का प्रयास करेंगे। वे भलिभांति जानते थे कि उनके पिता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम हज़रत यूसुफ़ और उनके छोटे भाई बिनयामिन से उनकी ईर्ष्या से अवगत हैं और हज़रत यूसुफ़ की घटना के बाद बिनयामिन को कभी भी अपने से दूर नहीं जाने देते अतः वे इतनी लंबी यात्रा पर उन्हें उनके भाइयों के साथ भेजने पर कदापि तैयार नहीं होंगे।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 62 <br />
यूसुफ़ ने अपने सेवकों से कहा, इन्होंने अनाज के बदले में जो कुछ दिया है उसे इनके सामान में ही रख दो, जब वे अपने घर लौटेंगे तो शायद उसे पहचान लें और फिर शायद लौट आएं। (12:62)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाइयों को पुनः मिस्र लौटाने के लिए आदेश दिया कि जो धन उन्होंने अनाज के बदले में दिया है, उसे उनके सामान में रख दिया जाए ताकि जब वे वापस घर लौट कर उसे देखें तो अनाज लेने के लिए फिर से मिस्र की यात्रा करने पर प्रोत्साहित हों और यात्रा की कठिनाइयों के कारण उनका विचार बदल न जाए।<br />
अलबत्ता स्पष्ट है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम मिस्र के कोषाध्यक्ष थे और इस प्रकार से अपने भाइयों को धन नहीं दे सकते थे, अतः उन्होंने अपने निजी पैसों से भाइयों के अनाज के दाम चुकाए थे।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि अपने परिजनों और सगे संबंधियों से जुड़े रहने का अर्थ यह है कि उनकी बुराई के मुक़ाबले में उनकी हर संभव सहायता की जाए, उनसे प्रतिशोध लेने का प्रयास न किया जाए और उनके प्रति हृदय में द्वेष न रखा जाए।<br />
पुरुषार्थ और महानता हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम से सीखनी चाहिए। उन्होंने न केवल यह कि पिछली घटनाओं के कारण अपने भाइयों को अनाज से वंचित नहीं रखा बल्कि अनाज के लिए दिए गए उनके धन को भी अपने पास से उन्हें लौटा दिया।<br />
आइये अब सूरए सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 63 और 64 <br />
तो जब वे अपने पिता के पास वापस लौटे तो उन्होंने कहा, हे पिता! हमें आदेश दिया गया है कि अब तो अनाज की माप हमारे लिए बंद कर दी गई है, अतः आप हमारे भाई को हमारे साथ भेज दीजिए ताकि हम अनाज में से अपना भाग ले सकें और निश्चित रूप से हम उसके रक्षक हैं। (12:63) उन्होंने कहा, क्या मैं इसके मामले में भी तुम पर वैसा ही विश्वास करुं जैसा इससे पूर्व इसके भाई के मामले में कर चुका हूं? प्रत्येक दशा में ईश्वर सबसे बड़ा रक्षक और सबसे अधिक कृपालु है। (12:64)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम द्वारा अपने भाइयों को यह आदेश दिए जाने के बाद कि अगली बार अनाज लेने के लिए वे अपने छोटे भाई बिनायामिन को भी साथ लेकर आएं, उनके भाइयों ने अपने पिता को वचन दिया कि वे बिनयामिन को सुरक्षित ले जाएंगे और सुरक्षित वापस लाएंगे, किन्तु एक ओर तो हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के मन में हज़रत यूसुफ़ की कटु घटना थी और दूसरी ओर अनाज प्राप्त करने के लिए उनके पास बिनयामिन को उनके साथ भेजने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था। इसी कारण उन्होंने ईश्वर पर भरोसा करते हुए अपने पुत्र को उसके हवाले किया और उससे प्रार्थन की कि वह बिनयामिन की रक्षा करे।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि कठिन और संकटमयी समय में केवल ईश्वर पर भरोसे से ही हृदय को शांति प्राप्त होती है अतः हमें केवल उसी की शरण में जाना चाहिए तथा उसी से सहायता मांगनी चाहिए।<br />
एक कटु अनुभव से स्वयं को अलग नहीं किया जा सकता। कभी कभी हमें दूसरे पक्ष को समय देना चाहिए कि अपने आपको सामने ला सके। साथ ही हमें अतीत को भी याद रखना चाहिए।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 65 <br />
और जब उन्होंने अपना सामान खोला तो देखा कि उनका माल उन्हें लौटा दिया गया है। उन्होंने कहा, हे पिता! हमें और क्या चाहिए? यह हमारा माल भी हमें लौटा दिया गया है और हम अपने परिजनों के लिए खाद्य सामग्री लाएंगे और अपने भाई की भी रक्षा करेंगे तथा उसे अपने साथ लेकर एक ऊंट का अतिरिक्त भार ले आएंगे कि यह माप मिस्र के शासक के लिए बहुत ही सहज है। (12:65)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाइयों से अनाज के मूल्य के रूप में जो धन लिया था, उसे उनके सामान में रखवा दिया था। शायद यदि वे आरंभ में ही यह कह देते कि मैं तुम से कुछ नहीं लूंगा तो उनके भाइयों को अचरज भी होता और एक प्रकार से वे इसे अपना अपमान भी समझते कि माने वे भिखारी हों और उन्हें पैसे देने की आवश्यकता नहीं है किन्तु हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की महानता यह है कि उन्होंने विदित रूप से अनाज का मूल्य लिया और गुप्त रूप से उसे उनके सामान में रखवा दिया क्योंकि, सेवा बिना उपकार जताए होनी चाहिए।<br />
अलबत्ता जब उनके भाई अपने पिता के पास लौटे तो उन्होंने इसे हज़रत यूसुफ़ का काम नहीं बताया बल्कि गोल मोल रूप में कहा कि हमें धन लौटा दिया गया है। उन्होंने इसे एक प्रकार से अपना सौभाग्य बताया।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि पुरुष पर अपने परिजनों और इसी प्रकार अपने माता पिता का ख़र्चा का दायित्व है।<br />
अनाज के अभाव के समय में खाद्य पदार्थों की कोटाबंदी एक आवश्यक कार्य है ताकि किसी के साथ अन्याय न होने पाए और हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम सहित सभी ईश्वरीय पैग़म्बरों की शैली रही है।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 66-68, (कार्यक्रम 392)<br />
आइये पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 66 <br />
(हज़रत याक़ूब ने) कहा कि मैं कदापि उसे तुम्हारे साथ नहीं भेजूंगा जब तक तुम मुझे पक्का ईश्वरीय वचन न दे दो कि उसे मेरे पास अवश्य (वापस) ले आओगे सिवाय इसके कि तुम स्वयं ही कहीं घेर लिए जाओ। तो जब उन्होंने वचन दे दिया तो (हज़रत याक़ूब ने) कहा, जो कुछ हम कहते हैं उस पर ईश्वर दृष्टि रखने वाला है। (12:66)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के पुत्रों को अनाज लेने की अगली बारी के लिए अपने छोटे भाई बिनयामिन को साथ लेकर जाना था किन्तु हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम जानते थे कि उनके पुत्र, यूसुफ़ की भांति बिनयामिन से भी ईर्ष्या करते हैं अतः उन्हें बहुत चिंता थी, दूसरी ओर उनके पास अनाज लाने के लिए बिनयामिन को मिस्र भेजने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था।<br />
अतः उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि वे ईश्वर की सौगंध खाकर वचन दें कि बिनयामिन को पूरी सुरक्षा के साथ वापस ले आएंगे सिवाय इसके कि स्वयं तुम्हारे साथ कोई घटना हो जाए। उन्होंने भी सौगंध खाकर वचन दिया कि जिसके बाद हज़रत याक़ूब ने कहा कि यह मत सोचना कि यह एक साधारण सी बात है जिसे तुम अपनी ज़बान से कह रहे हो बल्कि यदि तुम ने अपनी सौगंध तोड़ी तो ईश्वर तुम्हें दंडित करेगा क्योंकि जो कुछ हम कहते हैं ईश्वर उन सबसे अवगत है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि किसी कार्य के लिए ठोस वचन लेना क़ुरआन की पद्धति है। बेहतर है कि सामाजिक मामलों में भी लोगों से ठोस वचन लिया जाए।<br />
क़ानूनी मामलों में हर काम सतकर्ता से और सुदृढ़ ढंग से करना चाहिए किन्तु ईश्वर पर हमारे भरोसे में कमी का कारण न बने।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 67 <br />
(हज़रत याक़ूब ने) कहा, हे मेरे बच्चो! (मिस्र में प्रवेश के समय) सभी एक ही द्वार से प्रविष्ट न होना बल्कि विभिन्न द्वारों से प्रवेश करना और मैं ईश्वर के मुक़ाबले में तुम्हें किसी बात से नहीं बचा सकता कि आदेश तो केवल ईश्वर का ही (चलता) है। मैंने उसी पर भरोसा किया है और सभी भरोसा करने वालों को उसी पर भरोसा करना चाहिए। (12:67)<br />
जब हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के पुत्र मिस्र की यात्रा पर रवाना होने लगे तो उन्होंने उन लोगों को कुछ सिफ़ारिशें कीं। उन्होंने कहा कि सब के सब एक ही द्वार से प्रविष्ट न होना क्योंकि इससे लोगों में ईर्ष्या अथवा संवेदनशीलता उत्पन्न हो सकती है। उन्होंने कहा कि सब लोग विभिन्न द्वारों से नगरों में प्रवेश करना ताकि इस प्रकार की बातों का सामना न करना पड़े।<br />
हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने कहा कि इस सिफ़ारिश का यह अर्थ नहीं है कि यदि ईश्वर की ओर से तुम्हारे लिए कोई बात निर्धारित हो तो तुम इससे बच जाओगे। इस आयत से पता चलता है कि ईश्वर की इच्छा और उसका आदेश इस संसार में सर्वोपरि है और हम उसे नहीं रोक सकते किन्तु हम जो बातें जानते और समझते हैं उनके अनुसार काम कर सकते हैं और साथ ही ईश्वर पर भरोसा कर सकते हैं कि जो वह चाहता है वही होता है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि सभी मामलों में चिंतन और युक्ति आवश्यक है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जो कुछ हम चाहते हैं वह हो कर ही रहेगा क्योंकि अंत में वही होता है जो ईश्वर की इच्छा होती है।<br />
हमें केवल ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए कि वही सर्वसमक्ष और हमारा हितैषी है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 68 <br />
और जब (हज़रत याक़ूब के पुत्र) उसी प्रकार मिस्र में प्रविष्ट हुए जैसा उनके पिता ने आदेश दिया था तो यद्यपि वे ईश्वरीय बला को टाल नहीं सकते थे किन्तु यह एक इच्छा थी जो याक़ूब के हृदय में पैदा हुई जिसे उन्होंने पूरा कर लिया और वे हमारे द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान के आधार पर ज्ञान वाले थे किन्तु अधिकांश लोग इसे नहीं जानते। (12:68)<br />
यह आयत एक बार फिर बल देकर कहती है कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्रों को जिन बातों की सलाह दी थी वे ईश्वरीय इच्छा को रोक नहीं सकती थीं और उनका प्रभाव केवल यह होता है कि हज़रत याक़ूब की इच्छा पूरी हो जाती और उन्हें यह सोच कर संतोष प्राप्त हो जाता कि वे उनकी सलाह के अनुसार काम करेंगे।<br />
आगे चलकर आयत कहती है कि अलबत्ता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम की यह सलाह भी उस ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर थी जो ईश्वर ने अपने पैग़म्बरों को प्रदान किया है और यह उनका व्यक्तिगत ज्ञान नहीं है। पैग़म्बरों ने मानवीय मतों में ज्ञान अर्जित नहीं किया है, इसी कारण वे साधारण लोगों की भांति नहीं हैं। उनका शिक्षक ईश्वर है और वे जो कुछ कहते और करते हैं वह ईश्वरीय शिक्षा के आधार पर होता है। अपने पुत्रों को हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम की सलाह भी इन्हीं शिक्षाओं के आधार पर थी।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर के प्रिय बंदों की प्रार्थना अवश्य स्वीकार होती है क्योंकि वे ईश्वर की इच्छा के अतिरिक्त कुछ चाहते ही नहीं।<br />
अधिकांश लोग, घटनाओं के विदित रूप और कारणों को ही देखते हैं और ईश्वरीय इच्छा की ओर से निश्चेत रहते हैं।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 69-73<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या उन्हत्तर<br />
और जब वे यूसुफ़ के पास पहुंचे तो उन्होंने अपने भाई (बिनायामिन) को अपने पास स्थान दिया और कहा कि मैं तुम्हारा भाई हूं तो जो कुछ वे करते हैं उससे दुखी न हो। (12:69)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि अंततः हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम इस बात के लिए तैयार हो गए कि अपने पुत्र बिनयामिन को उनके भाइयों के साथ अनाज लाने के लिए मिस्र भेजे।<br />
यह आयत कहती है कि जब वे मिस्र पहुंचे तो हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने किसी प्रकार बिनयामिन से एकांत में बात की और उन्हें अपना परिचय देकर उनकी चिंता को समाप्त कर दिया क्योंकि वे अपने भाइयों के व्यवहार की ओर से चिंतित थे और सोच रहे थे कि उनके भाई उन्हें भी यूसुफ़ की भांति उनके पिता से अलग कर देंगे। हज़रत यूसुफ़ ने बिनयामिन से कहा कि वे उन्हीं के साथ रहें। यह बात बिनयामिन ने स्वीकार कर ली।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि झूठ बोलना वर्जित है किन्तु हर सच बात कहना भी आवश्यक नहीं है। जब तक हज़रत यूसुफ़ ने उचित नहीं समझा अपने भाइयों को अपना परिचय नहीं दिया बल्कि केवल अपने एक भाई को अपने बारे में बताया।<br />
जब कोई अनुकंपा प्राप्त हो तो पिछली कटु घटनाओं को भूल जाना चाहिए, जब यूसुफ़ और बिनयामिन मिले तो उन्होंने पिछले दुख को भुला दिया।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 70 <br />
तो जब हज़रत यूसुफ़ ने उनका सामान तैयार करा दिया तो पानी पीने का (मूल्यवान) बर्तन अपने भाई के सामान में रखवा दिया। फिर एक पुकारने वाले ने कहा कि हे कारवां वालो! निश्चित रूप से तुम सब चोर हो। (12:70)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम चाहते थे कि बिनयामिन को अपने पास ही रोक लें ताकि उनके भाई अगली यात्रा में उनके पिता और अन्य परिजनों को मिस्र लाने पर विवश हो जाएं। इसी कारण उन्होंने यह बात बिनयामिन को बताई और एक योजना तैयार की, जिस प्रकार से कि उन्होंने पिछली बार भी अपनी भाइयों को दिए गए अनाज में उसका दाम वापस रख दिया था ताकि वे अनाज लेने पुनः वापस आएं।<br />
इस बार हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की योजना यह थी कि एक मूल्यवान बर्तन बिनयामिन के सामान में रखवा दिया जाए और उन्होंने ऐसा किया। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के कर्मचारियों को इस बात की सूचना नहीं थी अतः उन्होंने पूरे कारवां वालों को चोर कहा और उनके सामान की तलाशी ली।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि किसी अधिक आवश्यक कार्य के लिए योजना बनाना वैध है किन्तु इसकी शर्त यह है कि किसी पर अत्याचार न हो और निर्दोष व्यक्ति को पहले से ही इसकी सूचना दे दी गई हो।<br />
अपने सहयोगियों और साथियों की ओर से सचेत रहना चाहिए क्योंकि किसी गुट में एक ग़लत व्यक्ति की उपस्थिति इस बात का कारण बनती है कि लोग पूरे गुट को ही बुरा समझें।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 71 और 72 <br />
(यूसुफ़ के भाइयों ने) उनकी ओर मुड़कर कहा, तुमने क्या खो दिया है? (12:71) उन्होंने कहा कि हमसे शासक की नाप खो गई है और (शासक ने कहा है कि) जो कोई उसे लाएगा, उसे एक ऊंट के भार के बराबर अनाज दिया जाएगा और मैं इसका दायित्व लेता हूं। (12:72)<br />
हज़रत यूसुफ़ के कर्मचारियों को जब यह पता चला कि जिस नाप से लोगों को अनाज दिया जाता है वह खो गई है तो उन्होंने कारवां वालों के सामान की तलाशी आरंभ की और सबसे पहले हज़रत यूसुफ़ के भाइयों के सामान की तलाशी ली। हज़रत यूसुफ़ ने उस नाप को खोजने में प्रोत्साहन के लिए घोषणा की कि जो कोई उसे खोजकर लाएगा उसे एक ऊंट के भार के बराबर अनाज पुरस्कार स्वरूप दिया जाएगा और मैं स्वयं पुरस्कार के संबंध में उत्तरदायी हूं।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि किसी सार्थक कार्य में लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कार निर्धारित करना, ईश्वर की दृष्टि में स्वीकार्य और प्रिय कार्य तथा पैग़म्बरों की परंपरा है।<br />
पुरस्कार, लाभहीन और औपचारिक नहीं बल्कि समय की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए, अकाल के समय में सर्वोत्तम पुरस्कार एक ऊंट के भार के बराबर अनाज था।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 73 <br />
(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा, ईश्वर की सौगंध! तुम लोग जानते हो कि हम इस धरती में बिगाड़ पैदा करने के लिए नहीं आए हैं और हम कदापि चोर नहीं हैं। (12:73)<br />
जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों को यह पता चला कि उन्हें चोर समझा जा रहा है और इसीलिए उन्हें ऐसी दृष्टि से देखा जा रहा है तो उन्होंने अपना बचाव करते हुए कहा कि हम इससे पूर्व भी एक बार तुम्हारे देश में आ चुके हैं और हमने कोई अपराध या चोरी नहीं की थी तो अब तुम हमारे साथ इस प्रकार का व्यवहार क्यों कर रहे हो? तुम्हें तो ज्ञात है कि हम इस प्रकार का काम करने वाले लोग नहीं है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि अच्छा अतीत, कभी कभी लोगों के निर्दोष होने का प्रमाण होता है सिवाय इसके कि उनके अपराधी होने का कोई प्रबल प्रमाण हो।<br />
चोरी, धरती में बिगाड़ का एक प्रतीक है कि जो एक पूरे क्षेत्र के लोगों की तबाही का कारण बनती है।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 74-77, (कार्यक्रम 394)<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 74 और 75 <br />
(सरकारी कर्मचारियों ने) कहा, तो यदि तुम झूठे हुए तो उसका क्या दंड होगा? (12:74) (यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा कि जिसके भी सामान में वह नाप मिल जाए वह स्वयं ही उसका दंड होगा, हम इसी प्रकार अत्याचारियों को दंड देते हैं। (12:75)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाई बिनयामिन को अपने पास रोकने तथा अपने माता-पिता को मिस्र बुलाने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए एक योजना तैयार की और बिनयामिन को उससे अवगत करा दिया। उन्होंने शासक के मूल्यवान पियाले को बिनयामिन के सामान में छिपा दिया और जब सरकारी कर्मचारियों को पियाले के गुम हो जाने की सूचना मिली तो उन्होंने उसे खोजना आरंभ किया और बिनयामिन को चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया।<br />
किन्तु हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने चोरी के आरोप से अपना बचाव किया और कहा कि यदि तुम्हारा पियाला खो गया है तो इसमें हमारा कोई दोष नहीं है। सरकारी कर्मचारियों ने कहा कि यदि वह तुम लोगों के सामान में मिला तो तुम्हारा दंड क्या होगा? उन्होंने उत्तर में कहा कि हमारे क्षेत्र में यह परंपरा है कि यदि कोई चोरी करता है तो उसे उस व्यक्ति का दास बना दिया जाता है जिसके माल की चोरी हुई है ताकि उसकी क्षतिपूर्ति हो सके।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि अपराधी के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि वह स्वयं अपने बारे में अपनी अंतरात्मा के आधार पर निर्णय करे और सरलता से न्याय को स्वीकार कर ले।<br />
क़ानून के क्रियान्वयन में भेद-भाव से काम नहीं लेना चाहिए। चोर को गिरफ़्तार किया जाना चाहिए चाहे वह कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति ही क्यों न हो।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 76 <br />
तो अपने भाई के सामान से पहले उनके सामान की तलाशी ली और फिर पियाले को अपने भाई के सामान में से बाहर निकाला। इस प्रकार से हमने यूसुफ़ के हित में युक्ति की। वे (मिस्र के) शासक के क़ानून के अनुसार अपने भाई को अपने पास नहीं रोक सकते थे, सिवाय इसके कि ईश्वर चाहे। इस प्रकार हम जिसे चाहते हैं, उसे उच्च स्थान प्रदान करते हैं और हर जानकार के ऊपर एक दूसरा जानकार है। (12:76)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की योजना के अनुसार, उन्होंने अपने भाइयों के संदेह को रोकने के लिए पहले बड़े भाइयों के समान की तलाशी ली और फिर छोटे भाई बिनयामिन के सामान की तलाशी ली तथा मूल्यवान पियाला उनके सामान से बाहर निकाला और घोषणा की कि वे चोर हैं और जैसा कि उनके भाइयों ने कहा था कि उनके क्षेत्र में चोर का दंड यह होता है कि उसे उस व्यक्ति का दास बना दिया जाता है जिसके सामान की चोरी होती है।<br />
क़ुरआने मजीद कहता है कि इस प्रकार की युक्ति ईश्वर ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को सिखाई थी अन्यथा उनके पास अपने भाई को रोकने का कोई मार्ग नहीं था। यदि उनके भाई अपने क्षेत्र की परंपरा के बारे में नहीं बताते तो मिस्र के क़ानून के अनुसार हज़रत यूसुफ़ बिनयामिन को चोरी के आरोप में अपने पास नहीं रोक सकते थे।<br />
आगे चलकर आयत कहती है कि मिस्र में हज़रत यूसुफ़ को जो उच्च स्थान प्राप्त हुआ था वह ईश्वर की इच्छा के अनुसार था कि जिसका ज्ञान, हर प्रकार के ज्ञान के ऊपर और उससे श्रेष्ठ है और ईश्वर सदैव यूसुफ़ के मन में नई नई युक्तियां डालता था ताकि वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि किसी भी देश के क़ानूनों का पालन उसमें रहने वालों के लिए आवश्यक है चाहे उसकी सरकार ग़ैर ईश्वरीय क्यों न हो, अलबत्ता यदि वह क़ानून, ईश्वरीय आदेशों के विपरीत हो तो वहां से पलायन कर जाना चाहिए, ईश्वरीय क़ानून का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।<br />
ज्ञान, श्रेष्ठता व वरीयता का कारण है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 77 <br />
(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा कि यदि उसने चोरी की है तो इससे पूर्व उसका भाई भी चोरी कर चुका है। यूसुफ़ ( इस बात से अप्रसन्न हुए किन्तु अपनी इस अप्रसन्नता को मन में) छिपाए रहे और उनके समक्ष इसे व्यक्त नहीं किया। उन्होंने कहा कि तुम बहुत ही बुरे लोग हो और जो कुछ तुम कह रहे हो इसके बारे में ईश्वर ही अधिक जानने वाला है। (12:77)<br />
यद्यपि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने चोरी नहीं की थी किन्तु उन्हें यह भी पता था कि उनके भाई बिनयामिन ने भी चोरी नहीं की है, अतः आशा यह थी कि वे अपने छोटे भाई का बचाव करते और उन पर लगे निराधार आरोप को समाप्त करने का प्रयास करते किन्तु मानो वे भी यही चाहते थे कि बिनयामिन को चोरी के आरोप में मिस्र में ही रोक लिया जाए और वे उनके बिना ही अपने पिता के पास लौटें क्योंकि उनके पिता बिनयामिन से भी बहुत अधिक प्रेम करते थे जबकि वे चाहते थे कि हज़रत याक़ूब का ध्यान उनकी ओर अधिक हो।<br />
किन्तु हज़रत यूसुफ़ के दुष्ट भाइयों ने न केवल यह कि अपने छोटे भाई का बचाव नहीं किया बल्कि अपने दूसरे भाई यूसुफ़ पर भी अकारण चोरी का आरोप लगाया ताकि सरकारी कर्मचारियों का संदेह और अधिक दृढ़ हो जाए और वे बिनयामिन को गिरफ़्तार करके मिस्र में ही रोक लें और हुआ भी ऐसा ही।<br />
आगे चलकर आयत कहती है कि यद्यपि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम सत्ता में थे और बड़ी सरलता से अपने भाइयों को दिए जाने वाले अनाज को वापस ले सकते थे या उन सभी को चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर सकते थे किन्तु उन्होंने धैर्य व संयम से काम लिया और अपने ऊपर लगने वाले चोरी के आरोप को भी क्षमा कर दिया। उन्होंने कहा कि जो कुछ तुम कह रहे हो उसके बारे में ईश्वर बेहतर जानता है किन्तु मेरी दृष्टि में तुम्हारी वर्तमान स्थिति उस बात से कहीं बुरी है जो तुम अपने भाइयों के बारे में कह रहे हो। शासक का पियाला तुम लोगों के सामान में से मिला है और इसका दंड साधारण नहीं है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए लोगों के कटाक्षों को सहन करना और धैर्य से काम लेना पड़ता है।<br />
रहस्योद्धाटन हर स्थान पर उचित नहीं होता बल्कि अधिकतर अवसरों पर दूसरों के रहस्यों को छिपाना, बहुत आवश्यक होता है, विशेषकर शासकों के लिए जिनका पद सबसे उच्च होता है और उन्हें सार्वजनिक हितों को अपने व्यक्तिगत मामलों की भेंट नहीं चढ़ाना चाहिए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 78-82, (कार्यक्रम 395)<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 78 और 79 <br />
(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा, हे मिस्र के शासक! उसके एक बहुत वृद्ध पिता हैं तो हम में से किसी एक को उसके स्थान पर ले लो कि निश्चित रूप से हमारी दृष्टि में तुम एक भले व्यक्ति हो। (12:78) यूसुफ़ ने कहा कि मैं ईश्वर की शरण चाहता हूं इस बात से कि जिसके पास हम अपना समान पाएं उसके अतिरिक्त किसी अन्य को पकड़ लें, ऐसी स्थिति में तो हम निश्चित रूप से अत्याचारियों में से हो जाएंगे। (12:79)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने एक योजना के अंतर्गत मिस्र के शासक का मूल्यवान पियाला अपने छोटे भाई बिनयामिन के सामान में रखवा दिया और फिर उन्हें चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया, अलबत्ता उन्होंने इसकी सूचना पहले ही बिनयामिन को दे दी थी।<br />
यह आयत कहती है कि जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने देखा कि बिनयामिन को गिरफ़्तार कर लिया गया है और वे उनके बिना ही अपने घर वापस लौटने पर विवश हैं तो वे चिंतित हो गए। उन्हें वह वचन याद आया जो उन्होंने अपने पिता को दिया था, अतः उन्होंने प्रस्ताव दिया कि बिनयामिन के स्थान पर कोई दूसरा भाई मिस्र में रह जाए ताकि वे अपने पिता के पास लौट सकें।<br />
किन्तु चूंकि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम बिनयामिन से इस संबंध में पहले ही बात कर चुके थे अतः उन्होंने अपने भाइयों के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और इसे मिस्र के क़ानून के विरुद्ध बताया। इसके अतिरिक्त यदि वे किसी अन्य भाई को बिनयामिन के स्थान पर रोक लेते तो उनके भाई घर वापस लौट कर बिनयामिन को चोर बताते और स्वयं भी उन्हें यातनाएं देते।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि जो लोग यूसुफ़ को अपमानित करना चाहते थे आज उन्हें मिस्र का शासक कहने पर विवश थे। यह ईश्वर का क़ानून है कि वह अत्याचारियों को अपमानित और अत्याचारग्रस्तों को सम्मानित करता है।<br />
नियमों और क़ानूनों का पालन हर एक के लिए आवश्यक है और सरकारी अधिकारियों के लिए भी वैध नहीं है कि वे क़ानून का उल्लंघन करें।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 80 <br />
तो जब (यूसुफ़ के भाई) उसकी (मुक्ति की) ओर से निराश हो गए तो अलग जाकर परामर्श करने लगे। उनके बड़े भाई ने कहा कि क्या तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे पिता ने (बिनयामिन को वापस लाने के संबंध में) तुम से ईश्वरीय वचन लिया था और इससे पूर्व तुम लोग यूसुफ़ के मामले में भी ढिलाई कर चुके हो अतः मैं तो इस स्थान से तब तक वापस नहीं जाऊंगा जब तक मेरे पिता मुझे अनुमति न दे दें या ईश्वर मेरे बारे में कोई निर्णय न कर दे कि वह सबसे अच्छा निर्णय करने वाला है। (12:80)<br />
जब हज़रत यूसुफ़ के भाई उनकी ओर से निराश हो गए तो उन्होंने वापस लौटने का इरादा किया किन्तु बड़े भाई ने लौटने से इन्कार कर दिया और कहा कि पिता की दृष्टि में हमारा जो अतीत है उसे देखते हुए मैं वापस नहीं लौटूंगा सिवाय इसके कि पिता किसी तरह से मुझे अनुमति दें या ईश्वर मेरा फ़ैसला करे अथवा मुझे कोई दूसरा मार्ग सुझाए क्योंकि मैं वर्तमान स्थिति में पिता के पास लौट कर नहीं जा सकता।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि अन्य लोगों यहां तक कि अपने भाइयों और परिजनों के अनुरोध और आग्रह से भी क़ानून के पालन में रुकावट नहीं आनी चाहिए, बल्कि दृढ़ता के साथ क़ानून को लागू करना चाहिए।<br />
वचन लेने से लोग अपने दायित्वों का अधिक गंभीरता से पालन करते हैं।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 81 और 82 <br />
(यूसुफ़ के बड़े भाई ने कहा) तुम लोग अपने पिता की ओर लौट जाओ। उनसे कहना कि हे पिता! तुम्हारे पुत्र ने चोरी की है और हमने केवल उसकी बात की गवाही दी है जिसका हमें ज्ञान था और हम ग़ैब अर्थात ईश्वरीय ज्ञान से अवगत नहीं हैं (12:81) और (यदि आपको हमारी बातों पर विश्वास न हो तो) आप उस बस्ती (के लोगों) से पूछ लें जिसमें हम थे और उस कारवां से भी जिसमें हम वापस लौटे हैं (ताकि आपको विश्वास हो जाए) कि निश्चित रूप से हम सच्चे हैं। (12:82)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों की वार्ता में बड़े भाई ने कहा कि मैं मिस्र में ही रुकूंगा ताकि शायद मिस्र के शासक को दया आ जाए और वह बिनयामिन को स्वतंत्र कर दे। इसी के साथ उसने अपने भाइयों से कहा कि वे अपने पिता के पास वापस लौट जाएं और जो कुछ देखा और समझा है, उसे उन्हें बता दें। इस संबंध में वे कारवां के लोगों को अपनी बात की पुष्टि करने के लिए पेश कर सकते हैं। उन्हें अपने पिता से कहना चाहिए कि बिनयामिन को चोर के रूप में गिरफ़्तार कर लिया गया है और मैं उसे स्वतंत्र कराने के लिए मिस्र में रुक गया हूं।<br />
अलबत्ता हज़रत यूसुफ़ के बड़े भाई ने जो कुछ कहा था वह सच था किन्तु उन लोगों का बुरा अतीत इस बात का कारण बनता कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम उनकी बातों पर विश्वास न करते और सोचते कि उन्होंने यूसुफ़ की भांति बिनयामिन को भी उनसे अलग करने के लिए कोई षड्यंत्र रचा है। इसी कारण बड़े भाई ने किसी को साक्षी के रूप में प्रस्तुत करने के बारे में सोचा ताकि पिता का संदेह समाप्त हो जाए।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि जब तक ठोस प्रमाण और साक्ष्य न मिल जाए तब तक आरोपियों के संबंध में निर्णय करते समय जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। हज़रत यूसुफ़ के बड़े भाई ने कहा कि बिनयामिन को चोरी के आरोप में पकड़ा गया है किन्तु हमें वास्तविकता का ज्ञान नहीं है<br />
बुरा अतीत, मनुष्य की सच्ची बात के संबंध में भी लोगों के संदेह का कारण बनता है, हमें अपने अतीत के संबंध में बहुत सतर्क रहना चाहिए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 83-86, (कार्यक्रम 396)<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 83 और 84 <br />
(हज़रत याक़ूब ने) कहा, तुम्हारे मन (की इच्छाओं) ने, मामले को इस प्रकार तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत किया अतः अब भली प्रकार से धैर्य से काम लेना आवश्यक है। आशा है कि ईश्वर उन सबको मुझे लौटा दे कि निसंदेह वही सबसे अधिक जानकार और तत्वदर्शी है। (12:83) और वे (अपने पुत्रों से) मुंह फेरकर बैठ गए और कहा, हाय यूसुफ़! और इसके बाद दुख के मारे उनकी दोनों आखें सफ़ेद हो गईं किन्तु वे अपने क्रोध को पीते रहे। (12:84)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई अपने पिता के पास लौटे जबकि बिनयामिन हज़रत यूसुफ़ के पास मिस्र में ही रुके रहे। उनके भाइयों ने जो कुछ देखा था उसके आधार पर उन्होंने बिनयामिन को चोर बताया।<br />
इन आयतों में हज़रत याक़ूब अपने बेटों से कहते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि इस बार भी तुम्हारी आंतरिक इच्छाओं ने एक बुरे कर्म को तुम्हें सुंदर बना कर दिखाया जिसके परिणाम स्वरूप बिनयामिन को मिस्र में ही रुकना पड़ा और मुझे यूसुफ़ के साथ ही बिनयामिन का भी विरह सहना करना पड़ेगा किन्तु मैं धैर्य करूंगा और मुझे आशा है कि ईश्वर उन्हें अवश्य लौटाएगा और हम सब पुनः एक साथ जीवन व्यतीत करेंगे।<br />
अलबत्ता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम का धैर्य वेदना और दुख के साथ था और वे अपने पुत्रों के विरह में इतना रोए कि उनकी आखें चली गईं क्योंकि वे अपने दुख को ज़बान पर नहीं लाते थे किन्तु उनका मन बहुत अधिक दुखी रहता था। यद्यपि हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने इस बार कोई ग़लती नहीं की थी और वे बिनयामिन को कोई क्षति भी नहीं पहुंचाना चाहते थे किन्तु ये समस्याएं, यूसुफ़ के बारे में उनके बुरे व्यवहार की याद दिलाती थीं, यही कारण था कि हज़रत याक़ूब ने इस स्थान पर भी अपने पुत्रों की आलोचना की और स्वयं को धैर्य व संयम की सिफ़ारिश की, अलबत्ता ऐसा धैर्य जिसमें ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कुछ न कहा जाए।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर पर ईमान रखने वाला व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में धैर्य करता है क्योंकि वह जानता है कि कठिनाइयां, अकारण नहीं होतीं और ईश्वर मनुष्य की सभी बातों से अवगत है।<br />
अपने प्रियजनों के विरह पर रोना एक स्वाभाविक बात है, ईश्वर के प्रिय बंदे भी इससे अपवाद नहीं हैं।<br />
यूसुफ़ का महत्त्व इतना अधिक था कि उनके पिता उनके विरह में रोते रोते अंधे हो गए, यहां तक कि जब उन्हें बिनयामिन के बंदी बनाए जाने का समाचार मिला तब भी उन्होंने यूसुफ़ का नाम लिया और उनके विरह पर दुखी हुए।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 85 <br />
(हज़रत याक़ूब के पुत्रों ने) कहा, ईश्वर की सौगंध! आप यूसुफ़ को इतना याद करेंगे कि बीमार पड़ जाएंगे अथवा प्राण त्याग देंगे। (12:85)<br />
स्पष्ट है कि मिस्र में बिनयामिन के गिरफ़्तार कर लिए जाने से हज़रत याक़ूब का घाव हरा हो गया और वे हज़रत यूसुफ़ को याद करने लगे किन्तु उनके भाई जो उनके अस्तित्व को सहन नहीं कर सकते थे, यह नहीं चाहते थे कि उनके पिता यूसुफ़ का नाम लें अतः उन्होंने हज़रत याक़ूब से कहा कि यदि उनकी यही स्थिति रही तो यूसुफ़ का दुख आपकी जान ले लेगा। उसे भूल जाइये क्योंकि हमने स्वयं अपनी आंखों से देखा था कि भेड़िया उसे खा गया था, आप स्वयं को क्यों इतना तड़पाते हैं।<br />
अलबत्ता यह बात भी स्पष्ट है कि वही यूसुफ़ के विरह में तड़पेगा जो उनके गुणों से अवगत होगा। उन भाइयों को यूसुफ़ से क्या प्रेम होगा जो उन पर पिता के स्नेह से ईर्ष्या करते हों और किसी न किसी प्रकार उन्हें पिता से दूर करने का षड्यंत्र रचते हों।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि हज़रत याक़ूब, हज़रत यूसुफ़ के गुणों को पहचान कर उनसे प्रेम करते थे और यही कारण था कि वे सदैव उन्हें याद करते रहते थे। हमें भी यह देखने के लिए कि हम ईश्वर से कितना प्रेम करते हैं, यह देखना चाहिए कि हम उसे कितना याद करते हैं।<br />
हमें भौतिक प्रेम के स्थान पर वास्तविकता और गुणों से प्रेम करना चाहिए।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 86 <br />
याक़ूब ने कहा, मैं अपने (प्रकट) दुख और (छिपे) शोक की शिकायत केवल ईश्वर के समक्ष करता हूं और मैं ईश्वर की ओर से वह कुछ जानता हूं जो तुम नहीं जानते। (12:86)<br />
क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों से पता चलता है कि ईश्वर के प्रिय बंदे अपने दुखों व कठिनाइयों का उल्लेख ईश्वर से करते हैं और उससे अपनी कठिनाइयों और समस्याओं के सामाधान की प्रार्थना करते हैं। जैसा कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अपनी दरिद्रता की समाप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की और हज़रत अय्यूब अलैहिस्सलाम ने ईश्वर से अपने रोग और अन्य समस्याओं की समाप्ति का निवेदन किया।<br />
इस आयत में हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ईश्वर से अपने पुत्र के वियोग की शिकायत करते हैं क्योंकि पैग़म्बरों की दृष्टि में अनुकंपाएं प्रदान करना ईश्वर की कृपा है जबकि उन्हें वापस लेना उसकी तत्वदर्शिता के आधार पर होता है अतः दोनों परिस्थितियों में ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करना चाहिए किन्तु इसी के साथ कठिनाई की समाप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए।<br />
इसके अतिरिक्त यह बात भी थी कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्ससलाम को विश्वास था कि हज़रत यूसुफ़ जीवित हैं, क्योंकि उन्होंने जो स्वप्न देखा था वह इस बात की पुष्टि करता था। यदि उन्हें यह ज्ञात होता कि हज़रत यूसुफ़ अब इस संसार में नहीं हैं तो वे उन्हें भुला सकते थे।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि अपनी समस्याओं के बारे में लोगों से शिकायत करना निंदनीय है किन्तु ईश्वर के समक्ष गिड़गिड़ाना, ईश्वर के पवित्र बंदों की शैली है।<br />
कभी भी ईश्वर की कृपा की ओर से निराश नहीं होना चाहिए, उज्जवल भविष्य की आशा रखना, ईश्वर के प्रिय बंदों की एक विशेषता है।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 87-89, <br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 87 <br />
(हज़रत याक़ूब ने कहा) हे मेरे बच्चो! जाओ और यूसुफ़ तथा उसके भाई को खोजो और ईश्वर की दया से निराश न हो कि निश्चित रूप से ईश्वर की दया से काफ़िर गुट के अतिरिक्त कोई निराश नहीं होता। (12:87)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि जब हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के पुत्रों ने उन्हें बिनयामिन को मिस्र में रोक लिए जाने की सूचना दी तो उन्हें अपने दूसरे पुत्र हज़रत यूसुफ़ की याद आ गई और वे ईश्वर के समक्ष बहुत रोए और गिड़गिड़ाए और उससे प्रार्थना की कि वह उनके पुत्रों को लौटा दे।<br />
चूंकि हज़रत याक़ूब, अपने पुत्र यूसुफ़ द्वारा देखे गए स्वप्न के आधार पर जानते थे कि वे जीवित हैं और बहुत ही उच्च स्थान तक पहुंचेगे अतः उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि वे मिस्र वापस जाएं और यूसुफ़ के बारे में पूछताछ करें और उन्हें खोजकर लाएं और साथ ही बिनयामिन को स्वतंत्र करने का मार्ग खोजें और सबको लेकर उनके पास आएं।<br />
हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्रों को यूसुफ़ को खोजने के संबंध में आशावान बनाने के लिए और अपनी बात का तर्क प्रस्तुत करने के लिए कहा कि ईश्वर पर ईमान रखने वाला व्यक्ति कभी भी उसकी दया व कृपा की ओर से निराश नहीं होता और ईश्वर की दया की ओर से निराशा, कुफ़्र की निशानी है।<br />
इस आयत में आशा के लिए जो शब्द प्रयोग किया गया है वह रौह है जिसका मूल तत्व रीह अर्थात हवा है। इसका अर्थ यह है कि हवा चलने से मनुष्य शांति व संतोष का आभास करता है। क़ुरआने मजीद के कुछ व्याख्याकारों का कहना है कि रौह शब्द, रूह अर्थात प्राण से लिया गया है। क्योंकि जब मनुष्य की समस्याएं दूर हो जाती हैं तो उसे ऐसा लगता है कि जैसे उसमें नए प्राण फूंक दिए गए हों।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वरीय दया व कृपा की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। घर में बैठकर ईश्वरीय दया की आशा रखना निरर्थक है। हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने भी अपने पुत्रों से कहा कि यूसुफ़ को खोजने का प्रयास करो और ईश्वरीय दया की ओर से भी निराश मत हो।<br />
ईश्वर के प्रिय बंदे सदैव लोगों को ईश्वरीय कृपा की ओर से आशावान रखते हैं और लोगों को निराश करने वाले, ईश्वरीय धर्म से दूर होते हैं।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 88 <br />
तो जब वे यूसुफ़ के पास पहुंचे तो कहा कि हे (मिस्र के) शासक! हमें और हमारे परिवार को भयंकर अकाल ने चपेट में ले लिया है और हम (अनाज ख़रीदने के लिए) बहुत थोड़ा माल लेकर आए हैं तो हमें हमारा पूरा भाग दे दो और हम पर उपकार करो कि निसंदेह ईश्वर उपकार करने वालों को भला बदला देता है। (12:88)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई जब तीसरी बार उनके पास गए तो उन्होंने बहुत ही गिड़गिड़ा कर उनसे कहा कि इस बार वे अनाज ख़रीदने के लिए बहुत थोड़े पैसे लेकर आए हैं किन्तु उन्हें आशा है कि उन्हें पूरा भाग दिया जाएगा।<br />
उन्होंने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम से अनुरोध किया कि वे पहली बार की भांति जब उन्होंने उनके पैसे लौटा दिए थे, इस बार उनसे पूरे पैसे न लें और उनके साथ दया व कृपा का व्यवहार करें।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि दरिद्रता और आवश्यकता, मनुष्य के अहं को तोड़ देती है, वे भाई जो बहुत घमंड से कहा करते थे कि हम शक्तिशाली गुट हैं और सोचते थे कि उनके पिता ग़लती पर हैं, आज वे गिड़गिड़ा कर अनाज मांग रहे हैं।<br />
ईश्वरीय प्रतिफल, लोगों में दूसरों की सेवा व सहायता की दृढ़ प्रेरणा उत्पन्न करता है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 89<br />
(हज़रत यूसुफ़ ने) कहा, क्या तुम्हें पता चल गया कि तुमने यूसुफ़ और उसके भाई के साथ क्या किया जब तुम अज्ञानी थे? (12:89)<br />
अनाज प्राप्त करने के लिए अपने भाइयों की ओर से गिड़गिड़ा कर किए गए अनुरोध ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की पवित्र और प्रेम से भरी आत्मा पर इतना प्रभाव डाला कि वे उनके साथ अपने संबंध और अपने ऊपर बीतने वाली घटनाओं को छिपा नहीं सके। अतः उन्होंने एक अर्थपूर्ण प्रश्न पूछकर अपने भाइयों को चौंका दिया और वे उन्हें पहचान गए। हज़रत यूसुफ़ ने यह कहने के स्थान पर कि मैं वही यूसुफ़ हूं और तुम मेरे वही दोषी भाई हो, यह कहा कि क्या तुम्हें याद है कि तुमने उस समय यूसुफ़ और उसके भाई बिनयामिन के साथ अज्ञानता में क्या किया था जब तुम अहंकारी युवा थे?<br />
उन्होंने यह प्रश्न पूछ कर अपने भाइयों को यह समझा दिया कि उन्हें अपने और उनके बारे में सब कुछ पता है और यदि आज वे विवश होकर उनसे भलाई की आशा रखते हैं तो उन्हें भी अपने बुरे अतीत के संबंध में ईश्वर से क्षमा मांगते हुए तौबा व प्रायश्चित करना चाहिए।<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के इस व्यवहार में जो बिन्दु सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह है कि उन्होंने अपने भाइयों से कहा कि तुम ने यह सब जान बूझकर नहीं बल्कि अज्ञानता के कारण किया, मानो वे उनसे कह रहे हों कि इसमें तुम्हारा बहुत अधिक दोष नहीं था, तुम शैतान के धोखे में आ गए और ऐसा ग़लत काम कर बैठे। तुम तो मेरे भाई हो और तुम मेरे साथ कोई बुराई नहीं करना चाहते थे, यह तो शैतान था जिसने हमारे बीच जुदाई डाल दी और यह सारी समस्याएं उत्पन्न कीं। जैसा कि इसी सूरे की आयत नंबर एक सौ में भी यही बात कही गई है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि अन्य लोगों विशेषकर अपने सगे संबंधियों के बारे में किया जाने वाला अत्याचार, भुलाया नहीं जा सकता और किसी न किसी दिन अवश्य ही सामने आता है।<br />
शौर्य कहता है कि कल जिन लोगों ने हम पर अत्याचार किया था और आज उन्हें हमारी आवश्यकता है, सत्ता प्राप्त होने पर हमें उनके साथ भलाई का व्यवहार करना चाहिए, प्रतिशोध नहीं लेना चाहिए।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 90-92, <br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 90 <br />
(हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा, क्या तुम ही यूसुफ़ हो? उन्होंने कहा, (हां) मैं ही यूसुफ़ हूं और यह मेरा भाई है। ईश्वर ने हम पर कृपा की है, निश्चत रूप से जो कोई ईश्वर से डरे और संयम से काम ले तो ईश्वर कभी भी भलाई करने वालों के प्रतिफल को व्यर्थ नहीं जाने देता। (12:90)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने उसके समक्ष अपने दुखों और कठिनाइयों का वर्णन किया तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने स्वयं को पहचनवाने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से उनसे पूछा कि क्या तुम्हें इस बात का ज्ञान है कि यूसुफ़ और उनके भाई पर क्या बीती?<br />
सहसा ही उनके भाइयों को यह आभास हुआ कि यह व्यक्ति उनके भाई यूसुफ़ के बारे में कैसे जानता है? उन्होंने सोचना आरंभ किया और फिर उनके मन में यह बात आई कि कहीं यह व्यक्ति यूसुफ़ ही न हो? आयत कहती है कि वे एक साधारण से प्रश्न से यह समझ गए कि उनके भाई यूसुफ़ आज किस स्थान तक पहुंच चुके हैं किन्तु हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने इन सारी बातों को ईश्वर का उपकार बताते हुए कहा कि ईश्वर ने हम पर कृपा की और आज हम सब को एकत्रित कर दिया।<br />
स्वाभाविक है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की ओर से इस प्रकार के व्यवहार ने उनके भाइयों को अधिक लज्जित कर दिया होगा जिन्होंने उन पर बहुत अत्याचार किए थे किन्तु दूसरी ओर वे अत्याधिक प्रसन्न भी थे और अपनी इस प्रसन्नता को छिपा नहीं पा रहे थे। शायद यूसुफ़ को गले लगाना, उनके जीवन का सबसे स्मरणीय पल था जिसने लज्जा और प्रसन्नता को एकत्रित कर दिया था।<br />
किन्तु क़ुरआने मजीद इस प्रकार की भावनाओं के उल्लेख के स्थान पर कि जो बहुत ही स्वाभाविक होती हैं और ऐसी परिस्थितियों में सभी लोगों के भीतर उत्पन्न हो सकती हैं, इस ईश्वरीय कृपा के कारणों का उल्लेख करते हुए कहता है, यदि हज़रत यूसुफ़ को इस प्रकार का उच्च स्थान प्राप्त हुआ तो उसका कारण यह है कि वे पाप के समक्ष झुके नहीं बल्कि डटे रहे और ईश्वर, इस प्रकार के लोगों के बदले को व्यर्थ नहीं जाने देता बल्कि इसी संसार में उन्हें सम्मान और सत्ता प्रदान करता है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि बहुत सी वास्तविकताएं समय बीतने के बाद स्पष्ट होती हैं और जो बात सदैव रहने वाली है वह सत्य है।<br />
सत्ता के योग्य वह होता है जो कटु घटनाओं, सत्ता और आंतरिक इच्छाओं के संबंध में भलि भांति परीक्षा में उत्तीर्ण हो।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 91 और 92 <br />
(हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा, ईश्वर की सौगंध! ईश्वर ने तुम्हें हम पर श्रेष्ठता प्रदान की है, और हम ही दोषी थे। (12:91) उन्होंने कहा, आज तुम्हारी कोई पकड़ नहीं है, ईश्वर तुम्हें क्षमा करे और वह सबसे अधिक क्षमाशील है। (12:92)<br />
जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने उन्हें पहचान लिया और उनके भले व्यवहार को देखा तो अपने पिछले रवैये पर लज्जित हुए और उन्होंने उनके संबंध में किए गए अत्याचार को स्वीकार किया और कहा कि तुम हर दृष्टि से हम से उत्तम और श्रेष्ठ हो और हमने आकारण तुमसे ईर्ष्या की।<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने एक बार फिर महानता का प्रदर्शन करते हुए कि जो हुआ सो हुआ अब उसके बारे में बात न करें और आज के विचार में रहें कि हम सब एकत्रित और सकुशल हैं अतः आज अपने आपको धिक्कारने की आवश्यकता नहीं है। यदि आप लोगों ने अतीत में कोई ग़लती की भी है तो आशा है कि ईश्वर आप लोगों को क्षमा कर देगा।<br />
इस्लाम के आरंभिक काल में भी जब इस्लामी सेना ने मक्का नगर पर विजय प्राप्त की तो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के कुछ साथियों ने अनेकेश्वरवादियों से प्रतिशोध लेने की योजना बनाई किन्तु पैग़म्बर ने कहा कि आज दया का दिन है और उन्होंने आम क्षमा की घोषणा की। इसके बाद आपने प्रतिशोध लेने की योजना बनाने वालों से कहा कि आज मैंने वही काम किया है जो मेरे भाई यूसुफ़ ने अपने पापी भाइयों के साथ किया था और उन्हें क्षमा कर दिया था।<br />
इस्लामी शिक्षाओं में इस बात पर बहुत अधिक बल दिया गया है कि जब किसी को शक्ति और सत्ता प्राप्त हो जाए तो उसे उन लोगों को क्षमा कर देना चाहिए कि यह कार्य सत्ता की प्राप्ति पर ईश्वर के प्रति कृतज्ञता जताने के समान है। अलबत्ता हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की महानता इससे कहीं अधिक थी कि वे केवल अपने भाइयों को क्षमा करते अतः उन्होंने ईश्वर से अपने भाइयों को क्षमा करने की प्रार्थना की और उन्हें आशा दिलाई कि ईश्वर उन्हें क्षमा कर देगा। स्वाभाविक है कि जहां ईश्वर का बंदा क्षमा करे वहां ईश्वर से क्षमा के अतिरिक्त किसी अन्य बात की आशा नहीं रखी जा सकती।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि ईर्ष्या के कारण किसी के गुणों को छिपाना नहीं चाहिए क्योंकि एक दिन ऐसा आता है जब हमें अपमान के साथ उसे स्वीकार करना पड़ता है।<br />
यदि हम अपने आप को समझें और उसे स्वीकार करें तो ईश्वर की ओर से उन्हें क्षमा किए जाने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।<br />
जिन लोगों ने हम पर अत्याचार किया है और अपने कार्य से लज्जित हैं, उन्हें क्षमा कर देना चाहिए और उन पर कटाक्ष नहीं करना चाहिए।<br />
सत्ता और शक्ति की चरम सीमा पर क्षमा करना, ईश्वर के प्रिय बंदों का चरित्र है।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 93-95, (कार्यक्रम 399)<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 93 <br />
(हज़रत यूसुफ़ ने) कहा, मेरी इस क़मीस को ले जाओ और इसे मेरे पिता के चेहरे पर डाल दो तो (उनकी आंखें वापस आ जाएंगी और वे) देखने लगेंगे और फिर अपने सभी परिजनों को लेकर मेरे पास आओ। (12:93)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि अंततः हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने उन्हें पहचान लिया और अतीत में अपने बुरे व्यवहार के कारण लज्जित हो कर उनसे क्षमा मांगी किन्तु हज़रत यूसुफ़ की महानता इससे कहीं अधिक थी कि वे अपने भाइयों को दंडित करते। उन्होंने बहुत स्नेह से अपने भाइयों को गले लगाया और कहा कि मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह भी तुम्हारी ग़लतियों को क्षमा करे।<br />
जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम और उनके भाइयों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित हो गया तो उनके भाइयों ने इस दौरान जो कुछ उनके और उनके पिता के साथ हुआ था सब कुछ हज़रत यूसुफ़ को सुनाया और कहा कि उनके वियोग में हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम इतना रोए हैं कि उनकी आंखें चली गई हैं। अतः हज़रत यूसुफ़ ने उन लोगों को अपनी क़मीस दी और कहा कि वे इसे पिता के पास लेकर जाएं और उनके मुख पर डाल दें, इससे उनकी आंखें लौट आएंगी।<br />
रोचक बात यह है कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम स्वयं पैग़म्बर थे और उनकी प्रार्थना अवश्य स्वीकार होती किन्तु ईश्वर ने यह निर्धारित किया था उनके पुत्र की क़मीस उनकी आंखों के ठीक होने का कारण बने, इससे पता चलता है कि न केवल ईश्वर के प्रिय और पवित्र बंदों का अस्तित्व ही भलाई और अनुकंपा का कारण है बल्कि उनके वस्त्र से भी अनुकंपाएं और विभूतियां प्राप्त की जा सकती हैं। इसमें वस्त्र के रंग और प्रकार की कोई भूमिका नहीं है, महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह ईश्वर के किसी प्रिय व पवित्र बंदे के साथ रहा हो।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर के प्रिय बंदों से संबंधित वस्तुओं से विभूति प्राप्त करना वैध है और वे दुखों और रोगों को समाप्त कर सकती हैं।<br />
दुख भरी यादें रखने वालों के वातावरण को परिवर्तित करने से उन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने परिवार को मिस्र बुलाकर उनके वातावरण को परिवर्तित करने का प्रयास किया।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 94 और 95<br />
और जब कारवां (मिस्र से) रवाना हुआ तो उनके पिता ने कहा, यदि तुम यह न समझो कि मेरा दिमाग़ चल गया है तो निश्चित रूप से मुझे यूसुफ़ की सुगंध का आभास हो रहा है (12:94) (उन्होंने) कहा कि ईश्वर की सौगंध! आप तो अब भी अपने पुराने भ्रम में पड़े हुए हैं। (12:95)<br />
हज़रत याक़ूब और हज़रत यूसुफ़ अलैहिमस्सलाम के बीच आत्मिक संबंध इतना प्रगाढ़ था कि जब हज़रत यूसुफ़ की क़मीस लेकर कारवां मिस्र से रवाना हुआ तो हज़रत याक़ूब ने जो वर्तमान सीरिया में थे, उसके अस्तित्व का आभास कर लिया। चूंकि वे जानते थे कि उनके परिवार वालों में से कोई भी उनकी बात को स्वीकार नहीं करेगा, अतः उन्होंने कहा कि यदि तुम मुझे पागल न समझो तो मैं तुम्हें बता रहा हूं कि मुझे यूसुफ़ की सुगंध का आभास हो रहा है।<br />
स्वाभाविक सी बात है कि परिवार के लोग उनके निकट थे वे उनसे कहते कि यूसुफ़ की मृत्यु को कई वर्ष बीत चुके हैं और आप अब भी यही समझते हैं कि वे जीवित हैं। आप कह रहे हैं कि मुझे उनकी सुगंध का आभास हो रहा है यह सारी बातें आपके पिछले भ्रम का परिणाम हैं।<br />
यह बात कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम को इतनी दूर से अपने पुत्र के अस्तित्व का किस प्रकार से आभास हो गया तो इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि यह पैग़म्बरों को प्राप्त विशेष ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर भी हो सकता है, उदाहरण स्वरूप कोई माता अपनी संतान से बहूत दूर होने के बावजूद कभी कभी उसके बारे में चिंतित और व्याकुल हो जाती है और बाद में पता चलता है कि उसी समय उसकी संतान किसी कठिनाई या समस्या में ग्रस्त हो गई थी।<br />
अब यह भी प्रश्न मन में आ सकता है कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम को उसी समय इस प्रकार का आभास क्यों न हुआ जब हज़रत यूसुफ़ को कुएं में डाला गया या कारावास में डाला गया? और उन्होंने पहले इस प्रकार की बात क्यों न कही? इसका उत्तर यह है कि यह बात ईश्वर के गुप्त ज्ञानों में से हैं और उसी के हाथ में है तथा मनुष्य की उसमें कोई भूमिका नहीं है। ईश्वर ने इरादा किया था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कठिनाइयां और दुख सहन करके अनुभव प्राप्त करें और मिस्र जैसे देश के संचालन के योग्य हो जाएं। हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम को भी इस अवधि में उनकी प्रतीक्षा करते हुए हर अवसर पर संयम से काम लेना चाहिए था।<br />
इन्हीं में से एक अवसर उनके परिजनों और बच्चों का अप्रिय व्यवहार था जो उन्हें भ्रम में ग्रस्त समझ रहे थे जबकि साधारण लोगों को ईश्वर के प्रिय बंदों की बुद्धि को अपनी साधारण बुद्धि से नहीं परखना चाहिए।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य अपनी विदित इंद्रियों के अतिरिक्त कुछ ऐसी बातों का भी आभास कर सकता है जो अन्य लोगों की क्षमता से बाहर हैं। अलबत्ता यह सब बात उसके साथ नहीं होती बल्कि ईश्वर की आज्ञा से ही हो सकती है।<br />
जिस बात को हम नहीं जानते और नहीं समझते उसका तुरंत इन्कार नहीं कर देना चाहिए, हमें यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि संभवतः कुछ बातें ऐसी हैं जिनका हम आभास नहीं कर पाते किन्तु दूसरे लोग उनका आभास कर लेते हैं, जैसे ईश्वर की ओर से अपने पैग़म्बरों को भेजा जाने वाला संदेश।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 96-99, <br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 96 <br />
तो जब (हज़रत यूसुफ़ की क़मीस लेकर) संदेश वाहक आया तो उसने उसे उनके (अर्थात हज़रत याक़ूब के) चेहरे पर डाल दिया तो वे देखने लगे। उन्होंने कहा कि क्या मैंने तुम से नहीं कहा था कि मैं ईश्वर की ओर से ऐसी बातें जानता हूं जो तुम नहीं जानते। (12:96)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपनी क़मीस अपने भाइयों को दी और उनसे कहा कि इसे ले जाकर पिता के चेहरे पर डाल दो तो उनकी आंखें लौट आएंगी। यह आयत कहती है कि जब क़मीस को लाया गया और हज़रत याक़ूब के चेहरे पर डाला गया तो हज़रत युसुफ़ की बात सिद्ध हो गई और उनके पिता की आंखें लौट आई।<br />
इसी अवसर पर हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपने दुष्ट पुत्रों से कहा कि इन वर्षों में जब भी मैंने यूसुफ़ के बारे में कोई बात कही तो तुम लोगों ने मुझसे कहा कि मैं भ्रम में ग्रस्त हूं और मुझे ऐसे की वापसी की आशा है जिसे भेड़िया खा गया है किन्तु तुम को ज्ञात नहीं है कि मुझे ईश्वर की ओर से ऐसी बातों का ज्ञान है जिन्हें तुम नहीं जानते। इसके अतिरिक्त मुझे ईश्वर की कृपा की आशा थी जबकि तुम्हें नहीं थी।<br />
रोचक बात यह है कि यही भाई एक दिन हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की ख़ून भरी क़मीस अपने पिता के पास लाए थे और उन्होंने मगरमच्छ के आंसू बहाए थे। आज वही भाई हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की क़मीस लेकर आए हैं ताकि अपने पिता को उनके जीवित होने की शुभ सूचना दें। आज वे न केवल यूसुफ़ के जीवित होने की बल्कि मिस्र जैसे बड़े देश की सत्ता उनके हाथ में आने की सूचना दे रहे हैं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि दुष्ट बच्चे पिता के लिए आत्मिक एवं शारीरिक यातना व कठिनाइयों का कारण होते हैं जबकि भले बच्चे उनके सुख का कारण बनते हैं।<br />
पैग़म्बरों की सबसे बड़ी विशेषता, ईश्वरीय वचनों पर संतोष और उसकी दया व कृपा पर भरोसा है।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 97 और 98 <br />
(हज़रत याक़ूब के पुत्रों ने) कहा, हे पिता! (ईश्वर से) हमारे पापों के क्षमा किए जाने के लिए प्रार्थना करें कि निश्चित रूप से हमने ग़लती की है। (12:97) उन्होंने कहा, मैं शीघ्र ही अपने पालनहार से तुम्हें क्षमा करने के लिए प्रार्थना करुंगा कि निश्चित रूप से वह अत्यंत क्षमा करने वाला और दयावान है। (12:98)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई जब अपने पिता के पास लौटे तो वे अपने कर्मों पर लज्जित थे, उन्होंने अपने पिता से, जो ईश्वरीय पैग़म्बर थे, अनुरोध किया कि वे ईश्वर से उनके लिए क्षमा चाहें। हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने भी उन्हें वचन दिया कि वे उचित समय पर उनकी इस इच्छा की पूर्ति करेंगे।<br />
इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि उचित समय से हज़रत याक़ूब का तात्पर्य, गुरुवार की रात थी कि जो प्रार्थना और तौबा व प्रायश्चित का समय है और इस रात ईश्वर की ओर से अपने बंदों की प्रार्थना और तौबा स्वीकार किए जाने की अधिक संभावना होती है।<br />
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर से क्षमा मांगने के लिए उसके प्रिय बंदों को माध्यम बनाना एक उचित व प्रिय कार्य है।<br />
जब कोई पापी अपने पाप को स्वीकार करे तो उसे धिक्काराना नहीं चाहिए बल्कि स्वयं भी उसे क्षमा करना चाहिए और दूसरों से भी उसे क्षमा करने का अनुरोध करना चाहिए।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 99 <br />
तो जब हज़रत यूसुफ़ के (परिजन उनके) पास पहुंचे तो उन्होंने अपने माता पिता को उनके पास बिठाया और कहा कि मिस्र में प्रविष्ट हो जाइये कि ईश्वर की इच्छा से आप शांति में रहेंगे। (12:99)<br />
यह बात स्वाभाविक है कि जब हज़रत यूसुफ़ से इतने वर्षों की जुदाई के बाद हज़रत याक़ूब अपनी पत्नी और अन्य परिजनों के साथ मिस्र पहुंचे तो दोनों ओर अत्यधिक हर्ष और उत्साह हो। हज़रत यूसुफ़ नगर के बाहर अपने परिजनों की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि उन्हें पूरे सम्मान के साथ नगर में लाएं। वे अपने पिता से मिलने के लिए घड़िया गिन रहे थे। दोनों की भेंट के दृश्य का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। क़ुरआने मजीद ने केवल स्वागत समारोह की ओर संकेत किया है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम अपने परिजनों के स्वागत के लिए नगर से बाहर गए और उन्हें पूरे सम्मान के साथ नगर में ले आए।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि हमें इस ओर से सचेत रहना चाहिए कि पद और स्थान हमें माता पिता के आदर की ओर से निश्चेत न कर दे।<br />
एक अच्छी सरकार की निशानी, समाज के सभी क्षेत्रों में शांति व सुरक्षा स्थापित करना है, अलबत्ता शांति व सुरक्षा उसी समय स्थापित होगी जब यूसुफ़ जैसे पवित्र लोग सत्ता में होंगे।<br />
अपने गुणों का वर्णन करते समय ईश्वर की कृपा को नहीं भूलना चाहिए। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने कहा कि ईश्वर की कृपा से मिस्र में शांति व सुरक्षा स्थापित है।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 100-101,<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 100 <br />
और हज़रत यूसुफ़ ने अपने माता पिता को सिंहासन पर बिठाया और सब लोग उनके समक्ष नतमस्तक हो गए और यूसुफ़ ने कहा, हे पिता यह मेरे पहले वाले स्वप्न का अर्थ है। मेरे पालनहार ने उसे सच्चा कर दिखाया है और उसने मुझ पर उपकार किया जब उसने मुझे कारावास से बाहर निकाला और आप लोगों को देहात से (मिस्र) लाया, यद्यपि शैतान ने मेरे और मेरे भाइयों के बीच फूट डाल दी थी। निश्चित रूप से मेरा पालनहार जो चाहता है उसके लिए उत्तम युक्ति करता है। निसंदेह वह अत्यधिक जानकार और तत्वदर्शी है। (12:100)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम अपने माता पिता और भाइयों के स्वागत के लिए नगर से बाहर गए और जैसे ही वे मिस्र में प्रविष्ट हुए उन्होंने उन्हें गले से लगाया और उनका स्वागत सत्कार किया। यह आयत राजमहल के भीतर माता पिता के साथ हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के व्यवहार का वर्णन करते हुए कहती है कि उन्होंने अपने माता पिता को अपने सिंहासन पर बिठाया और उनका सम्मान किया।<br />
आयत कहती है कि हज़रत यूसुफ़ के माता पिता और भाई उनके समक्ष नतमस्तक हो गए और उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की कि उसकी कृपा के चलते हज़रत यूसुफ़ जीवित भी थे और बहुत ही उच्च स्थान तक भी पहुंच गए थे। उन्होंने इस प्रकार यह सज्दा किया था कि हज़रत यूसुफ़ उनके सामने खड़े थे अतः उन्होंने अपने पिता से कहा कि जो कुछ हुआ वह किशोरावस्था के मेरे पहले स्वप्न को चरितार्थ करता है जिसमें मैंने देखा था कि सूर्य, चंद्रमा और ग्यारह सितारे मेरे समक्ष नतमस्तक हैं। मेरे माता पिता ने सूर्य व चंद्रमा और ग्यारह भाइयों ने ग्यारह सितारों की भांति मेरे समक्ष ईश्वर का सज्दा किया है।<br />
इसके बाद हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम मिस्र के कारावास से अपने रिहा होने की ओर संकेत करते हुए अपने साथ घटने वाली सभी घटनाओं से अपने माता पिता और भाइयों को अवगत कराते हैं और इसे ईश्वर का उपकार बताते हैं। किन्तु उनकी महानता को देखिए कि वे भाइयों द्वारा उन्हें कुएं में डालने और कारवां के हाथों उन्हें दास के रूप में बेचे जाने की घटना की ओर कोई संकेत नहीं करते और अपने भाइयों को लज्जित होने से बचाने के लिए उनके कर्मों के लिए शैतान को मूल रूप से दोषी बताते हैं कि जिसने अपने उकसावे द्वारा उनके मन में ईर्ष्या की भावना उत्पन्न कर दी।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि चाहे हम जिस पद पर रहें, माता पिता का सम्मान हमारे लिए अनिवार्य है और हमें सर्वोत्तम ढंग से उनका आदर करना चाहिए।<br />
यद्यपि मनुष्य को अपने कर्मों का अधिकार प्राप्त है किन्तु सभी अच्छाइयों का स्रोत ईश्वर है जबकि सभी बुराइयों की जड़ शैतान है।<br />
जिन्होंने हमारे साथ बुराई की है उनके साथ दया व क्षमा का व्यवहार करना चाहिए, ईर्ष्या, द्वेष और प्रतिशोध से काम नहीं लेना चाहिए।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 101 <br />
(हज़रत यूसुफ़ ने) कहा, प्रभुवर! तूने मुझे राज्य प्रदान किया और सपनों का अर्थ बताने का ज्ञान सिखाया, हे आकाशों और धरती की रचना करने वाले! तू ही संसार और प्रलय में मेरा स्वामी है। मुझे इस अवस्था में संसार से उठा कि मैं मुसलमान रहूं और मुझे पवित्र लोगों का साथ प्रदान कर। (12:101)<br />
क़ुरआने मजीद में मिस्र पर दो लोगों के शासन की ओर संकेत किया गया है, एक फ़िरऔन जो स्वयं को शासक और लोगों को अपनी प्रजा तथा आज्ञाकारी समझता था और दूसरे हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कि जो शासन का वास्तविक अधिकारी ईश्वर को मानते थे और कहते थे कि हे ईश्वर! जो कुछ है वह तेरा है, मेरे पास जो भी ज्ञान व सत्ता है, वह तेरे कारण है। न केवल इस संसार में बल्कि प्रलय में भी मुझे तेरी आवश्यकता है और मैं तुझे अपना स्वामी एवं अभिभावक समझता हूं और मुझे आशा है कि मृत्यु के समय मैं तेरी प्रसन्नता के साथ इस संसार से जाऊंगा और तू मुझे पवित्र व भले लोगों के साथ रखेगा।<br />
प्रार्थना के रूप में वर्णित होने वाले ये वाक्य, ईश्वर पर हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के ईमान की गहराई और सभी परिस्थतियों में उस पर हज़रत यूसुफ़ के भरोसे को दर्शाते हैं। उन्होंने सत्ता की चरम सीमा पर और माता पिता और भाइयों के साथ होने के बावजूद और अपनी समस्याओं के सुलझने के अवसर पर भी ईश्वर को नहीं भुलाया और उसे याद करते रहे, इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने सत्ता की चरम सीमा पर पहुंचकर भी प्रलय को याद रखा और प्रार्थना की कि आयु के अंत तक उनका ईमान सुरक्षित रहे और मरते दम तक वे ईश्वर पर ईमान रखें।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि सदैव संसार में अपने अंत की ओर से सावधान रहना चाहिए और अपने धर्म तथा ईमान की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए।<br />
सत्ता और शासन, उद्दंडता, बुराई और ईमान से दूरी का मार्ग प्रशस्त करता है सिवाय इसके कि ईश्वर मनुष्य को ख़तरों से सुरक्षित रखे।<br />
जो लोग, जनता पर शासन करते हैं उन्हें यह बात याद रखनी चाहिए कि ईश्वर उनके ऊपर है और लोक परलोक में वही उनका वास्तविक स्वामी है।<br />
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सूरए यूसुफ़, आयतें 102-106,<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 102 <br />
(हे पैग़म्बर!) ये ईश्वर के गुप्त ज्ञान के समाचार हैं जिन्हें हम आपकी ओर भेजते हैं। और आप उनके पास नहीं थे जब (यूसुफ़ के भाइयों ने) गुप्त षड्यंत्र करते हुए एकमत होकर अपना निर्णय किया। (12:102)<br />
पिछले कार्यक्रम में हमने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के वृत्तांत के अंत के बारे में सुना जब उनके माता पिता और भाइयों के मिस्र आने के बाद उनकी घटना भलिभांति समाप्त हुई और उनकी सभी समस्याओं और कठिनाइयों का अंत हुआ।<br />
यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहती है कि इस घटना में जो कुछ वर्णित हुआ है वह लोगों की बातें या फेर बदल की गई पुस्तकों में वर्णित की गई घटना नहीं है बल्कि यह समाचार ईश्वर के ज्ञान पर आधारित है और ईश्वर सभी प्रकट व गुप्त बातों का जानने वाला है और जो बातें लोगों की आखों या कानों से छिपी रहती हैं वह उनसे भी अवगत है।<br />
जैसा कि जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई षड्यंत्र रच रहे थे कि किस प्रकार उनकी हत्या की जाए और फिर सबने मिलकर यह निर्णय किया कि उन्हं् कुएं में डाल दिया जाए तो उस समय ईश्वर के अतिरिक्त कोई वहां पर नहीं था और किसी को भी उनके षड्यंत्र की सूचना नहीं थी।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बर, जादूगरों से संपर्क या तपस्या से नहीं बल्कि ईश्वर के विशेष संदेश वहि के माध्यम से गुप्त ज्ञानों से अवगत होते हैं।<br />
कोई भी षड्यंत्र ईश्वर से छिपा नहीं रह सकता चाहे वह गुप्त रूप से ही क्यों न तैयार किया गया हो और जब भी ईश्वर चाहेगा उसे प्रकट करके षड्यंत्रकारियों को अपमानित कर देगा।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 103 और 104<br />
(हे पैग़म्बर!) आप चाहे जितनी ही लालसा क्यों न करें अधिकांश लोग ईमान नहीं लाएंगे। (12:103) जबकि आप उनसे (उनके मार्गदर्शन के बदले में) कोई पारिश्रमिक भी नहीं चाहते (क़ुरआने मजीद तो) ब्रह्मांड के लिए पाठ के अतिरिक्त कुछ नहीं है। (12:104)<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के वृत्तांत के अंत के बाद क़ुरआने मजीद लोगों और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के संबंध में कुछ मूलभूत बातों का वर्णन करते हुए कहता है कि आपने उनसे पारिश्रमिक नहीं मांगा है और जो कुछ आप उनसे कहते हैं वह उनके मार्गदर्शन व शिक्षा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आप उनके ईमान लाने के लिए अत्याधिक प्रयत्न करते हैं और इस कार्य की बहुत लालसा रखते हैं किन्तु आप जान लीजिए कि इसके बावजूद ऐसे बहुत से लोग हैं जो ईमान लाने और सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। आप यह न सोचें कि चूंकि लोग सत्य को नहीं समझते इसीलिए ईमान नहीं लाते, ऐसे भी लोग हैं जो सत्य को समझने के बावजूद ईमान लाने के लिए तैयार नहीं होते और आपको झुठलाते हैं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि यद्यपि लोगों की ओर से पैग़म्बरों को अत्यधिक कठिनाइयां सहन करनी पड़ी हैं किन्तु वे उनके मार्गदर्शन की बहुत अधिक लालसा और मनोकामना रखते थे।<br />
अधिकांश लोगों का ईमान न लाना, पैग़म्बरों के कार्य में ढिलाई का नहीं स्वयं लोगों के चयन और अधिकार का परिणाम है।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 105</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><b><span style="color: #cc0000;">
आकाशों और धरती में ऐसी कितनी ही निशानियां हैं, जिनके पास से यह गुज़रते हैं और ये उनकी ओर से मुंह मोड़ लेते हैं। (12:105)</span></b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
पिछली आयतों में ईश्वर ने कहा था कि अधिकांश लोग पैग़म्बरों पर ईमान नहीं लाते। इस आयत में वह पैग़म्बरे इस्लाम को सांत्वना देते हुए कहता है कि वे सदैव धरती और आकाशों में ईश्वर की निशानियों को देखते हैं किन्तु ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते अतः यदि वे आपको झुठलाते हैं तो दुखी होने की आवश्यकता नहीं है।<br />
मनुष्य विभिन्न मार्गों से ईश्वरीय निशानियों को देखता है, कभी उसे आकाश के चांद, सितारों और विभिन्न उपग्रहों को देखकर धरती पर ईश्वर की निशानियों का पता चलता है तो कभी वायु यानों में बैठकर और आकाश की यात्रा करके वह ईश्वरीय निशानियों को देखता है। इस आधार पर यह आयत, एक प्रकार से अंतरिक्ष में मनुष्य की उपस्थिति की भविष्यवाणी करती है।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि संसार की सभी वस्तुएं एक प्रकार से ईश्वर का चमत्कार और उसकी शक्ति व महानता की निशानी हैं।<br />
जो निश्चेत है संभावित रूप से उसे कभी चेतना प्राप्त हो सकती है और वह सत्य को स्वीकार कर सकता है किन्तु जिसने मुंह मोड़ लिया है वह सत्य को कभी स्वीकार नहीं करेगा।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 106 <br /><br /><span style="color: #cc0000;">
और उनमें से अधिकांश ईमान नहीं लाएंगे सिवाय इसके कि उसके लिए कोई समकक्ष ठहराएं। (12:106)</span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहती है कि न केवल यह कि अधिकांश लोग ईमान नहीं लाएंगे बल्कि जो लोग ईमान भी लाएंगे उनका ईमान शुद्ध नहीं है और वे पूर्ण रूप से एकेश्वरवादी नहीं हैं। वे अपने कर्म में ईश्वर के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं अथवा लोगों पर भी भरोसा करते हैं और उन्हें अपने मामलों में ईश्वर का समकक्ष ठहराते हैं। वे ईश्वर की उपासना तो करते हैं किन्तु जीवन में ईश्वर के आदेश के समक्ष पूर्णतः नतमस्तक नहीं हैं और अपने जीवन में उन्हें भी प्रभावी मानते हैं।<br />
पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इस आयत की व्याख्या में कहते हैं कि अनेकेश्वरवाद का तात्पर्य, मूर्तिपूजा नहीं है बल्कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी पर भी भरोसा करने को एकेश्वरवाद कहा जाता है। पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य पौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम अनेकेश्वरवाद के ख़तरे के संबंध में कहते हैं कि अनेकेश्वरवाद, काले पत्थर पर अंधकारमय रात्रि में काली चींटी के चलने से भी अधिक, मनुष्य में छिपा रहता है।<br />
अनकेश्वरवाद के भी चरण होते हैं और यह मूर्तिपूजा से आरंभ होता है जो स्पष्ट अनेकेश्वरवाद है और गुप्त अनेकेश्वरवाद बहुत से लोगों में होता है और उन्हें इसका ज्ञान भी नहीं हो पाता। इससे बचने के लिए हमें ईश्वर से उसकी शरण मांगनी चाहिए।<br />
<br />
<br /><b>
सूरए यूसुफ़, आयतें 107-109,</b><br /><br /><br /><span style="color: #990000;">
क्या(जो लोग ईमान नहीं लाते) वे इस बात से सुरक्षित हैं कि ईश्वरीय दंड उन्हें आ पकड़े? या प्रलय सहसा ही उनके सामने आ जाए और उन्हें पता ही न चले? (12:107)</span></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि ईश्वर अपने पैग़म्बर को सांत्वनना देता है कि यदि लोग तुम पर ईमान नहीं लाते हैं तो तुम्हें दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि वे मुझ पर ईमान नहीं लाते हैं जबकि मैं उनका ही नहीं बल्कि पूरे संसार का रचयिता हूं। इसके अतिरिक्त जो लोग ईमान भी लाए हैं उनमें से अनेक का ईमान अनेकेश्वरवाद से जुड़ा हुआ है और पूर्ण रूप से निष्ठावान ईमान वाले कम ही दिखाई देते हैं।<br />
इस आयत में ईश्वर कहता है कि हे पैग़म्बर! जो लोग ईश्वर और प्रलय पर ईमान नहीं रखते उन्हें चेतावनी दे दीजिए कि बहुत संभव है कि ईश्वरीय दंड इसी संसार में उन्हें अपनी लपेट में ले ले या सहसा ही उनकी मृत्यु आ जाए और वे परलोक में ख़ाली हाथ और बहुत अधिक पापों के साथ पहुंचे कि जिसके दंड स्वरूप उन्हें नरक में जाना पड़े।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि जो कोई ईमान नहीं रखता वह ईश्वर की ओर से सुरक्षित नहीं है चाहे वह अपनी रक्षा के कितने ही उपाय क्यों न कर ले।<br />
प्रलय और ईश्वरीय दंड को याद रखना, मनुष्य के प्रशिक्षण और पापों से दूरी का सर्वोत्तम कारक है।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><b>सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 108 </b><br /><br /><span style="color: #990000;">
(हे पैग़म्बर!) कह दीजिए कि यह मेरा मार्ग है और मैं तथा जो मेरा अनुसरण करता है लोगों की दूरदर्शिता के आधार पर ईश्वर की ओर बुलाते हैं और ईश्वर हर प्रकार की बुराई से पवित्र है और मैं अनेकेश्वरवादियों से नहीं हूं। (12:108)</span><br />
इस आयत में ईश्वर लोगों को सत्य और वास्तविकता की ओर बुलाने की शैली का उल्लेख करते हुए कहता है कि ईमान, दूरदर्शिता और ईश्वर की गहरी पहचान के साथ होना चाहिए, उसे पहचानने के बाद उस पर ईमान लाना चाहिए। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को पहचानने के बाद उन पर ईमान लाना चाहिए। इसी प्रकार हर किसी को ईश्वरीय कथन क़ुरआने मजीद को समझ और पहचान कर उस पर ईमान लाना चाहिए।<br />
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ने भी इसी शैली में धर्म का प्रचार किया है, यही कारण है कि जो लोग उनके माध्यम से ईमान लाए वे धर्म पर सदैव अडिग रहे और उन्होंने धर्म के मार्ग में अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए।<br />
निश्चित रूप से जो बात ईमान में कमज़ोरी का कारण बनती है वह आस्था और कर्म में अनेकेश्वरवाद है। अलबत्ता सारे लोग नहीं बल्कि कुछ लोग इसमें ग्रस्त होते हैं किन्तु एकेश्वरवाद का निमंत्रण देने वालों को जिनमें सबसे प्रमुख पैग़म्बर हैं, हर प्रकार के अनेकेश्वरवाद से दूर होना चाहिए और पूरी निष्ठा के साथ धर्म के मार्ग में प्रयास करना चाहिए।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि धर्म के प्रचारकों को लोगों के ज्ञान व दूरदर्शिता के स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयास करना चाहिए।<br />
जो लोग धर्म के प्रचार और लोगों को धर्म की ओर आमंत्रित करने के इच्छुक हैं, उन्हें स्वयं को अनेकेश्वरवाद से दूर रखना चाहिए और लोगों को अनेकेश्वरवाद के ख़तरों से अवगत कराना चाहिए।<br />
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 109<br />
<b><span style="color: #990000;">(हे पैग़म्बर!) हमने आपसे पूर्व (किसी को भी पैग़म्बर के रूप में) नहीं भेजा सिवाय बस्तियों में रहने वाले उन पुरुषों के जिनकी ओर हमने अपना विशेष संदेश वहि भेजा। क्या( आपकी पैग़म्बरी का इन्कार करने वालों ने) धरती में घूम फिर कर नहीं देखा है कि उन लोगों का कैसा अंत हुआ जो उनसे पूर्व थे? और निश्चित रूप से परलोक का घर उन लोगों के लिए उत्तम है जो ईश्वर से डरते हैं। क्या तुम चिंतन नहीं करते? (12:109)</span></b><br />
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के विरोधियों की एक आपत्ति यह थी कि यदि ईश्वर किसी पैग़म्बर को भेजना चाहता है तो वह हम जैसे किसी मनुष्य के बजाए जिसे हम पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है, किसी फ़रिश्ते को पैग़म्बर बनाता है।<br />
यह आयत उनके उत्तर में कहती है कि क्या उन्होंने पिछले पैग़म्बरों का इतिहास पढ़ा या सुना नहीं है कि सभी पैग़म्बर आकाश से फ़रिश्ते नहीं बल्कि मानव जाति के ही थे और धरती पर ही रहते थे। हे पैग़म्बर! इस प्रकार की आपत्तियां, हठधर्म और इन्कार की भावना के कारण हैं। वे सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं चाहे उनके समक्ष कोई फ़रिश्ता ही क्यों न आ जाए।<br />
आगे चलकर आयत बुरे व भले लोगों के अंत की ओर संकेत करती है। यद्यपि इस संसार में भले लोगों को दुखों व संकटों का सामना करना पड़ता है किन्तु ईश्वर प्रलय में उन्हें बहुत अच्छा प्रतिफल देता है और उन्हें बड़ा ही भला जीवन प्राप्त हो जाता है किन्तु बुरे लोगों को इसी संसार में कठिनाइयां और दंड सहन करना पड़ता है और वे दूसरों के लिए शिक्षा सामग्री बन जाते हैं। हमें इन दोनों गुटों और उनके अंत के बारे में विचार करना चाहिए ताकि हम सही और ग़लत मार्ग को पहचान सकें।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बर मानव जाति के ही थे और लोगों के बीच ही जीवन व्यतीत करते थे किन्तु वे हर प्रकार की बुराई से दूर थे ताकि सभी लोगों के लिए आदर्श बन सकें।<br />
धरती में घूमना फिरना और पिछली जातियों के इतिहास से अवगत होना और उससे पाठ सीखना, मनुष्य के मार्गदर्शन और प्रशिक्षण में सहायक है।<br />
सोच विचार से पैग़म्बरों के मार्ग, उनकी सत्यता और उनके धर्म की पहचान के बारे में सहायता मिलती है और लोगों की बुद्धि को सक्रिय बनाना पैग़म्बरों का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य था।<br />
<br />
<br />
सूरए यूसुफ़, आयतें 110-111,</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 110</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<b><span style="color: #990000;">(लोगों को ईश्वर के मार्ग की ओर बुलाने का क्रम जारी रहा) यहां तक कि पैग़म्बर (लोगों के मार्गदर्शन की ओर से) निराश हो गए और (काफ़िरों ने हमारी ओर से दी जाने वाली मोहलत के कारण) यह सोचा कि उनसे झूठ बोल (कर दंड का वादा किया) गया है। इसी समय उन तक हमारी सहायता पहुंच गई फिर हमने जिसे चाहा उसे मुक्ति प्रदान कर दी और अपराधी लोगों पर से हमारे दंड को टाला नहीं जा सकता। (12:110)</span></b><br />
ईश्वर ने लोगों के मार्गदर्शन के लिए उन्हीं में से कुछ पैग़म्बरों का चयन किया और उनके पास अपना विशेष संदेश वहि भेजा ताकि वे दूरदर्शिता और तत्वदर्शिता के आधार पर लोगों को ईश्वरीय मार्ग की ओर आमंत्रित करें किन्तु अधिकांश लोगों ने उनकी बातों को स्वीकार नहीं किया और उन्हें झुठला दिया।<br />
यह आयत कहती है कि किन्तु पैग़म्बर अपने मार्ग पर अडिग रहे और उन्होंने लोगों का मार्गदर्शन करना नहीं छोड़ा परंतु अंततः वे लोगों द्वारा अपने निमंत्रण के स्वीकार किए जाने की ओर से निराश हो गए। इस अवसर पर काफ़िरों ने उन पर कटाक्ष करते हुए कहा कि यदि तुम्हारा वादा सच्चा था तो ईश्वर की ओर से दंड आना चाहिए था और हम विरोधियों को उसमें ग्रस्त हो जाना चाहिए था।<br />
जब बात यहां तक पहुंच गई और काफ़िरों ने किसी भी प्रकार से सत्य को स्वीकार नहीं किया तो ईश्वर ने पैग़म्बरों और उनके साथियों को मुक्ति दी और काफ़िरों को दंड में ग्रस्त कर दिया। जैसा कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम जैसे महान पैग़म्बर ने दसियों वर्षों तक लोगों को ईश्वर की ओर बुलाया किन्तु केवल कुछ ही लोग उन पर ईमान लाए। अतः धरती पर एक भयंकर तूफ़ान आया और ईमान वालों के अतिरिक्त सभी लोग मारे गए।<br /><br /></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
इस आयत से हमने सीखा कि काफ़िरों को मोहलत देना और उन्हें दंडित करने में विलंब करना, ईश्वर की एक परंपरा है।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
ईश्वरीय दंड प्रलय से विशेष नहीं हैं, कभी कभी इसी संसार में भी वह पापियों और अपराधियों को दंडित करता है।<br />
न तो ईमान वालों को ईश्वरीय दया की ओर से निराश होना चाहिए और न ही काफ़िरों को अपने भविष्य की ओर से आशावान रहना चाहिए।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /><b>
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 111</b></div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><b><br /></b>
<b><span style="color: #990000;">निश्चित रूप से पिछले लोगों के वृत्तांतों में बुद्धि वालों के लिए शिक्षा सामग्री है। यह (क़ुरआन) कोई मनगढ़ंत बात नहीं है बल्कि यह उन किताबों की पुष्टि करने वाला है जो इससे पहले थीं, यह क़ुरआन हर बात का विस्तार (से वर्णन करने वाला) और ईमान वालों के लिए मार्गदर्शन और दया है। (12:111)</span></b><br />
सूरए यूसुफ़ के अंत में आने वाली इस आयत में एक महत्त्वपूर्ण बिंदु की ओर संकेत किया गया है कि हज़रत यूसुफ़ और उनके भाइयों के वृत्तांत सहित क़ुरआने मजीद में वर्णित घटनाएं लोगों की शिक्षा के लिए आई हैं न यह कि क़ुरआने मजीद कहानियों या इतिहास की कोई पुस्तक है। अलबत्ता केवल बुद्धि वाले ही इससे शिक्षा लेते हैं और अधिकांश लोग इन घटनाओं को पढ़ते या सुनते तो हैं किन्तु उन पर ध्यान नहीं देते।<br />
आगे चलकर आयत कहती है कि बुद्धि वाले लोग इस आसमानी किताब की आयतों में चिंतन करके भलि भांति यह बात समझ लेते हैं कि क़ुरआने मजीद किसी मनुष्य की ओर से लिखी गई किताब नहीं है बल्कि यह ईश्वरीय कथन है जो पिछली आसमानी किताबों से समन्वित है। इसमें ऐसी अनेक वास्तविकताओं का वर्णन किया गया है जो परिवार, अर्थव्यवस्था, राजनीति, कला, संस्कृति तथा अन्य सभी मामलों में लोगों का मार्गदर्शन करती हैं।<br />
इस आयत से हमने सीखा कि क़ुरआने मजीद की घटनाएं, किसी लेखक की कल्पनाएं नहीं बल्कि वास्तविकताओं का वर्णन और शिक्षा सामग्री हैं।<br />
यदि बुद्धि वाले क़ुरआने मजीद की आयतों में चिंतन करें तो उन्हें ईश्वरीय दया व मार्गदर्शन प्राप्त हो जाएगा क्योंकि वे उसकी वास्तविकताओं पर ईमान ले आएंगे।<br />
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम, भी षड्यंत्रों के बावजूद सम्मान और सत्ता की चरम सीमा पर पहुंचे। उनकी घटना लोगों के लिए उत्तम पाठ है कि यदि हम ईश्वर के दास बन जाएं तो वह अपने दासों को कभी अकेला नहीं छोड़ता।<br />
<br /></div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-76862380344774721052023-03-27T22:01:00.001+05:302023-07-12T06:18:01.330+05:30बीमार अगर अपनी बीमारी ना बताय या ना पहचाने तो कौन उसका इलाज करे ?<h2 style="text-align: center;"><b>बीमार अगर अपनी बीमारी ना बताय या ना पहचाने तो कौन उसका इलाज करे ?</b><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/IAFwOQ8_K3g" title="YouTube video player" width="560"></iframe></h2><script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script><div><br />
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<p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><br /><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></font></p>
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<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"> </font></p></div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-9199521336268675122023-03-26T20:30:00.006+05:302023-07-12T06:31:51.443+05:30जानिए दो वैज्ञानिकों ने क्या बताया की मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाती है | <script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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</script><h2 style="text-align: center;">मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाती है | </h2><div>आत्मा के अमर होने की मान्यता को वैज्ञानिक समर्थन भी मिल रहा है। भौतिकी और गणित के दो वैज्ञानिकों ने लंबे शोध के बाद दावा किया है कि आत्मा कभी नहीं मरती, केवल शरीर मरता है। मृत्यु के बाद आत्मा ब्रह्मांड में लौट आती है, <b>लेकिन उसमें निहित जानकारी कभी नष्ट नहीं होती।</b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNriRzKZI9XAZge6gOuQUYh2LMy5FIGSioc3VT6pmoNLzyo4ENhUN3vgec4LY5FJO9duNhWxQsnhjLjsDQRLLKqKJOkclTC0bLYiHUr511p28Pn5xwOY5lU_z2B4C9Z2ikC69BjRlBN__ef1CmDiZ1nvyaFLVNT8KF_7BjiNwFHERdkhHQzwMi04V7/s1030/imam_mahdi_.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="579" data-original-width="1030" height="225" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNriRzKZI9XAZge6gOuQUYh2LMy5FIGSioc3VT6pmoNLzyo4ENhUN3vgec4LY5FJO9duNhWxQsnhjLjsDQRLLKqKJOkclTC0bLYiHUr511p28Pn5xwOY5lU_z2B4C9Z2ikC69BjRlBN__ef1CmDiZ1nvyaFLVNT8KF_7BjiNwFHERdkhHQzwMi04V7/w400-h225/imam_mahdi_.jpg" width="400" /></a></div><br /><div><br />इस दुनिया के सभी धर्म भी यही बताते हैं, लेकिन कुछ लोग इसे मानते हैं और कुछ नहीं। सभी धर्मों का कहना है कि मरने के बाद आत्मा ब्रह्मांड में भगवान के पास जाती है और फिर जीवित रहकर भगवान कर्मों के बारे में पूछता है। . लेकिन बहुत से लोगों को यह एक दिलचस्प कहानी लगती है जिसे एक इंसान ने बनाया है।<br /><br />लेकिन अब विज्ञान ने खोज की है, तो शायद लोग इसे दिलचस्प कहानी न समझें। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में गणित और भौतिकी के प्रोफेसर सर रोजर पेनरोज़ और एरिजोना विश्वविद्यालय के भौतिकी वैज्ञानिक डॉ. स्टुअर्ट हैमरॉफ ने लगभग दो दशकों के शोध के बाद इस विषय पर छह <a href="https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/S1571064513001188">पत्र प्रकाशित</a> किए हैं।</div><div><br /></div><div><b><span style="box-sizing: border-box; vertical-align: inherit;">डॉ. हैमरॉफ़ और सर रोजर पेनरोज़ ने जो कुछ भी प्रस्तावित किया है वह चेतना के एक क्वांटम सिद्धांत पर आधारित है, जो मानता है कि हमारी आत्मा का सार मस्तिष्क कोशिकाओं के भीतर सूक्ष्मनलिकाएं नामक संरचनाओं के अंदर समाहित है। हैमरॉफ़ और पेनरोज़ के अनुसार, मानव मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर है, और चेतना को मस्तिष्क के अंदर क्वांटम कंप्यूटर द्वारा चलाए जा रहे प्रोग्राम की तरह अनुवादित किया जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि उनका तर्क है कि जैविक मृत्यु के बाद भी यह कार्यक्रम कार्य करना जारी रख सकता है। वैज्ञानिक आगे कहते हैं कि मनुष्य जिसे चेतना के रूप में समझता है, वह वास्तव में तथाकथित सूक्ष्मनलिकाएं के भीतर क्वांटम गुरुत्व के प्रभावों का परिणाम है। इस प्रक्रिया का नाम दो वैज्ञानिकों के नाम पर रखा गया है, "ऑर्केस्ट्रेटेड ऑब्जेक्टिव रिडक्शन" (ऑर्च-ओआर)। उनके सिद्धांत का तर्क है कि जब लोग 'नैदानिक मृत्यु' के रूप में संदर्भित एक चरण से गुजरते हैं, ' मस्तिष्क की सूक्ष्मनलिकाएं अपनी क्वांटम स्थिति खो देती हैं। हालाँकि, वे अपने भीतर निहित जानकारी को बनाए रखते हैं</span><span><span face="work sans, sans-serif" style="color: #212121;"><span style="background-color: white; box-sizing: border-box; vertical-align: inherit;">।</span></span></span></b></div><div><br /></div><div>शोधकर्ताओं का कहना है कि मानव मस्तिष्क एक जैविक कंप्यूटर की तरह है। इस जैविक कंप्यूटर का प्रोग्राम चेतना या आत्मा है जो मस्तिष्क के अंदर एक क्वांटम कंप्यूटर के माध्यम से संचालित होता है। <br /><br />एक क्वांटम कंप्यूटर मस्तिष्क की कोशिकाओं में स्थित सूक्ष्म नलिकाओं को संदर्भित करता है जो प्रोटीन-आधारित अणुओं से बने होते हैं। बड़ी संख्या में अणुओं में ऊर्जा के ये सूक्ष्म स्रोत मिलकर एक क्वांटम अवस्था का निर्माण करते हैं जो वास्तव में चेतना या आत्मा है</div><div><br />जब व्यक्ति मानसिक रूप से मरने लगता है तो ये सूक्ष्म नलिकाएं क्वांटम अवस्था खोने लगती हैं। सूक्ष्म-ऊर्जा कण मस्तिष्क की नलियों से निकलकर ब्रह्मांड में चले जाते हैं।<br /><br />कभी-कभी मरने वाला व्यक्ति जीवित हो जाता है, तब ये कण सूक्ष्म नलियों में लौट आते हैं। आत्मा ऊर्जा के अणुओं और उप-कोशिकाओं के रूप में चेतन मन की कोशिकाओं में प्रोटीन की सूक्ष्म नलियों में निवास करती है। इन सूक्ष्म कणों में सूचनाएँ संचित रहती हैं।भले ही सूक्ष्म ऊर्जा कण ब्रह्मांड में चले जाएं, लेकिन उनमें निहित सूचनाएं नष्ट नहीं होतीं।</div><div><br /></div><div><br /></div>इसलिए अब वैज्ञानिक सिद्धांत भी बताता है कि मृत्यु अंतिम घटना नहीं है जैसा कुछ लोग सोचते हैं जबकि याद रखें कि यह अभी तक विज्ञान द्वारा सिद्ध नहीं किया गया है।<div>REF <br /> <div><span face=""Source Sans Pro", sans-serif" style="background-color: white;">Dr Stuart Hameroff, Professor Emeritus at the Departments of Anesthesiology and Psychology and the Director of the Centre of Consciousness Studies at the University of Arizona</span><br style="-webkit-font-smoothing: antialiased; background-color: white; box-sizing: inherit; font-family: "Source Sans Pro", sans-serif; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; text-rendering: geometricprecision;" /><br style="-webkit-font-smoothing: antialiased; background-color: white; box-sizing: inherit; font-family: "Source Sans Pro", sans-serif; margin: 0px; outline: none; padding: 0px; text-rendering: geometricprecision;" /><span face=""Source Sans Pro", sans-serif" style="background-color: white;">Read more at: https://www.deccanherald.com/content/289131/near-death-experiences-occur-soul.html</span></div><div><span face=""Source Sans Pro", sans-serif" style="background-color: white;">https://en.wikipedia.org/wiki/Orchestrated_objective_reduction</span></div><div>https://www.sciencedirect.com/science/article/pii/S1571064513001188</div><div><br /></div><a href="https://www.qummi.com/2023/03/blog-post_38.html" target="_blank"><b>जिस्म का वजूद में आना इस्लाम के अनुसार</b></a><div> <div><div><div><div style="text-align: center;"><iframe allow="accelerometer; autoplay; clipboard-write; encrypted-media; gyroscope; picture-in-picture; web-share" allowfullscreen="" frameborder="0" height="315" src="https://www.youtube.com/embed/iIyEjh6ef_8" title="YouTube video player" width="560"></iframe></div><p><font size="3"><strong><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></strong></font></p>
<blockquote style="border: none; margin: 0px 0px 0px 40px; padding: 0px;"></blockquote><p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
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<p align="center"><font size="4"> </font></p></div></div></div></div></div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-63250921723357280442023-03-26T18:12:00.000+05:302023-03-26T18:12:02.033+05:30जिस्म का वजूद में आना इस्लाम के अनुसार और ग़ुस्ल ऐ जनाबत | <script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<h2 style="text-align: center;">जिस्म का वजूद में आना इस्लाम के अनुसार </h2><div> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6Q414UcoO-SON3_rLR_aglBIzLYWEsLqABA_NTziSmV1WhKbZuNWpmNJGrOHM90raFlx7dehMOa6Vx1oXOHj4-FrZ_t3Im8jlXlROMWnB2te-h01sBnBUXsZEczBnsrd2LI3dOyugXhX-ZL3c9wJT6hHVr2gpWO73QdzKDaTMoPKYtCd44ZlOB2Qz/s3648/DSC07535.JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="जिस्म का वजूद में आना इस्लाम के अनुसार" border="0" data-original-height="2736" data-original-width="3648" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6Q414UcoO-SON3_rLR_aglBIzLYWEsLqABA_NTziSmV1WhKbZuNWpmNJGrOHM90raFlx7dehMOa6Vx1oXOHj4-FrZ_t3Im8jlXlROMWnB2te-h01sBnBUXsZEczBnsrd2LI3dOyugXhX-ZL3c9wJT6hHVr2gpWO73QdzKDaTMoPKYtCd44ZlOB2Qz/w400-h300/DSC07535.JPG" title="जिस्म का वजूद में आना इस्लाम के अनुसार" width="400" /></a></div><br /><br />शेख सुद्दूक (अ.र.) की किताब एललुश-शराये में ‘मय्यत को गुस्ल क्यों देते हैं?’ का जवाब देते हुए इमामों की कुछ हदीसें पेश की गयी हैं।इमाम हज़रत अली बिन हुसैन अलैहिस्सलाम ने फरमाया कि कोई मखलूक जब वुजूद में आतीहै तो उस वक़्त जनाबत इंसान की ज़ात से निकलती है और वह इंसान के पूरे जिस्म से निकल कर आती है यानि इंसान का वीर्य उसके पूरे जिस्म का प्रतिनिधित्व करता है यानि उसके वीर्य में उस व्यक्ति के जिस्म से सम्बंधित सूचनाएं मौजूद होती हैं और उसकी जाँच करके उस इंसान को पहचाना जा सकता है।<div><br />सेल का डिवीजन होता रहता है और इस तरह ये अपनी तादाद बढ़ाकर एक गुच्छे की शक्ल में आ जाते हैं। और गोश्त के टुकड़े की तरह दिखने लगते हैं। जिसे हम एम्ब्रायो (Embryo) नाम से पुकारते हैं। जैसे जैसे एम्ब्रायो का साइज़ बढ़ता है वैसे वैसे गर्भाशय का साइज़ भी बढ़ने लगता है। ताकि एम्ब्रायो पूरी सुरक्षा के साथ अपना विकास करता रहे। एक खास बात जो साइंस मालूम कर चुकी है वह एम्ब्रायो में मौजूद प्रिमिटिव स्ट्रीक (Primitive streak) के बारे में है। प्रिमिटिव स्ट्रीक एम्ब्रायो में चौदहवें दिन डेवलप होती है और यहीं से पूरी तरह फाइनल हो जाता है कि बच्चे में क्या क्या क्वालिटीज़ होंगी। प्रिमिटिव स्ट्रीक गैस्ट्रूलेशन (Gastrulation) की साइट को बताती है और मूल परतों (Germ Layers) के बनने की शुरूआत करती है। आम अलफाज़ में कहा जाये तो जिस तरह किसी खूबसूरत पेंटिंग को बनाने के लिये पहले उसका स्केच तैयार किया जाता है उसी तरह बच्चे के डेवलपमेन्ट से पहले प्रिमिटिव स्ट्रीक एक स्केच की तरह बन जाती है। अब इसी स्केच के ऊपर बच्चे के जिस्म के अलग अलग अंग तैयार होने शुरू होते हैं। जिन्हें तीन हिस्सों में बाँटा गया है। जिनके नाम क्रमशः एण्डोडर्म, मीज़ोडर्म तथा एक्टोडर्म हैं।<br />एण्डोडर्म से आगे फेफड़े, हाजमे का सिस्टम, लीवर, पैन्क्रियास, थायराइड इत्यादि बनते हैं।<br />मीज़ोडर्म से आगे हड्डियों का ढांचा, हड्डियों को गति देने वाली मसेल्स, दिल व सरक्यूलेटरी सिस्टम और स्किन का भीतरी हिस्सा बनता है।<br />एक्टोडर्म से आगे दिमाग व नर्वस सिस्टम, बाल, बाहरी स्किन वगैरा चीज़ें बनती हैं।<br />बच्चे का जिस्म जैसे जैसे बढ़ता है उसकी प्रिमिटिव स्ट्रीक उसके मुकाबले में महीन होती जाती है और एक बेकार की चीज़ लगने लगती है। लेकिन एक बात तय है कि यह प्रिमिटिव स्ट्रीक कभी भी जिस्म से अलग नहीं होती। और इसमें उस व्यक्ति के जिस्म का पूरा नक्शा स्टोर रहता है। इसी स्ट्रीक में वह नुत्फा या उसके लक्षण मौजूद होते हैं जो बच्चे के बाप से माँ के पेट में पहुंचा था। इससे नतीजा यही निकलता है कि इंसान जब तक कि वह जिन्दा है उसके जिस्म में प्रिमिटिव स्ट्रीक और उसके अन्दर नुत्फा मौजूद रहता है। और अगर यह नुत्फा किसी वजह से बाहर निकल जाये तो उसी वक्त इंसान की मौत हो जाती है। फिलहाल मेडिकल साइंस इस खोज तक नहीं पहुंच पायी है।<br /><br />चूंकि प्रिमिटिव स्ट्रीक में उस व्यक्ति के जिस्म का पूरा नक्शा स्टोर रहता है। और अगर यह नक्शा वैज्ञानिक ढूंढने में कामयाब हो जायें तो उस इंसान के जिस्म को फिर से पैदा कर सकते हैं। तो अब हमें कुरआन की इन आयतों को झुठलाना नहीं चाहिए। <div><span style="font-family: Sahel, tahoma;"><span style="font-size: 10.6667px;"><br /></span></span><div>(बनी इस्राइल : 49-51) और ये लोग कहते हैं कि जब हम (मरने के बाद सड़ गल कर) हड्डियां रह जायेंगे और रेज़ा रेज़ा हो जायेंगे तो क्या नये सिरे से पैदा करके उठा खड़े किये जायेंगे? (ऐ रसूल) तुम कह दो कि तुम (मरने के बाद) चाहे पत्थर बन जाओ या लोहा या कोई और चीज़ जो तुम्हारे ख्याल में बड़ी (सख्त) हो और उसका जिन्दा होना दुश्वार हो तो वो भी ज़रूर जिन्दा होगी। तो ये लोग अनकरीब ही तुमसे पूछेंगे कि भला हमें दोबारा कौन जिन्दा करेगा तुम कह दो कि वही (खुदा) जिसने तुमको पहली मर्तबा पैदा किया।<br />(रोम : 19) वह जिन्दा को मुर्दे से निकालता है और मुर्दे को जिन्दा में से निकाल लाता है और ज़मीन को उस की मौत के बाद जिंदगी बख्शता है। उसी तरह तुम लोग भी (मौत की हालत से) निकाल लिये जाओगे| </div><div><br /></div><div>चूँकि <span face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #050505; font-size: 15px;">जनाबत इंसान की ज़ात से निकलती है और वह इंसान के पूरे जिस्म से निकल कर आती है यानि इंसान का वीर्य उसके पूरे जिस्म का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए जनाबत के बाद ग़ुस्ल वाजिब होता है | </span></div></div></div></div><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></font></p>
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<p align="center"><font size="4"> </font></p>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-1746743347783741862023-03-26T07:16:00.005+05:302023-03-26T07:16:53.453+05:30क्यों और कबसे मुसलमान बैतुल मुक़द्दस के स्थान पर काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने लगे। <script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<h2 style="text-align: left;"><font size="3">क्यों और कबसे मुसलमान बैतुल मुक़द्दस के स्थान पर काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने लगे। </font></h2><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieBqrumsr-8Jd6EGrjnLUgj228SOUgecMDkuw2uA3JAEjIrbePfTurtDlTpdUXrTc2qjY5yGcld-_N-CUr4UqTBTcR4srwIQh0kEp_YeltcHZZhgnbOMtY5wLwuYgnyGbOXri_ZytqOdu_EL7-2t2StEBZ0QeSKOPWvn26TjXND3kC9m9VGzgbfPGe/s513/Qibalatin%20Masjid.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="372" data-original-width="513" height="290" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEieBqrumsr-8Jd6EGrjnLUgj228SOUgecMDkuw2uA3JAEjIrbePfTurtDlTpdUXrTc2qjY5yGcld-_N-CUr4UqTBTcR4srwIQh0kEp_YeltcHZZhgnbOMtY5wLwuYgnyGbOXri_ZytqOdu_EL7-2t2StEBZ0QeSKOPWvn26TjXND3kC9m9VGzgbfPGe/w400-h290/Qibalatin%20Masjid.jpg" width="400" /></a></div><br /><font size="3"><br /></font></div><p><font size="3"><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px;">मुसलमान प्रतिदिन पांच बार नमाज़ पढ़ते हैं। दुनिया भर के मुसलमान काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं जो पवित्र नगर मक्के में है। संसार में जितनी भी मस्जिदें पाई जाती हैं उन सबका रुख़ काबे की ओर होता है। लेकिन ऐसा हमेशा से नहीं था बल्कि पहले </span></font><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px; text-align: justify;">मुसलमानों ने बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ी। बाद में ईश्वर का आदेश आया और मुसलमान बैतुल मुक़द्दस के स्थान पर काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने लगे।</span></p><p><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px; text-align: justify;">जब आखिरी पैगम्बर हज़रात मुहम्मद पे लोग ईमान लाय और नमाज़ का हुक्म हुआ तो इस्लाम के अनुयायियों ने बैतूल मुकद्दस की तरफ रुख करके नमाज़ पढ़ी क्यों की इससे पहले ईसाई , यहूदी जो नबी हज़रत ईसा और मूसा अलैहिसलाम के मानने वाले थे </span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px; text-align: justify;">बैतूल मुकद्दस की तरफ रुख करके ही प्रार्थना किया करते थे | </span></p><p><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px; text-align: justify;">पैग़म्बरे इस्लाम मक्के में इस प्रकार से नमाज़ पढ़ते थे कि काबा, बैतुल मुक़द्दस की दिशा में होता था हालांकि मदीना पलायन करने के बाद एसी स्थिति संभव नहीं थी और केवल बैतुल मुक़द्दस की ओर रुख़ करके नमाज़ पढ़ी जा सकती थी। मुसलमानों द्वारा बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने से संसार के तीन बड़े धर्मों के अनुयाई मुसलमान, यहूदी और ईसाई सारे ही बैतुल मुक़द्दस की ओर रुख़ करके उपासना करते थे जो एक सकारात्मक बात थी। जैसे-जैसे इस्लाम फैलने लगा यहूदी धर्मगुरूओं ने मुसलमानों को कमज़ोर करने के उद्देश्य से तरह-तरह से षडयंत्र करने आरंभ कर दिये। उन्होंने मुसलमानों से यह कहना शुरू कर दिया कि बैतुल मुक़द्दस की ओर मुंह करने नमाज़ पढ़ने का अर्थ यह है कि यहूदी धर्म सही है। यहूदी धर्मगुरू पैग़म्बरे इस्लाम का अपमान करने के लिए कहने लगे कि मुहम्मद यह दावा करते हैं कि वे एक धर्म लेकर आए हैं जो सच्चा है और पुराने धर्मों के स्थान पर उसे माना जाना चाहिए। हालांकि वे स्वयं ही अभी तक यहूदियों के उपासना स्थल की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ रहे हैं। उनकी इन बातों से पैग़म्बरे इस्लाम को तकलीफ तो होती थी किंतु वे ईश्वर के आदेश के अनुसार ही हर काम किया करते थे।</span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px; text-align: justify;"> </span></p><p><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: "Helvetica Neue", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 16px; text-align: justify;">पैग़म्बरे इस्लाम मदीने के सलेमा मुहल्ले की मस्जिद में ज़ोहर की नमाज़ पढ़ रहे थे। वे दो रकअत नमाज़ पूरी कर चुके थे। इसी बीच ईश्वरीय दूत जिब्रईल ने सूरे बक़रा की आयत संख्या 144 पढ़कर उन्हें सुनाई जिसके एक भाग का अनुवाद हैः (हे पैग़म्बर) हमने तुम्हें देखा कि तुम वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश की प्रतीक्षा में किस प्रकार आकाश की ओर अपना मुंह घुमा रहे थे, तो अब हम तुम्हें ऐसे क़िबले की ओर मोड़ देंगे जिससे तुम राज़ी रहो, तो तुम अपना मुख मस्जिदुल हराम की ओर करो और, हे मुसलमानो! तुम जहां भी रहो अपना मुख उसकी ओर मोड़ दो। इस आयत के पढ़ने के साथ ही जिब्रईल ने पैग़म्बरे इस्लाम के हाथ को पकड़कर उनका रुख़ काबे की ओर कर दिया। जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम के पीछे नमाज़ पढ रहे थे उन्होंने भी अपना रुख़ बैतुल मुक़द्दस से काबे की ओर कर लिया। पैग़म्बरे इस्लाम की इस नमाज़ की आंरम्भिक 2 रकअतें बैतुल मुक़द्दस की ओर थीं जबकि दूसरी दो रकअतें काबे की ओर पढ़ी गईं। इस दिन से मुसलमान, काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने लगे। मदीने की जिस मस्जिद में पैग़म्बर उस समय नमाज़ अदा कर रहे थे वह आज भी मौजूद है और उसका नाम मस्जिदे "ज़ूक़िब्लतैन" अर्थात दो क़िबलों वाली मस्जिद है।</span></p><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></font></p>
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</script><h2>माह ऐ रमज़ान एक महीने का प्रशिक्षण है जिस का मक़सद एक अच्छा इंसान बनाना है | </h2>..<div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br /></div><div><br />माह ऐ रमज़ान इस्लामिक केलिन्डर का ९वां और सबसे पवित्र महीना है जो अब शुरू होने वाला है | दुकाने सज चुकी है बाज़ारों में रोना है | इस महीने में मुसलमानो की सबसे पवित्र किताब क़ुरआन उतरी थी इसी लिए इसे इबादतों का महीना भी कहा जाता है | इस माह दुंनिया के सभी मुसलमान उपवास रखते हैं जो सबको आत्मसंयम , आत्मनियत्रण ,समूची मानव जाति को प्रेम, करुणा और भाईचारे का संदेश देता है | <br /><br />यह उपवास जो सुबह सूर्य उदय के कुछ पहले शुरू होता है और सूर्यास्त के साथ ख़त्म हो जाता है | इस दौरान खाना , पानी के साथ साथ आत्मसंयम रखना होता है | हर तरह पे पाप से बचना होता है और समस्त मानव जाती को प्रेम सन्देश दिया जाता है और ध्यान रखा जाता है की किसी को भी को दुःख कोई तकलीफ क्कोई नुक्सान हमसे ना पहुंचे | <br /><br />इस रोज़े का ख़ास मक़सद यह भी है की एक इंसान दूसरे इंसान की भूख प्यास को महसूस करे जिससे पूरे वर्ष गरीबों की मदद करता रहे और यही कारन है की इस महीने दान जिसे सदक़ा , ज़कात खैरात की शक्ल में गरीबों तक पहुंचाया जाता है | <br /><br />इस माह शाम को रोज़ा खोलते वक़्त सभी धर्म केलोगों को मिलजुल के रोज़ा खोलते देखा जा सकता है जिसे इफ्तार पार्टी का नाम दिया जाता है | इसे हमारे गंगा जमुनी तहज़ीब वाले देश में आपसी भाईचारे ,समाज में सांप्रदायिक सद्भाव और मुहब्बत को बढ़ाने का एक तरीक़ा भी कहा जा सकता है | <br /><br />इस रमज़ान के ख़त्म होते ही यह माना जाता है की मुसलमानो को उनका दींन याद दिलाया गया जो अमन और भाईचारे का पैगाम देता है , गरीबों की मदद का पैगाम देता है और दुनिया के समस्त मानवजाति के लिए दिलों में मुहब्बत का सन्देश देता है और आप कह सकते हैं की यह एक महीने का प्रशिक्षण है जिस का मक़सद एक अच्छा इंसान बनाना है | <br /><br />एस एम मासूम <p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><br /><br /></a></strong></font></p>
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<p align="center"><font size="4"> </font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br /></div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-1633300977823396932023-03-21T21:14:00.007+05:302023-03-21T21:18:45.070+05:30 सिला ऐ रहमी जिसका असर हमारी ज़िन्दगी की खुशियों पे पड़ता है<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<ins class="adsbygoogle" data-ad-client="ca-pub-0489533441443871" data-ad-format="auto" data-ad-slot="8396935525" style="display: block;"></ins>
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(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
</script><h2 style="text-align: center;">वे गुनाह जिनका असर सीधे हमारी ज़िन्दगी की खुशियों पे पड़ता है |</h2><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhosIolB1NvYNp6rmoSWcu5et31im1i6iHvzQApNOe0YO_y1U3ogZGiimjWgb2O8FLMOWrJtqWCAIfd0IjSEfrAygax2_Q07KUWMHeN8HLOuhqLRDU40BKsUmXIUKoBXKFYrLka1owl_FxHF-q7BEwY1ehFEONztt743F65beb0txzeg-emqoQw9IXU/s4344/20210810_200001.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="सिला ऐ रहमी" border="0" data-original-height="2896" data-original-width="4344" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhosIolB1NvYNp6rmoSWcu5et31im1i6iHvzQApNOe0YO_y1U3ogZGiimjWgb2O8FLMOWrJtqWCAIfd0IjSEfrAygax2_Q07KUWMHeN8HLOuhqLRDU40BKsUmXIUKoBXKFYrLka1owl_FxHF-q7BEwY1ehFEONztt743F65beb0txzeg-emqoQw9IXU/w400-h266/20210810_200001.jpg" title="वे गुनाह जिनका असर सीधे हमारी ज़िन्दगी की खुशियों पे पड़ता है |" width="400"></a></div><br /><div><br />अल्लाह ने हमें ख़ल्क़ किया दुनिया में भेजा और हमारे तरबियत से ज़रिये पैदा किये | नबी पैग़म्बर इमाम अपनी हिदायतों की किताब क़ुरआन साथ साथ मां बाप दिए जिस से की हम दुनिया में टेंशन फ्री ज़िन्दगी गुज़ार सकें और कामयाब वापस अल्लाह के पास अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए वापस पलट के आएं | <br /><br />हमें बार बार दुनिया की लज़्ज़तें अपनी तरफ खींचती रही हम अल्लाह की इन नेमतों के ज़रिये बेहतर ज़िन्दगी गुज़ारने की जगह उन लज़्ज़तों के ग़ुलाम होते गए |हमने अपना एक अलग निज़ाम अपनी सहूलियतों के हिसाब से बना लिया और उसी अनकहे दुनियावी क़ानून के मुताबिक़ जीने लगे यह हमारे उलेमाओं की देंन है की हम अपने अक़ीदे तो नहीं भूले अमल तराज़ू पे कमज़ोर हो ते रहे |<br /><br />और नतीजा यह हुआ कि मुसलमान सिर्फ नाम के रहे या कह लें कमज़ोर इमान वाले मुसलमान बन के रह गए | <br /><br /> अक़ीदा याद है अल्लाह की हिदायत की किताब क़ुरआन को पहचानते हैं , मस्जिदों में जमात से नमाज़ें पढ़ते हैं , नबी पैग़म्बर इमाम की सीरत का इल्म है तो अमल के दुरुस्त होने के रास्ते हमेशा खुले हुए हैं , उम्मीद की सकती है | मसलन हम ऐसे मुसलमान है की जब हराम की कमाई का मौक़ा हाथ लगता है तो जी भर के कमाते है और फिर उसी हराम की कमाई ने नेकियाँ करने लगते है जो की जाया हो जाती है और आमालनामा खाली | <br /><br />हमारी नेकियाँ में सुकून का सबब और बदी परेशानी का सबब हुआ करती हैं यह एक ऐसा सच हैं जो हमारे मानने या ना मानने से नहीं बदलता | ऐसे ही कुछ नेकियों का सिला फायदा दुनिया में फ़ौरन मिलता है और कुछ गुनाहों की सजा दुनिया में ही मिलना शुरू हो जाती है | <br /><br />ऐसे ही दो गुनाह हैं ग़ीबत और क़ता ऐ राहमि | जहां ग़ीबत हमारी नेकियों को खाते हुए समाज में खालफिशार की वजह बनते हुए , अल्लाह की रहमतों से हमें दूर करता करता है | हमारे दुआ क़ुबूल न होने की वजह बनता है यह गुनाह उसी तरह क़ता ऐ रही हमारी ज़िन्दगी को कम करता है और अल्लाह की रहमतों से दूर करता है | <br /><br /><h3 style="text-align: left;"> सिला ऐ रहमी </h3><br />आज के दौर में पश्चिमी सभ्यता का असर मुसलमानो पे पड़ता साफ़ दिखाई देता है | इस्लाम हर तरह की बेहयाई बेशर्मी, ना इंसाफ़ी ,के खिलाफ है | इस्लाम ने अकेले सिर्फ खुद के लिए जीने हो हराम क़रार दिया है और हर मुसलमान पे अपने समाज अपने आस पास के लोगों के प्रति एक ज़िम्मेदारी तय कर रखी है | अल्लाह ने बारह बार क़ुरान में सिला ऐ रहमी और कता ऐ रहमी का ज़िक्र किया है और साफ़ साफ़ कहा है जो सिला ऐ रही करेगा लम्बी खुशहाल िन्दगी पाएगा और जो क़ता ऐ रहमि करेगा उसपे अल्लाह की लानत होगी | <br /><br />सिला ऐ रहमी का मतलब यह होता है की वे रिश्तेदार जो आपके जन्म से रिश्तेदार है जैसे औलादें, माँ बाप ,भाई बहन ,चाचा फूफी खाला मामू और उनकी औलादें वगैरह | यहां यह कहता चलूँ की हदीसों में यह सिलसिला भाई बहनो ,फूफी खला और उनकी औलादों पे रुका नहीं हैं बल्कि आगे उनकी और उनकी औलादों तक जाता है लेकिन कम से कम औलादें, माँ बाप ,भाई बहन ,चाचा फूफी खाला मामू और उनकी औलादों के साथ सिला ऐ रही वाजिब है | <br /><br />इस्लाम में इन क़रीबी रिश्तेदारों की एक दूसरे के लिए एक ज़िम्मदेरी तय की गयी है और यह इतना सख्त क़ानून है की अल्लाह हदीस ऐ क़ुद्सी में कहता है अगर तुम अपने इन क़रीबी रिश्तेदारों के साथ ताल्लुक़ात ख़त्म करोगे तो जन्नत से महरूम रहोगे और अल्लाह तुमसे रिश्ते ख़त्म कर देगा । <br /><br /><b>इमाम से मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम फरमाते हैं की सिला ऐ रहमी रूह की ताज़गी और रिज़्क़ में इज़ाफ़े की वफ्फ होती है और रिश्तेदारों से नाता तोड़ देना (क़ता ऐ रहमी) चाहे वे नालायक़ ही क्यों न हों रिज़्क़ में कमी , अचानक मौत की वजह होती है | </b><br /><br /><b>इस सिलसिले में कहा गया है की अगर रिश्ते आपस में ठीक न भी हों तो भी सामने मिलने पे सलाम करना खैरियत दिल से पूछना और दूर हैं तो खतों से फ़ोन से खाल चाल लेना और परेशानी की मदद करना सिला ऐ रहमी है | </b><br /><br /><b>अलकाफ़ि से रवायत है की एक सहाबी ऐ इमाम मुहम्मद जाफर ऐ सादिक़ अलैहिस्लाम उनके पास आया और अपने रिश्तेदारों की शिकायत की और कहा वे उसे इतना परेशान करते हैं की मजबूर हो के उसने खुद को क़ैद कर लिया है | इमाम ने फ़रमाया सब्र करो और तुम उनसे रिश्ते न तोडना कुछ दिन में तुम्हे राहत मिलेगी | </b><br /><br /><b>उस शख्स ने कुछ दिन गुजरने के बाद जब देखा कोईफर्क नहीं उसके रिश्तेदारों के बर्ताव में तो उसने फैसला किया की अब क़ानूनी तौर पे उनकी शिकायत बादशाह और काज़ी से की जाय | अभी वो सोंच ही रहा था की की उसके इलाक़े में प्लेग फैला और उसके वे रिश्तेदार जो उसका जीना हराम किये थे इस बीमारी की वजह से मर गए | वो शख्स इमाम के पास फिर से गया तो इमाम ने बताया उनपे यह अज़ाब अपने क़रीबी रिश्तेदारों से रिश्ता तोड़ने उनका हक़ मारने और उन्हें परेशान करने की वजह से आया | Shaytan, vol. 1, pg. 515; al-Kafi</b><br /><br /><b><span style="color: #073763;">दुसरी रवायत है की हसन इब्ने अली जो इमाम जाफर ऐ सादिक़ अलैहिसलाम का चहेरा भाई था किसी बात पे उनकी इमाम से अनबन हो गयी और वो इस हद तक चला गया की उसने इमाम पे हमला कर दिया | <br /><br />इमाम का जब आखिरी वक़्त आया तो उन्होंने कहा उस भाई को 70 दीनार उसको भी दिए जाएँ | लोगों ने कहा या मौला आप उसे ही ७० दीनार दे रहे हैं जिसने आप्पे हमला किया था | <br /><br />इमाम ने कहा अल्लाह ने जन्नत बनायीं और उसमे खुशबु पैदा की और ऐसी खुशबु की उसे दो हज़ार की दूरी से भी महसूस किया जा सकता है लेकिन जन्नत क्या वो शख्स जन्नत की खुशबु भी नहीं पा सकता जिसने अपने रिश्तेदारों से ताल्लुक़ात ख़त्म किये हों या जो माँ बाप का आक़ किया गया हो | Hikayat-ha-e-Shanidani, vol. 5, pg. 30; Al-Ghunyah of (Sheikh) Tusi, pg. 128</span></b><br /><br />इमाम जफर ऐ सादिक़ अलैहिसलाम फरमाते हैं की रिश्तेदारों से नाता न तोडा करो क्यों मैंने क़ुरआन मी तीन जगह ऐसे लोगों पे अल्लाह को लानत करते देखा है | <br /><br />इमाम जाफर ऐ सादिक़ अलैहिसलाम ने कहा अपने को हलिका से बचाओ क्यों की यह ज़िंदगियाँ खराब कर देता है \ किसी से पुछा हालीक़ा क्या है तो इमाम ने कहा रिश्तेदारों से रिश्ते तोडना | <br /><br />एक शख्स ने हज़रात मुहम्मद सॉ से पुछा अल्लाह की नज़र में सबसे ना पसंदीदा काम क्या है ?<br /><br />जवाब आया शिर्क करना | <br /><br />क़ता ऐ रहमी <br /><br />बुरे काम को बढ़ावा देना और अच्छे को रोकना | <br /><br /> हज़रात मुहम्मद सॉ ने फ़रमाया तीन काम जिनकी सजा दुनिया और आख़िरत दोनों में मिलती है <br /><br />ना इंसाफ़ी, रिश्ते तोडना और झूटी क़सम खाना <br /><br />क़ुरान में अल्लाह फरमाता है <br /><br />हे लोगो! अपने पालनहार से डरो जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया है और उसी जीव से उसके जोड़े को भी पैदा किया और उन दोनों से अनेक पुरुषों व महिलाओं को धरती में फैला दिया तथा उस ईश्वर से डरो जिसके द्वारा तुम एक दूसरे से सहायता चाहते हो और रिश्तों नातों को तोड़ने से बचो (कि) नि:संदेह ईश्वर सदैव तुम्हारी निगरानी करता है। (4:1) सूरा ऐ निसा <br /><br />और याद करो उस समय को जब हमने बनी इस्राईल से प्रतिज्ञा ली कि तुम एक ईश्वर के अतिरिक्त किसी की उपासना नहीं करोगे, माता पिता, नातेदारों, अनाथों और दरिद्रों के साथ अच्छा व्यवहार करोगे, और ये कि लोगों के साथ भली बातें करोगे, नमाज़ क़ाएम करोगे, ज़कात दोगे, फिर थोड़े से लोगों को छोड़कर तुम सब अपनी प्रतिज्ञा से फिर गए और तुम मुहं मोड़ने वाले लोग हो। (2:83)<br /><br />(हे पैग़म्बर) वे आपसे पूछते हैं कि भलाई के मार्ग में क्या ख़र्च करें? कह दीजिए कि माता-पिता, परिजनों, अनाथों, दरिद्रों तथा राह में रह जाने वालों के लिए तुम जो चाहे भलाई करो, और तुम भलाई का जो भी काम करते हो, निःसन्देह ईश्वर उसको जानने वाला है। (2:215)<br /><br />इमाम मुहम्मद बाक़िर फरमाते हैं सिरात पुल्ल है और इसके एक तरफ होगा सिला ऐ रही और दूसरी तरफ अमानतदारी | इनदोनो के बिना यह पुल्ल पार नहीं पार नहीं कर सकेगा कोई | <br /><br />हज़रत मुहम्मद सॉ से किसी ने पुछा की ऐसा कौन स अमल है जो किसी की उम्र घटा सकता है और बढ़ा सकता है ?<br /><br />रसूल ने कहा क़ता ऐ रही उम्र घटा देता है और सिला ऐ रही उम्र को बढ़ाता है और यह तादात तीन से तीस साल तक बताई गयी है | <br /><br />इमाम ऐ रज़ा से एक बार दो लोग मिलने आय तो इमाम ने बात चीत के दौरान एक शख्स से कहा ऐ शख्स तू क़िस्मत वाला है क्यों की इस सफर में आज के दिन तेरी मौत थी लेकन अल्लाह ने उसे पांच साल बढ़ा दी | उस शख्स ने पुछा अल्लाह इतना मेहरबान क्यों हुआ ? तो इमाम बोले रास्ते में सफर के तेरी फूफी का घर पड़ता था और तुझे उसकी मुहब्बत आयी और तू उनसे मिलने चला गया | अल्लाह ने इस सिला ऐ रहमि की वजह से तेरी उम्र बढ़ा दी | <br /><br />रवायतों में है की ५ शख्स उसी दिन इंतेक़ाल कर गया जो दिन इमाम ने बताया था |<br /><b style="-webkit-tap-highlight-color: transparent; background-color: rgba(0, 0, 0, 0.02); color: rgba(0, 0, 0, 0.87); font-family: Roboto, RobotoDraft, Helvetica, Arial, sans-serif;">हमारी ज़िन्दगी की खुशियों </b><br /><a href="http://www.hamarajaunpur.com/">Jaunpur Hindi Web</a> , <a href="http://www.jaunpurazadari.com/">Jaunpur Azadari</a> <br /><br /> </div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-29513863576726492972023-03-07T08:16:00.007+05:302023-03-07T08:30:02.342+05:30Amaal and Dua on Eve of 15 Shabaan in English, Urdu and Translitration<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<h2 style="text-align: center;">Amaal and Dua on Eve of 15 Shabaan in English, Urdu and Transliteration</h2><p><br /></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnWlH0tMeXNGsZMGwRFVcmf0oX9CwMwRwbuoXZXH8-HaikkMvw3_52o6Z6qn4uU7JxHFvQp5HFNm4Zw00yswRaqytitM4O9xZHpTm_XadrFHf7yL6rPzlBVSNAK2CnkuBmZ1RaB_Q0P_XO4CS0QG9eGA9d_VnO-dZs8D7LaijY7I9Y3G6W44H9OvdSUQ/s589/15.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="388" data-original-width="589" height="422" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhnWlH0tMeXNGsZMGwRFVcmf0oX9CwMwRwbuoXZXH8-HaikkMvw3_52o6Z6qn4uU7JxHFvQp5HFNm4Zw00yswRaqytitM4O9xZHpTm_XadrFHf7yL6rPzlBVSNAK2CnkuBmZ1RaB_Q0P_XO4CS0QG9eGA9d_VnO-dZs8D7LaijY7I9Y3G6W44H9OvdSUQ/w640-h422/15.gif" width="640" /></a></p><h2 style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://www.alqaem.org/2023/03/ariza-e-hajat-letter-to-imamaj-of-our.html">Ariza Printable</a></h2><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOnKAbTj94GTyIRf_z2bUl91_2ub3owEmP0IYKUtK3QfWtTIVW43Rz4Fpgd-tfXJzy49juei_2oVBD6v-uZcUULKttng8d6wCkYW8_K5Tmuyld4BFFshy4bM7rl5nhhLb4beUe_WGunFqaAIDobEglwkTaTqd8Mfotr4CHxcsab-4ujIjEIcaHQEmm-Q/s816/152.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="816" data-original-width="601" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiOnKAbTj94GTyIRf_z2bUl91_2ub3owEmP0IYKUtK3QfWtTIVW43Rz4Fpgd-tfXJzy49juei_2oVBD6v-uZcUULKttng8d6wCkYW8_K5Tmuyld4BFFshy4bM7rl5nhhLb4beUe_WGunFqaAIDobEglwkTaTqd8Mfotr4CHxcsab-4ujIjEIcaHQEmm-Q/s16000/152.gif" /></a></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDeB_6zMhVrSuNM2hc_lcm0w9xrC-MSXJwyuILcX1HzgA7S0_dLn5ZS9qRdisipUSA3_eeJaFx4hHJnqk_R9VcqA6TlmC11ZAh0HJNi7frUTidSPOMFcaO95LuYrE5ogGYB53YgiAqyACBso57VXJahmSB9YpWTnKJsAPEXJ0_omurkk4Z8zV91IwA0g/s812/153.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="812" data-original-width="600" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgDeB_6zMhVrSuNM2hc_lcm0w9xrC-MSXJwyuILcX1HzgA7S0_dLn5ZS9qRdisipUSA3_eeJaFx4hHJnqk_R9VcqA6TlmC11ZAh0HJNi7frUTidSPOMFcaO95LuYrE5ogGYB53YgiAqyACBso57VXJahmSB9YpWTnKJsAPEXJ0_omurkk4Z8zV91IwA0g/s16000/153.gif" /></a></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIJg1Sy0lew9o5A6LHscFg38bzJkmieGGPNH2cs-fslVZlX5kEoAACMMfx16n4Yfhp2TIIzGeNetzXqkyM8mpLpxY3-NKkDd03JINLvrJTwlp12P7hVOnsMFI7gAgPhV63ly9yAHanneMoMMcZQMZYdAgtsBesqaEBFJ0PnyqFKoFJ5AYATJAkRYjTVA/s815/155.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="815" data-original-width="600" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIJg1Sy0lew9o5A6LHscFg38bzJkmieGGPNH2cs-fslVZlX5kEoAACMMfx16n4Yfhp2TIIzGeNetzXqkyM8mpLpxY3-NKkDd03JINLvrJTwlp12P7hVOnsMFI7gAgPhV63ly9yAHanneMoMMcZQMZYdAgtsBesqaEBFJ0PnyqFKoFJ5AYATJAkRYjTVA/s16000/155.gif" /></a></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhup8ku2kgEOCN63G_OsFEZgFdVNttQfqa1x1_7OLs-t3RMv280r9_4czAoJLMkjFrAJrYM-81nOCsUV7vsNWbS0lihC4MkU2bs5__l8DSJ2aNjh3sdaFxmefe3vgrJAP8wl4Fcjb5JkyOYDyQwE9mYUMmzmC8OsZqB-134gchVWsTpJu5ViF6c_t-dAw/s819/156.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="819" data-original-width="600" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhup8ku2kgEOCN63G_OsFEZgFdVNttQfqa1x1_7OLs-t3RMv280r9_4czAoJLMkjFrAJrYM-81nOCsUV7vsNWbS0lihC4MkU2bs5__l8DSJ2aNjh3sdaFxmefe3vgrJAP8wl4Fcjb5JkyOYDyQwE9mYUMmzmC8OsZqB-134gchVWsTpJu5ViF6c_t-dAw/s16000/156.gif" /></a></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTjQk1YAUa5_Z2d37dqMUV_8h8tez5KebcE4GZLZM7X3M2j_IhSHhrm5f_yYJMhsFMlLiveDIfKct7oMrNKAmZj9CRiJeIaCjg7tCYfwNuCTnEIKvOB1ero5bCUqVIILpUrMMJK6iAfMtfpfqg2ZVI29oSCK0J-qyS5CWm9lYV4Vcp3A0bmXLCfoYFig/s827/157.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="827" data-original-width="600" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTjQk1YAUa5_Z2d37dqMUV_8h8tez5KebcE4GZLZM7X3M2j_IhSHhrm5f_yYJMhsFMlLiveDIfKct7oMrNKAmZj9CRiJeIaCjg7tCYfwNuCTnEIKvOB1ero5bCUqVIILpUrMMJK6iAfMtfpfqg2ZVI29oSCK0J-qyS5CWm9lYV4Vcp3A0bmXLCfoYFig/s16000/157.gif" /></a></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBALg65q79HDGQPBizBslBXzsk_6rSkigK3DeclCojKKVKKl1u-cHa8ezDtWLQKlKJcb6AVYAA-OhDVZhmiDJD5X0g5iHKNijcYfteygRPEmpwRIysmPi4zMB98at8pVOXpdAsffx5dNFyp1ivm7B2I2ITtG0ieDCR8nuk-Tiszf9UNLOQ7kcRSMb-VQ/s822/158.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="822" data-original-width="600" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBALg65q79HDGQPBizBslBXzsk_6rSkigK3DeclCojKKVKKl1u-cHa8ezDtWLQKlKJcb6AVYAA-OhDVZhmiDJD5X0g5iHKNijcYfteygRPEmpwRIysmPi4zMB98at8pVOXpdAsffx5dNFyp1ivm7B2I2ITtG0ieDCR8nuk-Tiszf9UNLOQ7kcRSMb-VQ/s16000/158.gif" /></a></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjq0_fm-xec0iQs9EaB_ayoQGxwP_xJUUEBnzNFxmWi6Mynd6jW-X8GTYrO-38kbecN6fA-O7eWN0LroQcBnR_DiW4FThNeOI9KUiEOtrWTEEV9wtCXfzRYJXwfPSC2DsDec7qJo4aY6k2nOAlJcziJ_wUju-4Y_Tjbvlug4ocnELJmyd0RZ9CRihfqLQ/s828/159.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="828" data-original-width="601" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjq0_fm-xec0iQs9EaB_ayoQGxwP_xJUUEBnzNFxmWi6Mynd6jW-X8GTYrO-38kbecN6fA-O7eWN0LroQcBnR_DiW4FThNeOI9KUiEOtrWTEEV9wtCXfzRYJXwfPSC2DsDec7qJo4aY6k2nOAlJcziJ_wUju-4Y_Tjbvlug4ocnELJmyd0RZ9CRihfqLQ/s16000/159.gif" /></a></p><p><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSWyxHRSjT_8d5xLlSwDTdKnxYu87JM29RX8gtqXtSgWNBeuESTRlXI64Uev4-quqY7WCF_reU7lccokcX4UasVuPhUobUdbwISAmr09fEYLiWXwsBszM0O6BOBkRWtns_K1lZ8CLhTgtvhXk6ja4okLjSJPmdUW1xLtfYDXGZ0w_d2g8tQobmwHBwvQ/s846/1510.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="846" data-original-width="615" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSWyxHRSjT_8d5xLlSwDTdKnxYu87JM29RX8gtqXtSgWNBeuESTRlXI64Uev4-quqY7WCF_reU7lccokcX4UasVuPhUobUdbwISAmr09fEYLiWXwsBszM0O6BOBkRWtns_K1lZ8CLhTgtvhXk6ja4okLjSJPmdUW1xLtfYDXGZ0w_d2g8tQobmwHBwvQ/s16000/1510.gif" /></a><br /></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMQKA8c_FdI4Js6I3cDsxKB_TthDG4V9gAeBJ4-4bZZaemrYn9T3kYsdCk8iwrU_ZsnIc5ojWuwh8rRW5YaAOcG3KnEG0l7Wn4wo9fZAUTq4I-3vi2cBDxXllCLw4hUE-TSdWX_UJHGhJq-_RKYPS2c_dCVvF-1M1ILbC13708mMA3cK_kF88qiE7Myg/s800/1511.gif" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="800" data-original-width="601" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMQKA8c_FdI4Js6I3cDsxKB_TthDG4V9gAeBJ4-4bZZaemrYn9T3kYsdCk8iwrU_ZsnIc5ojWuwh8rRW5YaAOcG3KnEG0l7Wn4wo9fZAUTq4I-3vi2cBDxXllCLw4hUE-TSdWX_UJHGhJq-_RKYPS2c_dCVvF-1M1ILbC13708mMA3cK_kF88qiE7Myg/s16000/1511.gif" /></a></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><h2 style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://www.alqaem.org/2023/03/ariza-e-hajat-letter-to-imamaj-of-our.html">Ariza Printable</a></h2><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"> </font></p>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-16515631612299168862023-03-06T09:58:00.008+05:302023-03-06T10:15:37.000+05:30Ariza e Hajat- Letter to the Imam(a.j) Download<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<h2 style="text-align: center;">Ariza e Hajat- Letter to the Imam(a.j) of our time</h2><div>In morning of 15th shabaan ( The time of birth of Imam mehdi (a.j) is the best time to send ARIZA to imam e zaman (a.s)). He read our wishes and also solves our problems.</div><div><br />We can also send this ARIZA on any juma also.<br /><br />When you decide to send Ariza ( Drop your Ariza In sea, river, well, ect) recite after<br /><br />Bismillah Hir Rahmanir Raheem.<br /><br /><b>LOUDLY………….. Ya husain Bin e Rauh</b><br /><br />Then in normal tone…<br /><br /><b>Salamun alika ashahado anna wafateka fi sabilillahe wa annaka<br /><br />Haeyyun indallahe marzooqun wa qad qa tab toka fi hayatekal latee<br /><br />Laka indallahe azza wa jalla wahaadehi ruk atee wa hajatee ela maulana<br /><br />sahibal asr e alaihislam fa sallim ha aelaihe fa antas fiqetul ameen.</b><br /><br />And Drop your Ariza In sea, river, well, ect</div><div><br /></div><p><font size="3"><a href="https://www.alqaem.org/2014/06/amaal-and-dua-on-eve-of-15-shabaan.html" target="_blank"><b>Amaal and Dua on Eve of 15 Shabaan</b></a></font></p><div><h2 style="-webkit-font-smoothing: antialiased; background-color: #060f29; box-sizing: inherit; clear: both; color: #f2f2f2; font-family: Poppins, -apple-system, BlinkMacSystemFont, "Segoe UI", Roboto, Oxygen, Ubuntu, Cantarell, "Fira Sans", "Droid Sans", "Helvetica Neue", sans-serif; font-size: 1.95312rem; line-height: 1.125; margin: 32px auto; max-width: calc(750px); padding: 0px; text-align: center;"><a href="https://smma59.wordpress.com/2008/08/16/birthday-of-imam-alqaaem-almahdi-aj/" rel="bookmark" style="background-color: transparent; box-sizing: inherit; color: #b59439; cursor: pointer; max-width: unset; text-decoration-line: none;" title="Permanent Link to The Analytical history of ImamMehdi (AJ) From his birth to the success (Audio)">The Analytical history of ImamMehdi (AJ) From his birth to the success (Audio)</a></h2></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhqQyrtpwaNaiGmi8--Ird1vRZ4m5Rz0bRyQIPs6dTu5J0EQrMXfvpApCvWH4W88l8t2xiO7GMfjiTJG3XlKo5kjyhj11Flyd449wmH7aAbFHxJxR2mlCkKJmutzTWVffR-vGBtrT-oYoDx6itaXdrmNvOyqagT9bXYfWWphKtZ5lVpzCo1ZjlKqMbDA/s3300/ARIZA-_URDU.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3300" data-original-width="1650" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjhqQyrtpwaNaiGmi8--Ird1vRZ4m5Rz0bRyQIPs6dTu5J0EQrMXfvpApCvWH4W88l8t2xiO7GMfjiTJG3XlKo5kjyhj11Flyd449wmH7aAbFHxJxR2mlCkKJmutzTWVffR-vGBtrT-oYoDx6itaXdrmNvOyqagT9bXYfWWphKtZ5lVpzCo1ZjlKqMbDA/s16000/ARIZA-_URDU.jpg" /></a></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfEZzZsb5yKterFxjw-7w1oHCx_ztUs3ufTjkaC2trhXSX4ckYNm4Wi8xF94uvdl13Lxp94N-hRxIIDoaeu8kPYjR-WjCdhQTeovvIJvnFeIl7za8Oor-8naDdlKiP4aNOc39lIW1OmkFxTJsv-Yz5hDSXbcDeGMb1WUkgQ5a20Xi6jQE4__G_Ft6ceg/s3300/Ariza_Arabic.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3300" data-original-width="1650" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfEZzZsb5yKterFxjw-7w1oHCx_ztUs3ufTjkaC2trhXSX4ckYNm4Wi8xF94uvdl13Lxp94N-hRxIIDoaeu8kPYjR-WjCdhQTeovvIJvnFeIl7za8Oor-8naDdlKiP4aNOc39lIW1OmkFxTJsv-Yz5hDSXbcDeGMb1WUkgQ5a20Xi6jQE4__G_Ft6ceg/s16000/Ariza_Arabic.jpg" /></a></div><p><font size="3"><br /></font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZ1Br-6Xz-ynhM_oc69LgkL-3wE3AIqQqMlZ95QSoLiK-lmneSPHIJn_cPazgxUuyi5MnYSL7hnQadSV_exmWhlnJBXDrEtS5hnhYTADcYqJ9cUsVHlQytKtDraQ5ikT9iOUvqbiyH_3OsAVGvFoJsoBBPWbncO6RDC_yYTC8JnPykJ9709JVzS6JHpA/s3300/Ariza_English.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="3300" data-original-width="1650" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZ1Br-6Xz-ynhM_oc69LgkL-3wE3AIqQqMlZ95QSoLiK-lmneSPHIJn_cPazgxUuyi5MnYSL7hnQadSV_exmWhlnJBXDrEtS5hnhYTADcYqJ9cUsVHlQytKtDraQ5ikT9iOUvqbiyH_3OsAVGvFoJsoBBPWbncO6RDC_yYTC8JnPykJ9709JVzS6JHpA/s16000/Ariza_English.jpg" /></a></div><p><font size="3"><br /></font></p><div><br /></div><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"> </font></p>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-84914620304151017062021-11-01T09:40:00.003+05:302021-11-01T09:40:53.548+05:30मुश्किल हल करें इमाम ए जाफर ए सादिक़ (अ ) की नमाज़ से ।<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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</script>Mushkilat Ki Namaz <div><br /><div>इमाम जाफर सादिक (अल्लाह हुम्मा सल्ले अला मोहम्मद वा आले मोहम्मद) से रिवायत है कि अगर कोई परेशानी में हो तो उसे चाहिये कि सुबह की नमाज़ की तरह दो दो रकअत करके तीन बार नमाज़ पढे यानी छ: रकअत सूरज निकलने के बाद और किब्ले की तरफ मुंह करके, उसे चाहिये कि इस दुआ को पढे। <br /><br />बिसमिल्ला हिर रहमानिर रहीम: “अल्लाहुम-म आतिना बिल आफ़ियति मिन हैसु शिअता व कैफा शिअता व अना शिअता फ़इन्नका तफ्अल मा शिअता कैफा शिअता”</div></div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-3466774451330174822021-11-01T09:24:00.004+05:302021-11-01T09:26:08.017+05:30नमाज़ हदिया ए वालिदैन<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://1.bp.blogspot.com/-6LvVtLERsHE/YX9k4Fd12wI/AAAAAAAAX3s/pn7lZR427x4dlhCgtQwNNk6S2NAodEYywCLcBGAsYHQ/s810/20211101_092033.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="810" data-original-width="720" height="320" src="https://1.bp.blogspot.com/-6LvVtLERsHE/YX9k4Fd12wI/AAAAAAAAX3s/pn7lZR427x4dlhCgtQwNNk6S2NAodEYywCLcBGAsYHQ/s320/20211101_092033.jpg" width="284" /></a></div><br /><p><br /></p><p> </p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"> </font></p>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-62947445566904440862021-10-28T17:12:00.009+05:302023-03-27T10:36:18.645+05:30नमाज़ ए जनाज़ा तकबीर के साथ हिंदी में <div class="separator"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9HjYeA-2tCbQQm2V_CZhnK88dsU_TpZ4IZphL0oOzlj-dcFb-op4Af3C5oTHBl5XCrvuBF8D0vOubGK6D9SxbcvoUoJfijb1JH1X6piEw-qYFgP-TLD-6grtnlMxvNhKn5V6eHwPR2g66bX5hr81ZLieSzhZ_NJEIhyn3d2988GajJCCeUxEsuWqn/s1024/11254474_499830963560885_8333132303777564847_o.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="876" data-original-width="1024" height="343" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9HjYeA-2tCbQQm2V_CZhnK88dsU_TpZ4IZphL0oOzlj-dcFb-op4Af3C5oTHBl5XCrvuBF8D0vOubGK6D9SxbcvoUoJfijb1JH1X6piEw-qYFgP-TLD-6grtnlMxvNhKn5V6eHwPR2g66bX5hr81ZLieSzhZ_NJEIhyn3d2988GajJCCeUxEsuWqn/w400-h343/11254474_499830963560885_8333132303777564847_o.jpg" width="400" /></a></div><script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<h2 style="text-align: center;">Namaz e Mayyat </h2><br /><div style="text-align: center;">इस नमाज़ में वज़ू या ग़ुस्ल की ज़रूरत नही लेकिन किबला रुख होना ज़रूरी।</div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;">नीयत : नमाज़ ए जनाज़ा पढ़ता हूँ मैं फुलां इब्ने फुलां वाजिब क़ुरबत इल्लल्लाह।</div><div style="text-align: center;"><br /></div><div style="text-align: center;">नमाजे मय्यत मय्यत को गुस्ल व कफन देने के बाद नमाज़ पढे। जिसकी चार तकबीरे हैं।</div><h4 style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: 1.2; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px 0px 18px; vertical-align: baseline;"><span style="color: #339966; font-family: inherit;"><span style="font-family: inherit;"><span face=""open sans", sans-serif" style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-size: 30px; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><a name='more'></a></span></span></span><span style="border-color: initial; border-image: initial; border-style: initial; box-sizing: border-box; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: inherit; outline-color: initial; outline-style: initial;">पहली तकबीर</span><span style="color: #339966; font-family: inherit;"><span style="font-family: inherit;"><span face="open sans, sans-serif" style="color: #333333;"><span style="background-color: white; border-color: initial; border-image: initial; border-style: initial; box-sizing: border-box; font-size: 30px; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; outline-color: initial; outline-style: initial;">:</span></span></span></span></h4><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #444444; font-family: "open sans", serif; font-size: 15px; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: 1.6; margin: 0px 0px 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: #993366; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अल्लाहु अकबरः</span></span> <span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">बिसमिल्ला हिर रहमानिर रहीम</span> अश्हदु अल्ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहू ला शरीका लहू, व अश्हदु अन्ना मुहम्मदन अब्दुहू व रसूलुह, अरसलहू बिल हक्कि बशीरंव वनजीरम बैना यदैहिस्साआ।</span></p><h4 style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: 1.2; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px 0px 18px; vertical-align: baseline;"><span style="border-color: initial; border-image: initial; border-style: initial; box-sizing: border-box; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: inherit; outline-color: initial; outline-style: initial;">दूसरी तकबीर</span><span style="font-family: inherit;"><span style="color: #339966; font-family: inherit;"><span face="open sans, sans-serif" style="color: #333333;"><span style="background-color: white; border-color: initial; border-image: initial; border-style: initial; box-sizing: border-box; font-size: 30px; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; outline-color: initial; outline-style: initial;">:</span></span></span></span></h4><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #444444; font-family: "open sans", serif; font-size: 15px; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: 1.6; margin: 0px 0px 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: #993366; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अल्लाहु अकबर:</span></span> <span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">बिसमिल्ला हिर रहमानिर रहीम</span> अल्लाहुम्मा सललि </span><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अला मुहम्मदिव व आलि मुहम्मदिव व बारिक अला मुहम्मदिव व आलि मुहम्मदिव वरहम मुहम्मदन व आलि मुहम्मदिन कअफ्जलि मा सल्लयता व बारक्त व तरहहमता अला इब्राहीमा व आलि इब्राहीमा इन्नका हमीदुम्मजीद व स्वल्लि अला जमीइल अंबियाइ वल मुर्सलीन।</span></p>तीसरी तकबीरः<p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #444444; font-family: "open sans", serif; font-size: 15px; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: 1.6; margin: 0px 0px 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: #993366; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अल्लाहु अकबरः</span></span> <span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">बिसमिल्ला हिर रहमानिर रहीम</span> अल्लाहुम्मर फ्रि लिल मुमिनीना वल मुमिनाति वल मुस्लिमीना वल मुस्लिमातिल अहयाइ मिन्हुम वल अम्बाति ताबि बैनना व बैनहुम बिलखैराति इन्नका मुजीबुद्वावाति इन्नका अला कुललि शैइन कदीर।</span></p>चौथी तकबीरः<p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #444444; font-family: "open sans", serif; font-size: 15px; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: 1.6; margin: 0px 0px 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: #993366; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अल्लाहु अकबरः <span style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">बिसमिल्ला हिर रहमानिर रहीम</span></span></span> अल्लाहुम्मा इन्ना हाज़ा अब्दुका व्ब्नु अबदका व्ब्नु अबदका वनु उम्मतिका नज़ला बिका वअन्ता खैरू मन्जूलु बिही, अल्लाहुम्मा इन्ना ला नालमु मिन्हु इल्ला खैरंव वअन्ता आलमु बिहि मिन्ना अल्लाहम्मा इन काना महसिनन फज़िदनी इहसानिडी व इन काना मुसीअन फतजावज़ अन्ह वरफिर लहु अल्लाहुम्मज अल्हु इन्दका फी आला इल्लिय्यीना वख्लुफ </span><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अला अहलिही फ़िलगाबिरीना वर हम्हु बिरहमतिका या अर-हमर-राहिमीन।</span></p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #444444; font-family: "open sans", serif; font-size: 15px; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: 1.6; margin: 0px 0px 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अल्लाहु अकबर कहे और कुनूत पढकर नमाज़ तमाम करे। अगर मय्यत औरत की हो तो चौथी तकबीर इस तरह पढे।</span></p><p><font size="3"></font></p><p style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: border-box; color: #444444; font-family: "open sans", serif; font-size: 15px; font-stretch: inherit; font-variant-east-asian: inherit; font-variant-numeric: inherit; line-height: 1.6; margin: 0px 0px 15px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; color: #993366; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: inherit; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">अल्लाहु अकबरः</span> </span><span style="border: 0px; box-sizing: border-box; font-family: inherit; font-stretch: inherit; font-style: inherit; font-variant: inherit; font-weight: 700; line-height: inherit; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;">बिसमिल्ला हिर रहमानिर रहीम</span></span> अल्लाहुम्मा इन्ना हाज़िहि अमतुका वनतु अब्दिका वनतु अ-म-ति-क नज़लत बिका वअन्त खैरू मन्जूलिन बिही, अल्लाहुम्मा इन्ना ला नालमु मिन्हु इल्ला खैरंव वअन्ता आलमु बिहि मिन्ना अल्लाहुम्मा इन कानत महसिनतन फ़ज़िदनी इहसानिहा व इन काना मुसीअतन फ़तजावज़ अन्हा वग्फिर लहा अल्लाहुम्मज अल्हा इन्दका फी आला इल्लिय्यीना वख्लुफ़ अला अहलिहा फिलगाबिरीना वर हम्हा बिरहमतिका या अरहम हिमीन।</span></p><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="65" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="267" /></a></strong></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"> </font></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br />S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-42633317571542967232021-10-28T07:51:00.003+05:302021-11-01T09:28:26.303+05:30अज़ान का तर्जुमा हिंदी में<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<br />Azan in Hindi<br /><br />Azan in Hindi इस पोस्ट में हमने आपको अज़ान का हिंदी में तर्जुमा बताया है उम्मीद है आपको पसद आएगा !<br /><br />अल्लाह हो अकबर<br />अल्लाह हो अकबर<br />अल्लाह हो अकबर<br />अल्लाह हो अकबर<br /><br />खुदा सबसे ज़्यादा बुज़ुर्ग है<br /><br />अशहदु अल ला इलाहा इलल्लाह<br />अशहदु अल ला इलाहा इलल्लाह<br /><br />गवाही देता हूँ ब तहक़ीक़, कोई खुदा नहीं सिवाए अल्लाह के<br /><br />अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह<br />अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह<br /><br />गवाही देता हूँ ब तहक़ीक़, के मोहम्मद अल्लाह के रसूल है<br /><br />अशहदो अन्ना अमीरल मो मिनीना व इमामल मुत्तक़ीना, अलीयून वाली उल्लाह, व वासियो रसूलिल्लाहे व खली फतुहु बिला फ़स्ल<br />अशहदो अन्ना अमीरल मो मिनीना व इमामल मुत्तक़ीना, अलीयून वाली उल्लाह, व वासियो रसूलिल्लाहे व खली फतुहु बिला फ़स्ल<br /><br />गवाही देता हूँ ब तहक़ीक़, की अली मोमिनो के अमीर और मुत्ताकियो के इमाम, अल्लाह के वाली है रसूल ए खुदा के वसी और बिला फस्ल ख़लीफ़ा है<br /><br />हय्या अलस्सलाह<br />हय्या अलस्सलाह<br /><br />नमाज़ के लिए तैयार हो जाओ<br /><br />हय्या अलल फ़लाह<br />हय्या अलल फ़लाह<br /><br />नजात (कामयाबी की तरफ आओ)<br /><br />हय्या अला ख़ैरिल अमल<br />हय्या अला ख़ैरिल अमल<br /><br />बेहतरीन अमल की तरफ आओ<br /><br />अल्लाह हो अकबर<br />अल्लाह हो अकबर<br /><br />खुदा सबसे ज़्यादा बुज़ुर्ग है<br /><br />ला इलाहा इलल्लाह<br />ला इलाहा इलल्लाह<br /><br /><br /><br />अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है<br /><br /><a href="https://www.blogger.com/#"><img src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" /></a> <br /><br /><a href="https://www.blogger.com/#">Discover Jaunpur</a> , <a href="https://www.blogger.com/#">Jaunpur Photo Album</a> <br /><br /><a href="https://www.blogger.com/#">Jaunpur Hindi Web</a> , <a href="https://www.blogger.com/#">Jaunpur Azadari</a> <br /><br /> S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-13879311456448866492021-10-28T07:24:00.005+05:302023-03-27T10:37:27.056+05:30क़ुरान पढ़ने में कहाँ सजदा वाजिब है ?<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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</script><div> <br />कुरान करीम की तिलावत करते वक़्त कुछ मकाम ऐसे आते है जहाँ सजदा करना वाजिब है कुरान में चार मकाम ऐसे है जहा सजदा करना वाजिब है और ताखीर नही करनी चाहिए फ़ौरन सजदे अदा करने चाहिए और 11 मकाम ऐसे है जहा वाजिब नही है बलके मुस्तहब है यानि करेगे तो सवाब होगा !</div><div><br />4 मकामात कौन से है? </div><div><br />सूरत ए अस सजदा सुराह नंबर 32 आयत नंबर 15<br />सूरत ए फुसेलत सुराह नंबर 41 आयत नंबर 37<br />सूरत ए अन नज्म सुराह नंबर 53 आयत नंबर 62<br />सूरत ए अल अलाक़ या इकरा सुराह नंबर 96 आयत नंबर 19<br /><br />इन सजदो में क़िबला रुख की शर्त नही है मसलन कोई ख़ातून है उसके सर पर रुपट्टा नही भी है और उसने सजदा कर लिया तो कोई हर्ज नही है हो सकता है अपने वजू न किया हो तब भी आप इन सजदो को कर सकते है इन सजदो में नमाज़ के सजदे की तरह शर्त नही है सजदे में सात अजा टिकाने ज़रूरी है और दुरान ए सजदा कोई भी ज़िक्र कर सकते है !<br /><br />नियत: सजदा करती हूँ या करता हूँ कुरान का जो वाजबी है कुर्बतन इल्ललाह और सजदा करेगे और उसके बाद अल्ला हो अकबर कहकर उठ जायगे ना तशुद है और सलाम है और ना ही कोई खास ख़सूसी तोर पर विर्द है आप सजदे में कोई भी ज़िक्र कर सकते है जैसे: सुभहाना रब्बिल आला वाबे हम्देही. अल्लाह हो अकबर या कोई भी ज़िक्र आप कर सकते है आप का सजदा अदा हो जाएगा !<br /><br />सजदा कब वाजिब होता है?<br />आप कुरान पढ रहे है और आप सजदे की आयात को पढ़ते है तो आप पर सजदा वाजिब हो जायगा और आपको बिना देरी किये फ़ौरन इस सजदे को अदा करना है !<br /><br />क्या कुरान की तिलावत सुनने वाले पर भी सजदा वाजिब हो जाएगा ?<br />अगर कुरान की तिलावत हो रही है और कोई बंदा वहा से निकला हुवा जा रहा है और वो कुरान की आयात को सुन लेता है तो उस पर सजदा वाजिब नही है !<br /><br />लेकिन जानबुझ कर कोई इंसान कुरान की तिलावत सुन रहा है या हो सकता है लाइव क्लास चल रही है तो उस सूरत में सजदा वाजिब है और सजदे को फ़ौरन अदा करना ज़रूरी है !<br /><br /><div style="text-align: center;"><a href="https://www.blogger.com/#"><img src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/s1600/shiraz.gif" /></a></div><br /><a href="https://www.blogger.com/#">Discover Jaunpur</a> , <a href="https://www.blogger.com/#">Jaunpur Photo Album</a> <br /><br /><a href="https://www.blogger.com/#">Jaunpur Hindi Web</a> , <a href="https://www.blogger.com/#">Jaunpur Azadari</a> <br /><br /> </div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-77654866115583864532021-08-03T22:12:00.001+05:302021-08-03T22:12:40.114+05:30मुसलमानों के मुताबिक अब तक कुल 313 रसूल/नबी, अल्लाह की तरफ से भेजे जा चुके<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मुसलमानों का मानना है कि हर युग और हर दौर मैं अल्लाह ने इस धरती पर अपने दूत(संदेशवाहक/पैग़म्बर), अपने सन्देश के साथ इस उद्देश्य के लिए भेजे हैं कि अल्लाह के यह दूत इंसानों को सही रास्ता दिखायें और इंसान को बुरे रास्ते पर चलने से रोकें. इन्हीं संदेशवाहकों को इस्लाम में पैग़म्बर या नबी कहा जाता है. ईश्वर की तरफ से संदेशवाहकों की ज़रुरत इसलिए पड़ी क्योंकि ईश्वर ने इंसान को धरती पर पूरी आज़ादी देकर भेजा है. इंसान में इस दुनिया को बनाने के साथ साथ तबाह करने की भी क़ाबलियत है. वह परमाणु पावर से सारी दुनिया रोशन भी कर सकता है और इसी परमाणु अटम बोम्ब के सहारे लाखों लोगों को एक ही पल मैं मौत के मुह मैं भी पहुंचा सकता है.<br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मुसलमानों के मुताबिक अब तक कुल 313 रसूल/नबी, अल्लाह की तरफ से भेजे जा चुके हैं, इनमें से 5 रसूल बड़े रसूल हैं. जो कि हैं:<br />
<br />
1. हज़रत Abraham(इब्राहीम)<br />
2. हज़रत Moses(मूसा)<br />
3. हज़रत David(दावूद)<br />
4. हज़रत Jesus (ईसा)<br />
5. हज़रत Muhammad(मोहम्मद)<br />
<br />
<b>हज़रत मोहम्मद इन सब नबियो में सबसे आखिरी नबी हैं.</b><br />
कुछ और दुसरे नबियों के नाम हैं:<br />
हज़रत Adam (आदम)<br />
हज़रत Nooh (नूह)<br />
हज़रत Ishaaq (इसहाक़)<br />
हज़रत Yaaqub (याक़ूब)<br />
हज़रत Joseph (युसुफ़)<br />
हज़रत Ismail (इस्माइल)</div>
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इस्लाम क्या है?</div>
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इस्लाम धर्म के मानने वालों को मुस्लिम कहा जाता है. मुस्लिम शब्द सबसे पहले हज़रत इब्राहीम के मानने वालों के लिए इस्तमाल किया गया था.</div>
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<b>हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा:</b></div>
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पैग़म्बर हज़रत नूह के कई सौ साल बाद हज़रत इब्राहीम को अल्लाह ने अपना पैग़म्बर बनाया. हज़रत इब्राहीम के दो बेटे हुए, एक हज़रत इस्माइल और दुसरे हज़रत इस्हाक़. इस्हाक़ से बनी इसराइल की नस्ल चली और इस्माइल की नस्ल में हज़रत मोहम्मद ने जन्म लिया.</div>
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लेकिन हज़रत मोहम्मद के पूर्वजों में भी एक पूर्वज थे अब्दुल मनाफ़, जिनके यहाँ ऐसे जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए जो आपस में जुड़े हुए थे. इन दोनों में से केवल एक ही को बचाया जा सकता था. इसलिए यह फैसला किया गया कि तलवार से काट कर दोनों को अलग किया जाए लेकिन तलवार से अलग किये जाने के बाद दोनों ही बच्चे जीवित रहे. इनमें से एक का नाम हाशिम और दूसरे का नाम उमय्या रखा गया. इसी लिए इन दोनों बच्चों की नस्लों को बनी हाशिम और बनी उमय्या कहा जाने लगा. बनी हाशिम को मक्का के सब से पवित्र धर्म स्थल क़ाबा की देख भाल और धार्मिक कार्य अंजाम देने की ज़िम्मेदारी सोंपी गई थी.</div>
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पैग़म्बर मोहम्मद के दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अरब सरदारों में बहुत अहम समझे जाते थे, उन्हें सय्यदुल बतहा कहा जाता था. पैग़म्बर साहब के वालिद(पिता) का नाम हज़रत अब्दुल्लाह और वालिदा(माता) का नाम हज़रत आमिना था.</div>
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मोहम्मद साहब के पैदा होने से कुछ महीने पहले ही उनके वालिद का इंतिकाल हो गया और उनकी परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी दादा हज़रत मुत्तलिब को उठानी पड़ी. कुछ समय के बाद मोहम्मद साहब के दादा भी चल बसे और माँ का साया भी बचपन में ही उठ गया. अब इस यतीम बच्चे की सारी ज़िम्मेदारी चाचा अबूतालिब ने उठाली और हज़रत हलीमा नाम की दाई के संरक्षण मे मोहम्मद साहब की परवरिश की.</div>
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बचपन में मोहम्मद साहब भेड़-बकरी को रेवड़ चराने जंगलो में ले जाते थे और इस तरह उनका बचपन गुज़र गया. बड़े होने पर उन्हें अरब की एक धनी महिला हज़रत ख़दीजा के यहाँ नौकरी मिल गई और वह हज़रत ख़दीजा का व्यापार बढ़ाने मे लग गये.</div>
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मोहम्मद साहब की ईमानदारी, लगन, निष्टा और मेहनत से हज़रत ख़दीजा का कारोबार रोज़-बरोज़ बढ़ने लगा. मोहम्मद साहब के आला किरदार से हज़रत ख़दीजा इतना प्रभावित हुईं कि उन्होनें एक सेविका के ज़रिए मोहम्मद साहब के पास शादी का पैग़ाम भिजवाया जिस को हज़रत मोहम्मद ने खुशी के साथ क़ुबूल लिया.</div>
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इस बीच हज़रत मोहम्मद अरब जगत में अपनी सच्चाई, लगन, इंसानियत-नवाज़ी, बिना किसी पक्षपात वाले तौर तरीक़ो, अमानतदारी और श्रेष्ठ चरित्र के लिए मशहूर हो चुके थे. एक ओर हज़रत मोहम्मद आम लोगो, ग़रीबों, लाचारों ज़रूरत मंदो और ग़ुलामों की मदद करने काम खामोशी से अंजाम दे रहे थे, दूसरी तरफ अरब जगत ज़ुल्म, अत्याचार, क्रूरता, झूठ, बेईमानी के अँधेरे में डूबता जा रहा था. हज़रत मोहम्मद ने पैग़म्बर होने का ऐलान करने से पहले अरब समाज में अपनी सच्चाई का लोहा मनवा लिया था. सारे अरब में उनकी ईमानदारी और अमानतदारी मशहूर हो चुकी थी. लोग उनको सच्चा और अमानतदार कहने लगे थे.</div>
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जब पेगंबर साहब 30 साल की उमर में पहुँचे तो उनके चाचा हज़रत अबूतालिब के घर में एक बच्चे का जन्म हुआ. पैग़म्बर साहब ने बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली. बाद में इसी बच्चे को दुनिया ने हज़रत अली के नाम से पहचाना. जब हज़रत अली 10 साल के हो गये तो लगभग चालीस साल की उमर में हज़रत मोहम्मद को अल्लाह की तरफ़ से पहली बार संदेश आया: “इक़्रा बिसमे रब्बीका” यानी पढ़ो अपने रब्ब के नाम के साथ. पैग़म्बर साहब यह सुन कर पानी-पानी हो गये और घर लौट कर सारा क़िस्सा अपनी पत्नी हज़रत ख़दीजा को बताया की किस तरह अल्लाह के भेजे हुए फरिश्ते ने उन्हें अल्लाह की खबर दी है. हज़रत ख़दीजा ने फ़ौरन ही यह बात मान ली कि हज़रत मोहम्मद अल्लाह द्वारा नियुक्त किये हुए पैग़म्बर हैं, फिर हज़रत अली ने भी फ़ौरन यह बात स्वीकार कर ली कि मोहम्मद साहब अल्लाह द्वारा भेजे हुए पैग़म्बर है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
शुरू में पैग़म्बर साहब ने ख़ामोशी से अपना अभियान चलाया और कुछ ख़ास मित्रों तक ही बात सीमित रखी. इस तरह तीन साल का वक़्त गुज़र गया. तब अल्लाह की और से सन्देश आया कि अब इस्लाम का प्रचार खुले आम किया जाए. इस आदेश के बाद पैग़म्बर साहब मक्का नगर कि पवित्र पहाड़ी “कोहे सफ़ा” पर खड़े हुए और जमा लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर मैं तुम से कहूँ कि पहाड़ के पीछे से एक सेना आ रही है तो क्या तुम मेरा यक़ीन करोगे? सब ने कहा : “हाँ, क्योंकि हम तुमको सच्चा जानते हैं”, उसके बाद जब पैग़म्बर साहब ने कहा कि अगर तुम ईमान न लाये तो तुम पर सख्त अज़ाब(प्रकोप) नाज़िल होगा तो सब नाराज़ हो कर चले गए. इनमें अधिकतर उनके खानदान वाले ही थे. इस ख़ुतबे(प्रवचन) के कुछ समय बाद पैगंबर साहब ने एक दावत में अपने रिश्तेदारों को बुलाया और उनके सामने इस्लाम का संदेश रखा लेकिन हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा परिवार जन हज़रत मोहम्मद को अल्लाह का संदेशवाहक मानने को तैयार नहीं था. तीन बार ऐसी ही दावत हुई और हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति पैगंबर साहब की हिमायत के लिए खड़ा नहीं हुआ, हालाँकि पैगंबर साहब इस बात का न्योता भी दे रहे थे कि जो उनकी बात मानेगा वही उनका उत्तराधिकारी होगा.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
जिस समय मुसलमानो की तादाद चालीस हो गई तो पैगंबर साहब ने मक्का के पवित्र स्थल क़ाबा में पहुँच कर यह ऐलान कर दिया कि “अल्लाह के अलावा कोई इबादत के क़ाबिल नही है”. इस प्रकार की घोषणा से मक्का के लोग हक्का बक्का रह गए और उन्होनें चालीस मुसलमानों की छोटी सी टुकड़ी पर हमला कर दिया और एक मुस्लिम नवयुवक हारिस बिन अबी हाला को शहीद कर दिया. उसके बाद हज़रत यासिर को शहीद किया गया, खबाब बिन अलअरत को जलते अंगारों पर लिटा कर यातना दी गई. हज़रत बिलाल को जलती रेत पर लिटा कर अज़ीयत दी गई. सुहैब रूमी का सारा समान लूट कर उन्हें मक़्क़े से निकाल दिया गया. इस्लाम धर्म क़ुबूल करने वाली महिलाओं को भी परेशान किया जाने लगा. इनमें हज़रत यासिर की पत्नी सुमय्या, हज़रत उमर की बहन फातेमा, ज़ुनैयरा, नहदिया और उम्मे अबीस जैसी महिलाएं शामिल थीं. इनमे से कुछ को क़त्ल भी कर दिया गया. अल्लाह के आदेश पर अपने को पैगंबर घोषित करने के पाँचवे साल पैग़म्बर साहब को अपने अनेक साथियों को मक्का छोड़ कर हब्श(अफ्रीका) की और जाने के लिए कहना पड़ा और 16 मुसलमान हबश चले गये. कुछ समय बाद 108 लोगो पर आधारित मुसलमानों का एक और दल हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के नेतृत्व में मक्का छोड़ कर चला गया. मुसलमानों के पलायन से मक्के के काफ़िरों का होसला बढ़ गया. ख़ास तौर पर अबू जहल नामक सरदार पैग़म्बर साहब को प्रताड़ित करने लगा. यह देख कर मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया. उनके शामिल होने से मुसलमानों को बहुत हौसला मिला क्योंकि हज़रत हम्ज़ा बहुत मशहूर योद्धा थे. फिर भी मक्के वालो ने पैग़म्बर साहब का जीना दूभर किये रखा. बड़े तो बड़े, छोटे छोटे बच्चो को भी पैग़म्बर साहब पर पत्थर फेंकने पर लगा दिया गया. औरते छतों से कूड़ा फेंकने पर लगाईं गई. इस दुश्वार घडी में पत्थर मारने वाले बच्चों को खदेड़ने का काम कम आयु के हज़रत अली ने अंजाम दिया, कूड़ा फैंकने वाली औरत के बीमार पड़ने पर उसकी खैरियत पूछने की ज़िम्मेदारी स्वंय पैग़म्बर साहब ने और मक्का के बड़े बड़े सरदारों की साजिशों से हज़रत मोहम्मद को सुरक्षित रखने का काम हज़रत अली के पिता हज़रत अबू तालिब ने अपने सर ले रखा था. जब हज़रत मोहम्मद का एकेश्वरवाद का सन्देश तेजी से फैलने लगा तो दमनकारी शक्तियाँ और हिंसक होने लगीं और पैग़म्बर साहब के विरोधी खिन्न हो कर उनके चाचा हज़रत अबू तालिब के पास पहुंचे और कहा कि या तो वे हज़रत मोहम्मद को अपने धर्म के प्रचार से रोके या फिर हज़रत मोहम्मद को संरक्षण देना बंद कर दें. हज़रत अबू तालिब ने मोहम्मद साहब को समझाने की कोशिश की लेकिन जब मोहम्मद साहन ने उनसे साफ़ साफ़ कह दिया कि “अगर मेरे एक हाथ में चाँद और दूसरे हाथ में सूरज भी रख दिया जाए तो भी में अल्लाह के सन्देश को फैलाने से बाज़ नहीं आ सकता. खुदा इस काम को पूरा करेगा या मैं खुद इस पर निसार हो जाऊँगा.”</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
लोगों का मानना है कि इसी समय हज़रत अबू तालिब ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन मक्के के हालात देखते हुए उन्होंने इसकी घोषणा करना मुनासिब नहीं समझा. जब यह चाल भी नाकाम हो गई तो मक्के के सरदारों ने एक और चाल चली. उन्होंने अकबा बिन राबिया नाम के एक व्यक्ति को पैग़म्बर साहब के पास भेजा और कहलवाया कि “ऐ मोहम्मद! आखिर तुम चाहते क्या हो? मक्के की सल्तनत? किसी बड़े घराने में शादी? धन, दौलत का खज़ाना? यह सब तुम को मिल सकता है और बात पर भी राज़ी हैं कि सारा मक्का तुम्हे अपना शासक मान ले, बस शर्त इतनी है कि तुम हमारे धर्म मैं हस्तक्षेप न करो”. इस के जवाब में हज़रत मोहम्मद ने कुरआन शरीफ कि कुछ आयते(वचन) सुना दीं. इन आयातों का अकबा पर इतना असर हुआ कि उन्होंने मक्के वालों से जाकर कहा कि मोहम्मद जो कुछ कहते हैं वे शायरी नहीं है कुछ और चीज़ है. मेरे ख़याल में तुम लोग मोहम्मद को उनके हाल पर छोड़ दो अगर वह कामयाब हो कर सारे अरब पर विजय हासिल करते हैं तो तुम लोगो को भी सम्मान मिलेगा अन्यथा अरब के लोग उनको खुद इ९ ख़तम कर देंगे. लेकिन मक्के वाले इस पर राज़ी नहीं हुए और हज़रत मोहम्मद के विरुद्ध ज़्यादा कड़े कदम उठाये जाने लगे. (हज़रत मोहम्मद को परेशान करने वालो में अबू सुफ्यान, अबू जहल और अबू लहब सबसे आगे थे). हज़रत मोहम्मद व उनके साथियों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. कष्ट की इस घड़ी में एक बार फिर हज़रत मोहम्मद के चाचा हज़रत अबू तालिब ने एक शिविर का प्रबंध किया और मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की. इस सुरक्षा शिविर को शोएब-ए-अबू तालिब कहा जाता है. इस दौरान हज़रत अबू तालिब हज़रत मोहम्मद की सलामती को लेकर इतना चिंतित थे कि हर रात मोहम्मद साहब के सोने की जगह बदल देते थे और उनकी जगह अपने किसी बेटे को सुला देते थे. तीन साल की कड़ी परीक्षा के बाद मुसलमानों का बायकाट खत्म हुआ. लेकिन मुसलमानों को ज़ुल्म और सितम से छुटकारा नहीं मिला और मक्का वासियों ने मुसलामानों पर तरह तरह के ज़ुल्म जारी रखे.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अबू तालिब के इंतिक़ाल के बाद इन ज़ुल्मो में इज़ाफा हो गया(इसी साल पैग़म्बर साहब की चहीती पत्नी हज़रत ख़दीजा का भी इंतिक़ाल हो गया). और मोहम्मद साहब की जान के लिये खतरा पैदा हो गया. मक्के की मुस्लिम दुश्मन ताकतें मोहम्मद साहब को क़त्ल करने की साजिशें करने लगीं. लेकिन दस वर्ष के समय में पैग़म्बर साहब का फैलाया हुआ दीन मक्के की सरहदें पार कर के मदीने के पावन नगर में फ़ैल चुका था इसलिए मदीने के लोगो ने पैग़म्बर साहब को मदीने में बुलाया और उनको भरोसा दिया की वे मदीने में पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे. एक रात मक्के के लगभग सभी क़बीले के लोगो ने पैग़म्बर साहब को जान से मार देने की साज़िश रच ली लेकिन इस साज़िश की खबर मोहम्मद साहब को पहले से लग गई और वेह अपने चचेरे भाई हज़रत अली से सलाह मशविरा करने के बाद मदीने के लिए प्रस्थान करने को तैयार हो गए. लेकिन दुश्मनों ने उनके घर को चारो तरफ से घेर रखा था. इस माहोल में हज़रत अली मोहम्मद साहब के बिस्तर पर उन्ही की चादर ओढ़ कर सो गए और मोहम्मद साहब अपने एक साथी हज़रत अबू बक्र के साथ रात के अँधेरे में ख़ामोशी से मक्का छोड़ कर मदीने के लिए चले गये. जब इस्लाम के दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के घर पर हमला किया और उनके बिस्तर पर हज़रत अली को सोता पाया तो खीज उठे. उन लोगों ने पैग़म्बर साहब का पीछा करने की कोशिश की और उन तक लगभग पहुँच भी गए लेकिन जिस गार(गुफा) में हज़रत मोहम्मद छुपे थे उस गुफा के बाहर मकड़ी ने जाला बुन दिया और कबूतर ने घोंसला लगा दिया जिससे कि पीछा करने वाले दुश्मन गुमराह हो गए और पैग़म्बर साहब की जान बच गई. कुछ समय बाद हज़रत अली भी पैग़म्बर साहब से आ मिले. इस तरह इस्लाम के लिए एक सुनहरे युग की शुरुआत हो गई. मदीने में ही पैग़म्बर साहब ने अपने साथियो के साथ मिल कर पहली मस्जिद बनाई. यह मस्जिद कच्ची मिट्टी से पत्थर जोड़ कर बनाई गई थी और इस पर सोने चांदी की मीनार और गुम्बद नहीं थे बल्की खजूर के पत्तों की छत पड़ी हुई थी.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मक्का छोड़ने के बाद भी इस्लाम के दुश्मनों ने मोहम्मद साहब के खिलाफ़ साजिशें जारी रखीं और उन पर लगातार हमले होते रहे. मोहम्मद साहब के पास कोई बड़ी सेना नहीं थी. मदीने में आने के बाद जो पहली जंग हुई उसमे पैग़म्बर साहब के पास केवल तीन सो तेरह आदमी थे, तीन घोड़े, सत्तर ऊँट, आठ तलवारें, और छेह ज़िर्हे(ढालें) थी. इस छोटी सी इस्लामी फ़ौज का नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था, जो हज़रत अली के लिए पहला तजुर्बा था. लेकिन जिन लोगों को अल्लाह ने प्रशिक्षण दे कर दुनिया में उतारा हो, उन्हें तजुर्बे की क्या ज़रुरत? इतनी छोटी सी तादाद में होने के बावजूद मुसलमानों ने एक भरपूर लश्कर से टक्कर ली और अल्लाह पर अपने अटूट विश्वास का सबूत देते हुए मक्के वालों को करारी मात दी. इस जंग में काफ़िरो को ज़बरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. जंगे-बद्र के नाम से मशहूर इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचाज़ाद भाई हज़रत अली और मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए और मक्के के फ़ौजी सरदार अबू सुफ्यान को काफ़ी ज़िल्लत(बदनामी) उठानी पड़ी. उसके साथ आने वाले बड़े बड़े काफिर सरदार और योद्धा मारे गए.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मोहम्मद साहब न तो किसी की सरकार छीनना चाहते थे न उन्हें देश और ज़मीन की ज़रुरत थी, वे तो सिर्फ इस धरती पर अल्लाह का सन्देश फैलाना चाहते थे. मगर उन पर लगातार हमले होते रहे जबकि खुद मोहम्मद साहब ने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न ही इस्लामी सेना ने किसी देश पर चढाई की. इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पैग़म्बर साहब और उनके साथियों पर कुल मिला कर छोटे बड़े लगभग छियासी युद्ध थोपे गये और यह सारी लड़ाईयाँ मदीने के आस पास लड़ी गई. केवल जंगे-मौता के मौके पर इस्लामी फ़ौज मदीने से आगे बढ़ी क्योंकि रोम के बादशाह ने मुसलमानों के दूत को धोके से मार दिया था. मगर इस जंग में मुसलमानों की तादाद केवल तीन हज़ार थी और रोमन लश्कर(सेना) में एक लाख सैनिक् थे इसलिए इस जंग में मुसलमानों को कामयाबी नहीं मिली. इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई हज़रत जाफर बिन अबू तालिब और कई वीर मुसलमान सरदार शहीद हुए. यहाँ पर यह कहना सही होगा कि मोहम्मद साहब ने न तो कभी किसी देश पर हमला किया, न ही इस्लामी शासन का विस्तार करने के लिए उन्होंने किसी मुल्क पर चढ़ाई की बल्कि उन को ही काफ़िरो(नास्तिको) ने हर तरह से परशान किया. जंगे-अहज़ाब के मौके पर तो काफ़िरो ने यहूदियों और दूसरी इस्लाम दुश्मन ताकतों को भी मिला कर मुसलमानों पर चढ़ाई की, लेकिन इस के बाद भी वे मुसलमानों को मात नहीं दे सके.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
जंगे-उहद के मौके पर तो पैग़म्बर साहब को अभूतपूर्व क़ुरबानी देनी पड़ी. इस जंग में पैग़म्बर साहब के वीर चाचा हज़रत हम्ज़ा शहीद हो गए, उनकी शहादत के बाद पैग़म्बर साहब के सब से बड़े दुश्मन अबू सुफ्यान की पत्नी हिंदाह ने अपने ग़ुलाम की मदद से हज़रत हम्ज़ा का सीना काट कर उनका कलेजा निकाल कर उसे चबाया और उनके कान नाक कर कर अपने गले मैं हार की तरह पहना. इस के उलट हज़रत मोहम्मद ने जंग में मारे गए दुसरे पक्ष के मृत सैनिको की लाशों को अपमान करने की मनाही की.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इसके बाद भी लगातार मुसलमानों को हर तरह से परेशान किया जाता रहा मगर काफ़िरो को सफलता नहीं मिली. इस्लाम का नूर(रौशनी) दूर दूर तक फैलने लगा. खुले आम थोपी जाने वाली जंगो के साथ साथ पैग़म्बर साहब को चोरी छुपे मारने की कोशिशे भी होतीं रहीं. एक बार बिन हारिस नाम के एक काफिर ने मोहम्मद साहब को एक पेड़ के नीचे अकेला सोते हुए देख कर तलवार से हमला करना चाह और महोम्मद साहब को आवाज़ दे कर कहा कि “ऐ मोहम्मद इस वक़्त तुम को कोन बचा सकता है?” हज़रत ने इत्मीनान(आराम से/बिना किसी डर के) से जवाब दिया “मेरा अल्लाह”. यह सुन कर बिन हारिस के हाथ काँपने लगे और तलवार हाथ से छूट गई. हज़रत ने तलवार उठा ली और पूछा: “अब तुझे कौन बचा सकता है?”. वह बोला, “आप का रहम-ओ-करम”. हज़रत ने जवाब दिया ” तुझ को भी अल्लाह ही बचाएगा”. यह सुन कर बिन हारिस ने अपने सर पैग़म्बर साहब के पैरों पर रख दिया और मुसलमान हो गया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मदीने में एक तरफ तो पैग़म्बर साहब पर काफ़िरो के हमले हो रहे थे तो दूसरी तरफ़ हज़रत का परिवार फल फूल रहा था. उन की इकलोती बेटी हज़रत फ़ातिमा की शादी हज़रत अली से होने के बाद हज़रत मोहम्मद के घर में दो चाँद हज़रत हसन और हज़रत हुसैन के रूप में चमकने लगे थे. जिन्हें हज़रत मोहम्मद अपने बेटों से भी ज्यादा अज़ीज़ रखते थे. पैग़म्बर साहब के इकलोते बेटे हज़रत क़ासिम बचपन में ही अल्लाह को प्यारे हो गए थे इसलिए भी पैग़म्बर साहब अपने नवासो से बहोत प्यार करते थे. पैग़म्बर साहब की दो नवासियाँ भी थी जिनको इस्लामी इतिहास में हज़रत जैनब और हज़रत उम्मे कुलसूम कहा जाता है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मदीने में रह कर इस्लाम के प्रचार प्रसार में लगे हज़रत मोहम्मद को किसी भी तरह हरा देने की साज़िशे रचने वाले काफ़िरो ने कई बार यहूदी और अन्य वर्गों के साथ मिल कर भी मदीने पर चढाई की मगर हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी और उनके बड़े बड़े वीर योद्धा हज़रत अली के हाथों मारे गए. इन लडाइयों में जंगे-खैबर और जंगे-ख़न्दक का बहोत महत्त्व है. इस्लाम की हिफाज़त करने मैं हज़रत अली ने जिस बहादुरी और हिम्मत का सुबूत दिया, उससे इस्लाम का सर तो ऊँचा हुआ ही खुद हज़रत अली भी इस्लामी जगत मैं वीरता और बहादुरी के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने लगे और आज तक बहादुर और वीर लोग “या अली” कहकर मैदान में उतारते हैं. आम लोग संकट की घड़ी में “या अली” या “या अली मदद” कहकर उनको मदद के लिए आवाज़ देते हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अली ने इस्लाम की सुरक्षा और विस्तार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया. उन्होंने बड़ी बड़ी जंगो मैं हिस्सा लिया और इस्लामी सेना को विजय दिलाई लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है की उनके हाथों कोई बेगुनाह नहीं मारा गया और न ही उन्होंने किसी निहत्थे पर वार किया. जो भी उनसे लड़ने आया उसको उन्होंने यही मशविरा(सलाह/राय) दिया की अगर वह चाहे तो जान बचाकर जा सकता है और जान बचा कर भाग लेने में कोई शर्त भी नहीं थी.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
पैग़म्बर साहब और मुसलमानों पर लगातार हमलों के बावजूद इस्लाम रोज़ बरोज़ फैलता जा रहा था आखिर थक आर कर मक्के के अनेक क़बीलो ने पैग़म्बर साहब के साथ समझोता कर लिया. यह समझोता “सुलह-ए-हुदेबिया” के नाम से मशहूर है. पैग़म्बर साहब के शांति प्रिय होने का सबसे बड़ा सुबूत इस संधि के मौके पर देखने को मिला जब उन्होंने काफ़िरो के ज़ोर देने पर सहमती पत्र पर से अपने नाम के आगे से रसूल अल्लाह(अल्लाह के रसूल) काट दिया और केवल मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिखा रहने दिया हालांकि पैग़म्बर साहब के सहयोगी इस पर राज़ी नहीं थे की पैग़म्बर साहब के नाम के आगे से रसूल अल्लाह लफ्ज़ काटा जाए. कुछ दिन बाद इस संधि को तोड़ते हुए पैग़म्बर साहब के सहयोगी क़बीले बनी खिज़ाअ के एक व्यक्ति को काफ़िरो के एक क़बीले बनी बकर ने मक्का नगर की सबसे सबसे पाक पवित्र जगह क़ाबा के आँगन में ही मार डाला तो पैग़म्बर साहब ने दस हज़ार मुसलमानों को लेकर मक्के की तरफ़ प्रस्थान किया. मक्के की सीमा पर पहुँचने से पहले ही इस्लाम का कट्टर और सबसे बड़ा दुश्मन अबू सूफ़ियान मुसलमानों की जासूसी करने के लिए आया लेकिन घिर गया. लेकिन मुसलमानों ने उसे मारा नहीं और बल्कि पनाह दे दी. पैग़म्बर के चाचा हज़रत अब्बास ने सुफियान को मशविरा दिया की वह इस्लाम स्वीकार कर ले. अबू सुफियान ने मजबूरी मैं इस्लाम कुबूल कर लिया और मक्के वालों की और से किसी तरह के प्रतिरोध के बिना मुसलमान लगभग आठ साल के अप्रवास के बाद मक्के में दाखिल हुए. इस विजय की ख़ुशी में मुसलमानों का ध्वज उठा कर चल रहे सेनापति सअद बिन अबादा ने जोश में आकर यह ऐलान कर दिया कि आज बदले का दिन है और आज हर तरह का इंतिकाम जायज़ है. इस घोषणा से पैग़म्बर साहब इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने अलम(झंडे) को सअद से लेकर हज़रत अली को सोंप दिया और दुनिया को बता दिया की इस्लाम जोश नहीं होश की मांग करता है. इस जीत के मौके पर बदला या इंतिकाम लेने कि जगह पर पैग़म्बर साहब ने सभी मक्का वासियों को माफ़ कर दिया. पैग़म्बर साहब ने हिन्दा(अबू सूफ़ियान की पत्नी) नाम की उस औरत को भी माफ़ कर दिया जिसने मोहम्मद साहब के प्यारे चाचा हज़रत हम्ज़ा का कलेजा चबाने का जघन्य अपराध किया था. लगभग अठारह दिन मक्के में रहने के बाद मुसलमान जब वापस मदीने लौट रहे थे तो ताएफ़ नामक स्थान पर काफिरों ने उन्हें घेर लिया. पहले तो मुसलमानों में अफ़रातफरी फैल गई. लेकिन बाद में मुसलमानों ने जम कर मुकाबला किया और काफ़िरो को करारी मात दी. इस जंग को जंग-ए-हुनैन कहा जाता है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
जंगे-ए-मौता में मुसलमानों को मात देने वाली रोम की सेना के हौंसले एक बार फिर बढ़ गए थे. रोम के हरकुलिस(Harqulis) बादशाह ने इस्लाम को मिटा देने के इरादे से फिर एक बार फौजें जमा कर लीं और पैग़म्बर साहब ने भी सारे मुसलमानों से कह दिया की वह जान की बाज़ी लगाने को तैयार रहे. तबूक नामक स्थान पर इस्लामी सेनायें रोमियों का मुकाबला करने पहुँचीं. मगर रोम वाले मुसलामानों की ताक़त का अंदाज़ा लगा चुके थे इस लिए यह युद्ध टल गया. इस के बाद मुसलमानों के बीच घुस कर कुछ दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के ऊंट को घाटी में गिरा कर मार डालने की साज़िश रची लेकिन अल्लाह ने उनको बचा लिया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मक्का की विजय के लगभग एक साल बाद नज़रान नामक जगह के ईसाई मोहम्मद साहब से वाद विवाद के लिए आये और हज़रत ईसा मसीह को खुदा का बेटा साबित करने की कोशिश करने लगे तो पैग़म्बर साहब ने उनको बताया की इस्लाम धर्म, ईसा मसीह को अल्लाह का पवित्र पैग़म्बर मानता है, ईश्वर का बेटा नहीं. क्योंकि अल्लाह हर तरह के रिश्ते से परे है. मगर मुसलमान हज़रत ईसा के चमत्कारिक जन्म पर यक़ीन रखते हैं और यह भी मानते हैं कि उनका कोई पिता नहीं था. जब ईसाइयों ने कहा की बिना बाप के कोई बच्चा कैसे जन्म ले सकता है तो हज़रत मोहम्मद ने कहा कि “वही अल्लाह जिसने हज़रत आदम(Adam) को बग़ैर माँ-बाप के पैदा किया, ईसा मसीह को बग़ैर पिता के क्यों पैदा नहीं कर सकता?” मगर ईसाईयों ने हट नहीं छोड़ी. इस पर हज़रत मोहम्मद ने क़ुरान में अल्लाह द्वारा कही गई आयत को आधार मानते हुए ईसाईयों को यह आयत सुना दी जिसमें अल्लाह ने कहा है कि “अगर यह लोग तुम से उलझते रहें, ऐसी विश्वस्निये दलीलों के बाद भी जो पेश हो चुकी हैं तो कह दो कि हम अपने बेटों को बुलाएं तुम अपने बेटों को बुलाओ और हम अपनी औरतों को बुलाएँ तुम अपनी औरतों को बुलाओ, हम अपने सबसे क़रीबी साथियों को बुलाएँ तुम अपने साथियों को बुलाओ फिर खुदा की तरफ(क़ाबे के तरफ़) रुख करें, और अल्लाह की लानत(अभिशाप/बद-दुआ) करार दें उन झूटों पर”. ईसाई इस पर राज़ी हो गए. यह वाद विवाद “मुबाहिला” के नाम से मशहूर है.</div>
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दूसरे दिन हज़रत मोहम्मद अपने छोटे छोटे नवासों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन, बेटी हज़रत फातिमा और दामाद हज़रत अली के साथ मैदान-ए-मुबाहिला मैं पहुँच गए. इन्हीं पवित्र लोगों को मुसलमान पंजतन कहते हैं. पाँच नूरानी व्यक्तित्व देख कर ईसाई घबरा गए और मुबाहिले के लिए तैयार हो गए. इस संधि के तहत ईसाई हर साल पैग़म्बर साहब को एक निश्चित रक़म टेक्स के रूप मैं देने पर राज़ी हो गए जिसके बदले मैं पैग़म्बर साहब ने वायदा किया कि वे ईसाइयों को उनके घर्म पर ही रहने देंगे.</div>
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इस्लाम के खिलाफ चलने वाले सारे अभियानों को नाकाम करने के बाद पैग़म्बर साहब ने हज़रत अली हो यमन देश मैं इस्लाम के प्रचार के लिए भेजा. वहाँ जाकर हज़रत अली ने इस तरह प्रचार किया कि हमदान का पूरा क़बीला मुसलमान हो गया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इसी साल हज़रत मोहम्मद अपनी अंतिम हज यात्रा पर गए. हज़रत अली भी यमन से सीधे मक्का पहुँच गए जहाँ से वो लोग हज करने के लिए मैदाने अराफ़ात, मुज्द्लिफ़ा और मीना गए और फिर हज के अंतिम चरण में मक्का पहुँचे.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज से वापस लौटते समय पैग़म्बर साहब ने ग़दीर-ए- ख़ुम नाम के स्थान पर क़ाफिले को रोक कर इस बात का ऐलान किया कि अल्लाह का दीन अब मुक़म्मल(पूरा) हो गया है और आज से सब लोग बराबर हैं. अब किसी को किसी पर कोई बरतरी(वरीयता) प्राप्त नहीं हैं. अब न तो कोई क़बीले की बुनियाद पर ऊँचा है, न किसी को रंग और नसल के आधार पर कोई बुलंद दर्जा हासिल हैं. आज से ऊँचाई और बड़ाई का कोई मेअयार(मापदंड) अगर है तो बस यह है कि कोन चरित्रवान है और किस के दिल मैं अल्लाह का कितना खौफ़ है. इसके बाद पैग़म्बर साहब ने ऐलान किया कि “जिस जिस का मैं मौला(नेता/स्वामी) हूँ, यह अली भी उसके मौला हैं/”.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इसके लगभग दो महीने बाद 29 मई 632 में पैग़म्बर साहब का मदीने मैं ही निधन हो गया. पैग़म्बर साहब के दोस्त और अनेक वरिष्ठ साथी उनके निघन के समय मौजूद नहीं थे क्योंकि वे लोग सकीफ़ा नामक उस जगह पर उस मीटिंग में हिस्सा ले रहे थे जिसमें पैग़म्बर साहब का उत्तराधिकारी चुनने के लिए वाद विवाद चल रहा था. पैग़म्बर साहब को हज़रत अली ने केवल परिवार वालों कि मौजूदगी मैं दफ़न किया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इस बीच मुसलमानों के उस गिरोह ने जो कि सकीफ़ा मैं जमा हुआ था, पैग़म्बर साहब के एक वरिष्ट मित्र हज़रत अबू बकर को मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इस घटना के बाद मुसलमानों मैं उत्तराधिकार के मामले को लेकर कलह पैदा हो गई. क्योंकि मुसलामानों के एक वर्ग का कहना था कि पैग़म्बर साहब ग़दीर-ए-खुम मैं हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके हैं परन्तु दुसरे वर्ग का कहना था कि मौला का मतलब दोस्त भी होता है. इस लिए पैग़म्बर साहब की घोषणा उत्तराधिकारी के मामले मैं लागू नहीं होती.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
जब पैग़म्बर साहब के मित्र और साथी वापस आये तो मोहम्मद साहब को दफ़न किया जा चुका था. शिया मुसलामानों की धार्मिक पुस्तकों के अनुसार पैग़म्बर साहब के निधन के बाद उनके परिवार जनों को काफ़ी प्रताड़ित किया गया. हज़रत अली के घर के दरवाज़े मैं आग लगाई गई. दरवाज़ा गिरने से पैग़म्बर साहब की पवित्र बेटी हज़रत फ़ातिमा की कोख में पल रहे हज़रत मोहसिन का निधन हो गया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मगर इस्लाम मैं वीरता और साहस के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने वाले हज़रत अली, सहनशीलता और सब्र का प्रतीक बनकर हर दुःख को चुपचाप सह गए क्योंकि उस समय अगर हज़रत अली कि तलवार उठ जाती तो हज़रत अली दुश्मनों को तो ख़त्म कर देते, लेकिन उससे इस्लाम को भी नुक्सान पहुँचता क्योंकि उस समय हज़रत मोहम्मद द्वारा फैलाया हुआ इस्लाम शुरूआती दौर में था और मुसलामानों की तादाद आज की तरह करोड़ों-अरबों में न होकर केवल हज़ारों में थी. हज़रत अली सत्ता तो प्राप्त कर लेते लेकिन इस्लाम का कहीं नामों-निशान न होता, जोकि इस्लाम के दुश्मन चाहते थे. इसका सबूत यह है कि जब इस्लाम का घोर दुश्मन रह चुका अबू सुफियान हज़रत अली के पास आया और बोला कि अगर अली अपने हक के लिए लड़ना चाहते हैं तो वह मक्के की गलियों को हथियार बंद सिपाहियों और खुड़सवारों से भर सकता है. इस पर हज़रत अली ने जवाब दिया कि “ए अबू सुफियान, तू कब से इस्लाम का हमदर्द हो गया?”.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अली और उनके परिवार को आतंकित करने की इस घटना का हज़रत फ़ातिमा पर इतना असर हुआ कि वे केवल अठारह साल कि उम्र मैं ही इस दुनिया से कूच कर गईं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हज़रत फ़ातिमा पैग़म्बर साहब के निधन के बाद केवल नौ दिन ही ज़िन्दा रहीं जबकि कुछ कहते हैं कि हज़रत फ़ातिमा बहत्तर दिनों तक ज़िन्दा रहीं. इस तरह पैग़म्बर साहब के परिवार जनों को खुद मुसलामानों द्वारा सताए जाने की शुरुआत हो गई.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
अजीब बात यह है कि पैग़म्बर साहब के जीवन मैं उनके परिवार जन काफिरों के आतंकवाद का निशाना बनते रहे और मोहम्मद साहब के इंतिक़ाल के बाद उन्हें ऐसे लोगों ने ज़ुल्मों सितम का निशाना बनाया जो खुद को मुसलमान कहते थे. हज़रत फातिमा को फिदक़ नामक बाग़ उनके पिता ने तोहफे के रूप में दिया था. इस बाग़ का हज़रत अबू बकर की सरकार ने क़ब्ज़ा कर लिया था. इस बात से भी हज़रत फ़ातिमा बहोत दुखी रहीं क्योंकि वह अपने पिता के दिए हुए तोहफे से बहोत प्यार करती थीं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत फ़ातिमा के निधन के लगभग 6 महीने बाद तक हज़रत अली और हज़रत अबू बकर के बीच सम्बन्ध बिगड़े रहे. इस बीच हज़रत अली पवित्र क़ुरान कि प्रतियों को इकठ्ठा करते रहे और खुद को केवल धार्मिक कामों में सीमित रखा.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
पैग़म्बर साहब के बाद मुसलमान दो हिस्सों में बंट गए, एक वर्ग इमामत पर यकीन रखता था और दूसरा खिलाफत पर. इमामत पर यकीन रखने वाले दल का मानना था कि पैग़म्बर साहब के उत्तराधिकारी का फैसला केवल अल्लाह की तरफ से हो सकता है और हज़रत मोहम्मद अपने दामाद हज़रत अली को पहले ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे. जबकि दूसरे दल का मानना था कि केवल मदीने के पवित्र नगर में आबाद मुसलमान मिल कर पैग़म्बर साहब का उत्तराधिकारी चुन सकते हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
दो वर्ष बाद हज़रत अबू बक़र का निधन हो गया और मरते समय उन्होंने अपने दोस्त हज़रत उमर को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत उमर ने लगभग ग्यारह साल तक राज किया और एक जानलेवा हमले में घायल होने के बाद नए खलीफा का चयन करने के लिए छः सदस्यों की एक कमिटी बना दी. इस कमिटी के सामने खलीफा के पद के लिए दो नाम थे. एक हज़रत अली का और दूसरा हज़रत उस्मान का. इस कमिटी मैं एक व्यक्ति को वीटो पावर भी हासिल थी. समिति ने हज़रत अली से जब यह जानना चाहा कि वे अपने से पहले शासक रह चुके दो खलीफाओं की नीतियों पर चलेंगे? तो हज़रत अली ने कहा कि वे केवल पैग़म्बर साहब और पवित्र कुरान का अनुसरण करने को बाध्य हैं. इस जवाब के बाद और वीटो पावर की बुनियाद पर हज़रत उस्मान को ख़लीफा बना दिया गया. हज़रत उस्मान के शासन काल में उनकी नीतियों से मुसलमानों में बहोत असंतोष फैल गया. ख़ास तौर पर उनके द्वारा नियुक्त किये गए एक अधिकारी मर-वान ने लोगों को बहोत सताया. मुस्लिम समुदाय मर-वान के ज़ुल्मो के खिलाफ दुहाई देने के लिए मदीने में जमा हुआ मगर उनको इंसाफ के बदले धोखा मिला, तत्पश्चात मुसलमानों में उग्रवाद फैल गया और एक क्रुद्ध भीड़ ने हज़रत उस्मान की हत्या कर दी. शासक द्वारा आम जनता का खून बहाना तो सदियों से एक मामूली सी बात है लेकिन किसी शासक की आम जनता द्वारा हत्या अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना थी. इसने सारे मुस्लिम जगत को हिला कर रख दिया और शासको तक यह पैग़ाम भी पहुँच गया की किसी भी मुस्लिम शासक को शासन के दौरान अपनी नीतियों को लागू करने का अधिकार नहीं है बल्कि केवल कुरान और सुन्नत(पैग़म्बर साहब का आचरण) ही शासन की बुनियाद हो सकता है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अली और उनके विरोधी</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत उस्मान की हत्या के बाद तीन दिन तक स्थिति बहोत ही ख़राब और शोचनिये रही. मदीने में अफरातफरी का माहोल था. ऐसे मैं जनता की उम्मीद का केंद्र एक बार फिर पैग़म्बर साहब का घर हो गया. हजारों नर-नारी बनू हाशिम के मोहल्ले में उस पवित्र घर पर आशा की नज़रें टिकाये थे, जहाँ हज़रत अली रहते थे. इन लोगो ने फ़रियाद की कि दुःख की इस घडी में हज़रत अली खिलाफत का पद संभालें. इस बार न तो सकीफ़ा जैसी चुनावी प्रक्रिया अपनाई गई न ही किसी ने हज़रत अली को मनोनीत किया और न कोई ऐसी कमिटी बनी जिसमें किसी को वीटो पावर प्राप्त थी. हज़रत अली ने जनता के आग्रह को स्वीकार किया और खिलाफत संभाल ली. लेकिन खलीफा के पद पर बैठते ही हज़रत अली के विरोधी सक्रिय हो गए. पहले तो पैग़म्बर साहब की एक पत्नी हज़रत आयशा को यह कह कर भड़काया गया की हज़रत उस्मान के क़ातिलों को हज़रत अली सजा नहीं दे रहे हैं और इस तरह के इलज़ाम भी लगाये गए की जैसे खुद हज़रत अली भी हज़रत उस्मान की हत्या में शामिल रहे हो. जब की हज़रत अली ने हज़रत उस्मान और उनके विरोधियों के बीच सुलह सफाई करवाने की पूरी कोशिश की और घेराव के दौरान उनके लिए खाना पानी अपने बेटों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन के हाथ लगातार भेजा. हज़रत आयशा जो पहले खलीफा हज़रत अबू बक़र की बेटी थीं, अनेक कारणों से हज़रत अली से नाराज़ रहती थीं. वो ख़िलाफ़त की गद्दी पर अपने पिता के पुराने मित्रों तल्हा और ज़ुबैर को देखना चाहती थीं. जब लोगों ने क़त्ले उस्मान को लेकर उनके कान भरे तो उन्हें हज़रत अली से पुरानी दुश्मनी निकालने का मौका मिल गया. उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली के इस्लामी शासन पर हमला कर दिया और इस अभीयान को क़त्ले-उस्मान का इंतिकाम लेने वाला जिहाद करार दिया. यहीं से जिहाद के नाम को बदनाम करने का सिलसिला शुरू हुआ. जबकि हज़त उस्मान का क़त्ल मिश्र देश के दूसरे भागों से आये हुए असंतुष्ट लोगो के हाथो हुआ था. मगर हज़रत आयशा इस का इंतिकाम हज़रत अली से लेना चाहती थीं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
उन्होंने हमले के लिए इराक के बसरा नगर को चुना क्योंकि वहां पर हज़रत अली के शिया मित्र बड़ी संख्या में रहते थे. बसरा के गवर्नर उस्मान बिन हनीफ़ को हज़रत आयशा की सेना ने बहोत अपमानित किया. हनीफ, हज़रत आयशा की सेना का सही ढंग से मुकाबला नहीं कर सके क्योंकि हज़रत अली की इस्लामी सेनाएँ उस वक़्त तक बसरा में पहुँच नहीं सकीं थीं. हुनैन ने इस घटना की जानकारी जीकार के स्थान पर मौजूद हज़रत अली तक पहुंचाई. हज़रत अली ने विभिन्न लोगो से हज़रत आयशा तक यह सन्देश भिजवाया की वो युद्ध से बाज़ आ जाए और अपने राजनितिक मकसद को पूरा करने के लिए मुसलामानों का खून न बहाएं मगर वो राज़ी नहीं हुई.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हिजरत के 36 वें वर्ष में ईराक के बसरा नगर में हज़रत अली और हज़रत आयशा की सेनाओ के बीच युद्ध हुआ. इस जंग को जंग-ए-जमल भी कहते हैं क्योंकि इस युद्ध में हज़रत आयशा ने अपनी सेना का नेतृत्व ऊँट पर बेठ कर किया था और ऊँट को अरबी भाषा में जमल कहा जाता है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इस जंग का नतीजा भी वही हुआ जो इस से पहले की तमाम इस्लामी जंगो का हुआ था, जिसमें नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था. हज़रत आयशा की सेना को मात मिली. हज़रत आयशा जिस ऊँट पर सवार थीं जंग के दौरान उस से नीचे गिरी. हज़रत अली ने उनको किसी प्रकार की सज़ा देने के बदले उनको पूरे सम्मान के साथ उनके छोटे भाई मोहम्मद बिन अबू बक़र और चालीस महिला सिपाहियों के संरक्षण में मदीने वापस भेज दिया. इस तरह उन इस्लामी आदर्शों की हिफ़ाज़त की जिनके तहत महिलाओं के मान सम्मान का ख्याल रखना ज़रूरी है. हज़रत अली की तरफ से अच्छे बर्ताव का ऐसा असर हुआ कि हज़रत आयशा राजनीति से अलग हो गईं. इस युद्ध के बाद और इस्लामी शासन के लिए लगातार बढ़ रहे खतरे को देखते हुआ हज़रत अली ने इस्लामी सरकार की राजधानी मदीने से हटा कर इराक के कूफा नगर में स्थापित कर दी.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इस जंग के बाद कबीले वाद की पुश्तेनी दुश्मनी ने एक बार फिर सर उठाया और उमय्या वंश के एक सरदार अमीर मुआविया ने हज़रत अली के इस्लामी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया. इसका एक कारण यह भी था की पैग़म्बर साहब के निधन के बाद इस्लामी नेतृत्व दो हिस्सों में बँट गया था. एक को इमामत और दूसरे को ख़िलाफ़त कहा जाता था. इमामों पर विशवास रखने वाले दल को यकीन था की इमाम व पैग़म्बर सिर्फ अल्लाह द्वारा चुने होते हैं. जबकि खिलाफत पर विश्वास रखने वाले दल का मानना था की पैग़म्बर अल्लाह की तरफ से नियुक्त होते हैं लेकिन उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार जनता को प्राप्त है या कोई ख़लीफ़ा मरते वक़्त किसी को मनोनीत कर सकता था अथवा कोई ख़लीफ़ा मरते समय एक चयन समिति बना सकता था. इन्हीं मतभेदों को लेकर पैग़म्बर साहब के बाद मुस्लिम समाज दो बागों में बंट गया. खिलाफत पर यकीन रखने वाला दल संख्या में ज्यादा था और इमामत पर यकीन रखने वालों की संख्या कम थी. बाद में कम संख्या वाले वर्ग को शिया और अधिक संख्या वाले दल को सुन्नी कहा जाने लगा लेकिन जब हज़रत अली ख़लीफ़ा बने तो इमामत और खिलाफत सा संगम हो गया और मुसलमानों के बीच पड़ी दरार मिट गई. यही एकता इस्लाम के पुराने दुश्मनों को पसंद नहीं आई और उन्होंने मुसलामानों के बीच फसाद फैलाने की ग़रज़ से तरह तरह के विवाद को जन्म देना शुरू कर दिए और मुसलामानों का खून पानी की तरह बहने लगा. अमीर मुआविया ने पहले तो क़त्ले उस्मान के बदले का नारा लगाया लेकिन बाद में ख़िलाफ़त के लिए दावेदारी पेश कर दी. मुआविया ने ताक़त और सैन्य बल के ज़रिये सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश के तहत सीरिया के प्रान्त इस्लामी राज्य से अलग करने की घोषणा कर दी. मुआविया को हज़रत उस्मान ने सीरिया का गवर्नर बनाया था. दोनों एक ही काबिले बनी उम्म्या से ताल्लुक अखते थे. फिर मुआविया ने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली के इस्लामी शासन पर धावा बोल दिया और इस को भी जिहाद का नाम दिया. जबकि यह इस्लामी शासन के खिलाफ खुली बगावत थी.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हिजरत के 39वे वर्ष में सिफ्फीन नामन स्थान पर इस्लामी सेनाओं और सीरिया के गवर्नर अमीर मुआविया के सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ. मुआविया की सेनाओ ने रणभूमि में पहले पहुँच कर पानी के कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया और हज़रत अली की सेना पर पानी बंद करके मानवता के आदर्शो पर पहला वार किया. हज़रत अली की सेनाओं ने जवाबी हमला करके कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इस बार किसी पर पानी बंद नहीं हुआ और मुआविया की फ़ौज भी उसी कुएं से पानी लेती रही जिस पर अली वालों का क़ब्ज़ा था. इस युद्ध में जब हज़रत अली की सेना विजय के नज़दीक पहुँच गई और इस्लामी सेना के कमांडर हज़रत मालिक-ए-अश्तर ने दुश्मन फ़ौज के नेता मुआविया को लगभग घेर लिया तो बड़ी चालाकी से सीरिया की सेना ने पवित्र कुरान की आड़ ले ली और क़ुरान की प्रतियों को भालो पर उठा कर आपसी समझोते की बात करना शुरू कर दी. अंत में शांति वार्ता के ज़रिये से युद्ध समाप्त हो गया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अली के प्रतिनिधि अबू मूसा अशरी के साथ धोका किये जाने के साथ ही सुलह का यह प्रयास विफ़ल हो गया और एक बार फिर जंग के शोले भड़क उठे. अबू मूसा के साथ धोका होने की वजह से हज़रत अली की सेना के सिपाहियों द्वारा फिर से युद्ध शुरू करने के आग्रह और समझोता वार्ता से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर हज़रत अली के सेना का एक टुकड़ा बाग़ी हो गया. इस बाग़ी सेना से हज़रत अली को नहर-वान नामक स्थान पर जंग करनी पड़ी. हज़रत अली से टकराने के कारण इस दल को इस्लामी इसिहास मैं खारजी(निष्कासित) की संज्ञा दी गई है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अली की सेना में फूट और मुआविया के साथ शांति वार्ता नाकाम होने के बाद सीरिया में मुआविया ने सामानांतर सरकार बना ली. इन लडाइयों के नतीजे मैं मुस्लिम समाज चार भागो में बंट गया. एक वर्ग हज़रत अली को हर तरह से हक़ पर समझता था. इस वर्ग को शिया आने अली कहा जाता है. यह वर्ग इमामत पर यकीन रखता है और हज़रत अली से पहले के तीन खलीफाओं को मान्यता नहीं देता है. दूसरा वर्ग मुआविया की हरकातो को उचित करत देता था. इस ग्रुप को मुआविया का मित्र कहा जाता है. यह वर्ग मुआविया और यजीद को इस्लामी ख़लीफ़ा मानता है. तीसरा वर्ग ऐसा है जो कि मुआविया और हज़रत अली दोनों को ही अपनी जगह पर सही क़रार देता है और दोनों के बीच हुई जंग को ग़लतफ़हमी का नतीजा मानता है, इस वर्ग को सुन्नी कहा जाता है(लेकिन इस वर्ग ने भी मुआविया को अपना खलीफा नहीं माना). चौथे ग्रुप की नज़र में………………….</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अली की सेनाओं को कमज़ोर पाकर मुआविया ने मिश्र में भी अपनी सेनाएं भेज कर वह के गवर्नर मोहम्मद बिन अबू बक़र(जो पैग़म्बर साहब की पत्नी हज़रत आयशा के छोटे भाई और पहले खलीफा अबू बक़र के बेटे थे) को गिरफ्तार कर लिया और बाद में उनको गधे की खाल में सिलवा कर ज़िन्दा जलवा दिया. इसी के साथ मुआविया ने हज़रत अली के शासन के तहत आने वाले गानों और देहातो में लोगो को आतंकित करना शुरू कर दिया. बेगुनाह शहरियों को केवल हज़रत अली से मोहब्बत करने के जुर्म में क़त्ल करने का सिलसिला शुरू कर दिया गया. इस्लामी इतिहास की पुस्तक अल-नसायह अल काफ़िया में हज़रत अली के मित्रो को आतंकित करने की घटनाओं का बयान इन शब्दों में किया गया है: “अपने गुर्गों और सहयोगियों की मदद से मुआविया ने हज़रत अली के अनुयाइयों में सबसे अधिक शालीन और श्रेष्ट व्यक्तियों के सर कटवा कर उन्हें भालों पर चढ़ा कर अनेक शहरो में घुमवाया. “इस युग में ज़्यादातर लोगों को हज़रत अली के प्रति घृणा प्रकट करने के लिए मजबूर किया जाता अगर वो ऐसा करने के इनकार करते तो उनको क़त्ल कर दिया जाता.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रात अली की शहादत:-</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
अपनी जनता को इस आतंकवाद से छुटकारा दिलाने के लिए हज़रत अली ने फिर से इस्लामी सेना को संगठित करना शुरू किया. हज़रत इमाम हुसैन, क़ेस बिन सअद और अबू अय्यूब अंसारी को दस दस हज़ार सिपाहियों की कमान सोंपी गई और खुद हज़रत अली के अधीन 29 हज़ार सैनिक थे और जल्द ही वो मुआविया की सेना पर हमला करने वाले थे, लेकिन इस के पहले कि हज़रत अली मुआविया पर हमला करते, एक हत्यारे अब्दुल रहमान इब्ने मुल्ज़िम ने हिजरत के 40वें वर्ष में पवित्र रमज़ान की 18वी तारीख़ को हज़रत अली कि गर्दन पर ज़हर में बुझी तलवार से उस समय हमला कर दिया जब वो कूफ़ा नगर की मुख्य मस्जिद में सुबह की नमाज़ का नेतृत्व(इमामत) कर रहे थे और सजदे की अवस्था में थे. इस घातक हमले के तीसरे दिन यानी 21 रमज़ान (28 जनवरी 661 ई०) में हज़रत अली शहीद हो गए. इस दुनिया से जाते वक़्त उनके होटों पर यही वाक्य था कि “रब्बे क़ाबा(अल्लाह) कि कसम, में कामयाब हो गया”. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने कई लड़ाइयाँ जीतीं. बड़े-बड़े शूरवीर और बहादुर योद्धा उनके हाथ से मारे गए मगर उन्होंने कभी भी अपनी कामयाबी का दावा नहीं किया. हज़रत अली की नज़र में अल्लाह कि राह मैं शहीद हो जाना और एक मज़लूम की मौत पाना सब से बड़ी कामयाबी थी. लेकिन जंग के मैदान में उनको शहीद करना किसी भी सूरमा के लिए मुमकिन नहीं था. शायद इसी लिए वो अपनी इस क़ामयाबी का ऐलान कर के दुनिया को बताना चाहते थे कि उन्हें शहादत भी मिली और कोई सामने से वार करके उन्हें क़त्ल भी नहीं कर सका. वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो क़ाबा के पावन भवन के अन्दर पैदा हुए और मस्जिद में शहीद हुए.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अली ने अपने शासनकाल में न तो किसी देश पर हमला किया न ही राज्य के विस्तार का सपना देखा. बल्कि अपनी जनता को सुख सुविधाएँ देने की कोशिश में ही अपनी सारी ज़िन्दगी कुर्बान कर दी थी. वो एक शासक की तरह नहीं बल्कि एक सेवक की तरह ग़रीबों, विधवा औरतों और अनाथ बच्चों तक सहायता पहुँचाते थे. उनसे पहले न तो कोई ऐसा शासक हुआ जो अपनी पीठ पर अनाज की बोरियाँ लादकर लोगों तक पहुँचाता हो न उनके बाद किसी शासक ने खुद को जनता की खिदमत करने वाला समझा.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत अली के बाद उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन ने सत्ता संभाली, लेकिन अमीर मुआविया की और से उनको भी चैन से बेठने नहीं दिया गया. इमाम हसन के अनेक साथियों को आर्थिक फ़ायदों और ऊँचे पदों का लालच देकर मुआविया ने हज़रत हसन को ख़लीफ़ा के पद से अपदस्थ करने में कामयाबी हासिल कर ली. हज़रत हसन ने सत्ता छोड़ने से पहले अमीर मुआविया के साथ एक समझोता किया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
26 जुलाई 661ई० को इमाम हसन और अमीर मुआविया के बीच एक संधि हुई जिसमें यह तय हुआ कि मुआविया की तरफ से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होगा. (2) हज़रत अली के साथियों को सुरक्षा प्रदान की जाएगा. (3) मुआविया को मरते वक़्त अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा.(4) मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त(सत्ता) पैग़म्बर साहब के परिवार के किसी विशिष्ट व्यक्ति को सौंप दी जायेगी.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
समझोते का एहतराम करने के स्थान पर मुआविया की और से पवित्र पैग़म्बर साहब के परिवार के सदस्यों और हज़रत अली के चाहने वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया गया. इसी नापाक अभियान की एक कड़ी के रूप में इमाम हसन को केवल 47 वर्ष की उम्र में एक महिला के ज़रिये ज़हर दिलवा कर शहीद कर दिया गया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
अमीर मुआविया ने इमाम हसन के साथ की गई संधि को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने के बाद इस को रद्दी की टोकरी में डाल कर अपने परिवार का शासन स्थापित कर दिया. मुआविया को अपने खानदान का राज्य स्थापित करने में तो कामयाबी मिल गई लेकिन मुआविया का खलीफा बनने का सपना पूरा नहीं हो सका. मुआविया ने लगभग 12 वर्ष राज किया और जिहाद के नाम पर दूसरे देशों पर हमला करने का काम शुरू करके जिहाद जैसे पवित्र काम को बदनाम करना शुरू किया. इस के अलावा मुआविया ने इस्लामी आदर्शों से खिलवाड़ करते हुए एक ऐसी परंपरा शुरू की जिसकी मिसाल नहीं मिलती. इस नजिस पॉलिसी के तहत उस ने हज़रत अली और उनके परिवार जनों को गालियाँ देने के लिए मुल्ला किराए पर रखे. अमीर मुआविया ने अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती यह की कि अपने जीवन में ही अपने कपूत यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इन सब हरकतों का नतीजा यह हुआ की समस्त मुसलामानों ने ख़िलाफ़त के सिलसिले को समाप्त मान कर इमाम हसन के बाद खिलाफत-ए-राशिदा(सही रास्ते पर चलने वाले शासकों) के ख़त्म हो जाने का ऐलान कर दिया. इस तरह मुआविया को सत्ता तो मिल गई लेकिन मुसलामानों का भरोसा हासिल नहीं हो सका.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
यजीद की सत्ता:</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
अमीर मुआविया ने अपने क़बीले बनी उमय्या का शासन स्थापित करने के साथ साथ उस इस्लामी शासन प्रणाली को भी समाप्त कर दिया जिसमें ख़लीफ़ा एक आम आदमी के जैसी ज़िन्दगी बिताता था. मुआविया ने ख़िलाफ़त को राज शाही में तब्दील कर दिया और अपने कुकर्मी और दुराचारी बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित करके उमय्या क़बीले के अरबों और दूसरे मुसलामानों पर राज्य करने के पुराने ख्वाब को पूरा करने की ठान ली.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मुआविया को जब लगा कि मौत क़रीब है तो यज़ीद को सत्ता पर बैठाने के लिए अहम् मुस्लिम नेताओं से यज़ीद कि बैयत(मान्यता देने) को कहा.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
यज़ीद को एक इस्लामी शासक के रूप में मान्यता देने का मतलब था इस्लामी आदर्शों की तबाही और बर्बादी. यज़ीद जैसे कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और बदमाश को मान्यता देने का सवाल आया तो सब से पहले इस पर लात मारी पैग़म्बर साहब के प्यारे नवासे और हज़रत अली के शेर दिल बेटे इमाम हुसैन ने. उन्होंने कहा कि वह अपनी जान क़ुर्बान कर सकते हैं लेकिन यज़ीद जैसे इंसान को इस्लामिक शासक के रूप में क़ुबूल नहीं कर सकते. इमाम हुसैन के अतिरिक्त पैगम्बर साहब की पत्नी हज़रात आयशा ने भी यज़ीद को मान्यता देने से इनकार कर दिया. कुछ और लोग जिन्होंने यज़ीद को मान्यता देने से इनकार किया वो हैं: अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, 2. अब्दुल्लाह बिन उमर, 3 उब्दुल रहमान बिन अबू बकर, 4, अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास. इनके आलावा अब्दुल रहमान बिन खालिद इब्ने वलीद और सईद बिन उस्मान ने भी यज़ीद की बेयत से इनकार किया. लेकिन इनमें से अब्दुल रहमान को ज़हर देकर मार डाला गया और सईद बिन उस्मान को खुरासान(ईरान के एक प्रान्त) का गवर्नर बना कर शांत कर लिया गया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मुआविया की नज़र में इन सारे विरोधियों का कोई महत्व नहीं था उसे केवल इमाम हुसैन की फ़िक्र थी कि अगर वे राज़ी हो जाएँ तो यज़ीद की ख़िलाफ़त के लिए रास्ता साफ़ हो जाएगा. मुआविया ने अपने जीवन में इमाम हुसैन पर बहुत दबाव डाला कि वो यज़ीद को शासक मान लें मगर उसे सफ़लता नहीं मिली.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
यज़ीद का परिचय:</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
यज़ीद बनी उमय्या के उस कबीले का कपूत था, जिस ने पैग़म्बर साहब को जीवन भर सताया. इसी क़बीले के सरदार और यज़ीद के दादा अबू सूफ़ियान ने कई बार हज़रत मोहम्मद की जान लेने की कौशिश की थी और मदीने में रह रहे पैग़म्बर साहब पर कई हमले किये थे. यज़ीद के बारे में कुछ इतिहासकारों की राय इस प्रकार है:</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
तारीख-उल-खुलफ़ा में जलाल-उद-दीन सियोती ने लिखा है की “यज़ीद अपने पिता के हरम में रह चुकी दासियों के साथ दुष्कर्म करता था. जबकि इस्लामी कानून के तहत रिश्ते में वे दासियाँ उसकी माँ के समान थीं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
सवाअक-ए-महरका में अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला ने लिखा है की “यज़ीद के दौर में हम को यह यकीन हो चला था की अब आसमान से तीर बरसेंगे क्योंकि यज़ीद ऐसा व्यक्ति था जो अपनी सौतेली माताओं, बहनों और बेटियों तक को नहीं छोड़ता था. शराब खुले आम पीता था और नमाज़ नहीं पढता था.”</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
जस्टिस अमीर अली लिखते हैं कि “यज़ीद ज़ालिम और ग़द्दार दोनों था उसके चरित्र में रहम और इंसाफ़ नाम की कोई चीज़ नहीं थी”.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
एडवर्ड ब्रा ने हिस्ट्री और पर्शिया में लिखा है कि “यज़ीद ने एक बददु(अरब आदिवासी) माँ की कोख से जन्म लिया था. रेगिस्तान के खुले वातावरण में उस की परवरिश हुई थी, वह बड़ा शिकारी, आशिक़, शराब का रसिया, नाच गाने का शौकीन और मज़हब से कोसो दूर था.”</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
अल्लामा राशिद-उल-खैरी ने लिखा है कि “यज़ीद गद्दी पर बेठने के बाद शराब बड़ी मात्रा में पीने लगा और कोई पल ऐसा नहीं जाता था कि जब वह नशे में धुत न रहता हो और जिन औरतों से पवित्र कुरान ने निकाह करने को मना किया था, उनसे निकाह को जायज़ समझता था.”</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
ज़ाहिर है इमाम हुसैन यज़ीद जैसे अत्याचारी, कुकर्मी, बलात्कारी, शराबी और अधर्मी को मान्यता कैसे दे सकते थे. यजीद ने अपने चचाज़ाद भाई वलीद बिन अत्बा को जो मदीने का गवर्नर था यह सन्देश भेजा कि वह मदीने में रह रहे इमाम हुसैन, इब्ने उमर और इब्ने ज़ुबैर से उसके लिए बैयत(मान्यता) की मांग करे और अगर तीनों इनकार करें तो उनके सर काट कर यज़ीद के दरबार में भेजें.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम हुसैन की हिजरत:</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
वलीद ने इमाम हुसैन को संदेसा भेजा कि वह दरबार में आयें उनके लिए यज़ीद का एक ज़रूरी पैग़ाम है. इमाम हुसैन उस समय अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर के साथ मस्जिद-ए-नबवी में बेठे थे.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
जब यह सन्देश आया तो इमाम से इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय इस प्रकार का पैग़ाम आने का मतलब क्या हो सकता है? इमाम हुसैन ने कहा कि लगता है कि मुआविया कि मौत हो गई है और शायद यज़ीद की बैयत के लिए वलीद ने हमें बुलाया है. इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय वलीद के दरबार में जाना आपके लिए ख़तरनाक हो सकता है. इमाम ने कहा कि में जाऊँगा तो ज़रूर लेकिन अपनी सुरक्षा का प्रबंध करके वलीद से मिलूँगा. खुद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रातों रात मक्के चले गए.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम अपने घर आये और अपने साथ घर के जवानों को लेकर वलीद के दरबार में पहुँच गए. लेकिन अपने साथ आये बनी हाशिम के(जोशीले और इमाम पर हर वक़्त मर मिटने के लिए तैयार रहने वाले) जवानों से कहा कि वे लोग बाहर ही ठहरे और अगर इमाम की आवाज़ बुलंद हो तो अन्दर आ जाएँ.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम दरबार में गए तो उस समय वलीद के साथ मर-वान भी बैठा था जो पैग़म्बर साहब के परिवार वालों का पुराना दुश्मन था. जब इमाम हुसैन आये तो वलीद ने मुआविया की मौत कि ख़बर देने के बाद यज़ीद की बैयत के लिए कहा. इमाम हुसैन ने यज़ीद की बैयत करने से साफ़ इनकार कर दिया और वापस जाने लगे तो पास बैठे हुए मर-वान ने कहा कि अगर तूने इस वक़्त हुसैन को जाने दिया तो फिर ऐसा मौक़ा नहीं मिलेगा यही अच्छा होगा कि इनको गिरफ़्तार करके बैयत ले ले या फिर क़तल कर के इनका सर यज़ीद के पास भेज दे. यह सुनकर इमाम हुसैन को ग़ुस्सा आ गया और वह चीख़ कर बोले “भला तेरी या वलीद कि यह मजाल कि मुझे क़त्ल कर सकें?” इमाम हुसैन की आवाज़ बुलंद होते ही उनके छोटे भाई हज़रत अब्बास के नेतृत्व मैं बनी हाशिम के जवान तलवारें उठाये दरबार में दाखिल हो गए लेकिन इमाम ने इन नौजवानों के जज़्बात पर काबू पाया और घर वापस आ कर मदीना छोड़ने के बारे मैं मशविरा करने लगे.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
बनी हाशिम के मोहल्ले मैं इस खबर से शोक का माहौल छा गया. इमाम हुसैन अपने खानदान के लोगों को साथ लेकर मदीने का पवित्र नगर छोड़ कर मक्का स्थित पवित्र काबे की और प्रस्थान कर गए जिसको अल्लाह ने इतना पाक करार दिया है कि वहां किसी जानवर का खून बहाने कि भी इजाज़त नहीं है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
मक्का पहुँचने के बाद लगभग साढ़े चार महीने इमाम अपने परिवार सहित पवित्र काबा के निकट रहे लेकिन हज का ज़माना आते ही इमाम को सूचना मिली कि यज़ीद ने हाजियों के भेस में एक दल भेजा है जो इमाम को हज के दौरान क़त्ल कर देगा. वैसे तो हज के दौरान हथियार रखना हराम है और एक चींटी भी मर जाए तो इंसान पर कफ्फ़ारा(प्रायश्चित) अनिवार्य हो जाता है लेकिन यज़ीद के लिए इस्लामी उसूल या काएदे कानून क्या मायने रखते थे?</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम ने हज के दौरान खून खराबे को टालने के लिए हज से केवल एक दिन पहले मक्का को छोड़ने का फैसला कर लिया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
कर्बला में धर्म और अधर्म का टकराव:</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम हुसैन ने मक्का छोड़ने से पहले अपने चचेरे भाई हज़रत मुस्लिम को इराक के कूफ़ा नगर में भेज दिया था ताकि वह कूफे के असली हालात का पता लगाएँ. कूफा जो कि किसी समय में हज़रत अली कि राजधानी था, वहां भी यज़ीद के शासन के खिलाफ क्रांति की चिंगारियां फूटने लगी थीं. कूफ़े से लगातार आग्रह पत्र इमाम हुसैन के नाम आ रहे थे कि वह यज़ीद के खिलाफ चल रहे अभीयान का नेतृत्व करें. कूफ़े मैं इमाम हुसैन के भाई का बड़ा भव्य स्वागत हुआ और लगभग एक लाख लोगों ने इमाम हुसैन के प्रति अपनी वफादारी कि शपथ ली यह खबर सुन कर यज़ीद ग़ुस्से से पागल हो गया और कूफ़े के गवर्नर नोअमान बिन बशीर के स्थान पर यज़ीद ने कूफ़े में उबैद उल्लाह इब्ने ज़ियाद नामक सरदार को गवर्नर बना कर भेजा. इब्ने ज़ियाद हज़रत अली के परिवार का पुश्तैनी दुश्मन था. उसके कूफ़े में पहुँचते ही आतंक फ़ैल गया. कूफ़े के लोग यज़ीद की ताकत और सैन्य बल के आगे सारी वफ़ादारी भूल गए. इब्ने ज़ियाद ने इमाम हुसैन से वफ़ादारी व्यक्त करने वाले ओगों को चुन चुन कर मार डाला या गिरफ्तार करके सख्त यातनाएं दिन. उसने हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को बेदर्दी से क़त्ल करके उनकी लाश के पाँव में रस्सी बाँध कर कूफ़े की गली कूचों में घसीटे जाने का आदेश भी दिया. यही नहीं हज़रत मुस्लिम के साथ में गए हुए दो मासूम बच्चों, आठ साल के मोहम्मद और छे साल के इब्राहीम की भी निर्मम रूप से हत्या कर दी गई. बच्चो को शहीद करने की यह पहली आतंकवादी घटना थी.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम हुसैन का क़ाफ़िला लगातार आगे बढ़ता रहा और रास्ते में ही उन्हें हज़रत मुस्लिम और उनके बच्चो कि शहादत की ख़बर मिली. उधर यज़ीद की सेनाएं भी लगातार इमाम हुसैन के उस कारवें क़ा पीछा कर रहीं थीं जिसमें लगभग साठ-सत्तर पुरुष, कुछ बच्चे और चंद औरतें शामिल थीं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
ज़ुहसम नाम के एक स्थान पर इमाम हुसैन क़ा सामना यज़ीद की फ़ौज के पहले दस्ते से हुआ. लगभग एक हज़ार फ़ौजियों के इस दस्ते क़ा सेनापति हुर्र बिन रियाही नाम क़ा अधिकारी कर रहा था. जब हुर्र की सैनिक टुकड़ी इमाम के सामने आई तो रेगिस्तान में भटकने के कारण सैनिकों क़ा प्यास के मारे बुरा हाल था. इमाम हुसैन ने इस बात क़ा ख़्याल किए बग़ैर कि यह दुश्मन के सिपाही हैं इस प्यासे दस्ते को पानी पिलाया और मानवता के नए कीर्तिमान क़ायम किये. अगर इमाम हुसैन हुर्र के सिपाहियों को पानी न पिलाते तो इस सैनिक टुकड़ी के सभी लोग प्यास से मर सकते थे और इमाम हुसैन के दुश्मनों में कमी हो जाती, लेकिन इमाम हुसैन उस पैग़म्बर के नवासे थे जो अपने दुश्मनों की तबियत खराब होने पर उनका हाल चाल पूछने के लिए उसके घर पहुँच जाते थे.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
लगभग 22 दिन तक रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद इमाम हुसैन क़ा काफ़िला (2 अक्तूबर 680 ई० या 2 मुहर्रम 61 हिजरी) इराक़ के उस स्थान पर पहुँचा, जिसको क़र्बला कहा जाता है. हुर्र की सैनिक टुकड़ी भी इमाम के पीछे पीछे कर्बला में आ चुकी थी. इमाम के यहाँ पड़ाव डालते ही यज़ीद की फौजें हज़ारों कि संख्या में पहुँचने लगीं. यज़ीदी सेनाओं ने सब से पहले फ़ुरात नदी(अलक़मा नहर) के किनारे से इमाम को अपने शिविर हटाने को बाध्य किया और इस तरह अपने नापाक इरादों क़ा आभास दे दिया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
पांच दिन बाद यानी सात मुहर्रम को नदी के अहातों(किनारों) पर पहरा लगा दिया गया और इमाम हुसैन के परिवार जनों और साथियों के नदी से पानी लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. रेगिस्तान की झुलसा देने वाली गर्मी में पानी बंद होने से इमाम हुसैन के बच्चे प्यास से तड़पने लगे. दो दिन बाद अचानक यज़ीदी सेनाओं ने इमाम के क़ाफिले पर हमला कर दिया. इमाम हुसैन ने यज़ीदी सेना से एक रात की मोहलत मांगी ताकि वह अपने मालिक की इबादत कर सकें. यज़ीदी सेना राज़ी हो गई क्योंकि उसे मालूम था कि यहाँ से अब इमाम और उनके साथी कहीं नहीं जा सकते और एक दिन की और प्यास से उनकी शारीरिक और मानसिक दशा और भी कमज़ोर हो जायेगी.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
रात भर इमाम, उनके परिवार-जन और उनके साथी अल्लाह कि इबादत करते रहे. इसी बीच इमाम ने तमाम रिश्तेदारों और साथियों को एक शिविर में इकठ्ठा होने के लिए कहा और इस शिविर में अँधेरा करने के बाद सब से कहा कि: “तमाम तारीफ़ें खुदा के लिए हैं. मैं दुनिया में किसी के साथियों को इतना जाँबाज़ वफादार नहीं समझता जितना कि मेरे साथी हैं और न दुनिया में किसी को ऐसे रिश्तेदार मिले जैसे नेक और वफ़ादार मेरे रिश्तेदार हैं. खुदा तुम्हें अज्र-ए-अज़ीम(अच्छा फल) देगा. आगाह हो जाओ कि कल दुश्मन जंग ज़रूर करेगा. मैं तुम्हें ख़ुशी से इजाज़त देता हूँ कि तुम्हारा दिल जहाँ चाहे चले जाओ, मैं हरगिज़ तुम्हें नहीं रोकूंगा. शामी (यजीदी सेना) केवल मेरे खून की प्यासी है. अगर वह मुझे पा लेंगे तो तुम्हें को तलाश नहीं करेंगे”. इसके बाद इमाम ने सारे चिराग़ भुझाने को कहा और बोले इस अँधेरे मैं जिसका दिल जहाँ चाहे चला जाए. तुम लोगों ने मेरे प्रति वफ़ादार रहने कि जो क़सम खाई थी वह भी मैंने तुम पर से उठा ली है.” इस घटना पर टिप्पड़ी करते हुए मुंशी प्रेम चंद ने लिखा है कि अगर कोई सेनापति आज अपनी फ़ौज से यही बात कहे तो कोई सिपाही तो क्या बड़े बड़े कप्तान और जर्नल घर कि राह लेते हुए नज़र आयें. मगर कर्बला में हर तरह से मौका देने पर भी इमाम का साथ छोड़ने पर कोई राज़ी नहीं हुआ. ज़ुहैन इब्ने क़ेन जैसा भूढ़ा सहाबी कहता है कि “ऐ इमाम अगर मुझको इसका यकीन हो जाए कि मै आपकी तरफ़दारी करने की वजह से ज़िन्दा जलाया जाऊँगा, और फिर ज़िन्दा करके जलाया जाऊं तो यह काम अगर 100 बार भी करना पड़े तो भी में आपसे अलग नहीं हो सकता.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
रिश्तेदार तो पहले ही कह चुके थे कि “हम आप को इस लिए छोड़ दें की आपके बाद जिंदा रहे? हरगिज़ नहीं, खुदा हम को ऐसा बुरा दिन दिखाना नसीब न करे”.<br />
फिर इमाम ने अपने चाचा हज़रत अक़ील की औलाद से यह आग्रह किया कि वह वापस चले जाएँ क्योंकि उनके लिए हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील का ग़म अभी ताज़ा है और इस दुखी परिवार पर वह और ज़्यादा ग़म नहीं डालना चाहते लेकिन औलादें हज़रत अक़ील ने कह दिया कि वह अपनी जानें कुर्बान करके ही दम लेंगे.<br />
हालांकि सब को पता था कि यज़ीद की सेनाएं हज़ारों की तादाद में हैं और 70 सिपाहियों(हज़रत हुर्र और उनके बेटे के शामिल होने के बाद यह तादाद बाद में 72 हो गई) की यह मामूली सी टुकड़ी शहादत के आलावा कुछ हासिल नहीं कर सकतीं लेकिन इमाम को छोड़ने पर कोई राज़ी न हुआ. यह लोग दुनिया को जिहाद का असली मतलब बताना चाहते थे ताकि क़यामत तक कोई यह न कह सके कि जिहाद किसी का बेवजह खून बहाने का नाम नहीं है या किसी देश पर चढाई करने का नाम नहीं हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
दूसरे दिन मुहर्रम की दसवीं तारीख़ थी. हुसैनी सिपाही रात भर की इबादत के बाद सुबह के इन्तिज़ार में थे कि यज़ीद की सेना से दो सितारे उभरे और लश्करे हुसैन की रौशनी में समां गए. यह हुर्र इब्ने रियाही थे जो अपने बेटे के साथ इमाम की पनाह में आये थे. जिस हुर्र को इमाम ने रास्ते में पानी पिलाया था आज वही हुर्र उस घडी में इमाम के लश्कर में शामिल होने आया था जबकि इमाम हुसैन के छोटे छोटे बच्चे पानी की बूँद बूँद को तरस रहे थे. हुर्र को मालूम था कि इमाम हुसैन की 72 सिपाहियों की एक छोटी सी टुकड़ी यज़ीद की शक्तिशाली सेना(जिसकी संख्या विभ्न्न्न इतिहासकारों ने तीस हज़ार से एक लाख तक बताई है) से जीत नहीं सकती थी, फिर भी दिल की आवाज़ पर हुर्र उस दल में शामिल हो कर हुर्र से हज़रते हुर्र बन गए. मौत और ज़िन्दगी की इस कड़ी मंजिल में बड़ों बड़ों के क़दम लड़खड़ा जाते हैं और आम आदमी जिंदा रहने का बहाना ढूँढता है मगर मौत को अपनी मर्ज़ी से गले लगाने वाले हुर्र जैसे लोग मरते नहीं शहीद होते हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत हुर्र के आने के बाद यज़ीदी लश्कर से तीरों की बारिश शुरू हो गई. पहले इमाम हुसैन के मित्रों और दोस्तों ने रणभूमि में अपनी बहादुरी और वीरता के जौहर दिखाये. इमाम के इन चाहने वालों में नवयुवक भी थे और बूढ़े भी, पैसे वाले रईस भी थे, ग़ुलाम और सेवक भी. अफ्रीका के काले रंग वाले जानिसार भी थे तो एक से एक खूबसूरत सुर्ख-ओ-सफ़ेद रंग वाले गबरू जवान भी. इनमें उम्र का फ़र्क़ था, रंग-ओ-नस्ल का फ़र्क़ था सामाजिक और आर्थिक भिन्नता थी मगर उनके दिलों में इमाम हुसैन की मोहब्बत, उन पर जान लुटा देने का हौसला और इस्लाम को बचने के लिए अपने को कुर्बान कर देने का जज़्बा एक जैसा था.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
जब सारे साथी और मित्र अपनी कुर्बानी दे चुके तो इमाम हुसैन के रिश्तेदारों ने अपने इस्लाम को बचाने वाले के लिए अपने प्राण निछावर करना शुरू कर दिए. कभी उनकी बहनों और माँओ ने तलवारें सजा कर मैदान में भेजा. कभी उनके भतीजे रणभूमि में अपने चाचा पर मर मिटने के लिए उतरे तो कभी भाई ने नदी के किनारे अपने बाजू कटवाए और कभी उनके 18 साल के कड़ियल जवान अली अकबर ने अपनी कुर्बानी पेश की. आखिर में हुसैन के हाथों पर उनके छे महीने के बच्चे अली असग़र ने गले पर तीर खाया और सब से आखिर में अल्लाह के सब से प्यारे बन्दे के प्यारे नवासे ने कर्बला की जलती हुई धरती पर तीन दिन की प्यास में जालिमों के खंजर तले खुदा के लिए सजदा करके अपनी कुर्बानी पेश की. यही नहीं तथाकथित मुसलामानों ने अपने ही पैग़म्बर के नवासे की लाश पर घोड़े दौड़ा कर अपने बदले की आग बुझाई.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम हुसैन के साथ कर्बला में अपनी कुर्बानी देने वाले कुछ ख़ास रिश्तेदार और साथी यह थे:</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
अबुल फ़ज़लिल अब्बास: कर्बला में इमाम हुसैन की छोटी सी सेना का नेतृत्व हज़रत अब्बास के हाथों मैं था. वह इमाम हुसैन के छोटे भाई थे. इमाम हुसैन की माँ हज़रत फ़ातिमा के निधन के बाद हज़रत अली ने अपने भाई हज़रत अक़ील से कहा की में किसी ऐसे खानदान की लड़की से शादी करना चाहता हूँ जो अरब के बड़े बहादुरों में शुमार होता हो, जिससे की बहादुर और जंग-आज़मा(युद्ध में निपुण) औलाद पैदा हो. हज़रत अक़ील ने कहा की उम-उल-बनीन-ए-कलाबिया से शादी कीजिए. उनके बाप दादा से ज़्यादा कोई मशहूर सारे अरब में नहीं है. हज़रत अली ने इसी तथ्य की बुनियाद पर जनाबे उम-उल-बनीन से शादी की और उनसे चार बेटे पैदा हुए. हज़रत अब्बास उनमें सबसे बड़े थे. वह इमाम हुसैन को बेहद चाहते थे और इमाम हुसैन को हज़रत अब्बास से बेहद मोहब्बत थी. कर्बला की जंग में हज़रत अब्बास के हाथों में ही इस्लामी सेना का अलम(ध्वज) था. इसी लिए उन्हें अलमदार-ए-हुसैनी कहा जाता है. उनकी बहादुरी सारे अरब में मशहूर थी. कर्बला की जंग में हालांकि वह प्यासे थे लेकिन एक मौक़ा ऐसा आया की इमाम हुसैन की सेना के चार सिपाहियों का मैदान में यज़ीदी सेना ने चारों तरफ से घेर लिया तो उनको बचाने के लिए हज़रत अब्बास मैदान में गए और सारे लश्कर को मार भगाया और चारों को बाहर निकाला. इतने बड़े लश्कर से टकराने के बाद भी हज़रत अब्बास के बदन पर एक भी ज़ख्म नहीं लगा. उनकी बहादुरी का यह आलम था की जब इमाम हुसैन के सारे सिपाही शहीद हो गए तो खुद हज़रत अब्बास ने जिहाद करने के लिए मैदान में जाने की इजाज़त माँगी, इस पर इमाम हुसैन ने कहा कि अगर मैदान में जाना ही है तो प्यासे बच्चों के लिए पानी का इन्तिज़ाम करो. हज़रत अब्बास इमाम हुसैन की सब से छोटी बेटी सकीना जो 4 साल की थीं, को अपने बच्चों से भी ज़्यादा चाहते थे और जनाबे सकीना का प्यास के मारे बुरा हाल था. ऐसे में हज़रत अब्बास ने एक हाथ में अलम लिया और दूसरे हाथ में मश्क़ ली और दुश्मन की फौज़ पर इस तरह हमला नहीं किया कि लड़ाई के लिए बढ़ रहे हों बल्कि इस तरह आगे बढे जैसे की नदी की तरफ जाने के लिए रास्ता बना रहे हों. हज़रत अब्बास से शाम और कूफ़ा की सेनायें इस तरह डर कर भागीं जैसे की शेर को देख कर भेड़ बकरियां भागती हैं. हज़रत अब्बास इत्मिनान से नदी पर पहुँचे, मश्क़ में पानी भरा और जब नदी से वापस लौटने लगे तो भागी हुई फ़ौजें फिर से जमा हों गईं और सब ने हज़रत अब्बास को घेर लिया. हज़रत अब्बास हर हाल में पानी से भरी मश्क़ इमाम के शिविर तक पहुँचाना चाहते थे. वह फ़ौजों को खदेड़ते हुए आगे बढ़ते रहे तभी पीछे से एक ज़ालिम ने हमला करके उनका एक हाथ काट दिया. अभी वह कुछ क़दम आगे बढे ही थे कि पीछे से वार करके उनका दूसरा हाथ भी काट दिया गया. हज़रत अब्बास ने मश्क़ अपने दांतों में दबा ली. इसी बीच एक ज़ालिम ने मश्क़ पर तीर मार कर सारा पानी ज़मीन पर बहा दिया और इस तरह इमाम के प्यासे बच्चों तक पानी पहुँचने की जो आखिरी उम्मीद थी वह भी ख़त्म हों गई. एक ज़ालिम ने हज़रत अब्बास के सर पर गुर्ज़(गदा) मारकर उन्हें शहीद कर दिया. हज़रत अब्बास को तभी से सक्का-ए-सकीना(सकीना के लिए पानी का प्रबंध करने वाले) के नाम से भी याद किया जाता है. हज़रत अब्बास बेइंतिहा खूबसूरत थे, इसलिए उनको कमर-ए-बनी हाशिम(हाशिमी कबीले का चाँद) भी कहा जाता है. सारी दुनिया में मुहर्रम के दौरान जो जुलूस उठते हैं, वह हज़रत अब्बास की ही निशानी हैं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
क़ासिम बिन हसन: हज़रत क़ासिम इमाम हुसैन के बड़े भाई इमाम हसन के बेटे थे. कर्बला के युद्ध के समय उनकी उम्र लगभग तेरह साल थी. इतनी कम उम्र में भी हज़रत क़ासिम ने इतनी हिम्मत और बहादुरी से लड़ाई की कि यज़ीदी फ़ौज के छक्के छूट गए. क़ासिम की बहादुरी देख कर उम्रो बिन साअद जैसे बड़े पहलवान को हज़रत क़ासिम जैसे कम उम्र सिपाही के सामने आना पड़ा और इस ने हज़रत क़ासिम के सर पर तलवार मार कर शहीद कर दिया. क़ासिम की शहादत का इमाम को इतना दुःख हुआ कि इमाम खुद ही तलवार लेकर अपने भतीजे के क़ातिल कि तरफ झपटे, उधर से दुश्मन कि फ़ौज वालो ने क़ातिल को बचने के लिए घोड़े दौडाए, इस कशमकश में हज़रत कासिम की लाश घोड़ो से पामाल हो गई. इमाम खुद अपने भतीजे की लाश उठाकर लाये और हज़रत अली अकबर की लाश के पास क़ासिम की लाश को रख दिया.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
हज़रत औन-ओ-मोहम्मद: कर्बला की जंग में आपसी रिश्तों की जो उच्च मिसालें और आदर्श नज़र आते हैं उनमें हज़रत औन बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र भी एक ऐसी मिसाल हैं जिनको रहती दुनिया तक याद किया जाता रहेगा. यह दोनों इमाम हुसैन के चचाज़ाद भाई हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के बेटे थे. हज़रत औन इमाम हुसैन की चाहीती बहन हज़रत ज़ैनब के सगे बेटे थे जबकि हज़रत मोहम्मद की माँ का नाम खूसा बिन्ते हफसा बिन सक़ीफ़ था. दोनों भाइयों की देखभाल हज़रत ज़ैनब ने इस तरह की थी की लोग इन दोनों को सगा भाई ही समझते थे. दोनों भाइयों में भी इस क़दर मोहब्बत थी की इन दोनों के नाम आज तक इतिहास की पुस्तकों में एक ही साथ लिखे जाते हैं. मजलिसों मैं औन-ओ-मोहम्मद का ज़िक्र इस प्रकार किया जाता है कि सुनने वालों को यह नाम एक ही व्यक्ति का नाम लगता है.<br />
मदीने से जब हुसैनी क़ाफ़िला चला तो हज़रत औन-ओ-मोहम्मद साथ नहीं थे. उनके पिता हज़रत जाफ़र ने अपने दोनों नवयुवकों को इमाम हुसैन पर जान देने के लिए उस समय भेजा जब इमाम हुसैन मक्का छोड़ कर इराक की और प्रस्थान कर रहे थे. इन दोनों भाइयों ने अपने मामूं हज़रत हुसैन के मिशन को आगे बढ़ाते हुए इस्लाम के दुश्मनों से इस तरह जंग की की शाम की फ़ौज को पैर जमाए रखना मुश्किल हों गया. यह दोनों भाई आगे आने वाली नस्लों के लिए यह पैग़ाम छोड़ कर गए कि हक़ और सच्चाई की लड़ाई लड़ने वालों का चरित्र ऐसा होना चाहिए की लोग मिसालों की तरह याद करें.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह इमाम हुसैन के चचाज़ाद भाई हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील के बेटे थे. उनकी माँ इमाम हुसैन की सौतेली बहन रुक़य्या बिन्ते अली थीं. यानी अब्दुल्लाह इमाम हुसैन के भांजे भी थे और भतीजे भी. उनकी उम्र शहादत के वक़्त बहुत कम थी, शायद चार या पांच वर्ष के रहे होंगे. जब बेटे हज़रत अली अकबर की लाश इमाम हुसैन से नहीं उठ सकी और उन्होंने बनी हाशिम के बच्चों को मदद के लिए पुकारा तो अब्दुल्लाह भी ख़ेमें(शिविर) से बाहर निकल आये. इसी समय उमरो बिन सबीह सद्दाई ने अब्दुल्लाह की तरफ़ तीर चलाया जो माथे की तरफ़ आता देख कर नन्हें बच्चे ने अपने माथे पर हाथ रखा तो तीर हाथ को छेद कर माथे में लग गया. उसके बाद ज़ालिम ने दूसरा तीर मारा जो अब्दुल्लाह के सीने पर लगा और बच्चे ने मौक़े पर ही दम तौड़ दिया.</div>
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मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह अब्दुल्लाह के भाई थे लेकिन दोनों की माताएँ अलग अलग थीं. जैसे ही नन्हे से अब्दुल्लाह ने दम तोड़ा, हज़रत अक़ील के बेटों और पोतों ने एक साथ हमला कर दिया उनके इस जोश और ग़ुस्से को देख कर इमाम हुसैन ने आवाज़ दी “हाँ! मेरे चाचा के बेटों मौत के अभियान पर विजय प्राप्त करो”. मोहम्मद जवाँ मर्दी से लड़ते हुए अबू मरहम नामक क़ातिल के हाथों शहीद हुए.</div>
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जाफ़र बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बात जाफ़र मैदान में उतरे. मैदाने जंग में कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारने के बाद यह भी अल्लाह की<br />
राह में शहीद हो गए. हज़रत जाफ़र को इब्ने उर्वाह ने शहीद किया.</div>
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अब्दुल रहमान बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बाद अब्दुल रहमान बिन अक़ील ने मैदान-ए-जिहाद में अपने जोश और ईमानी जज़्बे का प्रदर्शन करते हुए दुश्मनों पर धावा बोल दिया. इन को उस्मान बिन खालिद और बशर बिन खोत ने मिल कर घेर लिया और यह बहादुर शहीद हुए.</div>
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मोहम्मद बिन अबी सईद बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की दिल हिला देने वाली शहादत के बाद यह भी लश्करे यज़ीद पर टूट पड़े और लक़ीत बिन यासिर नामक कातिल ने मोहम्मद के सर पर तीर मार कर शहीद किया.</div>
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अबू बक़र बिन हसन: खानदान-ए-बनी हाशिम के जिन नौजवानों ने अपने चाचा पर अपनी जान कुर्बान की, उन में अबू बक़र बिन हसन का नाम भी सुनहरे शब्दों में लिखा है. इन को अब्दुल्लाह इब्ने अक़बा ने तीर मार कर शहीद किया.</div>
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मोहम्मद बिन अली: यह इमाम हुसैन के भाई थे, इनकी माँ का नाम इमामाह था. कहा जाता है की इमाम हुसैन की माँ हज़रत फ़ातिमा ने अपने निधन के समय इच्छा व्यक्त की थी की हज़रत अली इमामाह इब्ने अबी आस से शादी करें. मोहम्मद ने अपने भाई इमाम हुसैन के मकसद को बचाने के लिए भरपूर जंग की और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारा. बाद में बनी अबान बिन दारम नाम के एक व्यक्ति ने तीर मार कर शहीद कर दिया. इन्हें मोहम्मद उल असग़र(छोटे मोहम्मद) भी कहा जाता है.</div>
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अब्दुल्लाह बिन अली: अब्दुल्लाह हज़रत अली और जनाबे उम उल बनीन के बेटे थे और यह हज़रत अब्बास से छोटे थे. जनाबे उम उल बनीन के क़बीले, क़बालिया से ताल्लुक रखने वाला यज़ीद का एक कमांडर भी था जिसका नाम शिम्र था. उस ने क़बीले के नाम पर इब्ने ज़ियाद से जनाबे उम उल बनीन के चारों बेटों हज़रत अब्बास, हज़रत अब्दुल्लाह, हज़रत उस्मान और जाफ़र बिन अली के नाम अमान नामा(आश्रय पत्र) लिखवा लिया था. कर्बला पहुँचने के बाद शिम्र ने सबसे पहला काम यह किया वह इमाम हुसैन के शिविर के पास आया और आवाज़ दी की कहाँ हैं मेरी बहन के बेटे? यह सुन कर हज़रत अब्बास और उनके तीनों भाई सामने आये और पूछा की क्या बात है? इस पर शिम्र ने कहा की तुम लोग मेरी अमान(आश्रय) में हो, इस पर जनाबे उम उल बनीन के बेटों ने कहा की खुदा की लानत हो तुझ पर और तेरी अमान पर. हम को तो अमान है और पैग़म्बर के नवासे को अमान नहीं. इस तरह अली के यह चारों शेर दिल बेटे यह साबित कर रहे थे की सत्य के रास्ते में रिश्तेदारियाँ कोई मायने नहीं रखतीं और वह कर्बला में इस लिए नहीं आये हैं कि हुसैन उनके भाई हैं, बल्कि वह लोग इस लिए आये हैं कि उन्हें यकीन है कि इमाम हुसैन हक़ पर हैं. जब कर्बला का जिहाद शुरू हुआ और औलादे हज़रत अली हक़ के रास्ते में क़ुर्बान होने के लिए मैदान में उतरी तो अपने भाइयों में से हज़रत अब्बास ने सबसे पहले अब्दुल्लाह को मैदान में भेजा. हज़रत अब्दुल्लाह बिन अली मैदान में गए और वीरता से लड़ते हुए हानि बिन सबीत की तलवार से शहीद हुए.</div>
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उस्मान बिन अली: यह अब्दुल्लाह बिन अली से छोटे थे. उस्मान बिन अली को हज़रत अब्बास ने अब्दुल्लाह की शहादत के बाद मैदान में भेजा. उस्मान बिन अली ने दुश्मन से जम कर लोहा लिया. आखिर में लड़ते लड़ते खुली बिन यज़ीद अस्बेही के तीर से शहीद हुए.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
जाफ़र बिन अली: यह उम उल बनीन के सबसे छोटे बेटे थे. उसमान बिन अली की शहादत के बाद हज़रत अब्बास ने जाफ़र से कहा की “भाई! जाओ और मैदान में जाकर हक़ परस्तों की इस जंग में अपनी जान दो ताकि जिस तरह मैंने तुम से पहले दोनों भाइयों का ग़म बर्दाश्त किया है उसी तरह तुम्हारा ग़म भी बर्दाश्त करूँ”. इसके बाद जाफ़र मैदान में गए और अपनी वीरता की गाथा अपने खून से लिख कर हानि बिन सबीत के हाथों शहीद हुए. इमाम हुसैन की सेना के आखिरी शहीद हज़रत अब्बास थे.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
अली असग़र: हज़रत अब्बास की शहादत के बाद इमाम हुसैन ने एक ऐसी कुर्बानी दी जिसकी मिसाल रहती दुनिया तक मिलना मुमकिन नहीं. इमाम अपने छेह महीने के बच्चे हज़रत अली असग़र को मैदान में लाये. हज़रत अली असग़र पानी न होने के वजह से प्यास से बेहाल थे. पानी न मिलने के कारण अली असग़र की माँ जनाबे रबाब का दूध भी खुश्क हो गया था. हज़रत अली असग़र के लिए इमाम ने दुश्माओं से पानी तलब किया तो जवाब में हुर्मलाह नाम के एक मशहूर तीर अंदाज़ ने अली असग़र के गले पर तीर मार कर इस बात को साबित कर दिया की इमाम हुसैन से टकराने वाला लश्कर अमानविये हदों से भी आगे थे. यज़ीदी सेना की राक्षसों के साथ तुलना करना राक्षसों की बेईज्ज़ती करना है क्योंकि राक्षस सेना ने जो भी कुकर्म किया हो, जितने ही ज़ुल्म क्यों न किये हों कम से कम उन्होंने छः महीने के किसी प्यासे बच्चे के गले पर तीर तो नहीं मारा होगा.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम हुसैन की शहादत: हज़रत अली असग़र की शहादत के बाद अल्लाह का एक पाक बंदा, पैग़म्बर साहब का चहीता नवासा, हज़रत अली का शेर दिल बेटा, जनाबे फातिमा की गोद का पाला और हज़रत हसन के बाज़ू की ताक़त यानी हुसैन-ए-मज़लूम कर्बला के मैदान में तन्हा और अकेला खड़ा था.<br />
इस आलम में भी चेहरे पर नूर और सूखे होंटों पर मुस्कराहट थी, खुश्क ज़ुबान में छाले पड़े होने के बावजूद दुआएँ थीं. थकी थकी पाक आँखों में अल्लाह का शुक्र था. 57 साल की उम्र में 71 अज़ीज़ों और साथियों की लाशें उठाने के बाद भी क़दमों का ठहराव कहता था की अल्लाह का यह बंदा कभी हार नहीं सकता. इमाम हुसैन शहादत के लिए तैयार हुए, खेमे में आये, अपनी छोटी बहनों जनाबे जैनब और जनाबे उम्मे कुलसूम को गले लगाया और कहा कि वह तो इम्तिहान की आखिरी मंज़िल पर हैं और इस मंज़िल से भी वह आसानी से गुज़र जाएँगे लेकिन अभी उनके परिवार वालों को बहुत मुश्किल मंज़िलों से गुज़रना है. उसके बाद इमाम उस खेमे में गए जहाँ उनके सब से बड़े बेटे अली इब्नुल हुसैन(जिन्हें इमाम ज़ैनुल आबिदीन कहा जाता है)थे. इमाम तेज़ बुखार में बेहोशी के आलम में लेटे थे. इमाम ने बीमार बेटे का कन्धा हिलाया और बताया की अंतिम कुर्बानी देने के लिए वह मैदान में जा रहें हैं. इस पर इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने पूछा कि “सारे मददगार, नासिर और अज़ीज़ कहाँ गए?”. इस पर इमाम ने कहा कि सब अपनी जान लुटा चुके हैं. तब इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने कहा कि अभी मै बाक़ी हूँ, में जिहाद करूँगा. इस पर इमाम हुसैन बोले कि बीमारों को जिहाद की अनुमति नहीं है और तुम्हें भी जिहाद की कड़ी मंजिलों से गुज़ारना है मगर तुम्हारा जिहाद दूसरी तरह का है.<br />
इमाम खैमे से रुखसत हुए और मैदान में आये. ऐसे हाल में जब की कोई मददगार और साथी नहीं था और न ही विजय प्राप्त करने की कोई उम्मीद थी फिर भी इमाम हुसैन बढ़ बढ़ कर हमले कर रहे थे. वह शेर की तरह झपट रहे थे और यज़ीदी फ़ौज के किराए के टट्टू अपनी जान बचाने की पनाह मांग रहे थे. किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी की वह अकेले बढ़ कर इमाम हुसैन पर हमला करता. बड़े बड़े सूरमा दूर खड़े हो कर जान बचा कर भागने वालों का तमाशा देख रहे थे. इस हालत को देख कर यज़ीदी फ़ौज का कमांडर शिम्र चिल्लाया कि “खड़े हुए क्या देख रहे हो? इन्हें क़त्ल कर दो, खुदा करे तुम्हारी माएँ तुम्हें रोएँ, तुम्हे इसका इनाम मिलेगा”. इस के बाद सारी फ़ौज ने मिल कर चारों तरफ से हमला कर दिया. हर तरफ से तलवारों, तीरों और नैज़ों की बारिश होने लगी आखिर में सैंकड़ों ज़ख्म खाकर इमाम हुसैन घोड़े की पीठ से गिर पड़े. इमाम जैसे ही मैदान-ए-जंग में गिरे, इमाम का क़ातिल उनका सर काटने के लिए बढ़ा. तभी खैमे से इमाम हसन का ग्यारह साल का बच्चा अब्दुल्लाह बिन हसन अपने चाचा को बचाने के लिए बढ़ा और अपने दोनों हाथ फैला दिए लेकिन कर्बला में आने वाले कातिलों के लिए बच्चों और औरतों का ख्याल करना शायद पाप था. इसलिए इस बच्चे का भी वही हश्र हुआ जो इससे पहले मैदान में आने वाले मासूमों का हुआ था. अब्दुल्लाह बिन हसन के पहले हाथ काटे गए और बाद में जब यह बच्चा इमाम हुसैन के सीने से लिपट गया तो बच्चों की जान लेने में माहिर तीर अंदाज़ हुर्मलाह ने एक बार फिर अपना ज़लील हुनर दिखाया और इस मासूम बच्चे ने इमाम हुसैन की आग़ोश में ही दम तोड़ दिया.<br />
फिर सैंकड़ों ज़ख्मों से घायल इमाम हुसैन का सर उनके जिस्म से जुदा करने के लिए शिम्र आगे बढ़ा और इमाम हुसैन को क़त्ल करके उसने मानवता का चिराग़ गुल कर दिया. इमाम हुसैन तो शहीद हो गए लेकिन क़यामत तक यह बात अपने खून से लिख गए कि जिहाद किसी पर हमला करने का नाम नहीं है बल्कि अपनी जान दे कर इंसानियत की हिफाज़त करने का नाम है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
शहादत के बाद:<br />
इमाम हुसैन की शहादत के बाद यज़ीद की सेनाओं ने अमानवीय, क्रूर और बेरहम आदतों के तहत इमाम हुसैन की लाश पर घोड़े दौड़ाये. इमाम हुसैन के खेमों में आग लगा दी गई. उनके परिवार को डराने और आतंकित करने के लिए छोटे छोटे बच्चों के साथ मार पीट की गई. पैग़म्बर साहब के पवित्र घराने की औरतों को क़ैदी बनाया गया, उनका सारा सामन लूट लिया गया.</div>
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इसके बाद इमाम हुसैन और उनके साथ शहीद होने वाले अज़ीज़ों और साथियों के परिवार वालों को ज़ंजीरों और रस्सियों में जकड़ कर गिरफ्तार किया गया. इस तरह इन पवित्र लोगों को अपमानित करने का सिलसिला शुरू हुआ. असल में यह उनका अपमान नहीं था, खुद यज़ीद की हार का ऐलान था.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इमाम हुसैन के परिवार को क़ैद करके पहले तो कूफ़े की गली कूचों में घुमाया गया और बाद में उन्हें कूफ़े के सरदार इब्ने ज़ियाद(इब्ने ज़ियाद यज़ीद की फ़ौज का एक सरदार था जिसे यज़ीद ने कूफ़े का गवर्नर बनाया था) के दरबार में पेश किया गया, जहाँ ख़ुशी की महफ़िलें सजाई गईं और और जीत का जश्न मनाया गया. जब इमाम हुसैन के परिवार वालों को दरबार में पेश किया गया तो इब्ने ज़ियाद ने जनाबे जैनब की तरफ इशारा करके पूछा यह औरत कौन है? तो उम्र सअद ने कहा की “यह हुसैन की बहन जैनब है”. इस पर इब्ने ज़ियाद ने कहा कि “ज़ैनब!, एक हुसैन कि ना-फ़रमानी से सारा खानदान तहस नहस हो गया. तुमने देखा किस तरह खुदा ने तुम को तुम्हारे कर्मों कि सज़ा दी”. इस पर ज़ैनब ने कहा कि “हुसैन ने जो कुछ किया खुदा और उसके हुक्म पर किया, ज़िन्दगी हुसैन के क़दमों पर कुर्बान हो रही थी तब भी तेरा सेनापति शिम्र कोशिश कर रहा था कि हुसैन तेरे शासक यज़ीद को मान्यता दे दें. अगर हुसैन यज़ीद कि बैयत कर लेते तो यह इस्लाम के दामन पर एक दाग़ होता जो किसी के मिटाए न मिटता. हुसैन ने हक़ कि खातिर मुस्कुराते हुए अपने भरे घर को क़ुर्बान कर दिया. मगर तूने और तेरे साथियों ने बनू उमय्या के दामन पर ऐसा दाग़ लगाया जिसको मुसलमान क़यामत तक धो नहीं सकते.”</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
उसके बाद इमाम हुसैन की बहनों, बेटियों, विधवाओं और यतीम बच्चों को सीरिया कि राजधानी दमिश्क़, यज़ीद के दरबार में ले जाया गया. कर्बला से कूफ़े और कूफ़े से दमिश्क़ के रास्ते में इमाम हुसैन कि बहन जनाबे ज़ैनब ने रास्तों के दोनों तरफ खड़े लोगों को संबोधित करते हुए अपने भाई की मज़लूमी का ज़िक्र इस अंदाज़ में किया कि सारे अरब में क्रांति कि चिंगारियां फूटने लगीं.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
यज़ीद के दरबार में पहुँचने पर सैंकड़ों दरबारियों की मौजूदगी में जब हुसैनी काफ़िले को पेश किया गया तो यज़ीद ने बनी उमय्या के मान सम्मान को फिर से बहाल करने और जंग-ए-बद्र में हज़रत अली के हाथों मारे जाने वाले अपने काफ़िर पूर्वजों की प्रशंसा की और कहा की आज अगर जंग-ए-बद्र में मरने वाले होते तो देखते कि किस तरह मैंने इन्तिक़ाम लिया. इसके बाद यज़ीद ने इमाम ज़ैनुल आबिदीन से कहा कि “हुसैन कि ख्वाहिश थी कि मेरी हुकूमत खत्म कर दे लेकिन मैं जिंदा हूँ और उसका सर मेरे सामने है.” इस पर जनाबे ज़ैनब ने यज़ीद को टोकते हुए कहा कि तुझ को तो खुछ दिन बाद मौत भी आ जायेगी मगर शैतान आज तक जिंदा है. यह हमारे इम्तिहान कि घड़ियाँ थीं जो ख़तम हो चुकीं. तू जिस खुदा के नाम ले रहा है क्या उस के रसूल(पैग़म्बर) की औलाद पर इतने ज़ुल्म करने के बाद भी तू अपना मुंह उसको दिखा सकेगा”.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इधर इमाम हुसैन के परिवार वाले क़ैद मैं थे और दूसरी तरफ क्रांति की चिंगारियाँ फूट रही थी और अरब के विभिन्न शहरों मैं यज़ीद के शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही थी. इन सब बातों से परेशान हो कर यज़ीद के हरकारों ने पैंतरा बदल कर यह कहना शुरू कर दिया था की इमाम हुसैन का क़त्ल कूफ़ियों ने बिना यज़ीद की अनुमति के कर दिया. इन लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि इमाम हुसैन तो यज़ीद के पास जाकर अपने मतभेद दूर करना चाहते थे या मदीने मैं लौट कर चैन की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते थे. लेकिन सच तो यह है की इमाम हुसैन कर्बला के लिये बने थे और कर्बला की ज़मीन इमाम हुसैन के लिए बनी थी. इमाम हुसैन के पास दो ही रास्ते थे. पहला तो यह कि वह यज़ीद कि बैयत करके अपनी जान बचा लें और इस्लाम को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ता देखें. दूसरा रास्ता वही था कि इमाम हुसैन अपनी, अपने बच्चों और अपने साथियों कि जान क़ुर्बान करके इस्लाम को बचा लें. ज़ाहिर है हुसैन अपने लिए चंद दिनों कि ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी तलब कर ही नहीं सकते थे. उन्हें तो अल्लाह ने बस इस्लाम को बचाने के लिए ही भेजा था और वह इस मैं पूरी तरह कामयाब रहे.<br />
क्रांति की आग:<br />
कर्बला के शहीदों का लुटा काफ़िला जब दमिश्क से रिहाई पा कर मदीने वापस आया तो यहाँ क्रांति की चिंगारियाँ आग में बदल गईं और ग़ुस्से में बिफरे लोगों ने यज़ीद के गवर्नर उस्मान बिन मोहम्मद को हटा कर अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला को अपना शासक बना लिया. यज़ीद ने इस क्रांति को ख़तम करने के लिए एक बहुत बड़े ज़ालिम मुस्लिम बिन अक़बा को मदीने की ओर भेजा. मदीना वासियों ने अक़बा की सेना का मदीने से बाहर हर्रा नामक स्थान पर मुकाबला किया. इस जंग में दस हज़ार मुसलमान क़त्ल कर दिए गए ओर सात सो ऐसे लोग भी क़त्ल किये गए जो क़ुरान के हाफ़िज़ थे(जिन लोगों को पूरा क़ुरान बिना देखे याद हो, उन्हें हाफ़िज़ कहा जाता है). मदीने के लोग यज़ीद की सेना के सामने ठहर न सके और यज़ीदी सेनाओं ने मदीने में घुस कर ऐसे कुकर्म किये कि कभी काफ़िर भी न कर सके थे. सारा शहर लूट लिया गया. हज़ारों मुसलमान लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया, जिसके नतीजे में एक हज़ार ऐसे बच्चे पैदा हुए जिनकी माताओं के साथ बलात्कार किया गया था. मदीने के सारे शहरी इन ज़ुल्मों की वजह से फिर से यज़ीद को अपना राजा मानने लगे. इमाम ज़ैनुल आबिदीन इस हमले के दौरान मदीने के पास के एक देहात में रह रहे थे. इस मौके पर एक बार फिर इमाम हुसैन के परिवार ने एक ऐसी मिसाल पेश की कि कोई इंसान पेश नहीं कर सकता. जब मदीने वालों ने अपना शिकंजा कसा तो उसमें मर-वान की गर्दन भी फंस गई.(मर-वान वही सरदार था जिसने मदीने मे वलीद से कहा था कि हुसैन से इसी वक़्त बैयत ले ले या उन्हें क़त्ल कर दे). मर-वान ने इमाम ज़ैनुल-आबिदीन से पनाह मांगी और कहा कि सारा मदीना मेरे खिलाफ हो गया है, ऐसे में, मैं अपने बच्चों के लिए खतरा महसूस करता हूँ तो इमाम ने कहा की तू अपने बच्चों को मेरे गाँव भेज दे मैं उनकी हिफाज़त का ज़िम्मेदार हूँ. इस तरह इमाम ने साबित कर दिया कि बच्चे चाहे ज़ालिम ही के क्यों न हों, पनाह दिए जाने के काबिल हैं.<br />
मदीने को बर्बाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बा मक्के की तरफ़ बढ़ा. मक्के में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की हुकूमत थी. लेकिन अक़बा को वक़्त ने मोहलत नहीं दी और वह मक्का के रास्ते में ही मर गया. उस की जगह हसीन बिन नुमैर ने ली और चालीस दिन तक मक्के को घेरे रखा. उसने अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को मात देने की कोशिश में काबे पर भी आग बरसाई गई. लेकिन जुबैर को गिरफ्तार नहीं कर सका. इस बीच यज़ीद के मरने की खबर आई और मक्के में हर तरफ़ जश्न का माहोल हो गया और शहर का नक्शा ही बदल गया. इब्ने जुबैर को विजय प्राप्त हुई और हसीन बिन नुमैर को भाग कर मदीने जाना पड़ा.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
यज़ीद की मौत:<br />
यज़ीद की मौत को लेकर इतिहासकारों में अलग अलग राय है. कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यज़ीद महल से शिकार खेलने निकला और फिर जंगल में शिकार का पीछा करते हुए अपने साथियों से अलग हो गया और रास्ता भटक गया और बाद में खुद ही जंगली जानवरों का शिकार बन गया. लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं 38 साल कि उम्र में क़ोलंज के दर्द(पेट में उठने वाला ऐसा दर्द जिसमें पीड़ित हाथ पैर पटकता रहता है) का शिकार हुआ और उसी ने उसकी जान ली.<br />
जब यज़ीद को अपनी मौत का यकीन हो गया तो उस ने अपने बेटे मुआविया बिन यज़ीद को अपने पास बुलाया और हुकूमत के बारे में कुछ अंतिम इच्छाएँ बतानी चाहीं. अभी यज़ीद ने बात शुरू ही की थी कि उसके बेटे ने एक चीख मार कर कहा “खुदा मुझे उस सल्तनत से दूर रखे जिस कि बुनियाद रसूल के नवासे के खून पर रखी गई हो”. यज़ीद अपने बेटे के यह अलफ़ाज़ सुन कर बहुत तड़पा मगर मुविया बिन यज़ीद लानत भेज कर चला गया. लोगों ने उसे बहुत समझाया की तेरे इनकार से बनू उमय्या की सल्तनत का ख़ात्मा हो जाएगा मगर वह राज़ी नही हुआ. यज़ीद तीन दिन तक तेज़ दर्द में हाथ पाँव पटक पटक कर इस तरह तड़पता रहा कि अगर एक बूँद पानी भी टपकाया जाता तो वह तीर की तरह उसके हलक़ में चुभता था. यज़ीद भूखा प्यासा तड़प तड़प कर इस दुनिया से उठ गया तो बनू उमय्या के तरफ़दारों ने ज़बरदस्ती मुआविया बिन यज़ीद को गद्दी पर बिठा दिया. लेकिन वह रो कर और चीख़ कर भागा और घर में जाकर ऐसा घुसा की फिर बाहर न निकला और हुसैन हुसैन के नारे लगाता हुआ दुनिया से रुखसत हो गया. कुछ लोगों का मानना है कि 21 साल के इस युवक को बनू उमय्या के लोगों ने ही क़त्ल कर दिया क्योंकि गद्दी छोड़ने से पहले उसने साफ़ साफ़ कह दिया था कि उस के बाप और दादा दोनों ने ही सत्ता ग़लत तरीकों से हथियाई थी और इस सत्ता के असली हक़दार हज़रत अली और उनके बेटे थे. मुआविया बिन यज़ीद की मौत के बाद मर-वान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस बीच उबैद उल्लाह बिन ज़ियाद ने इराक पर क़ब्ज़ा कर लिया और मुल्क में पूरी तरह अराजकता फ़ैल गई.<br />
यज़ीद की मौत की खबर सुन कर मक्के का घेराव कर रहे यजीदी कमांडर हसीन बिन नुमैर ने मदीने की ओर रुख किया और इसी आलम में उसका सारा अनाज और गल्ला ख़तम हो गया. भटकते भटकते मदने के करीब एक गाँव में इमाम हुसैन के बेटे हज़रत जैनुल आबिदीन मिले तो इमाम ने भूख से बेहाल अपने इस दुश्मन की जान बचाई. इमाम ने उसे खाना और गल्ला भी दिया और पैसे भी नहीं लिए. इस बात से प्रभावित हो कर हसीन बिन नुमैर ने यज़ीद की मौत के बाद इमाम से कहा की वह खलीफ़ा बन जाएँ लेकिन इमाम ने इनकार कर दिया और यह साबित कर दिया की हज़रत अली की संतान की लड़ाई या जिहाद खिलाफत के लिए नहीं बल्कि दुनिया को यह बताने के लिए थी कि इस्लाम ज़ालिमों का मज़हब नहीं बल्कि मजलूमों का मज़हब है.</div>
<div style="background-color: white; color: #333333; font-family: verdana, tahoma, arial, sans-serif; font-size: 12px; line-height: 19.453125px; margin-bottom: 0.7em; margin-top: 0.7em; padding: 0px;">
इनतिकामे-ए-खूने का अभियान:<br />
मक्के, मदीने के बाद कूफ़े में भी क्रांति की चिंगारियां भड़कने लगीं. वहाँ पहले एक दल तव्वाबीन(तौबा करने वालों) के नाम से उठा. इस दल के दिल में यह कसक थी कि इन्हीं लोगों ने इमाम हुसैन को कूफ़ा आने का न्योता दिया. लेकिन जब इमाम हुसैन कूफ़ा आये तो इन लोगों ने यज़ीद के डर और खौफ़ के आगे घुटने टेक दिए. और जिन 18 हज़ार लोगों ने इमाम हुसैन का साथ देने कि कसम खायी थी, वह या तो यज़ीद द्वारा मार दिए गए थे या जेल में डाल दिए गए थे. तव्वाबीन, खूने इमाम हुसैन का बदला लेने के लिए उठे लेकिन शाम(सीरिया) की सैनिक शक्ति का मुकाबला नहीं कर सके.<br />
इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने में सिर्फ़ हज़रत मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी को कामयाबी मिली. जब इमाम हुसैन शहीद किए गए तो मुख्तार जेल में थे. इमाम हुसैन की शहादत के बाद हज़रत मुख़्तार को अब्दुल्लाह बिन उमर कि सिफ़ारिश से रिहाई मिली. अब्दुल्लाह बिन उमर, मुख़्तार के बहनोई थे और शुरू शुरू में यज़ीद की बैयत न करने वालों में आगे आगे थे लेकिन बाद में वह बनी उमय्या की ताक़त से दब गए.<br />
मुख़्तार ने रिहाई मिलते ही इमाम हुसैन के क़ातिलों से बदला लेने की योजना बनाना शुरू कर दी. उन्होंने हज़रत अली के सब से क़रीबी साथी मालिके अशतर के बेटे हज़रत इब्राहीम बिन मालिके अशतर से बात की. उन्होंने इस अभियान में मुख्तार का हर तरह से साथ देने का वायदा किया. उन दिनों कूफ़े पर ज़ुबैर का क़ब्ज़ा था और इन्तिक़ामे खूने हुसैन का काम शुरू करने के लिए यह ज़रूरी था कि कूफ़े को एक आज़ाद मुल्क घोषित किया जाए. कूफ़े को क्रांति का केंद्र बनाना इस लिए भी ज़रूरी था कि इमाम हुसैन के ज़्यादातर क़ातिल कूफ़े में ही मौजूद थे और अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर सत्ता पाने के बाद इन्तिक़ाम-ए-खूने हुसैन के उस नारे को भूल चुके थे जिसके सहारे उन्होंने सत्ता हासिल की थी. मुख्तार और इब्राहीम ने अपना अभियान कूफ़े से शुरू किया और इब्ने ज़ुबैर के कूफ़ा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन मुतीअ को कूफ़ा छोड़ कर भागना पड़ा.<br />
इस के बाद हज़रत मुख़्तार और हज़रत इब्राहीम की फ़ौज ने इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को क़त्ल करने वाले क़ातिलों को चुन चुन कर मार डाला. इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने के लिए जो जो लोग भी उठे उन में हज़रत मुख्तार और इब्राहीम बिन मालिके अशतर का अभियान ही अपने रास्ते से नहीं हटा. इस अभियान की ख़ास बात यह थी कि इन लोगों ने सिर्फ़ क़ातिलों से बदला लिया, किसी बेगुनाह का खून नहीं बहाया.<br />
उधर मदीने में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर पैग़म्बर साहब के परिवार वालों से नाराज़ हो चुके थे. यहाँ तक कि इब्ने ज़ुबैर ने इमाम हुसैन के छोटे भाई मोहम्मद-ए-हनफ़िया और पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई इब्ने अब्बास को एक घर में बंद करके ज़िन्दा जलाने की कोशिश भी कि लेकिन इसी बीच हज़रत मुख़्तार का अभियान शुरू हो गया और उन दोनों कि जान बच गई.<br />
हज़रत मुख्तार और इब्ने ज़ुबैर की फ़ौजों में टकराव हुआ और मुख़्तार हार गए लेकिन तब तक वह क़ातिलाने इमाम हुसैन को पूरी तरह सजा दे चुके थे.</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-19106847425547126162021-03-12T17:53:00.001+05:302021-03-12T18:05:21.889+05:30क़ुरआने मजीद की एक विशेषता उसका हर प्रकार के फेर बदल तथा परिवर्तन से सुरक्षित रहना है। एस एम मासूम<p class="title">सूरए हिज्र की आयत नंबर ९<br></p>إِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ وَإِنَّا لَهُ لَحَافِظُونَ (9)<br>निश्चित रूप से हमने ही क़ुरआन को उतारा है और निसंदेह हम ही उसकी रक्षा करने वाले हैं।(15:9)<div><br>विरोधियों की ओर से लगाए जाने वाले आरोपों तथा उनके बुरे व्यवहार के संबंध में ईश्वर, ईमान वालों को सांत्वना देते हुए कहता है कि तुम्हें क़ुरआने मजीद की सत्यता में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि इसे हमने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के हृदय पर उतारा है और हम ही इसकी रक्षा करने वाले हैं।<br>क़ुरआने मजीद में, उसके उतरने के समय, लिखे जाने के समय और लोगों के सामने प्रस्तुत किए जाने के समय, किसी प्रकार का फेर बदल नहीं हुआ है और ईश्वर इस बात की कदापि अनुमति नहीं देगा कि उसमें कण बराबर भी परिवर्तन हो। <br><br>अन्य आसमानी किताबों के मुक़ाबले में क़ुरआने मजीद की एक विशेषता उसका हर प्रकार के फेर बदल तथा परिवर्तन से सुरक्षित रहना है।</div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-72631919063928890702020-10-31T09:12:00.006+05:302020-11-24T07:37:14.604+05:30मोमिन कामयाब होने के लिए अपनी सलाहियतों में इज़ाफ़ा करता है और मुनाफ़िक़ लोगों पे तोहमत लगाता है<script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://www.al-islam.org/ask/scholars-and-experts/4759" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;" target="_blank"><img border="0" data-original-height="630" data-original-width="904" height="446" src="https://1.bp.blogspot.com/-GzNRWCXsCEA/X5zdGInr_AI/AAAAAAAAW94/qTvhKjGTXN4BvokK285wiDYNHj7taYsVwCLcBGAsYHQ/w640-h446/Prophet-Muhammad.jpg" width="640" /></a></div><div><br /></div>मोमिन किसी कामयाब होने के लिए अपनी सलाहियतों में इज़ाफ़ा करता है और मुनाफ़िक़ लोगों पे तोहमत लगाता है|| <br /><p><strong></strong></p><blockquote><strong>ओहदे का शौक़ इंसान को हमेशा से रहा है लेकिन यह भी देखा गया है की मोमिन किसी ओहदे को पाने के लिए अपनी सलाहियतों में इज़ाफ़ा करता है और मुनाफ़िक़ उन लोगों पे तोहमत लगता है जिससे उसे यह खौफ हो की वो ओहदे का सही हक़दार है | </strong></blockquote><p></p><p><strong>इसलिए जब भी आप यह देखें समाज में की कोई किसी पे बेबुनियाद तोहमत लगा रहा है तो यह भी देखिये कहीं यह शख्स को किसी ओहदे की लालच में उसके सच्चे हक़दार पे तो तोहमत नहीं लगा रहा | </strong></p><p><strong>" हज़रत मुहम्मद </strong><strong> (सव )</strong><strong> के बाद उनके उनकी जगह लेने का शौक़ रखने वालों ने उनके खिलाफ बहुत सी साज़िशें की यहां तक की उनकी जगह लेने वाले का वजूद ही न रहे यह भी कोशिशे होती रही | </strong></p><p><strong>जब हज़रत मुहम्मद (सव ) के बेटे जनाब इ इब्राहिम की विलादत हुयी तो हज़रत मुहम्मद </strong><strong>(सव ) के बाद उनकी जगह लेने वालों के अरमानो पे पानी फिर गया और उन्होंने </strong><strong>इब्राहिम की माँ मरियाः अलकितबिया पे तोहमत लगाई और यह कहा की यह बेटा </strong><strong>हज़रत मुहम्मद (सव ) </strong><strong>जैसा नहीं दिखता | </strong></p><p><strong>तब अल्लाह ने </strong><strong>हज़रत मुहम्मद (सव ) की बीवी </strong><strong>मारिया का साथ दिया और जनाब ऐ जिब्राईल को भेज के मारिया के पाकीज़ा होने की बात कही | "</strong></p><p><strong>इसी तरह ह्ज़रत मुहम्मद सॉ की बेटी फातिमा पे और उनके शौहर पे भी ज़ुल्म हुए और हज़रत अली ालअहिंसलाम के लिए न जाने क्या क्या कहा गया | किसी ने मअज़ल्लाह बे नमाज़ी होने की तोहमत लगाई तो किसी लुटेरा बताया और यह सब तोहमत सिर्फ इसलिए की हज़रत मुहम्मद सॉ के बाद खिलाफत अली के पास न जाने पाए | </strong></p><p><strong>आज भी यही देखा गया है की वो लोग जिनके पास सलाहियत नहीं और ओहदे का शौक़ रखते हैं उनपे तोहमतें लगाते नज़र आते हैं जो बा सलाहियत हैं | यक़ीनन खुद को अगर कोई मुसलमान कहता है तो ऐसे तोहमत लगाने वालों का साथ नहीं देना चाहिए | लेकिन लोग दुनियावी फायदे की वजह से कभी लज़्ज़त की वजह से ऐसे लोगों का साथ देते नज़र आते हैं जिनका साथ अल्लाह भी नहीं देगा | </strong></p><p><strong><br /></strong></p><p><a class="scholar-name" href="https://www.al-islam.org/ask/scholars-and-experts/4759/Sayyed-Mohammad-Al-Musawi" style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: "Noto Sans", sans-serif; font-size: 17px; font-weight: 600; outline-offset: -2px; outline: -webkit-focus-ring-color auto 5px; text-decoration-line: none; transition: all 0.2s ease-in-out 0s;">Sayyed Mohammad Al-Musawi</a><span face="Noto Sans, sans-serif" style="color: #333333;"><span style="background-color: white; font-size: 13px;"> </span></span></p><p><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">Al-Hakim al-Nishapuri in his well known book al-Mustadrak narrated from Aisha that she said that "I felt jealous of Mariah when she got a son from the Prophet (pbuh) and I told the Prophet (pbuh) that this child does not look like you." (vol 4, pages 41, 42)</span></p><p><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">Many other Sunni scholars have narrated the story of the jealously of Aisha and her allegation on Lady Mariah regarding the son of the Prophet (pbuh):</span><br style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;"> </span><br style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">· Sahih Muslim (pages 1069, 1070)</span><br style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">· Musnad al-Bazzar (vol 2, page 237)</span><br style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">· Musannaf Abi Asim (vol 615, hadith nos. 3129, 3130)</span><br style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">· Ma’rifat al-Sahaba by Ibn Mandah (page 972)</span><br style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">· Hilyat al-Awliya by Abi Na'eem al-Asfahani (vol 3, pages 177, 178)</span><br style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">· Tabarani in al-Mu'jam al-Awsat (vol 4, pages 89, 90)</span><br style="background-color: white; box-sizing: border-box; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;" /><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: noto_serifregular, "Noto Serif", serif; font-size: 15px;">· Al-Haythami in Majma al-Zawa'id (vol 9, page 161)</span></p><p><span style="background-color: white; font-size: 15px;"><span style="color: #333333; font-family: noto_serifregular, Noto Serif, serif;">https://www.al-islam.org/ask/scholars-and-experts/4759</span></span></p><p></p><p><font size="3"><strong><img height="43" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/w176-h43/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="176" /></strong></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"> </font></p>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-50774489034080175922020-10-30T00:08:00.009+05:302020-10-31T00:19:32.048+05:30 जाने अनजाने में इस्लाम के उसूलों के खिलाफ चलते ये लोग | <script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<p><font size="3">मुसलमान उसे कहते हैं जो अल्लाह की मर्ज़ी को क़ुबूल करे समझे उसकी हिफाज़त करे और उसको दूसरों तक पहुंचाय जिससे </font>सामाजिक ढांचा अमन पसंद ,इन्साफ पसंद हो | हज़रत मुहम्मद सव ने फ़रमाया की अगर आप समाज में कुछ ऐसा खुले आम होते हुए या किसी को करते हुए देखें जो अल्लाह के हुक्म के खिलाफ हो तो आप उसके खिलाफ अपनी सलाहियत भर आवाज़ उठाएं | सबसे पहले उसे जिस्मानी तौर पे उसे रोकिये और यह न कर तो ज़बानी तौर पे , यह भी न कर सकें तो नज़रों से नापसंदगी का एहसास उसको करवाएं और यह भी न कर सकें तो चुप रह के दिल ही दिल में कहें यह ग़लत हो रहा है और यह आखिरी तरीक़ा इमान का सबसे कमज़ोर इमाम का तरीक़ा है | </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://www.qummi.com/2020/10/blog-post.html" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="431" data-original-width="640" height="432" src="https://1.bp.blogspot.com/-Tb6YFJWCL40/X5sL7crsNPI/AAAAAAAAW9o/-CD_BnNOwtUZ_U1rrHr4OQpN4odmXvZnwCLcBGAsYHQ/w640-h432/56588515_1730048480431231_2617229654297149440_n.jpg" width="640" /></a></div><br /><p>इसी तरह से अल्लाह फरमाता है जब किन्ही दो लोगों में आपसी झगड़ा हो जाय तो उनमे समझौता करवा दिया करो और इसी तरह 8|46|और ख़ुदा की और उसके रसूल की इताअत करो और आपस में झगड़ा न करो | ऐसी बहुत सी क़ुरान में होदेतें और हदीसों में समझाया गया है क्यों की अल्लाह चाहता है की हम जिस समाज में रह रहे हैं वहां इन्साफ अम्न शांति रहे लोग एक दूसरे के मददगार बने | </p><p><b>हम आज के समाज में क्या होते देखते हैं ? </b><b>कहाँ है हमारा ईमान ? यह हम कैसे मुसलमान हैं ? </b></p><p><b><span style="color: #0b5394;">हमारा तरीक़ा यह है की हम अगर किसी को कुछ खुलेआम ग़लत करते देखते हैं तो चुप रहते है की हमसे क्या मतलब जबकि हम खुद को मुसलमान और अल्लाह के हुक्म पे चलने वाला कहते हैं | और बात यही तक नहीं रूकती बल्कि अगर कोई उसके खिलाफ आवाज़ उठाता है तो हम उसका साथ नहीं देते और सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि दुनियवी फायदे के लिए लज़्ज़त या कभी खौफ से अक्सर हम ऐसे खुलेआम गुनाह करने वाले का साथ देते नज़र आते हैं | साथ दे के हम ऐसे खुलेआम गुनहगार का मनोबल बढ़ाते है और समाज को एक भ्रष्ट करने में सयोगी होते है जो एक तरफ से अल्लाह की खुलेमाम नाफरमानी में शुमार होता है |</span> </b></p><p><b>इसी तरह अल्लाह का हुक्म </b><span style="color: #cc0000;">जब किन्ही दो लोगों में आपसी झगड़ा हो जाय तो उनमे समझौता करवा दिया करो | हमारी समझ में नहीं आता बस क़ुरआन में झूम झूम के पढ़ते नज़र आते हैं | क्यों की देखा यह गया है की समाज में रिश्तेदारों में अगर किसी का झगड़ा या ना इत्तेफ़ाक़ी हो जाय तो हम उसके बीच में नहीं बोलते और बात यही ख़त्म नहीं होती बल्कि अक्सर यह भी देखा गया है की दोनों तरफ हमदर्द बन के हम जाते हैं और आपस में झगडे को बोल के और बढ़ा देते हैं और लुत्फ़ उठाते हैं | और इसी के साथ साथ अल्लाह के मक़सद आपसी अमन शांति के खिलाफ अमल करते है | </span></p><p><b><span style="color: #2b00fe;">इस्लाम ने हमें सामूहिक नैतिकता का पाठ भी पढ़ाया है जिसमे इन्साफ ,निष्पक्षता,भाईचारा ,रहम ,दया ,एकजुटता इत्यादि मुख्य हैं लेकिन आज इन सब लव्ज़ों के मायने हमारे अमल में बे मायने होते जा रहे हैं | </span></b>इस्लाम ने अलग अलग ज़िम्मेदारियाँ और सामूहिक जीवन की ज़िम्मेदारियों लो तफ्सील से क़ुरआन में समझाया है और हदीस , मासूमीन की सीरत में यह हमेशा नज़र आया जिसे ऐसा लगता है हम मुकम्मल तौर पे भूलते जा रहे हैं | </p><p><b>आज हमारी ज़िम्मेदारी सिर्फ यह नहीं की लोगों तक सिर्फ हदीस और क़ुरआन की आयतें पहुंचाते रहे और यह समझ लें की हमारी ज़िम्मेदारी पूरी हो गयी बल्कि उसपे अमल कैसे किया जाय यह भी लोगों को समझाया जाय और इसकी कोशिश की जाय | </b></p><p><span style="color: #cc0000;"><b>हमारे मुस्लिम समाज को ग़ैर इस्लामिक उसूलों पे चलने वाला समूह बनाने का ज़िम्मेदार कौन ?</b></span> <span style="color: #38761d;">हमसे कहाँ ग़लती हो रही है की बावजूद अल्लाह की क़ुरान में दी गयी हिदायतों के , नबी पैग़म्बर इमाम की क़ुर्बानियों को के जिनका ज़िक्र हम आज भी झूम झूम के खुश हो हो के करते भी हैं हम अमली तौर पे इतने कमज़ोर है की मुसलमान लगते ही नहीं हैं | </span></p><p>यक़ीनन हमारी क़ौम के पास या तो आज बेहतरीन लीडर नहीं है , उलेमा नहीं हैं या फिर हम दुनिया परस्ती की वजह से अपना सही लीडर और सही रहबर चुन नहीं पा रहे हैं | हर वो शख्स जो किसी मुजतहिद की तक़लीद करता है उसे भी आप देख सकते हैं की उसने अपने अपने पसंदीदा मौलवियों का समूह बना लिया है और उनकी आपस में ही नहीं बनती | </p><p><b><span style="color: #674ea7;">मुश्किल यह हुयी की हमारे समाज में कुछ मौलवियों ने पूरी क़ौम को मस्जिद और इमामबाड़ों के इर्द गिर्द इबादत और सवाब के नाम पे क़ैद कर लिया जिस से ईमानवालों में यह पैग़ाम गया की नमाज़ , रोज़ा ,मजलिस वगैरह बस यह सवाब है यही इबादत और यही जन्नत का सीधा रास्ता जब की यह इबादतों का एक छोटा सा हिस्सा है | इन्तहा तो यह हो गयी की वाजिब नमाज़ों की तो जाने दीजे मुस्तहब नमाज़ों के लिए भी मस्जिद में लोगों को जमा किया जाने लगा जिसके लिए हज़रत मुहम्मद सॅ ने फ़रमाया की बेहतर है मुस्तहब नमाज़ें घरो में अदा की जाएँ जिस से बच्चों की तरबियत हो सके | </span></b></p><p>आज क़ौम की ग़लत सोंच की मिसाल यह है की की हमें इसमें बड़ा मज़ा आता है की कैसे खुद को मोमिन और दूसरे को मुनाफ़िक़ होने का ऐलान कर दिया जाय | और खुद के मोमिन होने की दलील में अपने किरदार को पेश नहीं करते बल्कि अपनी मस्जिदों में बैठ के तूलानी नमाज़ों, पेशानी के गट्टों और मजलिस बार बार करने को दलील बनाते हैं | जबकि मुनाफ़िक़ उसी को कहते हैं जो नमाज़ पढ़े और हुक्म ऐ खुदा के खिलाफ समाज में चलता नज़र आय | हम मौला अली का क़ौल भूल गए की किसी के नमाज़ के गट्टों नमाज़ रोज़े पे न जाओ बल्कि इमां वाला है की नहीं यह समझने के लिए उसके किरदार को देखो उससे मुआमलात कर के देखो | </p><p><b>हमारी इस छोटी से ग़लती ने समाज को गुमराह कर दिया और वो सिर्फ मस्जिदों में जमा होने को मोमिन की पहचान और दलील समझ बैठा | </b></p><p>मैंने खुद देखा एक बार की एक साहब ने छोटे से क़स्बे के इमामबाड़े में माह ऐ रमजान में खुद रोज़ा रखा फिर मस्जिद में इफ्तार करवाया फिर मजलिस भी करवाई लेकिन इन सबके बाद मिम्बर से उतर के किसी से झगड़ा हो गया और गाली गलौंच करने लगे उसकी बीवी पे तोहमतें लगाने लगे | रोज़ेदार मजमा सुनता रहा लुत्फ़ लेता रहा | ताज्जुब तो तब हुआ की उस इलाक़े के मौलाना ने जो उस वक़्त मजूद नहीं थे आने के बाद उसी शख्स का साथ दिया क्यों की उन्हें अब उस शहर में जमना था और ऐसे दबंग को साथ तो रखना ही होगा | यह नहीं सोंचा की उसका साथ दे के वे उसकी भी दुश्मनी क्र रहे हैं और मोमिनीन को भी ग़लत राह दिखा रहे हैं | </p><p>ऐसा सिर्फ इसलिए हुआ की उन सबको यह तो यक़ीन था की नमाज़ रोज़ा इफ्तार मजलिस उनके इमां की पहचान है और इसे छोड़ने वाला सच्चा मुसलमान नहीं लेकिन यह यक़ीन नहीं था की इस्लाम के क़ानून पे वाजिब नमाज़ों वगैरह के साथ साथ क़ुरान पे अमल ही सही मायने में इमां की दलील है एक मुसलमान में इन्साफ ,निष्पक्षता,भाईचारा ,रहम ,दया ,एकजुटता इत्यादि होनी ही चाहिए वरना वो मुसलमान नहीं और न ही उस मजमे को मालूम था की अम्र बिल मारुफ़ (अच्छाई की तरफ बुलाना) और नहीं अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) ही सही मायने में सच्चे मुसलमान होने की दलील हैं | </p><p>एक बार हज़रत मुहम्मद सव ने देखा की एक शख्स मस्जिद ऐ नबवी में दिन रात नमाज़ें पढता रहता है तो उन्होंने लोगों से पुछा की यह दिन भर मस्जिद में रहता है तो इसके खाने पीने का कौन इंतज़ाम करता है | लोगों ने बताया ी एक व्यापारी है जो इसका ख्याल रखता हैं | हज़रत मुहम्मद सव ने कहा अल्लाह की क़सम वो व्यापारी इस नमाज़ी बड़ा आबिद है | </p>अगर आप गौर करेंगे तो देखेंगे कि इस्लाम ने अपने बन्दों के लिए कोई ऐसी रस्म नहीं रखी जिसको अंजाम देने के लिए उलेमा, पुरुहितों, राहिबों या रब्बाइयों की जरूरत पड़ेl असल में इस्लाम तो चाहता ही यह था कि पुरोहितवाद, रहबानियत, रब्बाइयत और धार्मिक रस्मों की अदायगी करने वालों के हाथों आम आदमी का शोषण ना होl<div><br /><div>बल्कि यह सम्मान केवल इस्लाम ने ही अपने उलेमा को प्रदान किया कि उनके फ़राइज़ केवल मज़हबी रस्मों की अंजाम दही तक सीमित ना रहें बल्कि इस्लाम ने उलेमा के काँधे पर एक ऐसी जिम्मेदारी डाली जिसको अम्र बिल मारुफ़ (अच्छाई की तरफ बुलाना) और नहीं अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) कहा गया, अर्थात जो व्यक्ति भी दीन का आलिम बने वह लोगों को नेकियों और अच्छाईयों की दावत दे और बुराइयों से रोकेl इस्लाम ही पहला ऐसा मज़हब था जिसने उलेमा से यह उम्मीद की कि वह केवल आम इंसानों को अच्छाईयों और नेकियों की तरफ आकर्षित नहीं करेंगे बल्कि शासकों को भी अच्छे रास्तों की तरफ बुलाएंगे | </div><div><br /></div><div>खुदा का शुक्र है कि हर दौर में ऐसे उलेमा मौजूद रहे हैं जिन्होंने क़ौम को अपने किरदार की मिसाल से राह दिखाई और अपनी जान की परवाह किए बिना बादशाहों और शासकों के विरुद्ध जुबान खोली आज फिर इस बात की ज़रीअत पेश आने लगी है की उलेमा मज़हबी रस्मों की अंजाम देहि तक खुद को सीमित न रखें और खुल के अम्र बिल मारुफ़ (अच्छाई की तरफ बुलाना) और नहीं अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) करे , अर्थात जो व्यक्ति भी दीन का आलिम बने वह लोगों को नेकियों और अच्छाईयों की दावत दे और बुराइयों से रोके और लोगों को बा अमल बनाने की कोशिशें करें जो मुमकिन उसी वक़्त होगा जब वे खुद हक़ पसंद, इन्साफ पसंद और बा किरदार होंगे और सिर्फ हदीसें ,क़ुरान भेजने या क़ौम तक पहुँचाने तक खुद को महदूद नहीं रखें बल्कि उनको अमली जामा कैसे पहनाये इस सिलसिले में भी राह दिखाएं | </div><div><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="49" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/w200-h49/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="200" /></a></strong></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.hamarajaunpur.com/"><strong>Jaunpur Hindi Web</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.jaunpurazadari.com/"><strong>Jaunpur Azadari</strong></a></font></p>
<p align="center"><font size="4"> </font></p></div></div>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3521562663210724590.post-59274958383014465052020-09-13T08:56:00.006+05:302020-09-13T08:56:43.227+05:30मरहूम मौलाना हसन अब्बास खान ग़रीबों का मददगार थे | <script async="" src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script>
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<ins class="adsbygoogle" data-ad-client="ca-pub-0489533441443871" data-ad-format="auto" data-ad-slot="8396935525" style="display: block;"></ins>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><img border="0" data-original-height="545" data-original-width="581" height="469" src="https://1.bp.blogspot.com/-Q2ocBvfTvPE/X12Q29xxz2I/AAAAAAAAW2A/gob8R-YIyvEItpXfyYgNEtnOvCni12HBwCLcBGAsYHQ/w500-h469/hasanabbasqum.jpg" width="500" /></div><br /><p>आज के दौर की सबसे बड़ी मुश्किल यह है की गुनाहं के आम हो जाने और लोगों के गुनाहों पे राज़ी हो जाने वाले समाज को देख के लोगों के ज़हन में यह आता है की कौन आज कल हदीस और क़ुरआन पे चलता है ? जब आप इमाम (अ ) की सीरत बयान करे तो कहते हैं अरे वो इमाम थे कहाँ वो कहाँ हम ? जब मुजतहिदीन के किरदार से मिसाल दो तो कहते हैं अरे वो मुजतहिद हैं हम कहाँ उनका मुक़ाबला कर सकते हैं ? </p><p>हकीकत में यह सब इब्लीस की दलीलों का सिलसिला है वरना हम पे हुज्जत इमाम भी है , मुजतहिद भी और हमें उनसे ही सीखना है और उनके ही बताय उन रास्तों पे चलना है जिसपे चल के वे हमें दिखा गए | </p><p>इन बातों को नज़र में रखते हुए मैंने उन उलेमा की नेकियों को पेश करना शुरू किया जिन्हे मुजतहिद का दर्जा हासिल नहीं | हमारे बीच में उठते बैठते हैं | उम्मीद तो यही है की अब हम यह तो नहीं कहेंगे की हम इन मौलाना जैसे भी किरदार में नहीं हो सकते | बाक़ी तो इब्लीस के वजूद से इंकार नहीं और जो अहलेबैत का सच्चा चाहने वाला है उसे इब्लीस नहीं गुमराह कर पाता यह भी एक सच्चाई है | मैंने आज तीन दिनों में <a href="https://www.qummi.com/2020/09/blog-post_11.html" target="_blank">मरहूम मौलाना सय्यद अली क़ासिम रिज़वी,</a> <a href="https://www.qummi.com/2020/09/blog-post_83.html" target="_blank">मौलाना एहसान जवादी मरहूम</a> , की सिर्फ एक एक नेकी बतायी जबकि उनकी ज़िंदगी से बहुत कुछ आगे भी दूंगा जिसे मैंने खुद देखा और महसूस किया | </p><p>आज आपके सामने एक तेज़ तर्रार , अहलेबैत के चाहने वालों के लिया दवा और दुश्मन के लिए तलवार , निडर हक़ पसंद मरहूम मौलाना हसन अब्बास खान के बारे में बताता हूँ | </p><p>मौलाना हसन अब्बास खान की ह्क़ पसंदगी की वजह से अक्सर लोग उनसे नाराज़ हो जाते थे क्यों की आइना देखना कोई नहीं चाहता आज के दौर में और शायद यही वजह थी बहुत जान पहचान होने के बाद भी बहुत दौलत नहीं कमा सके थे अपनी ज़िन्दगी में | जैसा की मैंने पहले बताया <a href="https://www.qummi.com/2020/09/blog-post_83.html" target="_blank">मौलाना एहसान जवादी मरहूम</a> के ज़िक्र वाली पोस्ट में की मौलाना हसन अब्बास खान साहब को रात में मीरा रोड में जब दिल का दौरा पड़ा तो हॉस्पिटल किसी जान पहचान वाले के साथ गए और वहाँ उनकी मौत हार्ट सर्जरी के दौरान हो गयी | नर्सिंग होम का बिल अदा ना कर पाने की वजह से उनकी बॉडी नहीं दी जा रही थी लेकिन और उलेमा की मदद से उनके बिल को कम करवाया गया | ऐसा इसलिए की मरहूम इतने दौलत भी न जमा कर सके थे की बुरे वक़्त में दो ढाई लाख खर्च का बोझ उठा सकें जो उनकी शख्सियत को देखते हुए यक़ीनन ताज्जुब की बात थी |</p><p>उनके इंतेक़ाल के बाद बहुत सी मुश्किलें आयीं लेकिन एक दिन जिस घर में वे रहते थे उस गली से निकलते वक़्त एक दूकान थी जहां वे अक्सर बैठा करते थे | वो दूकानदार आया उनके घर और उसने बताया मरहूम उसकी बहुत मदद करते थे और उन्होंने जो मदद की रक़म अब तक दी थी उस दूकानदार ने वापस की जो की उस से ज़्यादा थी जितना उनका हॉस्पिटल का बिल आया जिसे उनके घर वाले अदा नहीं कर सके थे | </p><p>साफ़ ज़ाहिर है की मरहूम सबसे छुपा के लोगों की मदद किया करते थे और अपने पास कोई जमा पूँजी नहीं रखते थे | बहुत से लोगन ने उनका पैसा नहीं भी दिया | ऐसा मुख्लिस और मददगार आज के दौर में भी इस दुनिया में रहे और हैं जिनसे हमें सीखना चाहिए क्यों की यही अहलेबैत से सच्चे चाहने वाले हैं | मरहूम मौलाना हसन अब्बास खान का दुनिया से चले जाना क़ौम का एक बड़ा नुकसान साबित हुआ | </p><p>अल्लाह मरहूम को जन्नत नसीब करे |</p><p>
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</p><p><br /></p><p><font size="3"><strong><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><img height="52" src="http://2.bp.blogspot.com/-cwndKj1sSL8/UsQYTB2P2DI/AAAAAAAAEOg/EV-Qwh1Wjuo/w214-h52/shiraz.gif" style="display: block; float: none; margin-left: auto; margin-right: auto;" width="214" /></a></strong></font></p>
<p align="center"><font size="4"><a href="http://www.jaunpurcity.in/"><strong>Discover Jaunpur</strong></a> , </font><font size="4"><a href="http://www.indiacare.in/"><strong>Jaunpur Photo Album</strong></a></font></p>
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<p align="center"><font size="4"> </font></p>S.M.Masoomhttp://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com0