मस्जिदे जमकरान का इतिहास |






 https://www.facebook.com/jaunpurazaadari/ https://www.facebook.com/jaunpurazaadari/वह स्थान जो हजरत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के नाम से पहचाना जाता है  उनमें से एक मस्जिदे जमकरान भी है। यह मस्जिद चूँकि जमकरान नामक गाँव के पास स्थित है, इस लिए इसको मस्जिदे जमकरान कहा जाता है और चूँकि यह मस्जिद हसन बिन मुसलः के ज़रिये बनी है, इस लिए इसको मस्जिदे हसन बिन मुसलः भी कहा जाता है, और चूँकि हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के हुक्म से बनी है, इस लिए इसको मस्जिदे इमामे ज़माना भी कहते है।  यह मस्जिद हसन बिन मुसलः के ज़माने में बनी और जब से अब तक कई बार पुनर्निर्माण हो चुका है।

आज यह मस्जिद, अहले बैत अलैहिमु अस्सलाम के चाहने वालों के जमा होने का एक बहुत बड़ा केन्द्र बन गई है। यहाँ पर हर हफ़्ते बुध और मंगल की  रात में हज़ारों मोमेनीन ज़ियारत व इबादत के लिए आते  हैं। हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम की तारीख़े विलादत 15 शाबान, पर तो यहाँ पर 10, 15 लाख मोमेनीन जमा होते हैं और इबादत दुआ व मुनाजात के साथ साथ अल्लाह से हज़रत इमामे ज़माना अलैहिस्सलाम  के समक्ष की दुआएं करते हैं।

मस्जिदे जमकरान का इतिहास |

हवाला :- क़ुम के प्रसिद्ध आलिमे दीन, हसन बिन मुहम्मद बिन हसन अपनी किताब तारीख़े क़ुम में शेख़ सदूक़ अलैहिर्रहमा की किताब मुनिसुल हज़ीन फ़ी मारेफ़तिल हक़्क़े वल यक़ीन के हवाले से मस्जिदे मुकद्दसे जमकरान के बनने के माजरे को इस तरह लिखते हैं।

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शेख सालेह व अफ़ीफ़, हसन बिन मुसलः जमकरानी  का बयान है कि सन् 393 हिजरी क़मरी में 17 रमज़ानुल मुबारक की रात थी मैं अपने घर में सो रहा था। आधी रात गुज़रने के बाद मेरे कानों में कुछ लोगों के बालने की आवाज़े आईं वह मेरे घर के पीछे की तरफ़  थे और मुझे आवाज़ें दे रहे थे। जब मैं जाग गया तो उन्होंने मुझ से कहा कि शेख़ उठो तुम्हें इमामे ज़माना अलैहिस्सलाम ने अपने पास बुलाया है।

शेख़ हसन कहते हैं कि मैंने उनसे कहा कि मुझे इतनी मोहलत तो दो कि मैं कपड़े पहन सकूँ, यह कहकर मैंने क़मीस उठाई तो दरवाज़े से आवाज़ आई, यह तुम्हारी नही है ! लिहाज़ा मैंने उसे पहनने का इरादा छोड़ दिया और पाजामा पहनने के लिए उठाया तो फिर दरवाज़े से वही आवाज़ आई कि यह तुम्हारा नही है, तुम अपना पाजामा उठाओ ! मैंने उसे ज़मीन पर फेंक दिया और एक दूसरा पाजामा उठा कर पहन लिया। उसके बाद मैं दरवाज़े का ताला खोलने के लिए चाबी तलाश करने लगा तो फिर दरवाज़े की तरफ़ मुझे वही आवाज़ सुनाई दी, दरवाज़ा खुला हुआ है तुम चले आओ ! जब मैं बाहर आया तो वहाँ पर बुज़ुर्गों की एक जमा्त को खड़ा पाया !  मैंने उन्हें सलाम किया तो सलाम का जवाब देने के बाद उन्होंने मुझे इस वाक़िये पर मुबारकबाद दी और मुझे इस जगह पर ले कर आये (जहाँ आज मस्जिदे जमकरान है।) मैंने वहाँ एक तख़्त देखा जिस पर बेहतरीन क़िस्म का कालीन बिछा था और एक तक़रीबन तीस साला जवान तकिये पर टेक लगाये उस पर बैठा था। एक बूढ़ा आदमी उन्हें एक किताब में से कुछ पढ़ कर सुना रहा था। तक़रीबन साठ आदमी जिनमें से कुछ सफ़ेद और कुछ सब्ज़ लिबास पहने थे, उस जगह के अतराफ़ में नमाज़ पढ़ रहे थे।

उस बूढ़े इंसान ने मुझे अपनी बराबर में जगहा दी और उस नूरानी जवान ने मेरा हाल अहवाल पूछने के बाद मुझसे मेरा नाम लेकर कहा (बाद में मालूम हुआ कि वह बूढ़े आदमी हज़रत ख़िज़्र अलैहिस्सलाम और वह जवान हज़रत इमामे ज़माना अलैहिस्सलाम थे) कि तुम हसन बिन मुस्लिम के पास जाओ और उससे कहना कि तुम पाँच साल से इस ज़मीन को खेती के लिए तैयार करते हो और हम इसे ख़राब कर देते हैं। उससे कहना कि तुम्हारा इस साल भी इसमें खेती करने का इरादा है जबकि तुम्हें ऐसा करने का हक़ नही है। तुम की साल यहाँ खेती करने का फ़ायदा लौटा दो ताकि इस ज़मीन पर एक मस्जिद बन सके।

इसके बाद फ़रमाया कि हसन बिन मुस्लिम से यह भी कहना कि यह वह मुक़द्दस ज़मीन है जिसे अल्लाह ने तमाम ज़मीनों में से चुना है और तूने इस ज़मीन को अपनी ज़मीनों में मिला लिया है। अल्लाह ने इस जुर्म की सज़ा ने तेरे दो बेटों को तुझसे छीन लिया, लेकिन तू इस पर भी चाकस नही हुआ। अगर तूने यह काम फिर किया तो अल्लाह की तरफ़ से ऐसी सज़ा मिलेगी जिसका तू तसव्वुर भी नही कर सकता।
हसन बिन मुसलः कहते हैं कि मैंने कहा  कि मौला मुझे कोई ऐसी निशानी दे दीजिये कि लोग मेरी बात पर विश्वास कर सकें।

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि हम इस जगह पर ऐसी निशानी छोड़ेंगे कि लोग तुम्हारी बात का विश्वास करेंगे। तुम से जो कहा गया है तुम उसको करो। तुम सैयद अबुल हसन के पास जाओ और उनसे कहो कि वह हसन बिन मुस्लिम को हाज़िर करे और उससे उस फ़ायदे को ले जो उसने कई साल तक इस ज़मीन से कमाया है, और उस रक़म को लोगों में बाँट दो ताकि वह मस्जिद को बनाना शुरू करें। बाक़ी खर्च रहक़ नामी जगह की आमदनी से पूरे किये जायें जो कि इरदहाल के ज़रिये हमारी मिल्कियत है। हमने रहक़ की आधी आमदनी इस मस्जिद को बनाने के लिए वक़्फ़ कर दी है, ताकि हर साल उसकी पैदावार को इस मस्जिद की इमारत बनाने इसे आबाद करने और दूसरो कामों में ख़र्च किया जा सके।
इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि कि लोगों से कहो कि वह, इस जगह  को सम्मानीय व पवित्र माने और यहाँ आकर चार रकत नमाज़ पढ़ें।

पहली दो रकअत नमाज़ ताहिय्यत की नियत से इस तरतीब से पढ़े कि हर रकअत में हम्द के बाद सात मर्तबा सूरः ए तौहीद  पढ़ें व दोनों रकअतों में ज़िक्रे रुकूअ व ज़िक्रे सजदा सात सात बार पढ़ें।
दूसरी दो रकअत नमाज़, नमाज़े इमामे ज़माना की नियत से इस तरतीब से पढ़ेकि हर रकअत में सूरः ए हम्द पढ़ते वक़्त जब ایاک نعبد و ایاک نستعین  (इय्या का नबुदु व  इय्या का नस्तईन्न)  पर पहुंचे तो इस आयत को सौ बार पढ़े फिर बाक़ी हम्द पढ़ कर एक बार सूरः ए तौहीद पढ़ें और दोनों रकअत में ज़िक्रे रुकूअ व ज़िक्रे सजदा सात सात बार पढ़े । नमाज़ॉ तमाम करने के बाद एक बार لا اله الا الله(ला इलाहा इल्लल्लाह )  कहे और हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की तस्बीह,  पढ़ कर सजदा करे व सजदे में सौ बार सलवात पढ़े।

इसके बाद हज़रत ने फ़रमाया कि इस नमाज़ का पढ़ना, काबे में नमाज़ पढ़ने की मानिन्द है।
हसन बिन मुसलः का कहना है कि जब मैंने यह बात सुनी तो अपने आपसे कहा कि गोया यह जगह मोरिदे नज़र हज़रत है कि मस्जिदे पुर अज़मत इमामे ज़माना होगी।

उसके बाद इमाम अलैहिस्स,लाम ने मुझे चले जाने का इशारा किया।

मैं वहाँ से चलने लगा, अभी कुछ ही दूर गया था कि हज़रत ने मुझे दोबारा आवाज़ दी और फ़रमाया कि जाफ़र काशनी चौपान (भेड़ बकरियाँ पालने व चराने वाला) के रेवड़ में जा वहां एक बकरी है , अगर लोग उसके क़ीमत दें तो उनके पैसे से और अगर न दे तो अपने पैसे उसे ख़रीदना और बुध के दिन 18 रमज़ानुल मुबारक को उसे यहाँ लाकर ज़िबाह करना और  रमज़ानुल मुबारक की उन्नीसवीं रात में उसका गोश्त बीमारों और मुसीबत ज़दो के दरमियान तक़सीम कर देना, अल्लाह उन सबको शिफ़ा अता करेगा। उस बकरी की निशानी यह है कि वह काली और सफ़ेद रंग की लम्बे बालों वीली है। उसके बदन पर सात काले व सफेद धब्बे हैं, जिनमें से तीन बदन एक तरफ़ व चार बदन के दूसरी तरफ़ हैं, और उनमें से हर एक धब्बा एक दिरहम के बराबर है।

इसके बाद जब मैं हज़रत से रुखसत हो कर चला तो हज़रत ने मुझे फिर आवाज़ दी और फ़रमाया यहाँ पर सात या सत्तर दिन रहना अगर सात दिन रुके तो शबे क़द्र होगी यानी रमज़ानुल मुबारक की तेइसवीं शब और अगर सत्तर दिन रुके तो ज़ीक़ादा की पच्चीसवीं रात होगी यह दोनों ही रातें बहुत बा अज़मत हैं।

हसन बिन मुसलः कहता है कि मैं घर वापस आया और बाक़ी रात इस माजरे के बारे में सोचता रहा जब सुबह हुई तो नमाज़ पढ़ने के बाद अली बिन मुनज़िर के पास गया और उससे पूरा माजरा बयान किया और उसके साथ उस जगह पर गया जहाँ रात में मुझे ले जाया गया था। हसन बिन मुसलः अपनी बात पूरी करते हुए कहता है कि अल्लाह की क़सम हमने देखा कि हज़रत ने जो निशानियाँ छोड़ी थी, उनमें कीलें और ज़ंजीरें थीं, जिससे मस्जिद की हुदूद को घेरा गया था। इसके बाद हम दोनों सैयद अबुल हसन रिज़ा शाह के घर की तरफ़ चल दिये । जब हम उसके दरवाज़े पर पहुंचे तो उसके नौकरों को खड़ा देखा , उन्होंने हमें देख कर कहा कि क्या तुम जमकरान के रहने वाले हो ?  हमने जवाब दिया हाँ। उन्होंने कहा कि सैयद अबुल हसन सुबह से तुम्हारा इन्तेज़ार कर रहा है।

इसके बाद हम घर में दाख़िल हुए सैयद को सलाम किया उन्होंने अदब व एहतेराम के साथ सलाम का जवाब दिया और मुझे अपनी बराबर में बैठाया। इससे पहले कि मैं कुछ कहता, उन्होंने मुझ से कहा ऐ ! हसन बिन मुसलः मैंने रात ख़वाब में देखा कि किसी ने मुझ से कहा कि सुबह को तुम्हारे पास जमकरान का रहने वाला हसन बिन मुसलः आयेगा। वह जो तुम से कहे उसकी बात की तस्दीक़ करना, क्योंकि उसकी बात हमारी बात है। उसकी बात को हरगिज़ रद्द न करना। यह देख कर मेरी आँख खुल गई और उस वक़्त से अब तक आप ही का इन्तेज़ार कर रहा था।

इसके बाद हसन बिन मुसलः ने रात के पूरे वाक़िये को बयान किया। सैयद ने अपने नौकरों को घोड़े तैयार करने का हुक्म दिया और उन पर सवार हो कर उस जगह  की तरफ़ चल पड़े। जमकरान के पास रास्ते में उन्हें जाफ़र चौपान का रेवड़ मिला, हसन बिन मुसलः उस रेवड़ में, उस चितली बकरी को ढूँढने लगा जिसके बारे में हज़रत ने फ़रमाया था। वह बकरी रेवड़ के पीछे थी जैसे ही उसकी निगाह हसन बिन मुसलः पर पड़ी वह तेज़ी से उसके पास आई, हसन उसे पकड़ कर जाफ़र के पास लाया और उससे उसे ख़रीदना चाहा। जाफ़र काशानी ने क़सम खाकर कहा कि मैंने आज से पहले इस बकरी को कभी अपने रेवड़ में नही देखा, आज जब मैंने इसे अपने रेवड़ के पीछे चलते देखा तो इसे पकड़ने की कोशिश की लेकिन नही पकड़ सका। मेरे लिए यह बात बहुत ताज्जुब की है कि तुम्हारे पास यह ख़ुद कैसे चली आई !?

इसके बाद वह लुस बकरी को लेकर मस्जिद की जगह पर आये और उसको ज़िब्ह करके हज़रत के हुक्म के मुताबिक़ उसका गोश्त मरीज़ों में तक़सीम कर दिया।

इसके बाद सैयद ने हसन बिन मुस्लिम को बुलाया और उससे उस ज़मीन की कई साल की आमदनी को वापस लिया और रहक़ नामी जगह की पैदावार की आमदनी में मिला कर उससे मस्जिदे जमकरान की तामीर कराई और उस पर लकड़ी की छत डाली। सैयद उन कीलों व ज़ंजीरों को अपने घर क़ुम ले गये, इस माजरे के बाद से जब कोई बीमार होता था तो अपने आपको उन ज़ंजीरों से मस करता था और अल्लाह उसे शिफ़ा दे दता था।


अबुल हसन मुहम्मद बिन हैदर कहते हैं कि मैंने सुना है कि जब सैयद अबुल हसन  का इन्तेक़ाल हुआ तो उन्हें मूसवियान नामी जगह पर दफ़्न किया गया। उनके मरने के बाद जब उनका एक बेटा बीमार हुआ तो वह उस सन्दूक़ के पास गया जिसमें वह कीले व ज़ंजीरे रखी हुई थीं। लेकिन जैसे ही उसने उस सन्दूक़ को खोला उससे कीले व ज़ंजीरे ला पता थीं




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