मक्के से कर्बला तक इमाम हुसैन (अ) की हिजरत

इमाम हुसैन (अ) की हिजरत: वलीद ने इमाम हुसैन (अ) को संदेसा भेजा कि वह दरबार में आयें उनके लिए यज़ीद का एक ज़रूरी पैग़ाम है। इमाम ह...



इमाम हुसैन (अ) की हिजरत:

वलीद ने इमाम हुसैन (अ) को संदेसा भेजा कि वह दरबार में आयें उनके लिए यज़ीद का एक ज़रूरी पैग़ाम है। इमाम हुसैन (अ) उस समय अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर के साथ मस्जिद-ए-नबवी में बेठे थे।

जब यह सन्देश आया तो इमाम से इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय इस प्रकार का पैग़ाम आने का मतलब क्या हो सकता है? इमाम हुसैन (अ) ने कहा कि लगता है कि मुआविया कि मौत हो गई है और शायद यज़ीद की बैयत के लिए वलीद ने हमें बुलाया है। इब्ने ज़ुबैर ने कहा कि इस समय वलीद के दरबार में जाना आपके लिए ख़तरनाक हो सकता है। इमाम ने कहा कि में जाऊँगा तो ज़रूर लेकिन अपनी सुरक्षा का प्रबंध करके वलीद से मिलूँगा। खुद अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रातों रात मक्के चले गए।

इमाम अपने घर आये और अपने साथ घर के जवानों को लेकर वलीद के दरबार में पहुँच गए। लेकिन अपने साथ आये बनी हाशिम के(जोशीले और इमाम पर हर वक़्त मर मिटने के लिए तैयार रहने वाले) जवानों से कहा कि वे लोग बाहर ही ठहरे और अगर इमाम की आवाज़ बुलंद हो तो अन्दर आ जाएँ।

इमाम दरबार में गए तो उस समय वलीद के साथ मर-वान भी बैठा था जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार वालों का पुराना दुश्मन था। जब इमाम हुसैन (अ) आये तो वलीद ने मुआविया की मौत कि ख़बर देने के बाद यज़ीद की बैयत के लिए कहा। इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीद की बैयत करने से साफ़ इनकार कर दिया और वापस जाने लगे तो पास बैठे हुए मर-वान ने कहा कि अगर तूने इस वक़्त हुसैन को जाने दिया तो फिर ऐसा मौक़ा नहीं मिलेगा यही अच्छा होगा कि इनको गिरफ़्तार करके बैयत ले ले या फिर क़तल कर के इनका सर यज़ीद के पास भेज दे। यह सुनकर इमाम हुसैन (अ) को ग़ुस्सा आ गया और वह चीख़ कर बोले “भला तेरी या वलीद कि यह मजाल कि मुझे क़त्ल कर सकें?” इमाम हुसैन (अ) की आवाज़ बुलंद होते ही उनके छोटे भाई हज़रत अब्बास के नेतृत्व मैं बनी हाशिम के जवान तलवारें उठाये दरबार में दाखिल हो गए लेकिन इमाम ने इन नौजवानों के जज़्बात पर काबू पाया और घर वापस आ कर मदीना छोड़ने के बारे मैं मशविरा करने लगे।

बनी हाशिम के मोहल्ले मैं इस खबर से शोक का माहौल छा गया। इमाम हुसैन (अ) अपने खानदान के लोगों को साथ लेकर मदीने का पवित्र नगर छोड़ कर मक्का स्थित पवित्र काबे की और प्रस्थान कर गए जिसको अल्लाह ने इतना पाक करार दिया है कि वहां किसी जानवर का खून बहाने कि भी इजाज़त नहीं है।

मक्का पहुँचने के बाद लगभग साढ़े चार महीने इमाम अपने परिवार सहित पवित्र काबा के निकट रहे लेकिन हज का ज़माना आते ही इमाम को सूचना मिली कि यज़ीद ने हाजियों के भेस में एक दल भेजा है जो इमाम को हज के दौरान क़त्ल कर देगा। वैसे तो हज के दौरान हथियार रखना हराम है और एक चींटी भी मर जाए तो इंसान पर कफ्फ़ारा(प्रायश्चित) अनिवार्य हो जाता है लेकिन यज़ीद के लिए इस्लामी उसूल या काएदे कानून क्या मायने रखते थे?

इमाम ने हज के दौरान खून खराबे को टालने के लिए हज से केवल एक दिन पहले मक्का को छोड़ने का फैसला कर लिया।

कर्बला में धर्म और अधर्म का टकराव:

इमाम हुसैन (अ) ने मक्का छोड़ने से पहले अपने चचेरे भाई हज़रत मुस्लिम को इराक के कूफ़ा नगर में भेज दिया था ताकि वह कूफे के असली हालात का पता लगाएँ। कूफा जो कि किसी समय में हज़रत अली कि राजधानी था, वहां भी यज़ीद के शासन के खिलाफ क्रांति की चिंगारियां फूटने लगी थीं। कूफ़े से लगातार आग्रह पत्र इमाम हुसैन (अ) के नाम आ रहे थे कि वह यज़ीद के खिलाफ चल रहे अभीयान का नेतृत्व करें।
कूफ़े मैं इमाम हुसैन (अ) के भाई का बड़ा भव्य स्वागत हुआ और लगभग एक लाख लोगों ने इमाम हुसैन (अ) के प्रति अपनी वफादारी कि शपथ ली यह खबर सुन कर यज़ीद ग़ुस्से से पागल हो गया और कूफ़े के गवर्नर नोअमान बिन बशीर के स्थान पर यज़ीद ने कूफ़े में उबैद उल्लाह इब्ने ज़ियाद नामक सरदार को गवर्नर बना कर भेजा। इब्ने ज़ियाद हज़रत अली के परिवार का पुश्तैनी दुश्मन था। उसके कूफ़े में पहुँचते ही आतंक फ़ैल गया। कूफ़े के लोग यज़ीद की ताकत और सैन्य बल के आगे सारी वफ़ादारी भूल गए। इब्ने ज़ियाद ने इमाम हुसैन (अ) से वफ़ादारी व्यक्त करने वाले ओगों को चुन चुन कर मार डाला या गिरफ्तार करके सख्त यातनाएं दिन। उसने हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को बेदर्दी से क़त्ल करके उनकी लाश के पाँव में रस्सी बाँध कर कूफ़े की गली कूचों में घसीटे जाने का आदेश भी दिया। यही नहीं हज़रत मुस्लिम के साथ में गए हुए दो मासूम बच्चों, आठ साल के मोहम्मद और छे साल के इब्राहीम की भी निर्मम रूप से हत्या कर दी गई। बच्चो को शहीद करने की यह पहली आतंकवादी घटना थी।

इमाम हुसैन (अ) का क़ाफ़िला लगातार आगे बढ़ता रहा और रास्ते में ही उन्हें हज़रत मुस्लिम और उनके बच्चो कि शहादत की ख़बर मिली। उधर यज़ीद की सेनाएं भी लगातार इमाम हुसैन (अ) के उस कारवें क़ा पीछा कर रहीं थीं जिसमें लगभग साठ-सत्तर पुरुष, कुछ बच्चे और चंद औरतें शामिल थीं।

ज़ुहसम नाम के एक स्थान पर इमाम हुसैन (अ) क़ा सामना यज़ीद की फ़ौज के पहले दस्ते से हुआ। लगभग एक हज़ार फ़ौजियों के इस दस्ते क़ा सेनापति हुर्र बिन रियाही नाम क़ा अधिकारी कर रहा था। जब हुर्र की सैनिक टुकड़ी इमाम के सामने आई तो रेगिस्तान में भटकने के कारण सैनिकों क़ा प्यास के मारे बुरा हाल था। इमाम हुसैन (अ) ने इस बात क़ा ख़्याल किए बग़ैर कि यह दुश्मन के सिपाही हैं इस प्यासे दस्ते को पानी पिलाया और मानवता के नए कीर्तिमान क़ायम किये। अगर इमाम हुसैन (अ) हुर्र के सिपाहियों को पानी न पिलाते तो इस सैनिक टुकड़ी के सभी लोग प्यास से मर सकते थे और इमाम हुसैन (अ) के दुश्मनों में कमी हो जाती, लेकिन इमाम हुसैन (अ) उस पैग़म्बर के नवासे थे जो अपने दुश्मनों की तबियत खराब होने पर उनका हाल चाल पूछने के लिए उसके घर पहुँच जाते थे।

लगभग 22 दिन तक रेगिस्तान की यात्रा करने के बाद इमाम हुसैन (अ) क़ा काफ़िला (2 अक्तूबर 680 ई० या 2 मुहर्रम 61 हिजरी) इराक़ के उस स्थान पर पहुँचा, जिसको क़र्बला कहा जाता है। हुर्र की सैनिक टुकड़ी भी इमाम के पीछे पीछे कर्बला में आ चुकी थी। इमाम के यहाँ पड़ाव डालते ही यज़ीद की फौजें हज़ारों कि संख्या में पहुँचने लगीं। यज़ीदी सेनाओं ने सब से पहले फ़ुरात नदी(अलक़मा नहर) के किनारे से इमाम को अपने शिविर हटाने को बाध्य किया और इस तरह अपने नापाक इरादों क़ा आभास दे दिया।

पांच दिन बाद यानी सात मुहर्रम को नदी के अहातों(किनारों) पर पहरा लगा दिया गया और इमाम हुसैन (अ) के परिवार जनों और साथियों के नदी से पानी लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। रेगिस्तान की झुलसा देने वाली गर्मी में पानी बंद होने से इमाम हुसैन (अ) के बच्चे प्यास से तड़पने लगे। दो दिन बाद अचानक यज़ीदी सेनाओं ने इमाम के क़ाफिले पर हमला कर दिया। इमाम हुसैन (अ) ने यज़ीदी सेना से एक रात की मोहलत मांगी ताकि वह अपने मालिक की इबादत कर सकें। यज़ीदी सेना राज़ी हो गई क्योंकि उसे मालूम था कि यहाँ से अब इमाम और उनके साथी कहीं नहीं जा सकते और एक दिन की और प्यास से उनकी शारीरिक और मानसिक दशा और भी कमज़ोर हो जायेगी।

रात भर इमाम, उनके परिवार-जन और उनके साथी अल्लाह कि इबादत करते रहे। इसी बीच इमाम ने तमाम रिश्तेदारों और साथियों को एक शिविर में इकठ्ठा होने के लिए कहा और इस शिविर में अँधेरा करने के बाद सब से कहा कि: “तमाम तारीफ़ें खुदा के लिए हैं। मैं दुनिया में किसी के साथियों को इतना जाँबाज़ वफादार नहीं समझता जितना कि मेरे साथी हैं और न दुनिया में किसी को ऐसे रिश्तेदार मिले जैसे नेक और वफ़ादार मेरे रिश्तेदार हैं। खुदा तुम्हें अज्र-ए-अज़ीम(अच्छा फल) देगा। आगाह हो जाओ कि कल दुश्मन जंग ज़रूर करेगा। मैं तुम्हें ख़ुशी से इजाज़त देता हूँ कि तुम्हारा दिल जहाँ चाहे चले जाओ, मैं हरगिज़ तुम्हें नहीं रोकूंगा। शामी (यजीदी सेना) केवल मेरे खून की प्यासी है। अगर वह मुझे पा लेंगे तो तुम्हें को तलाश नहीं करेंगे”। इसके बाद इमाम ने सारे चिराग़ भुझाने को कहा और बोले इस अँधेरे मैं जिसका दिल जहाँ चाहे चला जाए। तुम लोगों ने मेरे प्रति वफ़ादार रहने कि जो क़सम खाई थी वह भी मैंने तुम पर से उठा ली है।” इस घटना पर टिप्पड़ी करते हुए मुंशी प्रेम चंद ने लिखा है कि अगर कोई सेनापति आज अपनी फ़ौज से यही बात कहे तो कोई सिपाही तो क्या बड़े बड़े कप्तान और जर्नल घर कि राह लेते हुए नज़र आयें। मगर कर्बला में हर तरह से मौका देने पर भी इमाम का साथ छोड़ने पर कोई राज़ी नहीं हुआ। ज़ुहैन इब्ने क़ेन जैसा भूढ़ा सहाबी कहता है कि “ऐ इमाम अगर मुझको इसका यकीन हो जाए कि मै आपकी तरफ़दारी करने की वजह से ज़िन्दा जलाया जाऊँगा, और फिर ज़िन्दा करके जलाया जाऊं तो यह काम अगर 100 बार भी करना पड़े तो भी में आपसे अलग नहीं हो सकता।

रिश्तेदार तो पहले ही कह चुके थे कि “हम आप को इस लिए छोड़ दें की आपके बाद जिंदा रहे? हरगिज़ नहीं, खुदा हम को ऐसा बुरा दिन दिखाना नसीब न करे”।

फिर इमाम ने अपने चाचा हज़रत अक़ील की औलाद से यह आग्रह किया कि वह वापस चले जाएँ क्योंकि उनके लिए हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील का ग़म अभी ताज़ा है और इस दुखी परिवार पर वह और ज़्यादा ग़म नहीं डालना चाहते लेकिन औलादें हज़रत अक़ील ने कह दिया कि वह अपनी जानें कुर्बान करके ही दम लेंगे।

हालांकि सब को पता था कि यज़ीद की सेनाएं हज़ारों की तादाद में हैं और 70 सिपाहियों(हज़रत हुर्र और उनके बेटे के शामिल होने के बाद यह तादाद बाद में 72 हो गई) की यह मामूली सी टुकड़ी शहादत के आलावा कुछ हासिल नहीं कर सकतीं लेकिन इमाम को छोड़ने पर कोई राज़ी न हुआ। यह लोग दुनिया को जिहाद का असली मतलब बताना चाहते थे ताकि क़यामत तक कोई यह न कह सके कि जिहाद किसी का बेवजह खून बहाने का नाम नहीं है या किसी देश पर चढाई करने का नाम नहीं हैं।

दूसरे दिन मुहर्रम की दसवीं तारीख़ थी। हुसैनी सिपाही रात भर की इबादत के बाद सुबह के इन्तिज़ार में थे कि यज़ीद की सेना से दो सितारे उभरे और लश्करे हुसैन की रौशनी में समां गए। यह हुर्र इब्ने रियाही थे जो अपने बेटे के साथ इमाम की पनाह में आये थे। जिस हुर्र को इमाम ने रास्ते में पानी पिलाया था आज वही हुर्र उस घडी में इमाम के लश्कर में शामिल होने आया था जबकि इमाम हुसैन (अ) के छोटे छोटे बच्चे पानी की बूँद बूँद को तरस रहे थे। हुर्र को मालूम था कि इमाम हुसैन (अ) की 72 सिपाहियों की एक छोटी सी टुकड़ी यज़ीद की शक्तिशाली सेना(जिसकी संख्या विभ्न्न्न इतिहासकारों ने तीस हज़ार से एक लाख तक बताई है) से जीत नहीं सकती थी, फिर भी दिल की आवाज़ पर हुर्र उस दल में शामिल हो कर हुर्र से हज़रते हुर्र बन गए। मौत और ज़िन्दगी की इस कड़ी मंजिल में बड़ों बड़ों के क़दम लड़खड़ा जाते हैं और आम आदमी जिंदा रहने का बहाना ढूँढता है मगर मौत को अपनी मर्ज़ी से गले लगाने वाले हुर्र जैसे लोग मरते नहीं शहीद होते हैं।

हज़रत हुर्र के आने के बाद यज़ीदी लश्कर से तीरों की बारिश शुरू हो गई। पहले इमाम हुसैन (अ) के मित्रों और दोस्तों ने रणभूमि में अपनी बहादुरी और वीरता के जौहर दिखाये। इमाम के इन चाहने वालों में नवयुवक भी थे और बूढ़े भी, पैसे वाले रईस भी थे, ग़ुलाम और सेवक भी। अफ्रीका के काले रंग वाले जानिसार भी थे तो एक से एक खूबसूरत सुर्ख-ओ-सफ़ेद रंग वाले गबरू जवान भी। इनमें उम्र का फ़र्क़ था, रंग-ओ-नस्ल का फ़र्क़ था सामाजिक और आर्थिक भिन्नता थी मगर उनके दिलों में इमाम हुसैन (अ) की मोहब्बत, उन पर जान लुटा देने का हौसला और इस्लाम को बचने के लिए अपने को कुर्बान कर देने का जज़्बा एक जैसा था।

जब सारे साथी और मित्र अपनी कुर्बानी दे चुके तो इमाम हुसैन (अ) के रिश्तेदारों ने अपने इस्लाम को बचाने वाले के लिए अपने प्राण निछावर करना शुरू कर दिए। कभी उनकी बहनों और माँओ ने तलवारें सजा कर मैदान में भेजा। कभी उनके भतीजे रणभूमि में अपने चाचा पर मर मिटने के लिए उतरे तो कभी भाई ने नदी के किनारे अपने बाजू कटवाए और कभी उनके 18 साल के कड़ियल जवान अली अकबर ने अपनी कुर्बानी पेश की। आखिर में हुसैन के हाथों पर उनके छे महीने के बच्चे अली असग़र ने गले पर तीर खाया और सब से आखिर में अल्लाह के सब से प्यारे बन्दे के प्यारे नवासे ने कर्बला की जलती हुई धरती पर तीन दिन की प्यास में जालिमों के खंजर तले खुदा के लिए सजदा करके अपनी कुर्बानी पेश की। यही नहीं तथाकथित मुसलामानों ने अपने ही पैग़म्बर के नवासे की लाश पर घोड़े दौड़ा कर अपने बदले की आग बुझाई।

इमाम हुसैन (अ) के साथ शहीद होने वाले कुछ ख़ास रिश्तेदार और साथी:

अबुल फ़ज़लिल अब्बास: कर्बला में इमाम हुसैन (अ)  की छोटी सी सेना का नेतृत्व हज़रत अब्बास के हाथों मैं था. वह इमाम हुसैन (अ) के छोटे भाई थे. इमाम हुसैन (अ) की माँ हज़रत फ़ातिमा (स) के निधन के बाद हज़रत अली (अ) ने अपने भाई हज़रत अक़ील से कहा की में किसी ऐसे खानदान की लड़की से शादी करना चाहता हूँ जो अरब के बड़े बहादुरों में शुमार होता हो, जिससे की बहादुर और जंग-आज़मा(युद्ध में निपुण) औलाद पैदा हो. हज़रत अक़ील ने कहा की उम-उल-बनीन-ए-कलाबिया से शादी कीजिए. उनके बाप दादा से ज़्यादा कोई मशहूर सारे अरब में नहीं है. हज़रत अली (अ) ने इसी तथ्य की बुनियाद पर जनाबे उम-उल-बनीन से शादी की और उनसे चार बेटे पैदा हुए. हज़रत अब्बास उनमें सबसे बड़े थे. वह इमाम हुसैन (अ) को बेहद चाहते थे और इमाम हुसैन (अ) को हज़रत अब्बास से बेहद मोहब्बत थी. कर्बला की जंग में हज़रत अब्बास के हाथों में ही इस्लामी सेना का अलम(ध्वज) था. इसी लिए उन्हें अलमदार-ए-हुसैनी कहा जाता है. उनकी बहादुरी सारे अरब में मशहूर थी. कर्बला की जंग में हालांकि वह प्यासे थे लेकिन एक मौक़ा ऐसा आया की इमाम हुसैन (अ) की सेना के चार सिपाहियों का मैदान में यज़ीदी सेना ने चारों तरफ से घेर लिया तो उनको बचाने के लिए हज़रत अब्बास मैदान में गए और सारे लश्कर को मार भगाया और चारों को बाहर निकाला. इतने बड़े लश्कर से टकराने के बाद भी हज़रत अब्बास के बदन पर एक भी ज़ख्म नहीं लगा. उनकी बहादुरी का यह आलम था की जब इमाम हुसैन (अ) के सारे सिपाही शहीद हो गए तो खुद हज़रत अब्बास ने जिहाद करने के लिए मैदान में जाने की इजाज़त माँगी, इस पर इमाम हुसैन (अ) ने कहा कि अगर मैदान में जाना ही है तो प्यासे बच्चों के लिए पानी का इन्तिज़ाम करो. हज़रत अब्बास इमाम हुसैन (अ) की सब से छोटी बेटी सकीना जो 4 साल की थीं, को अपने बच्चों से भी ज़्यादा चाहते थे और जनाबे सकीना का प्यास के मारे बुरा हाल था. ऐसे में हज़रत अब्बास ने एक हाथ में अलम लिया और दूसरे हाथ में मश्क़ ली और दुश्मन की फौज़ पर इस तरह हमला नहीं किया कि लड़ाई के लिए बढ़ रहे हों बल्कि इस तरह आगे बढे जैसे की नदी की तरफ जाने के लिए रास्ता बना रहे हों. हज़रत अब्बास से शाम और कूफ़ा की सेनायें इस तरह डर कर भागीं जैसे की शेर को देख कर भेड़ बकरियां भागती हैं. हज़रत अब्बास इत्मिनान से नदी पर पहुँचे, मश्क़ में पानी भरा और जब नदी से वापस लौटने लगे तो भागी हुई फ़ौजें फिर से जमा हों गईं और सब ने हज़रत अब्बास को घेर लिया. हज़रत अब्बास हर हाल में पानी से भरी मश्क़ इमाम के शिविर तक पहुँचाना चाहते थे. वह फ़ौजों को खदेड़ते हुए आगे बढ़ते रहे तभी पीछे से एक ज़ालिम ने हमला करके उनका एक हाथ काट दिया. अभी वह कुछ क़दम आगे बढे ही थे कि पीछे से वार करके उनका दूसरा हाथ भी काट दिया गया. हज़रत अब्बास ने मश्क़ अपने दांतों में दबा ली. इसी बीच एक ज़ालिम ने मश्क़ पर तीर मार कर सारा पानी ज़मीन पर बहा दिया और इस तरह इमाम के प्यासे बच्चों तक पानी पहुँचने की जो आखिरी उम्मीद थी वह भी ख़त्म हों गई. एक ज़ालिम ने हज़रत अब्बास के सर पर गुर्ज़(गदा) मारकर उन्हें शहीद कर दिया. हज़रत अब्बास को तभी से सक्का-ए-सकीना(सकीना के लिए पानी का प्रबंध करने वाले) के नाम से भी याद किया जाता है. हज़रत अब्बास बेइंतिहा खूबसूरत थे, इसलिए उनको कमर-ए-बनी हाशिम (हाशिमी कबीले का चाँद) भी कहा जाता है. सारी दुनिया में मुहर्रम के दौरान जो जुलूस उठते हैं, वह हज़रत अब्बास की ही निशानी हैं.

क़ासिम बिन हसन: हज़रत क़ासिम इमाम हुसैन (अ) के बड़े भाई इमाम हसन के बेटे थे. कर्बला के युद्ध के समय उनकी उम्र लगभग तेरह साल थी. इतनी कम उम्र में भी हज़रत क़ासिम ने इतनी हिम्मत और बहादुरी से लड़ाई की कि यज़ीदी फ़ौज के छक्के छूट गए. क़ासिम की बहादुरी देख कर उम्रो बिन साअद जैसे बड़े पहलवान को हज़रत क़ासिम जैसे कम उम्र सिपाही के सामने आना पड़ा और इस ने हज़रत क़ासिम के सर पर तलवार मार कर शहीद कर दिया. क़ासिम की शहादत का इमाम को इतना दुःख हुआ कि इमाम खुद ही तलवार लेकर अपने भतीजे के क़ातिल कि तरफ झपटे, उधर से दुश्मन कि फ़ौज वालो ने क़ातिल को बचने के लिए घोड़े दौडाए, इस कशमकश में हज़रत कासिम की लाश घोड़ो से पामाल हो गई. इमाम खुद अपने भतीजे की लाश उठाकर लाये और हज़रत अली (अ) अकबर की लाश के पास क़ासिम की लाश को रख दिया.

हज़रत औन-ओ-मोहम्मद: कर्बला की जंग में आपसी रिश्तों की जो उच्च मिसालें और आदर्श नज़र आते हैं उनमें हज़रत औन बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र भी एक ऐसी मिसाल हैं जिनको रहती दुनिया तक याद किया जाता रहेगा. यह दोनों इमाम हुसैन (अ) के चचाज़ाद भाई हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के बेटे थे. हज़रत औन इमाम हुसैन (अ) की चाहीती बहन हज़रत ज़ैनब के सगे बेटे थे जबकि हज़रत मोहम्मद की माँ का नाम खूसा बिन्ते हफसा बिन सक़ीफ़ था. दोनों भाइयों की देखभाल हज़रत ज़ैनब ने इस तरह की थी की लोग इन दोनों को सगा भाई ही समझते थे. दोनों भाइयों में भी इस क़दर मोहब्बत थी की इन दोनों के नाम आज तक इतिहास की पुस्तकों में एक ही साथ लिखे जाते हैं. मजलिसों मैं औन-ओ-मोहम्मद का ज़िक्र इस प्रकार किया जाता है कि सुनने वालों को यह नाम एक ही व्यक्ति का नाम लगता है.

मदीने से जब हुसैनी क़ाफ़िला चला तो हज़रत औन-ओ-मोहम्मद साथ नहीं थे. उनके पिता हज़रत जाफ़र ने अपने दोनों नवयुवकों को इमाम हुसैन (अ) पर जान देने के लिए उस समय भेजा जब इमाम हुसैन (अ) मक्का छोड़ कर इराक की और प्रस्थान कर रहे थे. इन दोनों भाइयों ने अपने मामूं हज़रत हुसैन के मिशन को आगे बढ़ाते हुए इस्लाम के दुश्मनों से इस तरह जंग की की शाम की फ़ौज को पैर जमाए रखना मुश्किल हों गया. यह दोनों भाई आगे आने वाली नस्लों के लिए यह पैग़ाम छोड़ कर गए कि हक़ और सच्चाई की लड़ाई लड़ने वालों का चरित्र ऐसा होना चाहिए की लोग मिसालों की तरह याद करें.

अब्दुल्लाह बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह इमाम हुसैन (अ) के चचाज़ाद भाई हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील के बेटे थे. उनकी माँ इमाम हुसैन (अ) की सौतेली बहन रुक़य्या बिन्ते अली थीं. यानी अब्दुल्लाह इमाम हुसैन (अ) के भांजे भी थे और भतीजे भी. उनकी उम्र शहादत के वक़्त बहुत कम थी, शायद चार या पांच वर्ष के रहे होंगे. जब बेटे हज़रत अली (अ) अकबर की लाश इमाम हुसैन (अ) से नहीं उठ सकी और उन्होंने बनी हाशिम के बच्चों को मदद के लिए पुकारा तो अब्दुल्लाह भी ख़ेमें(शिविर) से बाहर निकल आये. इसी समय उमरो बिन सबीह सद्दाई ने अब्दुल्लाह की तरफ़ तीर चलाया जो माथे की तरफ़ आता देख कर नन्हें बच्चे ने अपने माथे पर हाथ रखा तो तीर हाथ को छेद कर माथे में लग गया. उसके बाद ज़ालिम ने दूसरा तीर मारा जो अब्दुल्लाह के सीने पर लगा और बच्चे ने मौक़े पर ही दम तौड़ दिया.

मोहम्मद बिन मुस्लिम बिन अक़ील: यह अब्दुल्लाह के भाई थे लेकिन दोनों की माताएँ अलग अलग थीं. जैसे ही नन्हे से अब्दुल्लाह ने दम तोड़ा, हज़रत अक़ील के बेटों और पोतों ने एक साथ हमला कर दिया उनके इस जोश और ग़ुस्से को देख कर इमाम हुसैन (अ) ने आवाज़ दी “हाँ! मेरे चाचा के बेटों मौत के अभियान पर विजय प्राप्त करो”. मोहम्मद जवाँ मर्दी से लड़ते हुए अबू मरहम नामक क़ातिल के हाथों शहीद हुए.

जाफ़र बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बात जाफ़र मैदान में उतरे. मैदाने जंग में कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारने के बाद यह भी अल्लाह की राह में शहीद हो गए. हज़रत जाफ़र को इब्ने उर्वाह ने शहीद किया.

अब्दुल रहमान बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की शहादत के बाद अब्दुल रहमान बिन अक़ील ने मैदान-ए-जिहाद में अपने जोश और ईमानी जज़्बे का प्रदर्शन करते हुए दुश्मनों पर धावा बोल दिया. इन को उस्मान बिन खालिद और बशर बिन खोत ने मिल कर घेर लिया और यह बहादुर शहीद हुए.

मोहम्मद बिन अबी सईद बिन अक़ील: अब्दुल्लाह की दिल हिला देने वाली शहादत के बाद यह भी लश्करे यज़ीद पर टूट पड़े और लक़ीत बिन यासिर नामक कातिल ने मोहम्मद के सर पर तीर मार कर शहीद किया।



अबू बक़र बिन हसन: खानदान-ए-बनी हाशिम के जिन नौजवानों ने अपने चाचा पर अपनी जान कुर्बान की, उन में अबू बक़र बिन हसन का नाम भी सुनहरे शब्दों में लिखा है। इन को अब्दुल्लाह इब्ने अक़बा ने तीर मार कर शहीद किया।

मोहम्मद बिन अली: यह इमाम हुसैन (अ) के भाई थे, इनकी माँ का नाम इमामाह था। कहा जाता है की इमाम हुसैन (अ) की माँ हज़रत फ़ातिमा ने अपने निधन के समय इच्छा व्यक्त की थी की हज़रत अली इमामाह इब्ने अबी आस से शादी करें। मोहम्मद ने अपने भाई इमाम हुसैन (अ) के मकसद को बचाने के लिए भरपूर जंग की और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतारा। बाद में बनी अबान बिन दारम नाम के एक व्यक्ति ने तीर मार कर शहीद कर दिया। इन्हें मोहम्मद उल असग़र(छोटे मोहम्मद) भी कहा जाता है।

अब्दुल्लाह बिन अली: अब्दुल्लाह हज़रत अली और जनाबे उम उल बनीन के बेटे थे और यह हज़रत अब्बास से छोटे थे। जनाबे उम उल बनीन के क़बीले, क़बालिया से ताल्लुक रखने वाला यज़ीद का एक कमांडर भी था जिसका नाम शिम्र था। उस ने क़बीले के नाम पर इब्ने ज़ियाद से जनाबे उम उल बनीन के चारों बेटों हज़रत अब्बास, हज़रत अब्दुल्लाह, हज़रत उस्मान और जाफ़र बिन अली के नाम अमान नामा(आश्रय पत्र) लिखवा लिया था। कर्बला पहुँचने के बाद शिम्र ने सबसे पहला काम यह किया वह इमाम हुसैन (अ) के शिविर के पास आया और आवाज़ दी की कहाँ हैं मेरी बहन के बेटे? यह सुन कर हज़रत अब्बास और उनके तीनों भाई सामने आये और पूछा की क्या बात है? इस पर शिम्र ने कहा की तुम लोग मेरी अमान(आश्रय) में हो, इस पर जनाबे उम उल बनीन के बेटों ने कहा की खुदा की लानत हो तुझ पर और तेरी अमान पर। हम को तो अमान है और पैग़म्बर के नवासे को अमान नहीं। इस तरह अली के यह चारों शेर दिल बेटे यह साबित कर रहे थे की सत्य के रास्ते में रिश्तेदारियाँ कोई मायने नहीं रखतीं और वह कर्बला में इस लिए नहीं आये हैं कि हुसैन उनके भाई हैं, बल्कि वह लोग इस लिए आये हैं कि उन्हें यकीन है कि इमाम हुसैन (अ) हक़ पर हैं। जब कर्बला का जिहाद शुरू हुआ और औलादे हज़रत अली हक़ के रास्ते में क़ुर्बान होने के लिए मैदान में उतरी तो अपने भाइयों में से हज़रत अब्बास ने सबसे पहले अब्दुल्लाह को मैदान में भेजा। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अली मैदान में गए और वीरता से लड़ते हुए हानि बिन सबीत की तलवार से शहीद हुए।

उस्मान बिन अली: यह अब्दुल्लाह बिन अली से छोटे थे। उस्मान बिन अली को हज़रत अब्बास ने अब्दुल्लाह की शहादत के बाद मैदान में भेजा। उस्मान बिन अली ने दुश्मन से जम कर लोहा लिया। आखिर में लड़ते लड़ते खुली बिन यज़ीद अस्बेही के तीर से शहीद हुए।

जाफ़र बिन अली: यह उम उल बनीन के सबसे छोटे बेटे थे। उसमान बिन अली की शहादत के बाद हज़रत अब्बास ने जाफ़र से कहा की “भाई! जाओ और मैदान में जाकर हक़ परस्तों की इस जंग में अपनी जान दो ताकि जिस तरह मैंने तुम से पहले दोनों भाइयों का ग़म बर्दाश्त किया है उसी तरह तुम्हारा ग़म भी बर्दाश्त करूँ”। इसके बाद जाफ़र मैदान में गए और अपनी वीरता की गाथा अपने खून से लिख कर हानि बिन सबीत के हाथों शहीद हुए। इमाम हुसैन (अ) की सेना के आखिरी शहीद हज़रत अब्बास थे।

अली असग़र: हज़रत अब्बास की शहादत के बाद इमाम हुसैन (अ) ने एक ऐसी कुर्बानी दी जिसकी मिसाल रहती दुनिया तक मिलना मुमकिन नहीं। इमाम अपने छेह महीने के बच्चे हज़रत अली असग़र को मैदान में लाये। हज़रत अली असग़र पानी न होने के वजह से प्यास से बेहाल थे। पानी न मिलने के कारण अली असग़र की माँ जनाबे रबाब का दूध भी खुश्क हो गया था। हज़रत अली असग़र के लिए इमाम ने दुश्माओं से पानी तलब किया तो जवाब में हुर्मलाह नाम के एक मशहूर तीर अंदाज़ ने अली असग़र के गले पर तीर मार कर इस बात को साबित कर दिया की इमाम हुसैन (अ) से टकराने वाला लश्कर अमानविये हदों से भी आगे थे। यज़ीदी सेना की राक्षसों के साथ तुलना करना राक्षसों की बेईज्ज़ती करना है क्योंकि राक्षस सेना ने जो भी कुकर्म किया हो, जितने ही ज़ुल्म क्यों न किये हों कम से कम उन्होंने छः महीने के किसी प्यासे बच्चे के गले पर तीर तो नहीं मारा होगा।






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