हजरत अली की कीर्ति और प्रेमचंद |

“कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका प्रभा में सन 1923 में प्रेमचंद का एक लेख हजरत अली शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। हजरत अली की क...




“कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका प्रभा में सन 1923 में प्रेमचंद का एक लेख हजरत अली शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।
हजरत अली की कीर्ति जितनी उज्ज्वल और चरित्र जितना आदर्श है उतना और किसी का न होगा। वह फकीर, औलिया नहीं थे। उनकी गणना राजनीतिज्ञों या विजेताओं में भी नहीं की जा सकती। लेकिन उन पर जितनी श्रद्धा है, चाहे शिया हो चाहे सुन्नी, उतनी और किसी पर नहीं। उन्हें सर्वसम्मति ने 'शेरे खुदा’, 'मुश्किल कुशा’ की उपाधियां दे रखी हैं। समरभूमि में मुस्लिम सेना धावा करती है तो 'या अली’ कह कर। उनकी दीन-वत्सलता की सहस्त्रों किवदंतियां प्रचलित हैं। इस सर्वप्रियता, भक्ति का कारण यही है कि अली शांत प्रकृति, गंभीर,  धैर्यशील और उदार थे।

हजरत अली हजरत मुहम्मद के दामाद थे। विदुषी फातिमा का विवाह अली से हुआ था। वह हजरत मुहम्मद के चचेरे भाई थे। मरदों में सबसे पहले वही हजरत मुहम्मद पर विश्वास लाए थे। इतना ही नहीं मुहम्मद का पालन-पोषण उन्हीं के पिता अबूतालिब ने किया था। मुहम्मद साहब को उनसे बहुत प्रेम था और उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनके बाद अली ही खिलाफत की मसनद पर बिठाए जाएं। पर नियम से बंधे होने के कारण वह इसे स्पष्ट रूप से न कह सकते थे। अली में अमर, अधिकार-भोग की लालसा होती तो वह मुहम्मद के बाद अपना हक अवश्य पेश करते, लेकिन वह तटस्थ रहे और जनता ने अबूबक्र को खलीफा चुन लिया। अबूबक्र के बाद उमर फारूक खलीफा हुए, तब भी अली ने अपना संतोष-व्रत न छोड़ा। फारूक के बाद उस्मान की बारी आई। उस वक्त अली के खलीफा चुने जाने की बहुत संभावना थी, किंतु यह अवसर भी निकल गया, पक्ष बहुत बलवान होने पर भी खिलाफत न मिल सकी। इस घटना का स्पष्टीकरण इतिहासकारों ने यों किया कि जब निर्वाचक मंडल के मध्यस्थ ने अली से पूछा, 'आप पर खलीफा होकर शास्त्रानुसार शासन करेंगे न?’ अली ने कहा, 'यथासाध्य।’ मध्यस्थ ने यही प्रश्न उस्मान से भी किया। उस्मान ने कहा,  'ईश्वर की इच्छा से, अवश्य करूंगा।’ मध्यस्थ ने उस्मान को खलीफा बना दिया। मगर अली को अपने असफल होने का लेशमात्र भी दु:ख नहीं हुआ। वह राज्य कार्य से पृथक रहकर पठन पाठन में प्रवृत्ति हो गए। इतिहास और धर्मशास्त्र में वह पारंगत थे। साहित्य के केवल प्रेमी ही नहीं, स्वयं अच्छे कवि थे। उनकी कविता का अरबी भाषा में आज भी बड़ा मान है किंतु राज्यकार्य से अलग रहते हुए भी वह खलीफा उस्मान को कठिन अवसरों पर उचित परामर्श देते रहते थे।

अरब जाति को इस बात का गौरव है कि उसने जिस देश की विजय की सबसे पहले कृषकों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया। ईराक, शाम, ईरान सभी देशों में कृषकों पर भूपतियों के अत्याचार होते थे। मुसलमानों ने इन देशों में पदार्पण करते ही प्रजा को भूपतियों की निरकुंशता से निवृत्त किया। यही कारण था कि प्रजा मुसलमान विजेताओं को अपना उद्धारक समझती थी और सहर्ष उनका स्वागत करती थी। यही लोग पहुंचते ही नहरे बनवाते थे, कुएं खुदवाते थे, भूमि कर घटाते थे और भांति-भांति की बेगारों की प्रथा को मिटा देते थे। यह नीति खलीफा अबूबक्र और खलीफा उमर दोनों ही के शासनकाल में होती रही। यह सब अली के ही सत्परामर्शों का फल था। वह पशुबल से प्रजा पर शासन करना पाप समझते थे। उनके हृदयों पर राज्य की भित्ति बनाना ही उन्हें श्रेयस्कर जान पड़ता था।

खलीफा उसमान धर्मपरायण पुरुष थे, किंतु उनमें दृढ़ता का अभाव था। वह निष्पक्षभाव से शासन करने में समर्थ न थे। वह शीघ्र ही अपने कुल वालों के हाथ की कठपुतली बन गए। विशेषत: मेहवान नाम के एक पुरुष ने उन पर अधिपत्य जमा लिया। उस्मान उसके हाथों में हो गए। सूबेदारों ने प्रांतों में प्रजा पर अत्याचार करने शुरू किए। उन दिनों शाम (सीरिया) की सूबेदारी पर मुआविया नियत थे जो आगे चलकर अली के बाद खलीफा हुए। मुआविया के कर्मचारियों ने प्रजा को इतना सताया कि समस्त प्रांत में हाहाकार मच गया। प्रजावर्ग के नेताओं ने खलीफा के यहां आकर शिकायत की। मेहवान ने इन लोगों का अपमान किया और उन पर राज-विद्रोह का लांछन लगाया। लेकिन दूतों ने कहा कि जब तक हमारी फरियाद न सुनी जाएगी और हमको अत्याचारों से बचाने का वचन न दिया जाएगा हम यहां से कदापि न जाएंगे। खलीफा उस्मान को भी ज्ञात हो गया कि समस्या इतनी सरल नहीं है, दूतगंग असंतुष्ट होकर लौटेंगे तो संभव है, समस्त देश में कोई भीषण स्थिति उत्पन्न हो जाए। उन्होंने हजरत अली से इस विषय में सलाह पूछी। हजरत अली ने दूतों का पक्ष लिया और खलीफा को समझाया कि इन लोगों की विनय-प्रार्थना को सुनकर वास्तविक स्थिति का अन्वेषण करना चाहिए और यदि सूबेदार और उस के कर्मचारियों का अपराध सिद्ध हो जाए तो धर्मशास्त्र के अनुसार उन्हें दंड देना चाहिए। हम यह कहना भूल गए कि उस्मान बनू उस्मानिया वंश के पूर्व पुरुष थे। इस वंश में चिरकाल तक खिलाफत रही। लेकिन यह वंश बनू हाशिमिया का सदैव से प्रतिद्वंद्वी था जिसमें हजरत मुहम्मद उमर अली आदि थे। अतएव उस्मान के अधिकांश सूबेदार सेनानायक बनू उस्मिाया वंश के ही थे और वह सब हजरत अली को सशंक नेत्रों से देखते थे और मन ही मन द्वेष भी रखते थे। हजरत अली की सलाह इन लोगों को पक्षपातपूर्ण मालूम हुई और वह इस की अवहेलना करना चाहते थे किंतु खलीफा को अली पर विश्वास था, उनकी सलाह मान ली, नेताओं को आश्वासन दिया कि हम शीघ्र ही सूबेदार के अत्याचारों की तहकीकात करेंगे और तुम्हारी शिकायतें दूर कर दी जाएंगी। उस्मान के बाद हजरत अली खलीफा चुने गए। यद्यपि उन्हें हजरत मुहम्मद के बाद ही चुना जाना चाहिए था।

खिलाफत की बागडोर हाथ में लेते ही अली ने स्वर्गवासी उस्मान के नियत किए हुए सूबेदारों को जो प्रजा पर अभी तक अत्याचार कर रहे थे, पदच्यूत कर दिया और उनकी जगह पर धर्मपरायण पुरुषों को नियुक्त किया। कितनों की ही जागीरें जबरदस्ती कर प्रजा को दे दीं, कई कर्मचारियों के वेतन घटा दिए।

मुआविया ने शाम में बहुत बड़ी शक्ति संचित कर ली थी। इसके उपरांत वह सभी आदमी जो परलोकवासी खलीफा उस्मान के खून का बदला लेना चाहते थे और हजरत अली को इस हत्या का प्रेरक समझते थे, मुआविया के पास चले गए थे। 'आस’ का पुत्र 'अमरो’ इन्हीं द्वेषियों में था। अतएव जब अली शाम की तरफ बढ़े तो मुआविया एक बड़ी सेना से उनका प्रतिकार करने को तैयार था। हजरत अली की सेना में कुल 8 हजार योद्धा थे। जब दोनों सेनाएं निकट पहुंच गई तो खलीफा ने फिर 'मुआविया’ से समझौता करने की बातचीत की। पर जब विश्वास हो गया कि लड़ाई के बगैर कुछ निश्चय न होगा तो उनने 'अशतर’ को अपनी सेना का नायक बना कर लड़ाई की घोषणा कर दी। यह शत्रुओं की लड़ाई नहीं, बंधुओं की लड़ाई थी। मुआविया की सेना ने फरात नदी पर अधिकार प्राप्त कर लिया और खलीफा की सेना को प्यासा मार डालने की ठानी। अशतर ने देखा पानी के बिना सब हताश हो रहे हैं तो उसने कहला भेजा, 'पानी रोकना युद्ध के नियमों के अनुकूल नहीं है, तुम नदी किनारे से सेना हटा लो।’ मुआविया की भी राय थी कि इतनी क्रूरता न्याय विहीन है, पर उसके दरबारियों ने जिनमें 'आस’ का बेटा 'अमरो’ प्रधान था, उस का विरोध किया। अंत में अशतर ने विकट संग्राम के बाद शत्रुओं को जल तट से हटा कर अपना अधिकार जमा लिया। अब इन लोगों की भी इच्छा हुई कि शत्रुओं को पानी न लेने दें पर हजरत अली ने इस पाशविक रणनीति का तिरस्कार किया और अशतर को जल तट से हटने की आज्ञा दी।

इसके बाद मुहर्रम का पवित्र मास आ गया। इस महीने में मुसलमान जाति के लड़ाई करना निषिद्ध है। हजरत अली ने तीन बार अपने दूत भेजे लेकिन मुआविया ने हर बार यही जवाब दिया कि अली ने उस्मान की हत्या कराई है। वह खिलाफत छोड़ दे और उस्मान के घातकों को मेरे सुपुर्द कर दें। मुआविया वास्तव में इस बहाने से स्वयं खलीफा बनना चाहता था। वह अली के मित्रों को भांति-भांति के प्रलोभनों से फोडऩे की चेष्टा किया करता था। जब मुहर्रम का महीना यों ही गुजर गया तो खलीफा ने रिसालों की तैयारी की अज्ञा दी और सेना को उपदेश किया कि जब तक वे  लोग तुम से न लड़े तुम उन पर कदापि आक्रमण न करना। जब वह पराजित हो जाए तो भागने वालों का पीछा न करना और न ही उनका वध करना। घायलों का धन न छीनना, किसी को नग्न मत करना और न किसी स्त्री का सतीत्व भ्रष्ट करना, चाहे वे तुम लोगों को गालिया भी दें। दूसरे ही दिन लड़ाई शुरू हुई और 20 दिनों तक जारी रही। एक बार वह शाम की सेना की सफों को चीरते हुए मुआविया के पास जा पहुंचे और उसे ललकार कर कहा, ञ्चयों व्यर्थ दोनों तरफ के वीरों का रक्त बहाते हो, आओ हम और तुम अकेले आपस में निपट लें। पर मुआविया अली के बाहुबल को खूब जानता था। अकेले निकलने का साहस न हुआ।

दसवें दिन सारी रात लड़ाई होती रही। शुक्र का दिन था। मध्याह्न काल बीत गया, किंतु दोनों सेनाएं युद्धस्थल में अचल खड़ी थीं। सहसा अशतर ने अपनी समग्र शक्ति को एकत्र करके ऐसा धावा किया कि शामी सेना के कदम उखड़ गए। इतने में आस के बेटे अमरो को एक उपाय सूझा। उसने मुआविया से कहा अब क्या देखते हो, मैदान तुम्हारे हाथ से जाना चाहता है, लोगों को हुक्म दो कि कुरान शरीफ अपने भालों पर उठाएं और उच्च स्वर से कहें, 'हमारे और तुक्वहारे बीच में कुरान है।’ अगर वह लोग कुरान की मर्यादा रखेंगे तो यह मारकाट इसी दम बंद हो जाएगी। अगर न मानेंगे तो उनमें मतभेद अवश्य हो जाएगा। इसमें भी हमारा ही फायदा है। कुरान नेजों पर उठाए गए। अली समझ गए कि शत्रुओं ने चाल चली। सिपाहियों ने आगे बढ़ने से इनकार किया और कहने लगे हमको हार जीत की चिंता नहीं है हम तो केवल न्याय चाहते हैं यदि वह लोग न्याय करना चाहते हैं तो हम तैयार हैं। अशतर ने सेना को समझाया, मित्रों, यह शत्रुओं की कपटनीति है, इनमें से एक भी कुरान का व्यवहार नहीं करता, इन्होंने केवल अपनी प्राण रक्षा के लिए यह उपाय किया है। किंतु कौन सुनता।

जब चारों ओर शांति छा गई तो कीस के बेटे 'आशअस’ ने हजरत अली से कहा कि अब मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं जाकर मुआविया से पूछूं कि तुमने क्यों शरण मांगी है। जब वह मुआविया के पास आए तो उसने कहा, मैंने इसलिए शरण मांगी है कि हम और तुम दोनों अल्लाहताला से न्याय की प्रार्थना करें। दोनों तरफ से एक-एक मध्यस्थ चुन लिया जाए। लोगों ने 'अबूमूसा अशअरी’ को चुना। अली ने इस निर्वाचन को अस्वीकार किया और कहा मुझे उन पर विश्वास नहीं है, वह पहले कई बार मेरी अमंगल कामना कर चुके हैं। पर लोगों ने एक स्वर से अबूमूसा को ही चुना। निदान अली को भी मानना पड़ा। दोनों मध्यस्थों में बड़ा अंतर था। आस का बेटा अमरो बड़ा राज-नीति कुशल दांव-पेंच जानने वाला आदमी था। इसके प्रतिकूल अबूमूसा सीधे-सादे मौलवी थे और मन में अली से द्वेष भी रखते थे। अभी यहां यह विवाद हो ही रहा था कि अमरो ने आकर पंचायतनामें की लिखा-पढ़ी कर ली। फैसला सुनाने का समय और स्थान निश्चित कर दिया गया और हजरत अली अपनी सेना के साथ कूफा को चले। इस अवसर पर एक विचित्र समस्या आ खड़ी हुई जिसने अली की कठिनाईयों को द्विगुण कर दिया। वही लोग लड़ाई बंद करने के पक्ष में थे अब कुछ सोच-समझ कर लड़ाई जारी रखने पर आग्रह करने लगे। पंचों की नियुक्ति भी उन्हें सिद्धांतों के विरुद्ध जान पड़ती थी। लेकिन खलीफा अपने वचन पर दृढ़ रहे। उन्होंने निश्चय रूप से कहा कि जब लड़ाई बंद कर दी गई तो वह किसी प्रकार जारी नहीं रखी जा सकती। इस पर उनकी सेना के कितने ही योद्धा रुष्ट होकर अलग हो गए। उन्हें 'खारिजी’ कहते हैं। इन खारिजियों ने आगे चलकर बड़ा उपद्रव किया और हजरत अली की हत्या के मुख्य कारण हुए।

इधर खारीजीन ने इतना सिर उठाया कि खलीफा ने जिन महानुभावों को उनको समझाने-बुझाने भेजा उन्हें कत्ल कर दिया। इस पर अली ने उन्हें दंड देना आवश्यक समझा। नहरवां की लड़ाई में उनके सरदार मारे गए और बचे हुए लोग खलीफा के प्रति कट्टïर बैर भाव लेकर इधर-उधर जा छिपे। अब अली ने शाम पर आक्रमण करने की तैयारी की लेकिन सेना लड़ते-लड़ते हतोत्साहित हो रही थी। कोई साथ देने पर तैयार न हुआ। उधर मुआविया ने मिस्र देश पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया। खलीफा की तरफ से 'मुहक्वमद बिन अबी बक्र’ नियुक्त थे। मआविया ने पहले उसे रिश्वत देकर मिलाना चाहा लेकिन जब इस तरह दाल न गली तो अमरो को एक सेना देकर मिस्र की ओर भेजा। अमरो ने मिस्र के स्थायी सूबेदार को निर्दयता से मरवा डाला।

अली की सत्यप्रियता ने उनके कितने ही मित्रों और अनुगामियों को उनका शत्रु बना दिया। यहां तक कि इस महासंकट के समय उनके चचेरे भाई 'अबदुल्लाह’ के बेटे भी जो उनके दाहिने हाथ बने रहते थे उनसे नाराज होकर मक्का चले गए। अबदुल्लाह के चले जाने के थोड़े ही दिन बाद खारीजियों ने अली की हत्या करने के लिए एक षड्यंत्र रचा। मिस्र निवासी एक व्यक्ति जिसे मलजम कहते थे, अली को मारने का बीड़ा उठाया। इनका इरादा अली और मुआविया दोनों को समाप्त कर कोई दूसरा खलीफा चुनने का था।

शुक्र का दिन दोनों हत्याओं के लिए निश्चित किया गया। थोड़ी रात गई थी। अली मस्जिद में नियमानुसार निमाज पढ़ाने आए। मलजम मसजिद के द्वार पर छिपा बैठा था। अली को देखते ही उन पर तलवार चलाई। माथे पर चोट लगी। वहीं गिर पड़े। मलजम पकड़ लिया गया। खलीफा को लोग उठाकर मकान पर लाए। मलजम उनके सम्मुख लाया गया। अली ने पूछा तुमने किस अपराध के लिए मुझे मारा? मलजम ने कहा, तुमने बहुत से निरपराध मनुष्यों को मारा है। तब अली ने लोगों से कहा कि यदि मैं मर जाऊं तो तुम भी इसे मार डालना लेकिन इसी की तलवार से और एक ही वार करना। इसके सिवा और किसी को क्रोध के वश होकर मत मारना। इसके बाद उन्होंने अपने दोनों पुत्रों हसन और हुसेन को सदुपदेश दिया और थोड़ी देर बाद परलोक सिधारे। उन्होंने अपने पुत्रों में से किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने की चेष्टा तक न की। 



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