अफवाह फैलाने वालो और झूट बोलने वालो के प्रति समाज की जिम्मेदारी । सूरए नूर, आयतें 15-20
अफवाह फैलाने वालो और झूट बोलने वालो के प्रति समाज की जिम्मेदारी । जब तुम उस (झूठ बात) को एक दूसरे से (सुन कर) अपनी ज़बानों पर ल...
https://www.qummi.com/2015/09/15-20.html
अफवाह फैलाने वालो और झूट बोलने वालो के प्रति समाज की जिम्मेदारी ।
जब तुम उस (झूठ बात) को एक दूसरे से (सुन कर) अपनी ज़बानों पर लाते रहे और अपने मुँह से वह कुछ कहते रहेजिसके विषय में तुम्हें कोई ज्ञान ही न था और तुम उसे एक साधारण बात समझ रहे थेजबकि ईश्वर के निकट वह एक भारी बात है। (24:15)
और क्यों जब तुमने उस (आरोप) को सुना तो यह नहीं कहा किहमारे लिए उचित नहीं कि हम ऐसी बात ज़बान पर लाएँ। (प्रभुवर!) तू (हर त्रुटि से) पवित्र है। यह तो एक बड़ा लांछन है? (24:16)
जब तुम उस (झूठ बात) को एक दूसरे से (सुन कर) अपनी ज़बानों पर लाते रहे और अपने मुँह से वह कुछ कहते रहेजिसके विषय में तुम्हें कोई ज्ञान ही न था और तुम उसे एक साधारण बात समझ रहे थेजबकि ईश्वर के निकट वह एक भारी बात है। (24:15) और क्यों जब तुमने उस (आरोप) को सुना तो यह नहीं कहा किहमारे लिए उचित नहीं कि हम ऐसी बात ज़बान पर लाएँ। (प्रभुवर!) तू (हर त्रुटि से) पवित्र है। यह तो एक बड़ा लांछन है? (24:16)
मदीने के मिथ्याचारियों के एक गुट ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक पत्नी पर बड़ा आरोप लगाया और मुसलमानों ने भी इस प्रकार का आरोप लगाने और अफ़वाह फैलाने वालों के साथ कड़ा व्यवहार करने के बजाए, इस बात को दूसरों तक स्थानांतरित किया। इससे पैग़म्बर और उनकी पत्नी को बहुत अधिक दुख हुआ।
ईश्वर इन आयतों में कहता है कि जब तुम्हें उस बात पर विश्वास नहीं था तो तुमने क्यों उसे एक दूसरे को बताया और दूसरों के सम्मान के साथ खिलवाड़ किया? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं था कि दूसरों के बारे में जो बातें तुम सुनते हो उन्हें अकारण दूसरों को नहीं बताना चाहिए और वह भी इतना बड़ा लांछन जो तुम्हारे पैग़म्बर की पत्नी पर लगाया जा रहा था?
यह आयत दो महत्वपूर्ण सामाजिक दायित्वों की ओर संकेत करती है, प्रथम तो यह कि जो कुछ तुम सुनते हो उसे अकारण स्वीकार न कर लिया करो ताकि समाज में अफ़वाहें फैलाने वालों को रोका जा सके क्योंकि संभव है कि इससे कुछ लोगों की इज़्ज़त ख़तरे में पड़ जाए कि यह इस्लाम की दृष्टि में बड़ा निंदनीय कार्य है।
इन आयतों से हमने सीखा कि जो बात लोगों की ज़बान पर होती है उसे बिना जांचे परखे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए।
आरोपों को दूसरों तक पहुंचना और किसी के सम्मान को मिट्टी में मिलाना बड़ा सरल कार्य है किंतु ईश्वर की दृष्टि में यह अत्यंत बुरा व निंदनीय है।
दूसरों के सम्मान की रक्षा, समाज के सभी सदस्यों का दायित्व है। सुनी हुई बातों को फैलाने के बजाए, अफ़वाह फैलाने वाले के साथ कड़ा व्यवहार करना चाहिए।
मदीने के मिथ्याचारियों के एक गुट ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक पत्नी पर बड़ा आरोप लगाया और मुसलमानों ने भी इस प्रकार का आरोप लगाने और अफ़वाह फैलाने वालों के साथ कड़ा व्यवहार करने के बजाए, इस बात को दूसरों तक स्थानांतरित किया। इससे पैग़म्बर और उनकी पत्नी को बहुत अधिक दुख हुआ।
ईश्वर इन आयतों में कहता है कि जब तुम्हें उस बात पर विश्वास नहीं था तो तुमने क्यों उसे एक दूसरे को बताया और दूसरों के सम्मान के साथ खिलवाड़ किया? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं था कि दूसरों के बारे में जो बातें तुम सुनते हो उन्हें अकारण दूसरों को नहीं बताना चाहिए और वह भी इतना बड़ा लांछन जो तुम्हारे पैग़म्बर की पत्नी पर लगाया जा रहा था?
यह आयत दो महत्वपूर्ण सामाजिक दायित्वों की ओर संकेत करती है, प्रथम तो यह कि जो कुछ तुम सुनते हो उसे अकारण स्वीकार न कर लिया करो ताकि समाज में अफ़वाहें फैलाने वालों को रोका जा सके क्योंकि संभव है कि इससे कुछ लोगों की इज़्ज़त ख़तरे में पड़ जाए कि यह इस्लाम की दृष्टि में बड़ा निंदनीय कार्य है।
इन आयतों से हमने सीखा कि जो बात लोगों की ज़बान पर होती है उसे बिना जांचे परखे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए।
आरोपों को दूसरों तक पहुंचना और किसी के सम्मान को मिट्टी में मिलाना बड़ा सरल कार्य है किंतु ईश्वर की दृष्टि में यह अत्यंत बुरा व निंदनीय है।
दूसरों के सम्मान की रक्षा, समाज के सभी सदस्यों का दायित्व है। सुनी हुई बातों को फैलाने के बजाए, अफ़वाह फैलाने वाले के साथ कड़ा व्यवहार करना चाहिए।