कुरान तर्जुमा और तफसीर सूरए निसा ४:77-85
सूरए निसा; आयतें 77-79 क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिनसे कहा गया था कि अभी मक्के में जेहाद से अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ कायम रखो ...
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सूरए निसा; आयतें 77-79
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिनसे कहा गया था कि अभी मक्के में जेहाद से अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ कायम रखो तथा ज़कात दो तो उन्हें आपत्ति हुई और वे युद्ध का आग्रह करने लगे परंतु जब मदीने में उन्हें जेहाद का आदेश दिया गया तो उनमें से एक गुट लोगों से इस प्रकार डरने लगा जिस प्रकार से ईश्वर से डरता हो या शायद उससे भी अधिक और उसने कहा कि प्रभुवर! तूने क्यों हम पर जेहाद अनिवार्य कर दिया? काश इसे थोड़े समय के लिए और टाल दिया होता। हे पैग़म्बर! आप उनसे कह दीजिये कि संसार की पूंजी थोड़ी है और ईश्वर का भय रखने वालों के लिए परलोक उत्तम स्थान है और जान लो कि तुम पर बाल बराबर भी अत्याचार नहीं होगा। (4:77)
इस्लामी इतिहास की किताबों में वर्णित है कि मक्के में मुसलमान अनेकेश्वरवादियों के कड़े दबाव में थे। अत: पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास आये और उनसे कहने लगे कि इस्लाम लाने से पूर्व हम बहुत सम्मानित थे परंतु अब हमारा सम्मान समाप्त हो चुका है और शत्रु हमें सदैव यातनाएं देते रहते हैं। आप हमें अनुमति दें कि हम उनसे युद्ध करके अपना सम्मान वापस ले लें। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि इस समय मुझे युद्ध का आदेश नहीं है और तुम लोग भी नमाज़ तथा ज़कात जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते रहो।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और मुसलमानों द्वारा मक्के से मदीने हिजरत के पश्चात जब ईश्वर की ओर से जेहाद का आदेश आया तो उन्हीं लोगों का एक गुट विभिन्न बहानों से जेहाद से आना कानी करने लगा तो यह आयत आई और उनके इस दोमुखी व्यवहार की आलोचना की। यद्यपि यह इस्लाम के आरंभिक काल के मुसलमानों के बारे में है परंतु इसके उदाहरण हर समय और काल में देखे जा सकते हैं। सदैव ऐसे लोग रहे हैं और अब भी हैं जो अपने सामाजिक व्यवहार में अतिशयोक्ति करते हैं। कभी तो वे समाज के नेताओं से आगे बढ़ जाते हैं और कभी समाज के साधारण लोगों से भी पीछे रह जाते हैं।
वास्तव में इस प्रकार के लोग अपने कर्तव्य के निर्धारण और उसके पालन के लिए प्रयासरत नहीं रहते बल्कि कभी वे समुद्र की लहर की भांति उफनते हैं परंतु जब वे तट पर पहुंचते हैं तो झाग की भांति, जिसकी आयु कुछ क्षण से अधिक नहीं होती, उनका कोई फल नहीं होता और बहुत ही शीघ्र शांत हो जाते हैं। ऐसे लोग ढ़ोल की भांति भीतर से खाली होते हैं बाहर से तो बहुत आवाज़ देते हैं परंतु उनके भीतर किसी भी काम का साहस नहीं होता।
इस आयत से हमने सीखा कि धार्मिक आदेश क्रमबद्ध होते हैं उसी में जेहाद और संघर्ष की क्षमता होगी जिसने पहले नमाज़ और ज़कात द्वारा अपना परीक्षण किया हो तथा अपनी आंतरिक इच्छाओं और शैतान से संघर्ष किया हो।
सामाजिक समस्याओं और संकटों में भावनात्मक व्यवहार नहीं करना चाहिये बल्कि न्यायप्रेमी और दूरदर्शी नेताओं के दृष्टिकोणों के अधीन रहना चाहिये।
सूरए निसा की 78वीं और 79वीं आयत
जान लो कि तुम जहां कहीं भी रहोगे मौत तुम्हें आ लेगी चाहे सुदृढ़ दुर्गों में ही क्यों न रहो। हे पैग़म्बर! इन मिथ्याचारियों की स्थिति यह है कि जब उन्हें कोई भलाई मिल जाती है तो कहते हैं कि यह ईश्वर की ओर से है और यदि कोई मुसीबत उनके सिर आ जाती है तो कहते हैं यह आपकी ओर से है। हे पैग़म्बर! उनसे कह दीजिये कि सब कुछ ईश्वर की ओर से है। तो इस गुट को क्या हो गया है यह कोई बात समझता ही नहीं है। (4:78)
तुम तक जो भी भलाई पहुंचती है वह ईश्वर की ओर से है और जो कुछ बुराई व मुसीबत पहुंचती है वह स्वयं तुम्हारी ओर से है और हे पैग़म्बर! हम ने आपको सभी लोगों के लिए पैग़म्बर बनाकर भेजा है और इस बारे में ईश्वर की गवाही काफ़ी है। (4:79)
पिछली आयतों की व्याख्या में कहा गया था कि कुछ डरपोक और कमज़ोर ईमान के मुसलमानों ने जेहाद का आदेश आने पर आपत्ति करते हुए उसे विलम्बित करने का आग्रह किया ताकि शायद उनकी जान बच जाये। इन आयतों में ईश्वर कहता है कि यह मत सोचो कि जेहाद से भाग कर तुम्हें मौत से भी मुक्ति मिल जायेगी। जान लो कि यदि मज़बूत से मज़बूत दरवाज़ों के पीछे भी जाकर छिप जाओ तब भी मौत तुम्हें आ लेगी। शाबाश है उन लोगों पर जो जेहाद जैसे सार्थक और मूल्यवान मार्ग में अपनी जान की भेंटे देते हैं और ईश्वर के मार्ग में शहीद होकर अपने अनंत जीवन को सुनिश्चित बना लेते हैं।
आगे चलकर ये आयतें पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से मित्थाचारियों के ग़लत और अपमानजनक व्यवहार की ओर संकेत करते हुए कहती हैं। जब भी युद्ध में उन्हें विजय प्राप्त होती है तो वे उसे ईश्वर की कृपा मानते हैं पंरतु यदि उन्हें पराजय होती है तो वे उसे पैग़म्बर की अयोग्यता का परिणाम बताते हैं। उनके उत्तर में आयत कहती है इस संसार की हर वस्तु ईश्वर की इच्छा से है और उनके इरादे के बिना कोई बात नहीं होती चाहे विजय हो या पराजय किन्तु उसकी इच्छा भी बिना तर्क और हिसाब के नहीं होती। यदि तुम अपने कर्तव्यों का पालन करो तो ईश्वर भी तुम्हारे लिए भलाई और विजय का इरादा करता है यदि तुम बद्र के युद्ध की भांति ही सुस्ती करोगे तो ईश्वर तुम्हारे भाग्य में पराजय लिख देगा।
ईश्वर से मनुष्य का संबंध सूर्य से धरती के समान है। सूर्य के चारों ओर अपने परिक्रमण में धरती जहां कहीं अपना मुख सूर्य की ओर करती है वहां वो उसके प्रकाश और उष्मा से लाभांवित होती है और जहां कहां वह सूर्य की ओर से मुंह घुमा लेती है वहां वह अंधकार में ग्रस्त हो जाती है। मनुष्य भी इसी प्रकार से है जब भी वह ईश्वर की ओर मुख करता है और उसकी ओर आकृष्ट होता है तब वह ईश्वर की कृपा से लाभांवित होता है और जब कभी भी वह ईश्वर से मुंह मोड़ लेता है तो स्वयं को जीवन के स्रोत से वंचित कर लेता है।
अलबत्ता इस वास्तविकता को केवल पवित्र हृदय वाले लोग ही समझते और स्वीकार करते हैं परंतु रोगी हृदय वाले या तो इसे समझते नहीं या स्वीकार करना नहीं चाहते। क्योंकि वे ईश्वर को नहीं बल्कि स्वयं को केन्द्र समझते हैं। वे केवल स्वयं को सत्य पर समझते हैं और जो कोई उनके मुक़ाबले पर आता है उसे असत्य पर मानते हैं जबकि सत्य और असत्य का मापदंड ईश्वर है न कि वे।
इन आयतों से हमने सीखा कि जब मौत निश्चित है तो फिर युद्ध और जेहाद से भागने का क्या अर्थ है?
अपने पापों को दूसरों की गर्दन में नहीं डालना चाहिये और स्वयं को कर्तव्यहीन बताकर अपनी ग़लतियों का औचित्य नहीं दर्शाना चाहिये।
जीवन व मृत्यु, अच्छी व बुरी घटनायें सबकी सब ईश्वर के तत्वदर्शी नियमों के आधार पर हैं।
ईश्वरीय दृष्टि में, जो कुछ सुन्दरता और परिपूर्णता है, वह ईश्वर की ओर से है और जो कुछ कमी व अवगुण है वह हमारी ओर से है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी विश्वव्यापि है और किसी भी जाति या क्षेत्र से विशेष नहीं है।
सूरए निसा; आयतें 80-82
जिसने भी पैग़म्बर का आज्ञापालन किया तो निसंदेह उसने ईश्वर का आज्ञापालन किया और जिसने अवज्ञा की तो हे पैग़म्बर! जान लीजिए कि हमने आपको उन लोगों का रखवाला बनाकर नहीं भेजा है। (4:80)
किसी भी समाज के संचालन के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक सरकारी पदों के क्रम का निर्धारण और लोगों द्वारा उनका आज्ञापालन है। जैसाकि इस कार्यक्रम में हम अनेक बार कह चुके हैं कि इस्लाम केवल व्यक्तिगत उपासना संबंधी कुछ आदेशों का नाम नहीं है बल्कि इस्लाम व्यक्ति के कल्याण को समाज के कल्याण और विभिन्न सामाजिक मंचों पर उसकी उपस्थिति पर निर्भर समझता है।
ज़कात, हज और जेहाद जैसे आदेश इन सामाजिक सिद्धांतों का स्पष्ट उदाहरण हैं तथा इन सिद्धांतों और आदेशों के क्रियान्वयन के लिए शासन व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे इस्लाम ने पूर्णरूप से पेश किया है।
क़ुरआन की दृष्टि से पैग़म्बर का दायित्व केवल ईश्वरीय आदेशों को पहुंचाना नहीं है बल्कि वे स्वयं इस्लामी समाज के शासक हैं और उनका आज्ञापालन ईश्वर का आज्ञापालन है तथा उनकी अवज्ञा ईश्वर के इंकार के समान है। न केवल पैग़म्बर के प्रशासनिक आदेशों बल्कि उनके कथनों का भी विशेष महत्व है और उन्हें सुन्नत कहा जाता है।
यह आयत जिस रोचक बात की ओर संकेत करती है वह समाज के प्रति पैग़म्बर यहां तक कि शासक के रूप में उनके दायित्वों की सीमा है और वह यह कि पैग़म्बर लोगों को सत्य स्वीकार करने और उस पर कार्यबद्ध होने पर विवश करने के उत्तरदायी नहीं हैं उनका कर्तव्य और दायित्व केवल समाज का मार्गदर्शन तथा नेतृत्व है न कि ईश्वरीय आदेशों के पालन के लिए लोगों को विवश करना।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर का आज्ञापालन केवल नमाज़, रोज़ा करने के अर्थ में नहीं है बल्कि समाज के ईश्वरीय नेताओं का आज्ञापालन भी धर्म का दायित्व है।
पैग़म्बरों का कर्तव्य धर्म को लोगों पर थोपना नहीं बल्कि उसका प्रचार है और मनुष्य को स्वेच्छा और अपने चयन से धर्म अपनाना चाहिये।
सूरए निसा की 81वीं आयत
और (हे पैग़म्बर! जब मिथ्याचारी आपके पास होते हैं तो) कहते हैं कि हम आज्ञापालन करने वाले हैं परंतु जब वे आपके पास से चले जाते हैं तो उनका एक गुट अपने कहे के विपरीत रातों की बैठकों में षड्यंत्र रचता है और उन बैठकों में वे जो कहते हैं ईश्वर उसे लिख रहा है तो तुम उनसे दूरी करो और ईश्वर पर भरोसा करो कि ईश्वर सहायता करने के लिए काफ़ी है। (4:81)
यह आयत भी मिथ्याचारियों की ओर से ख़तरों की ओर से सचेत करती है और पैग़म्बर तथा मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है होशियार रहो कि तुम्हारे बीच कमज़ोर ईमान वालों तथा मिथ्याचारियों का एक ऐसा गुट मौजूद है जो विदितरूप से तुम्हारे साथ होने और आज्ञापालन करने का दावा करता है परंतु रात की अपनी गुप्त बैठकों में वे कुछ और निर्णय लेते हैं तथा तुम्हारे कार्यक्रमों को विफल बनाने के लिए षड्यंत्र रचते हैं। ऐसे लोगों से मुक़ाबले का मार्ग उन्हें पहचान कर उनसे दूर रहना है। उनके अलग हो जाने या उनके उल्लंघनों से घबराना नहीं चाहिये क्योंकि ईश्वर उनकी बातों और निर्णयों को जानता है और उचित समय पर उन्हें विफल बना देगा तो केवल ईश्वर पर भरोसा करना चाहिये और उसी से सहायता मांगनी चाहिये।
इन आयतों से हमने सीखा कि आंतरिक शत्रुओं के षड्यंत्रों की ओर से निश्चेत नहीं रहना चाहिये और यह नहीं सोचना चाहिये कि शत्रु केवल सीमा पार ही है।
मनुष्य को भोला नहीं होना चाहिये और किसी की भी ओर से प्रेम के दावे पर शीघ्र ही भरोसा नहीं कर लेना चाहिये बल्कि इसके विपरीत जहां अधिक चापलूसी, मक्खनबाज़ी और प्रशंसा हो वहां घुसपैठ का ख़तरा अधिक समझना चाहिये।
ईश्वर वास्तविक ईमान वालों का रक्षक और समर्थक है तथा अपनी प्रत्यक्ष और परोक्ष सहायताओं से उनका समर्थन करता है।
सूरए निसा की 82वीं आयत
क्या वे क़ुरआन में सोच विचार नहीं करते कि यदि वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता तो वे उसमें बहुत मतभेद पाते। (4:82)
इस्लाम के विरोधी, जिनके पास पैग़म्बरे इस्लाम के स्पष्ट तर्कों का कोई जवाब नहीं होता था, विभिन्न प्रकार के आरोप लगाते थे। उनमें से एक यह था कि क़ुरआन हज़रत मोहम्मद के विचारों का परिणाम या दूसरे से प्राप्त की हुई उनकी शिक्षाओं का फल है। इस आरोप के उत्तर में ईश्वर इस आयत में कहता है क्यों तुम लोग कुरआन की आयतों पर विचार नहीं करते? क़ुरआन 20 वर्षों से भी अधिक की अवधि में युद्ध और शांति की विभिन्न परिस्थितियों में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर उतरा है, यदि यह मानव के विचारों का परिणाम होता तो स्वाभाविक रूप से इसमें अनेक मतभेद होते चाहे विषय की दृष्टि से या कथन की पद्धति व क्रम की दृष्टि से।
मूल रूप से क़ुरआन के ईश्वरीय चमत्कार होने के तर्कों में से एक इतनी बड़ी अवधि में भी क़ुरआन के विषयों में समानता व समन्वय है क्योंकि बड़े से बड़े लेखक के आज के और २० वर्ष के बाद के लेखों में समानता नहीं होती और उसमें परिवर्तन आता रहता है क्योंकि मनुष्य की परिस्थितियों, ज्ञान और प्रकृति का प्रभाव पड़ता रहता है और इस प्रकार उसके सोचने और लिखने में विभिन्न प्रकार के अंतर और मतभेद आते ही रहते हैं परन्तु ईश्वर का कथन इन सब बातों से बहुत ऊपर है इसीलिए २३वर्षों में भी उसके विषयों और अन्दाज़ में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।
इस आयत से हमने सीखा कि उन लोगों के विपरीत, जो धर्म को ज्ञान व विचार का विरोधी बताते हैं यह आयत स्पष्ट रूप से सभी को क़ुरआन की आयतों पर विचार का निमंत्रण देती है ताकि इस प्रकार वे इस्लाम की सहायता को समझ सकें।
क़ुरआन हर काल व हर पीढ़ी के लिए समझने योग्य है और सभी ईमान वालों का कर्तव्य है कि उस पर विचार करें।
यदि लोग क़ुरआन के ध्रुव पर एकत्रित हो जायें तो हर प्रकार के मतभेद और विवाद समाप्त हो जायेंगे क्योंकि क़ुरआन में ऐसी कोई चीज़ नहीं जो मतभेद का कारण हो।
सूरए निसा; आयतें 83-85
और (मिथ्याचारियों की पद्धति यह है कि) जब भी उन्हें शांति या भय का समाचार मिलता है उसे फैला देते हैं जबकि यदि वे उसे पैग़म्बर या योग्य लोगों के पास ले जाएं तो वे लोग जो उसको जानने वाले हैं, उसकी वास्तविकता को समझ जाते हैं, और यदि तुम पर ईश्वर की कृपा न होती तो कुछ लोगों को छोड़कर तुम सब शैतान का अनुसरण करते। (4:83)
पिछली आयतों में पैग़म्बर व इस्लाम के आरंभिक काल के मुसलमानों के साथ मिथ्याचारियों के अनुचित व्यवहारों का वर्णन करने के पश्चात ईश्वर इस आयत में उनके एक अन्य व्यवहार का वर्णन करते हुए कहता है कि। अफ़वाहें फैलाना, विशेषकर युद्ध के समाचारों के बारे में जिनता बहुत महत्व होता है, मिथ्याचारियों की योजनाओं में से एक है। इस प्रकार की अफ़वाहें कभी लोगों के हृदयों में भय व आतंक उत्पन्न कर देती हैं तो कभी अनुचित रूप से उनके भीतर शांति व सुरक्षा की आशा जगा देती हैं।
इसके पश्चात ईश्वर शासकों के प्रति जनता के कर्तव्य के संबंध में एक मूल सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए कहता हैः समाज की व्यवस्था से संबंधित मामलों में जनता का कर्तव्य यह है कि वो इस प्रकार के समाचारों को नेताओं व शासकों तक पहुंचा दे ताकि वे उसका सही विश्लेषण करके लोगों को वास्तविक्ताओं से अवगत कराएं।
आगे चलकर आयत एक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए कहती हैः मिथ्याचारियों की यह पद्धति मनुष्य को कुफ़्र एवं शैतान के अनुसरण की ओर ले जाती है और यदि ईश्वर की कृपा तथा पैग़म्बरों व अन्य ईश्वरीय मार्गदर्शकों का मार्गदर्शन न होता तो अधिकांश लोगों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता था और वे समाज की कठिनाइयों में शैतानी उकसावों और शैतानी विचारों से ग्रस्त हो जाते।
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों के बीच अफ़वाहें फैलाना, मिथ्याचारियों का काम है। अतः उनकी ओर से सचेत रहना चाहिए।
सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समाचारों को नहीं फैलाना चाहिए बल्कि इस प्रकार के समाचारों को केवल शासक वर्ग तक सीमित रखना चाहिए।
केवल सोचने, समझने तथा चिंतन करने वाले लोग ही वास्तिविक्ता तक पहुंचते हैं तथा अन्य लोगों को उन्हीं से संपर्क करना चाहिए।
सूरए निसा की आयत नंबर 84
(हे पैग़म्बर!) ईश्वर के मार्ग में युद्ध करो और ईमान वालों को भी इस काम पर प्रोत्साहित करो। (परंतु यह जान लो कि) तुम केवल अपने कर्तव्यों के उत्तरदायी हो। आशा है कि ईश्वर काफ़िरों की शक्ति और सत्ता को रोक देगा और ईश्वर की शक्ति भी अधिक है और दंड भी। (4:84)
ऐतिहासिक किताबों में वर्णित है कि ओहोद के युद्ध में मुसलमानों की पराजय के पश्चात अबू सुफ़ियान ने उन पर आक्रमण की अगली तारीख़ निर्धारित की। निश्चित समय पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने मुसलमानों को आगे बढ़ने का आदेश दिया परंतु ओहद में होने वाली पराजय की कटु याद इस बात का कारण बनी कि अनेक लोग पैग़म्बर के आदेश की अवज्ञा करें। उसी समय यह आयत उतरी और पैग़म्बर को आदेश दिया गया कि यदि एक व्यक्ति भी तुम्हारे साथ न आए तब भी तुम पर युद्ध के लिए जाना आवश्यक है। अल्बत्ता तुम मुसलमानों को जेहाद का निमंत्रण देते रहो।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने भी ऐसा ही किया तथा बहुत कम लोग पैग़म्बर के साथ आगे बढ़े परंतु शत्रु निर्धारित समय पर युद्ध के लिए नहीं आया और युद्ध नहीं हुआ। इस प्रकार मुसलमानों को क्षति पहुंचाने से शत्रु को रोकने का ईश्वर का वचन पूरा हो गया।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों को कर्तव्य लोगों को धर्म और धार्मिक आदेशों की ओर बुलाना है न कि उन्हें इस कार्य के लिए विवश करना।
ख़तरे और झड़प के समय नेता को सदैव समाज का अगुवा होना चाहिए। यहां तक कि यदि वह अकेला रह जाए तब भी उसे संघर्ष नहीं छोड़ना चाहिए कि ऐसी स्थिति में उसे ईश्वरीय सहायता प्राप्त होगी।
हर कोई अपने काम का उत्तरदायी है। यहां तक कि पैग़म्बर भी लोगों के कामों के उत्तरदायी नहीं हैं बल्कि उन्हें केवल अपने कर्तव्यों का जवाब देना होगा।
ईश्वरीय शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। बस शर्त यह है कि लोग अपने दायित्वों का पालन करें।
सूरए निसा की आयत नंबर 85
जो कोई भी भले कार्य के लिए मध्यस्थता और सिफ़ारिश करे उसे भी उसका एक भाग मिलेगा और जो कोई बुरे काम का साधन बने उसे भी उसके दंड का एक भाग मिलेगा और निःसंदेह ईश्वर हर चीज़ का हिसाब रखने वाला है। (4:85)
इस आयत में ईश्वर एक मूल क़ानून की ओर संकेत करते हुए कहता है न केवल पैग़म्बर बल्कि सभी लोगों पर दूसरों को भले कर्मों का निमंत्रण देने का दायित्व है और वह भी भले ढंग से। अल्बत्ता हर कोई केवल अपने कर्मों के प्रति उत्तरदायी है परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि लोग दूसरों और समाज की अच्छी-बुरी बातों की ओर से निश्चेत रहें। इस्लाम व्यक्तिवाद का धर्म नहीं है कि हर कोई केवल अपने विचार में रहे और दूसरों को बुराई से संघर्ष और सत्य का निमंत्रण देने की ओर से आंखें मूंदे रहे।
प्रत्येक दशा में भले कार्यों का आदेश देना और बुराइयों से रोकना प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है जिसका उसे अपने जीवन, परिवार, मुहल्ले, कार्यस्थल इत्यादि में पालन करना चाहिए।
पारितोषिक और दंड की दृष्टि से भी मनुष्य को न केवल यह कि अपने कर्मों का बदला मिलेगा बल्कि वह दूसरों के कर्मों में भी सहभागी है। यदि वह किसी भले काम का माध्यम बनेगा तो पारितोषिक का एक भाग उसे भी मिलेगा और यदि उसने किसी बुरे कर्म की भूमि समतल की तो उसके दंड में वो भी भागीदारी होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि दो व्यक्तियों के बीच मनमुटाव समाप्त कराना, समाज में भले कामों में सहयोग और सहायता करना तथा कुफ़्र के साथ युद्ध में मुसलमानों की सहायता करना, भली सिफ़ारिश के स्पष्ट उदाहरणों में से है जो प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है।
समय व स्थान संबंधी सीमाओं के कारण मनुष्य स्वयं सभी भले कर्म नहीं कर सकता परंतु वह अच्छे कामों का माध्यम बन कर उनके पारितोषिक का कुछ भाग प्राप्त कर सकता है।
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिनसे कहा गया था कि अभी मक्के में जेहाद से अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ कायम रखो तथा ज़कात दो तो उन्हें आपत्ति हुई और वे युद्ध का आग्रह करने लगे परंतु जब मदीने में उन्हें जेहाद का आदेश दिया गया तो उनमें से एक गुट लोगों से इस प्रकार डरने लगा जिस प्रकार से ईश्वर से डरता हो या शायद उससे भी अधिक और उसने कहा कि प्रभुवर! तूने क्यों हम पर जेहाद अनिवार्य कर दिया? काश इसे थोड़े समय के लिए और टाल दिया होता। हे पैग़म्बर! आप उनसे कह दीजिये कि संसार की पूंजी थोड़ी है और ईश्वर का भय रखने वालों के लिए परलोक उत्तम स्थान है और जान लो कि तुम पर बाल बराबर भी अत्याचार नहीं होगा। (4:77)
इस्लामी इतिहास की किताबों में वर्णित है कि मक्के में मुसलमान अनेकेश्वरवादियों के कड़े दबाव में थे। अत: पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास आये और उनसे कहने लगे कि इस्लाम लाने से पूर्व हम बहुत सम्मानित थे परंतु अब हमारा सम्मान समाप्त हो चुका है और शत्रु हमें सदैव यातनाएं देते रहते हैं। आप हमें अनुमति दें कि हम उनसे युद्ध करके अपना सम्मान वापस ले लें। पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि इस समय मुझे युद्ध का आदेश नहीं है और तुम लोग भी नमाज़ तथा ज़कात जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते रहो।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और मुसलमानों द्वारा मक्के से मदीने हिजरत के पश्चात जब ईश्वर की ओर से जेहाद का आदेश आया तो उन्हीं लोगों का एक गुट विभिन्न बहानों से जेहाद से आना कानी करने लगा तो यह आयत आई और उनके इस दोमुखी व्यवहार की आलोचना की। यद्यपि यह इस्लाम के आरंभिक काल के मुसलमानों के बारे में है परंतु इसके उदाहरण हर समय और काल में देखे जा सकते हैं। सदैव ऐसे लोग रहे हैं और अब भी हैं जो अपने सामाजिक व्यवहार में अतिशयोक्ति करते हैं। कभी तो वे समाज के नेताओं से आगे बढ़ जाते हैं और कभी समाज के साधारण लोगों से भी पीछे रह जाते हैं।
वास्तव में इस प्रकार के लोग अपने कर्तव्य के निर्धारण और उसके पालन के लिए प्रयासरत नहीं रहते बल्कि कभी वे समुद्र की लहर की भांति उफनते हैं परंतु जब वे तट पर पहुंचते हैं तो झाग की भांति, जिसकी आयु कुछ क्षण से अधिक नहीं होती, उनका कोई फल नहीं होता और बहुत ही शीघ्र शांत हो जाते हैं। ऐसे लोग ढ़ोल की भांति भीतर से खाली होते हैं बाहर से तो बहुत आवाज़ देते हैं परंतु उनके भीतर किसी भी काम का साहस नहीं होता।
इस आयत से हमने सीखा कि धार्मिक आदेश क्रमबद्ध होते हैं उसी में जेहाद और संघर्ष की क्षमता होगी जिसने पहले नमाज़ और ज़कात द्वारा अपना परीक्षण किया हो तथा अपनी आंतरिक इच्छाओं और शैतान से संघर्ष किया हो।
सामाजिक समस्याओं और संकटों में भावनात्मक व्यवहार नहीं करना चाहिये बल्कि न्यायप्रेमी और दूरदर्शी नेताओं के दृष्टिकोणों के अधीन रहना चाहिये।
सूरए निसा की 78वीं और 79वीं आयत
जान लो कि तुम जहां कहीं भी रहोगे मौत तुम्हें आ लेगी चाहे सुदृढ़ दुर्गों में ही क्यों न रहो। हे पैग़म्बर! इन मिथ्याचारियों की स्थिति यह है कि जब उन्हें कोई भलाई मिल जाती है तो कहते हैं कि यह ईश्वर की ओर से है और यदि कोई मुसीबत उनके सिर आ जाती है तो कहते हैं यह आपकी ओर से है। हे पैग़म्बर! उनसे कह दीजिये कि सब कुछ ईश्वर की ओर से है। तो इस गुट को क्या हो गया है यह कोई बात समझता ही नहीं है। (4:78)
तुम तक जो भी भलाई पहुंचती है वह ईश्वर की ओर से है और जो कुछ बुराई व मुसीबत पहुंचती है वह स्वयं तुम्हारी ओर से है और हे पैग़म्बर! हम ने आपको सभी लोगों के लिए पैग़म्बर बनाकर भेजा है और इस बारे में ईश्वर की गवाही काफ़ी है। (4:79)
पिछली आयतों की व्याख्या में कहा गया था कि कुछ डरपोक और कमज़ोर ईमान के मुसलमानों ने जेहाद का आदेश आने पर आपत्ति करते हुए उसे विलम्बित करने का आग्रह किया ताकि शायद उनकी जान बच जाये। इन आयतों में ईश्वर कहता है कि यह मत सोचो कि जेहाद से भाग कर तुम्हें मौत से भी मुक्ति मिल जायेगी। जान लो कि यदि मज़बूत से मज़बूत दरवाज़ों के पीछे भी जाकर छिप जाओ तब भी मौत तुम्हें आ लेगी। शाबाश है उन लोगों पर जो जेहाद जैसे सार्थक और मूल्यवान मार्ग में अपनी जान की भेंटे देते हैं और ईश्वर के मार्ग में शहीद होकर अपने अनंत जीवन को सुनिश्चित बना लेते हैं।
आगे चलकर ये आयतें पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से मित्थाचारियों के ग़लत और अपमानजनक व्यवहार की ओर संकेत करते हुए कहती हैं। जब भी युद्ध में उन्हें विजय प्राप्त होती है तो वे उसे ईश्वर की कृपा मानते हैं पंरतु यदि उन्हें पराजय होती है तो वे उसे पैग़म्बर की अयोग्यता का परिणाम बताते हैं। उनके उत्तर में आयत कहती है इस संसार की हर वस्तु ईश्वर की इच्छा से है और उनके इरादे के बिना कोई बात नहीं होती चाहे विजय हो या पराजय किन्तु उसकी इच्छा भी बिना तर्क और हिसाब के नहीं होती। यदि तुम अपने कर्तव्यों का पालन करो तो ईश्वर भी तुम्हारे लिए भलाई और विजय का इरादा करता है यदि तुम बद्र के युद्ध की भांति ही सुस्ती करोगे तो ईश्वर तुम्हारे भाग्य में पराजय लिख देगा।
ईश्वर से मनुष्य का संबंध सूर्य से धरती के समान है। सूर्य के चारों ओर अपने परिक्रमण में धरती जहां कहीं अपना मुख सूर्य की ओर करती है वहां वो उसके प्रकाश और उष्मा से लाभांवित होती है और जहां कहां वह सूर्य की ओर से मुंह घुमा लेती है वहां वह अंधकार में ग्रस्त हो जाती है। मनुष्य भी इसी प्रकार से है जब भी वह ईश्वर की ओर मुख करता है और उसकी ओर आकृष्ट होता है तब वह ईश्वर की कृपा से लाभांवित होता है और जब कभी भी वह ईश्वर से मुंह मोड़ लेता है तो स्वयं को जीवन के स्रोत से वंचित कर लेता है।
अलबत्ता इस वास्तविकता को केवल पवित्र हृदय वाले लोग ही समझते और स्वीकार करते हैं परंतु रोगी हृदय वाले या तो इसे समझते नहीं या स्वीकार करना नहीं चाहते। क्योंकि वे ईश्वर को नहीं बल्कि स्वयं को केन्द्र समझते हैं। वे केवल स्वयं को सत्य पर समझते हैं और जो कोई उनके मुक़ाबले पर आता है उसे असत्य पर मानते हैं जबकि सत्य और असत्य का मापदंड ईश्वर है न कि वे।
इन आयतों से हमने सीखा कि जब मौत निश्चित है तो फिर युद्ध और जेहाद से भागने का क्या अर्थ है?
अपने पापों को दूसरों की गर्दन में नहीं डालना चाहिये और स्वयं को कर्तव्यहीन बताकर अपनी ग़लतियों का औचित्य नहीं दर्शाना चाहिये।
जीवन व मृत्यु, अच्छी व बुरी घटनायें सबकी सब ईश्वर के तत्वदर्शी नियमों के आधार पर हैं।
ईश्वरीय दृष्टि में, जो कुछ सुन्दरता और परिपूर्णता है, वह ईश्वर की ओर से है और जो कुछ कमी व अवगुण है वह हमारी ओर से है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी विश्वव्यापि है और किसी भी जाति या क्षेत्र से विशेष नहीं है।
सूरए निसा; आयतें 80-82
जिसने भी पैग़म्बर का आज्ञापालन किया तो निसंदेह उसने ईश्वर का आज्ञापालन किया और जिसने अवज्ञा की तो हे पैग़म्बर! जान लीजिए कि हमने आपको उन लोगों का रखवाला बनाकर नहीं भेजा है। (4:80)
किसी भी समाज के संचालन के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक सरकारी पदों के क्रम का निर्धारण और लोगों द्वारा उनका आज्ञापालन है। जैसाकि इस कार्यक्रम में हम अनेक बार कह चुके हैं कि इस्लाम केवल व्यक्तिगत उपासना संबंधी कुछ आदेशों का नाम नहीं है बल्कि इस्लाम व्यक्ति के कल्याण को समाज के कल्याण और विभिन्न सामाजिक मंचों पर उसकी उपस्थिति पर निर्भर समझता है।
ज़कात, हज और जेहाद जैसे आदेश इन सामाजिक सिद्धांतों का स्पष्ट उदाहरण हैं तथा इन सिद्धांतों और आदेशों के क्रियान्वयन के लिए शासन व्यवस्था की आवश्यकता है जिसे इस्लाम ने पूर्णरूप से पेश किया है।
क़ुरआन की दृष्टि से पैग़म्बर का दायित्व केवल ईश्वरीय आदेशों को पहुंचाना नहीं है बल्कि वे स्वयं इस्लामी समाज के शासक हैं और उनका आज्ञापालन ईश्वर का आज्ञापालन है तथा उनकी अवज्ञा ईश्वर के इंकार के समान है। न केवल पैग़म्बर के प्रशासनिक आदेशों बल्कि उनके कथनों का भी विशेष महत्व है और उन्हें सुन्नत कहा जाता है।
यह आयत जिस रोचक बात की ओर संकेत करती है वह समाज के प्रति पैग़म्बर यहां तक कि शासक के रूप में उनके दायित्वों की सीमा है और वह यह कि पैग़म्बर लोगों को सत्य स्वीकार करने और उस पर कार्यबद्ध होने पर विवश करने के उत्तरदायी नहीं हैं उनका कर्तव्य और दायित्व केवल समाज का मार्गदर्शन तथा नेतृत्व है न कि ईश्वरीय आदेशों के पालन के लिए लोगों को विवश करना।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर का आज्ञापालन केवल नमाज़, रोज़ा करने के अर्थ में नहीं है बल्कि समाज के ईश्वरीय नेताओं का आज्ञापालन भी धर्म का दायित्व है।
पैग़म्बरों का कर्तव्य धर्म को लोगों पर थोपना नहीं बल्कि उसका प्रचार है और मनुष्य को स्वेच्छा और अपने चयन से धर्म अपनाना चाहिये।
सूरए निसा की 81वीं आयत
और (हे पैग़म्बर! जब मिथ्याचारी आपके पास होते हैं तो) कहते हैं कि हम आज्ञापालन करने वाले हैं परंतु जब वे आपके पास से चले जाते हैं तो उनका एक गुट अपने कहे के विपरीत रातों की बैठकों में षड्यंत्र रचता है और उन बैठकों में वे जो कहते हैं ईश्वर उसे लिख रहा है तो तुम उनसे दूरी करो और ईश्वर पर भरोसा करो कि ईश्वर सहायता करने के लिए काफ़ी है। (4:81)
यह आयत भी मिथ्याचारियों की ओर से ख़तरों की ओर से सचेत करती है और पैग़म्बर तथा मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है होशियार रहो कि तुम्हारे बीच कमज़ोर ईमान वालों तथा मिथ्याचारियों का एक ऐसा गुट मौजूद है जो विदितरूप से तुम्हारे साथ होने और आज्ञापालन करने का दावा करता है परंतु रात की अपनी गुप्त बैठकों में वे कुछ और निर्णय लेते हैं तथा तुम्हारे कार्यक्रमों को विफल बनाने के लिए षड्यंत्र रचते हैं। ऐसे लोगों से मुक़ाबले का मार्ग उन्हें पहचान कर उनसे दूर रहना है। उनके अलग हो जाने या उनके उल्लंघनों से घबराना नहीं चाहिये क्योंकि ईश्वर उनकी बातों और निर्णयों को जानता है और उचित समय पर उन्हें विफल बना देगा तो केवल ईश्वर पर भरोसा करना चाहिये और उसी से सहायता मांगनी चाहिये।
इन आयतों से हमने सीखा कि आंतरिक शत्रुओं के षड्यंत्रों की ओर से निश्चेत नहीं रहना चाहिये और यह नहीं सोचना चाहिये कि शत्रु केवल सीमा पार ही है।
मनुष्य को भोला नहीं होना चाहिये और किसी की भी ओर से प्रेम के दावे पर शीघ्र ही भरोसा नहीं कर लेना चाहिये बल्कि इसके विपरीत जहां अधिक चापलूसी, मक्खनबाज़ी और प्रशंसा हो वहां घुसपैठ का ख़तरा अधिक समझना चाहिये।
ईश्वर वास्तविक ईमान वालों का रक्षक और समर्थक है तथा अपनी प्रत्यक्ष और परोक्ष सहायताओं से उनका समर्थन करता है।
सूरए निसा की 82वीं आयत
क्या वे क़ुरआन में सोच विचार नहीं करते कि यदि वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता तो वे उसमें बहुत मतभेद पाते। (4:82)
इस्लाम के विरोधी, जिनके पास पैग़म्बरे इस्लाम के स्पष्ट तर्कों का कोई जवाब नहीं होता था, विभिन्न प्रकार के आरोप लगाते थे। उनमें से एक यह था कि क़ुरआन हज़रत मोहम्मद के विचारों का परिणाम या दूसरे से प्राप्त की हुई उनकी शिक्षाओं का फल है। इस आरोप के उत्तर में ईश्वर इस आयत में कहता है क्यों तुम लोग कुरआन की आयतों पर विचार नहीं करते? क़ुरआन 20 वर्षों से भी अधिक की अवधि में युद्ध और शांति की विभिन्न परिस्थितियों में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर उतरा है, यदि यह मानव के विचारों का परिणाम होता तो स्वाभाविक रूप से इसमें अनेक मतभेद होते चाहे विषय की दृष्टि से या कथन की पद्धति व क्रम की दृष्टि से।
मूल रूप से क़ुरआन के ईश्वरीय चमत्कार होने के तर्कों में से एक इतनी बड़ी अवधि में भी क़ुरआन के विषयों में समानता व समन्वय है क्योंकि बड़े से बड़े लेखक के आज के और २० वर्ष के बाद के लेखों में समानता नहीं होती और उसमें परिवर्तन आता रहता है क्योंकि मनुष्य की परिस्थितियों, ज्ञान और प्रकृति का प्रभाव पड़ता रहता है और इस प्रकार उसके सोचने और लिखने में विभिन्न प्रकार के अंतर और मतभेद आते ही रहते हैं परन्तु ईश्वर का कथन इन सब बातों से बहुत ऊपर है इसीलिए २३वर्षों में भी उसके विषयों और अन्दाज़ में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।
इस आयत से हमने सीखा कि उन लोगों के विपरीत, जो धर्म को ज्ञान व विचार का विरोधी बताते हैं यह आयत स्पष्ट रूप से सभी को क़ुरआन की आयतों पर विचार का निमंत्रण देती है ताकि इस प्रकार वे इस्लाम की सहायता को समझ सकें।
क़ुरआन हर काल व हर पीढ़ी के लिए समझने योग्य है और सभी ईमान वालों का कर्तव्य है कि उस पर विचार करें।
यदि लोग क़ुरआन के ध्रुव पर एकत्रित हो जायें तो हर प्रकार के मतभेद और विवाद समाप्त हो जायेंगे क्योंकि क़ुरआन में ऐसी कोई चीज़ नहीं जो मतभेद का कारण हो।
सूरए निसा; आयतें 83-85
और (मिथ्याचारियों की पद्धति यह है कि) जब भी उन्हें शांति या भय का समाचार मिलता है उसे फैला देते हैं जबकि यदि वे उसे पैग़म्बर या योग्य लोगों के पास ले जाएं तो वे लोग जो उसको जानने वाले हैं, उसकी वास्तविकता को समझ जाते हैं, और यदि तुम पर ईश्वर की कृपा न होती तो कुछ लोगों को छोड़कर तुम सब शैतान का अनुसरण करते। (4:83)
पिछली आयतों में पैग़म्बर व इस्लाम के आरंभिक काल के मुसलमानों के साथ मिथ्याचारियों के अनुचित व्यवहारों का वर्णन करने के पश्चात ईश्वर इस आयत में उनके एक अन्य व्यवहार का वर्णन करते हुए कहता है कि। अफ़वाहें फैलाना, विशेषकर युद्ध के समाचारों के बारे में जिनता बहुत महत्व होता है, मिथ्याचारियों की योजनाओं में से एक है। इस प्रकार की अफ़वाहें कभी लोगों के हृदयों में भय व आतंक उत्पन्न कर देती हैं तो कभी अनुचित रूप से उनके भीतर शांति व सुरक्षा की आशा जगा देती हैं।
इसके पश्चात ईश्वर शासकों के प्रति जनता के कर्तव्य के संबंध में एक मूल सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए कहता हैः समाज की व्यवस्था से संबंधित मामलों में जनता का कर्तव्य यह है कि वो इस प्रकार के समाचारों को नेताओं व शासकों तक पहुंचा दे ताकि वे उसका सही विश्लेषण करके लोगों को वास्तविक्ताओं से अवगत कराएं।
आगे चलकर आयत एक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए कहती हैः मिथ्याचारियों की यह पद्धति मनुष्य को कुफ़्र एवं शैतान के अनुसरण की ओर ले जाती है और यदि ईश्वर की कृपा तथा पैग़म्बरों व अन्य ईश्वरीय मार्गदर्शकों का मार्गदर्शन न होता तो अधिकांश लोगों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता था और वे समाज की कठिनाइयों में शैतानी उकसावों और शैतानी विचारों से ग्रस्त हो जाते।
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों के बीच अफ़वाहें फैलाना, मिथ्याचारियों का काम है। अतः उनकी ओर से सचेत रहना चाहिए।
सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समाचारों को नहीं फैलाना चाहिए बल्कि इस प्रकार के समाचारों को केवल शासक वर्ग तक सीमित रखना चाहिए।
केवल सोचने, समझने तथा चिंतन करने वाले लोग ही वास्तिविक्ता तक पहुंचते हैं तथा अन्य लोगों को उन्हीं से संपर्क करना चाहिए।
सूरए निसा की आयत नंबर 84
(हे पैग़म्बर!) ईश्वर के मार्ग में युद्ध करो और ईमान वालों को भी इस काम पर प्रोत्साहित करो। (परंतु यह जान लो कि) तुम केवल अपने कर्तव्यों के उत्तरदायी हो। आशा है कि ईश्वर काफ़िरों की शक्ति और सत्ता को रोक देगा और ईश्वर की शक्ति भी अधिक है और दंड भी। (4:84)
ऐतिहासिक किताबों में वर्णित है कि ओहोद के युद्ध में मुसलमानों की पराजय के पश्चात अबू सुफ़ियान ने उन पर आक्रमण की अगली तारीख़ निर्धारित की। निश्चित समय पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने मुसलमानों को आगे बढ़ने का आदेश दिया परंतु ओहद में होने वाली पराजय की कटु याद इस बात का कारण बनी कि अनेक लोग पैग़म्बर के आदेश की अवज्ञा करें। उसी समय यह आयत उतरी और पैग़म्बर को आदेश दिया गया कि यदि एक व्यक्ति भी तुम्हारे साथ न आए तब भी तुम पर युद्ध के लिए जाना आवश्यक है। अल्बत्ता तुम मुसलमानों को जेहाद का निमंत्रण देते रहो।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने भी ऐसा ही किया तथा बहुत कम लोग पैग़म्बर के साथ आगे बढ़े परंतु शत्रु निर्धारित समय पर युद्ध के लिए नहीं आया और युद्ध नहीं हुआ। इस प्रकार मुसलमानों को क्षति पहुंचाने से शत्रु को रोकने का ईश्वर का वचन पूरा हो गया।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों को कर्तव्य लोगों को धर्म और धार्मिक आदेशों की ओर बुलाना है न कि उन्हें इस कार्य के लिए विवश करना।
ख़तरे और झड़प के समय नेता को सदैव समाज का अगुवा होना चाहिए। यहां तक कि यदि वह अकेला रह जाए तब भी उसे संघर्ष नहीं छोड़ना चाहिए कि ऐसी स्थिति में उसे ईश्वरीय सहायता प्राप्त होगी।
हर कोई अपने काम का उत्तरदायी है। यहां तक कि पैग़म्बर भी लोगों के कामों के उत्तरदायी नहीं हैं बल्कि उन्हें केवल अपने कर्तव्यों का जवाब देना होगा।
ईश्वरीय शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है। बस शर्त यह है कि लोग अपने दायित्वों का पालन करें।
सूरए निसा की आयत नंबर 85
जो कोई भी भले कार्य के लिए मध्यस्थता और सिफ़ारिश करे उसे भी उसका एक भाग मिलेगा और जो कोई बुरे काम का साधन बने उसे भी उसके दंड का एक भाग मिलेगा और निःसंदेह ईश्वर हर चीज़ का हिसाब रखने वाला है। (4:85)
इस आयत में ईश्वर एक मूल क़ानून की ओर संकेत करते हुए कहता है न केवल पैग़म्बर बल्कि सभी लोगों पर दूसरों को भले कर्मों का निमंत्रण देने का दायित्व है और वह भी भले ढंग से। अल्बत्ता हर कोई केवल अपने कर्मों के प्रति उत्तरदायी है परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि लोग दूसरों और समाज की अच्छी-बुरी बातों की ओर से निश्चेत रहें। इस्लाम व्यक्तिवाद का धर्म नहीं है कि हर कोई केवल अपने विचार में रहे और दूसरों को बुराई से संघर्ष और सत्य का निमंत्रण देने की ओर से आंखें मूंदे रहे।
प्रत्येक दशा में भले कार्यों का आदेश देना और बुराइयों से रोकना प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है जिसका उसे अपने जीवन, परिवार, मुहल्ले, कार्यस्थल इत्यादि में पालन करना चाहिए।
पारितोषिक और दंड की दृष्टि से भी मनुष्य को न केवल यह कि अपने कर्मों का बदला मिलेगा बल्कि वह दूसरों के कर्मों में भी सहभागी है। यदि वह किसी भले काम का माध्यम बनेगा तो पारितोषिक का एक भाग उसे भी मिलेगा और यदि उसने किसी बुरे कर्म की भूमि समतल की तो उसके दंड में वो भी भागीदारी होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि दो व्यक्तियों के बीच मनमुटाव समाप्त कराना, समाज में भले कामों में सहयोग और सहायता करना तथा कुफ़्र के साथ युद्ध में मुसलमानों की सहायता करना, भली सिफ़ारिश के स्पष्ट उदाहरणों में से है जो प्रत्येक मुसलमान का कर्तव्य है।
समय व स्थान संबंधी सीमाओं के कारण मनुष्य स्वयं सभी भले कर्म नहीं कर सकता परंतु वह अच्छे कामों का माध्यम बन कर उनके पारितोषिक का कुछ भाग प्राप्त कर सकता है।