कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए आले इमरान 3:169-173--शहीद

सूरए आले इमरान की १६९वीं आयत की तिलावत सुनते हैं। और जो लोग ईश्वर के मार्ग में शहीद कर दिये गए उनको मरा हुआ मत समझो बल्कि वे जीवित हैं ...

सूरए आले इमरान की १६९वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।

और जो लोग ईश्वर के मार्ग में शहीद कर दिये गए उनको मरा हुआ मत समझो बल्कि वे जीवित हैं और अपने पालनहार के पास से आजीविका पा रहे हैं। (3:168)

 ओहद के युद्ध में सत्तर मुसलमानों की शहादत के पश्चात मदीने के मिथ्याचारियों ने शहीदों के परिजनों से मित्रता एवं सहानुभूति का ढोंग करते हुए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके साथियों को मुजाहिदों की मौत का कारण बताया। इस प्रकार वे अन्य मुसलमानों की भावनाओं को कमज़ोर बनाने में लग गए।
 दूसरी ओर मक्के के अनेकेश्वरवादियों के मुखिया अबू सुफ़ियान ने ओहद के युद्ध के पश्चात घोषणा की थी कि मुसलमानों के यह सत्तर मृतक, बद्र में मारे जाने वाले उसके सत्तर लोगों का बदला हैं।
 मिथ्याचारियों और अनेकेश्वरवादियों के इन प्रचारों के मुक़ाबले में ईश्वर ने यह आयत उतारी ताकि लोग यह न समझें कि मुसलमानों के शहीदों और अनेकेश्वरवादियों के मृतकों के बीच कोई भी अंतर नहीं है और दोनों ही केवल मरे हैं। इसी कारण पैग़म्बरे इस्लाम ने अबू सुफ़ियान के उत्तर में एक आध्यात्मिक बात का उल्लेख करते हुए कहा था कि हमारे शहीद स्वर्ग में जाएंगे जबकि तुम्हारे मृतक नरक में।
 पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके परिजनों के कथनों में आया है कि हर भलाई से ऊपर एक भलाई है सिवाए शहादत के। जब कोई व्यक्ति शहीद होता है तो फिर उससे बड़ी भलाई की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी कारण सभी पैग़म्बर व अन्य भले लोग अपनी प्रार्थनाओं में ईश्वर से शहादत की कामना करते थे और उनमें से बहुत से लोग शहीद भी हुए।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि शहीद के बारे में मरने या फिर घाटा उठाने का विचार, एक भ्रष्ट विचार है। शहादत, हारना या फिर घाटा उठाना नहीं है बल्कि जीतने और लाभ उठाने के समान है।
 शहादत, शहीद के जीवन का अंत नहीं है बल्कि उसके एक ईश्वरीय जीवन का आरंभ है। कितने ऐसे जीवित लोग हैं जो वास्तव में मरे हुए हैं और कितने ही एसे मरे हुए लोग हैं जो जीवित हैं। जिस प्रकार से एक अंधा व्यक्ति दृष्टि एवं नेत्र को नहीं समझ सकता ठीक उसी प्रकार से हम लोग भी परलोक और वहां के जीवन को नहीं समझ पाते हैं।



सूरए आले इमरान की १७०वीं और १७१वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं।
शहीद, जो कुछ ईश्वर ने उन्हें अपनी कृपा से दिया है उससे प्रसन्न होते हैं और जो लोग अभी उनसे नहीं जुड़े हैं वे उन्हें शुभ सूचना देते हैं कि न उनके लिए भय है और न ही वे दुखी होंगे। (3:170) वे उन्हें ईश्वरीय अनुकंपा और कृपा की शुभसूचना देते हैं और निःसन्देह, ईश्वर ईमान वालों के बदले को व्यर्थ जाने नहीं देगा। (3:171)

 इन आयतों में क़ुरआने मजीद शहादत के दर्जे पर पहुंचने से शहीदों की प्रसन्नता का उल्लेख करते हुए कहता है कि वे न केवल यह कि ईश्वर के मार्ग में शहीद होने से संतुष्ट हैं बल्कि वे अपने मित्रों और अन्य मोमिनों को भी इस उच्च स्थान तक आने का निमंत्रण देते हैं। वे उन्हें शुभ सूचना देते हैं कि उन्हें कोई भी भय या ख़तरा नहीं है बल्कि उन्हें ईश्वर की दया प्राप्त है।
 इन आयतों के आधार पर मृत्यु के पश्चात शहीदों का जीवन एक वास्तविक जीवन है जिसमें उन्हें आजीविका प्राप्त होती रहती है। ऐसा नहीं है कि शहीद के जीवित रहने का अर्थ केवल इतिहास में उसका भला नाम बाक़ी रहना है।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि शहीदों का संदेश ईश्वर के मार्ग में शहीद होने तक आगे बढ़ते रहना है। ऐसी शहादत जो भविष्य के बारे में हर प्रकार के भय और अतीत से संबन्धित हर प्रकार के दुख को समाप्त कर दे।
 शहीद, शहादत और उसके कारण उसे जो कुछ मिला है सबको ईश्वर की कृपा समझता है न कि अपने कर्मों और रणक्षेत्र में बहाए गए अपने ख़ून का बदला।



 सूरए आले इमरान १७२वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
वे ऐसे लोग हैं जिन्होंने घाव लगने के बावजूद ईश्वर और उसके पैग़म्बर का निमंत्रण स्वीकार किया और रणक्षेत्र में दुबारा जाने के लिए तैयार हो गए। उनमें से भलाई करने वालों तथा ईश्वर से डरने वालों के लिए बड़ा बदला है। (3:172)

इस संबन्ध में इतिहास में वर्णित है कि क़ुरैश के काफ़िर ओहद के युद्ध में विजयी होन के पश्चात मक्के की ओर वापस लौटने लगे परन्तु मार्ग में उन्होंने सोचा कि अब जबकि हमने मुसलमानों को पराजित कर दिया है और उनकी सैनिक शक्ति समाप्त हो गई है तो यह बड़ा अच्छा अवसर है कि हम मदीना नगर पर आक्रमण करके बचे हुए मुसलमानों को भी समाप्त कर दें ताकि इस्लाम मिट जाए। शत्रुओं के पुनः आक्रमण की सूचना पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तक पहुंच गई अतः आपने सभी को युद्ध के लिए तैयार होने का आदेश दिया। यहां तक कि आपने ओहद के युद्ध में घायल होने वालों को भी तैयार होने का आदेश दिया।
अबू सुफ़ियान को जब मुसलमानों के युद्ध के लिए तैयार होने की सूचना मिली तो उसने सोचा कि मुसलमनों ने अब नए और जोशीले लोगों की एक सेना बनाई है ताकि, उनकी विजय को पराजय में बदल दें। इसी कारण उसने मदीने पर आक्रमण का इरादा बदल दिया और मक्के वापस चला गया।
यद्यपि शत्रु ने पुनः आक्रमण नहीं किया परन्तु क़ुरआने मजीद उन घायलों की सराहना करते हुए, जो युद्ध के लिए तैयार हुए, कहता है कि ऐसे लोगों के लिए प्रलय में बड़ा बदला है।
इन आयतों से हमने यह सीखा है कि महत्वपूर्ण बात, आपने कर्तव्य के पालन के लिए तैयार रहना है, चाहे व्यवहारिक रूप से कोई काम न हो सके। इसी प्रकार यदि कोई काम अनिच्छा और बिना तत्परता के किया जाए तो उसका कोई मूल्य नहीं होगा।
यदि ईश्वर से भय और पवित्रता के बिना कोई रणक्षेत्र में जाए तो उसका महत्व नहीं है।



सूरए आले इमरान की १७३वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
वास्तविक ईमान वाले वे लोग हैं कि जब उनसे लोगों ने कहा कि काफ़िर तुम्हारी तबाही के लिए एकत्रित हो गए हैं अतः उनसे डरो तो (भय के स्थान पर) उनके ईमान में वृद्धि हुई और उन्होंने कहा, ईश्वर हमारे लिए पर्याप्त है और वही सबसे अच्छा सहायक और अभिभावक है। (3:173)

 इस्लामी समाज और विशेषकर आम जनता को जो महत्वपूर्ण ख़तरे लगे रहते हैं उनमें से एक शत्रु को बड़ा और स्वयं को छोटा समझना है। प्रायः शत्रु के मुक़ाबले में इस प्रकार का भय व भ्रम इस बात का कारण बनता है कि मनुष्य, शत्रु के षडयंत्रों का मुक़ाबला करने के लिए तैयार न हो और न केवल यह कि स्वयं रणक्षेत्र में न जाए बल्कि भय का वातावरण उत्पन्न करके अन्य लोगों को भी रणक्षेत्र में जाने से रोक दे। परन्तु इस आयत में ईश्वर कहता है कि वास्तविक ईमान वाले वे लोग हैं जो इस प्रकार के प्रचारों से कदापि प्रभावित नहीं होते बल्कि इसके विपरीत जब से शत्रु के एकत्रित होने का समाचा सुनते हैं तो जेहाद के शौक़ में उनके ईमान वृद्धि होने लगती है। ऐसे लोग शत्रु से डरने के स्थान पर केवल ईश्वर पर ही भरोसा करते हैं, जिसके साथ में सारी शक्तियां हैं और वह ईश्वर को अपने लिए पर्याप्त समझते हैं।
 इस आयत से हमने सीखा कि युद्ध के समय शत्रु द्वारा भेजे गए लोगों तथा उनके भय उत्पन्न करने वाले प्रचारों की ओर से सचेत रहना चाहिए।
 शत्रु चाहे जितना भी बड़ा व शक्तिशाली हो, परन्तु ईश्वर की शक्ति उससे अधिक है, अतः शत्रु से डरने के स्थान पर ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए।
 अपनी समस्त कठिनाइयों और कुछ घटनाओं के बावजूद, युद्ध के कुछ पवित्र परिणाम भी हैं, जैसे योद्धाओं के ईमान में वृद्धि आदि।

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