कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए आले इमरान 3:132-148

आइए पहले सूरए आले इमरान की १३२वीं और १३३वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं। हे ईमान वालो! ईश्वर और उसके पैग़म्बर का आज्ञापालन को ताकि तुम पर दय...

आइए पहले सूरए आले इमरान की १३२वीं और १३३वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं।
हे ईमान वालो! ईश्वर और उसके पैग़म्बर का आज्ञापालन को ताकि तुम पर दया हो। (3:132) और अपने पालनहार की क्षमा और स्वर्ग की ओर तेज़ी से बढ़ो, ऐसा स्वर्ग जो आकाशों और धरती जितना बड़ा है और जो ईश्वर से डरने वालों के लिए तैयार किया गया है। (3:133)


 ओहद के युद्ध और ब्याज खाने के विषय पर पिछली आयतों में चर्चा करने के पश्चात, इन आयतों में मुसलमानों को दो बातों की सिफ़ारिश की गई है। एक ईश्वर और उसके पैग़म्बर के आदेशों का पूर्ण पालन जो ईश्वरीय दया व सहायता की शर्त है। ओहद में मुसलमानों की पराजय का कारण, पैग़म्बरे इस्लाम के आदेशों की अवहेलना थी।
 दूसरी सिफ़ारिश, भले कर्मों और अन्य लोगों को लाभ पहुंचाने में आगे रहना और जल्दी करना कि जो पापों के क्षमा होने और स्वर्ग मे जाने का कारण बनता है। ओहद में जो बात मुसलमानों की पराजय का कारण बनी वह शत्रु द्वारा भागते समय छोड़ी गई वस्तुओं को एकत्रित करने में तेज़ी दिखाना था। और जो बात बाज़ार में ब्याज की भूमि समतल करती है वह पूंजी व संपत्ति एकत्रित करने में दूसरों से आगे बढ़ने का प्रयास है। परन्तु क़ुरआन ईमान वालों को ईश्वरीय दया व क्षमा कमाने में तेज़ी दिखाने का निमंत्रण देता है जो स्वर्ग में जाने की भूमिका है। ऐसा स्वर्ग जो आकाशों, धरती और जो कुछ उसमें है, सबको अपने में समेट लेगा और उसमें जाने की शर्त, पापों से बचना है।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि ईश्वर की दया का पात्र वह बनता है जो कमज़ोर और निर्धनों पर दया करे और उन्हें ऋण देकर ब्याज न ले।
 मोमिन को किसी बात या एक स्थान पर ठहर जाना नहीं चाहिए बल्कि उसे अपनी प्रगति एवं दूसरों से आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। अलबत्ता केवल भले कामों के लिए।

 सूरए आले इमरान की १३४वीं आयत |
ईश्वर से डरने वाले वे लोग हैं जो अमीरी और ग़रीबी में दान-दक्षिणा करते हैं तथा (क्रोध के समय) अपने क्रोध को पी जाते हैं और लोगों के दायित्वों को क्षमा कर देते हैं और निःसन्देह, ईश्वर भलाई करने वालों को पसंद करता है। (3:134)
 पिछली आयत में ईमान वालों को ईश्वरीय क्षमा की ओर बुलाने के पश्चात यह आयत क्षमा के साधनों का वर्णन करती है। यद्यपि लोगों की ग़ल्तियों को क्षमा करना तथा क्रोध एवं द्वेष से बचना, ईश्वर से डरने वालों की महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं परन्तु ईश्वर ने क्षमाके कारकों के रूप में इससे पूर्व धन व संपत्ति में से दान-दक्षिणा तथा वंचितों को सहायता का उल्लेख किया है।
 आम लोगों की कल्पना यह है कि केवल धनवान ही दान-दक्षिणा कर सकते हैं जबकि अधिक धन, कंजूसी व लालच की भावना को बढ़ाता है न कि दान और दक्षिणा और भलाई की भावना को अतः अमीरी में भी वही व्यक्ति दूसरों की सहायता के विचार में रहेगा जिसने ग़रीबी में अपनी क्षमता के अनुसार उनकी सहायता की हो। इसीलिए यह आयत कहती है कि वास्तविक ईमान वाले हर स्थिति में दान-दक्षिणा करते हैं चाहे उनके पास धन हो या न हो।
 इस आयत से हमने सीखा कि दान-दक्षिणा के लिए धन नहीं बल्कि उदारता की आवश्यकता होती है। कितने धनवान है जो कंजूस हैं जबकि कितने दरिद्र ऐसे भी है जो दानी व उदार हैं।
 ईश्वर से डरने वाला, समाज से अलग-थलग एक कोने में नहीं रहता बल्कि सक्रिय रूप से समाज में उपस्थित रहता है। वह अपने धन तथा शिष्टाचार के साथ लोगों से मेल-जोल रखता है।
 जो कोई ही ईश्वर की दृष्टि में प्रिय बनना चाहता है उसे ईश्वर के मार्ग में धन भी लुटाना चाहिए और अपने हृदय को दूसरों के प्रति क्रोध और द्वेष से भी खाली रखता है।



सूरए आले इमरान की १३५वीं आयत  ।
(ईश्वर से डरने वाले वे लोग हैं) जो जब भी कोई बुरा कार्य करते हैं या (वास्तव में) स्वयं पर अत्याचार करते हैं तो ईश्वर को याद करते हैं और अपने पापों के लिए ईश्वर से क्षमा चाहते हैं और ईश्वर के अतिरिक्त कौन उनके पापों को क्षमा करता है? और वे लोग जिसकी बुराई को वे जानते हैं उस पर आग्रह नहीं करते। (3:135)
 कुछ लोग यह सोचते हैं कि मोमिन वह व्यक्ति है जो कभी भी कोई पाप या ग़लती नहीं करता जबकि यह आयत कहती है कि ईश्वर से डरने वाले लोग ग़लती कर सकते हैं अर्थात स्वयं अपने आप पर अत्याचार कर सकते हैं परन्तु उनमें और अन्य लोगों में दो बातों का अंतर होता है।
 प्रथम यह कि उनके ग़लत कार्यों को दोहराते नहीं और जैसे ही उन्हें अपनी ग़लती का आभास होता है वे उसे छोड़ देते हैं। दूसरे यह कि वे यथाशीघ्र तौबा अर्थात प्रायश्चित कर लेते हैं और ईश्वर से क्षमा याचना करते हैं क्योंकि वे कहते हैं कि ईश्वर, क्षमा करने वाला है और वह पापी की तौबा को स्वीकार कर लेता है।
 इस आधार पर जान बूझ कर और योजनाबद्ध पाप करने वाले तथा आंतरिक इच्छाओं व शैतान के बहकावे के कारण न चाहते हुए भी पाप करने वाले के बीच अंतर है। दूसरा व्यक्ति पाप को समझने के पश्चात लज्जित होता है और ईश्वर से वह फिर पाप न करने की प्रतिज्ञा करता है।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि ईश्वर से डरने का अर्थ पाप न करना नहीं है बल्कि पाप का प्रायश्चित करना और उसे फिर न करने का दृढ़ संकल्प करना है।
 पाप से अधिक ख़तरनाक, पाप की बुराई से निश्चेतता है। मनुष्य पाप को यदि बुरा न समझे तो फिर वह प्रायश्चित का विचार ही नहीं करेगा।
 पाप करना, ईश्वर द्वारा मानव शरीर में फूंकी गई ईश्वरीय आत्मा पर सबसे बड़ा अत्याचार है।


 सूरए आले इमरान की १३६वीं आयत ।
ईश्वर से डरने वाले एसे लोगों का बदला उनके पालनहार की ओर से क्षमा और (स्वर्ग के) बाग़ हैं जिसके पेड़ों के नीचे नहरें बह रही हैं जिसमें में अनंत काल तक रहेंगे और (ईश्वर के आदेशों का) पालन करने वालों का बदला कितना भला है। (3:136)
 सूरए आले इमरान की १३३वीं आयत में ईमान वालों को ईश्वरीय क्षमा और स्वर्ग की प्राप्ति में दूसरों से आगे बढ़ने की सिफ़ारिश की गई थी और १३४वीं तथा १३५वीं आयतों में दान दक्षिणा, उदारता, क्षमा और पापों के प्रायश्चि को इसका साधन बताया गया था। इस आयत में पुनः उसी बात पर बल देकर यह कहा गया है कि केवल ईश्वर से डरने वालों को ही ईश्वर की दया और क्षमा प्राप्त होगी और पापों के क्षमा किये जाने और बुराइयों से पवित्र होने के पश्चात उनके स्वर्ग में जाने की भूमि प्रशस्त हो जाएगी और वे ईश्वरीय विभूतियों और अनुकंपाओं में डूब जाएंगे। वह स्वर्ग एसा है जिसका कोई समय और स्थान नहीं है। उसका क्षेत्रफल असीम और उसकी अवधि अनंत है।
 रोचक बात यह है कि इन आयतों का अंत "मुत्तक़ीन" अर्थात ईश्वर से डरने वाले, "मोहसेनीन" अर्थात भले कर्म करने वाले और "आमेलीन" अर्थात आदेश का पालन करने वाले जैसे शब्दों से हुआ है जो इस बात का परिचायक है कि ईश्वर से डर, केवल एक आंतरिक स्थिति नहीं है जो समाज से अलग-थलग रहने का कारण बने बल्कि ईश्वर से भय के लिए भले कर्म करना भी आवश्यक है।
 इस आयत से हमने सीखा कि केवल आशाओं द्वारा ईश्वरीय कृपा को प्राप्त नहीं किया जा सकता बल्कि इसके लिए कर्म आवश्यक है और वह भी भले उद्देश्य से किया गया भला कर्म।
 जबतक मनुष्य, पापों से पवित्र नहीं हो जाता, उसमें स्वर्ग के भले व पवित्र लोगों के बीच उपस्थित होने की क्षमता नहीं होगी।

सूरए आले इमरान की १३७वीं और १३८वीं आयत।
(हे मुसलमानो!) तुमसे पहले भी बहुत सी जातियां आईं और (उनके बारे में) ईश्वरीय परंपराएं मौजूद थीं, तो धरती में घूमो-फिरो और देखो कि (ईश्वरीय आदेशों को) झुठलाने वालों का अंत कैसा हुआ? (3:137) यह आयतें सभी लोगों के लिए स्पष्ट बयान हैं (परन्तु) केवल ईश्वर से डरने वालों के लिए मार्गदर्शन व शिक्षा सामग्री हैं। (3:138)



 मनुष्य के मार्गदर्शन व प्रशिक्षण के लिए क़ुरआन की एक पद्धति, उसे इतिहास व अतीत ही घटनाओं पर ध्यान देने के लिए प्रेरित करना है। संसार केवल वर्तमान समय में सीमित नहीं है। हमसे पहले ही असंख्य लोग आ चुके हैं। उन्होंने भी इसी संसार में जीवन व्यतीत किया और फिर चले गए। उनके इतिहास और उनके अंत की पहचान, वर्तमान समय के लोगों के लिए सबसे अच्छी शिक्षा सामग्री है क्योंकि संसार की व्यवस्था ईश्वर के ठोस व स्थिर क़ानूनों और परंपराओं के आधार पर चलती है और इन परंपराओं की पहचान, मानव इतहास से अवगत हुए बिना संभव ही नहीं है।
 इसी कारण क़ुरआन हमको धरती में घूमने-फिरने और बीते हुए लोगों के इतिहास के अध्धयन का निमंत्रण देता है ताकि भले और बुरे लोगों के अंत पर ध्यान देकर हम जीवन के सही मार्ग का चयन कर सकें और दूसरों के कटु अनुभवों को फिर न दोहराएं।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि इस्लाम बीती हुई सभ्यताओं के बचे हुए व ऐतिहासिक स्थलों को देखने पर बल देता है परन्तु शर्त यह है कि इससे शिक्षा ली जाए और उस सभ्यता के बारे में विचार-विमर्श किया जाए।
 इतिहास में सम्मान या अनादर के कारक एक समान रहे हैं और उन कारकों की पहचान हमारे आजके जीवन के लिए आवश्यक है।
 पवित्र क़ुरआन यद्यपि सभी लोगों के मार्गदर्शन के लिए आया है परन्तु केवल पवित्र लोग ही उसकी बातों को स्वीकार करते हैं और मार्गदर्शन पाते हैं।



 सूरए आले इमरान की १३९वीं आयत ।
और न सुस्त पड़ो और न ही दुखी हो कि तुम दूसरों से श्रेष्ठ हो, यदि तुम ईमान वाले हो। (3:139)

 ओहद के युद्ध में मुसलमानों की पराजय के पश्चात उनका सारा जोश ठंडा पड़ गया और वे निराशा का शिकार हो गए। यह आयत उन्हें सांत्वना देते हुए कहती है कि एक पराजय के पश्चात वह भी जो अपने ही सेनापति की अवज्ञा के कारण थी, तुम लोग कदापि निराश मत हो, बल्कि इसके स्थान पर अपने ईमान को मज़बूत बनाते रहो कि अंतिम विजय तुम्हारी ही होगी।
 पिछली आयतों में अतीत के लोगों के इतिहास में ईश्वरीय परंपराओं पर ध्यान देने की सिफ़ारिश की गई थी, और यह आयत उन्हीं में से एक परंपरा की ओर, जिसे मुसलमानों ने स्वयं अपनी आंखों से देखा है, संकेत करते हुए कहती है कि किसी भी राष्ट्र के सम्मान, गौरव व विजय का सबसे महत्वपूर्ण कारक, ईश्वर पर भरोसा और ईश्वरीय प्रतिनिधियों का आज्ञापालन है। जैसा कि ईश्वर ने उसके दूतों की अवज्ञा, पतन और पराजय का कारण है और तुमने ओहद के युद्ध में इस ईश्वरीय परंपरा को देखा है।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि ईश्वर पर ईमान न केवल प्रलय में गर्व व सम्मान का कारण है बल्कि संसार में भी अन्य सभी जातियों व सभ्यताओं पर विजय व श्रेष्ठता का कारण है।
 पराजय की पीछे हटने या ढ़ीले पड़ने का कारण नहीं अपितु अगली कार्यवाहियों के लिए शिक्षा सामग्री बनाना चाहिए।



सूरए आले इमरान की १४०वीं और १४१वीं आयत।
(हे मुसलमानो! शत्रु के साथ युद्ध में) यदि तुम्हें कोई घाव लग जाए तो निश्चित रूप से तुम्हारे सामने वाले गुट को भी ऐसा ही घाव लगा है। इन दिनों को हम लोगों के बीच घुमाते हैं ताकि ईश्वर ईमान लाने वालों को पहचान ले और तुम्हारे बीच से गवाह चुन ले और निःसन्देह, ईश्वर अत्याचारियों को पसंद नहीं करता। (3:140) और (यह युद्ध की ऊंच-नीच इसलिए है कि) ईश्वर ईमान वालों को पवित्र व शुद्ध बनाए और काफ़िरों को धीरे-धीरे समाप्त कर दे। (3:141)
 इन आयतों में ईश्वर की एक अन्य परंपरा की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि संसार किसी के लिए भी सदैव एक समान व स्थिर नहीं रहता। सफलता के पश्चात कटु घटनाएं भी आती हैं। विजय के साथ ही पराजय का भी असित्तव है। यह सारी ऊंचनीच इसलिए है कि लोगों की योग्यताएं स्पष्ट हों और वास्तविक ईमान वाले, काफ़िरों से अलग हो जाएं तथा एसे पवित्र लोग प्रकट हों जिनका अस्तित्व दूसरों के लिए आदेश बन जाए कि संसार में पवित्रता के साथ जिया और मरा जा सकता है।
 यह आयतें मुसलमानों को सांत्वना देती हैं कि यदि आज तुम्हें ओहद के युद्ध में पराजय हुई है तो क्या हुआ, कल तुम्हें बद्र के युद्ध में विजय प्राप्त हो चुकी है। आज यदि तुम घायल हुए हो तो तुम्हारे शत्रु को भी घाव लगे हैं अतः इस बात को भलि भांति समझ लो कि कटु घटनाएं केवल तुम्हारे लिए नहीं हैं और दूसरी बात यह है कि इस प्रकार की घटनाएं स्थाई नहीं होतीं। तो तुम संयम और धैर्य से काम लो कि अंततः विजय तुम्हारी ही होगी।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि युद्ध जैसी कटु घटनाओं में लोगों की परीक्षा लेना, पूरे इतिहास में ईश्वर की एक स्थायी परंपरा रही है।
 काफ़िरों की विजय, ईश्वर द्वारा उनसे प्रेम की निशानी नहीं है बल्कि यह ईश्वरीय परीक्षा के लिए आवश्यक है।
 युद्ध, पवित्र व ईमान वाले लोगों की पहचान की कसौटी है और इसमें मोमिन को कदापि पराजय नहीं होती क्योंकि शहादत भी उसके लिए सफलता ही है।



 सूरए इमरान की १४२वीं आयत ।
क्या तुमने यह सोचा था कि (ईमान का दावा करके) स्वर्ग में प्रविष्ट हो जाओगे जबकि अभी ईश्वर ने तुम्हारे बीच से जेहाद करने वालों तथा संयम बरतने वालों को अलग ही नहीं किया है। (3:142)
 पिछली आयतों की भांति यह आयत भी इस बात पर बल देती है कि धर्म और मुसलमानों के सम्मान की रक्षा के लिए युद्ध व जेहाद के मैदान में उपस्थित होना ईमान की शर्त है और यह नहीं सोचना चाहिए कि केवल ज़बान से ईमान व्यक्त करके बल्कि नमाज़ पढ़ कर या रोज़े रखकर हम स्वर्ग में चले जाएंगे क्योंकि रणक्षेत्र में यह बात स्पष्ट होती है कि कौन वास्तविक ईमान वाला है और दृढ़ता के साथ लड़ने के लिए तैयार है और कौन केवल ज़बान से ईमान लाया है और यह ईमान उसके हृदय तक नहीं पहुंचा है।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि बेकार की आशाओं से सदैव ही दूर रहना चाहिए क्योंकि यह घमण्ड और कर्म व व्यवहार में रुकावट का कारण बनती हैं।
 स्वर्ग को बहाने से नहीं बल्कि मूल्य से दिया जाएगा। स्वर्ग का मूल्य कर्म है न कि ईमान का बहाना।
 संयम और जेहाद का क्षेत्र केवल रणक्षेत्र नहीं है बल्कि मोमिन सदैव ही शैतान व अपनी आंतरिक इच्छओं से संघर्ष करता रहता है और ईश्वरीय आदेशों के पालन में संयम बरतता रहता है।

सूरए आले इमरान; आयतें १४३-१४८
और (हे ओहद के योद्धाओ!) शत्रु से आमना-सामना होने से पूर्व तुम मृत्यु (और ईश्वर के मार्ग में शहादत) की मनोकामना रखते थे तो जब तुमने उसे देखा तो (क्यों) उसपर अप्रसन्नता की दृष्टि डाली? (3:143)
 बद्र के युद्ध में, जिसमें मुसलमानों को विजय प्राप्त हुई और कुछ लोग शहीद हुए, कुछ मुसलमानों ने कहा था कि काश हम भी बद्र के युद्ध में शहीद हो जाते। परन्तु इन्हीं लोगों ने जब ओहद के युद्ध में पराजय के लक्षण देखे तो वे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को छोड़कर भागने लगे थे। यह आयत इस प्रकार के लोगों की आलोचना करते हुए कहती है कि रणक्षेत्र में जब जान देने का समय आया तो तुम लोग क्यों केवल देखते रहे और ईश्वर के धर्म और उसके पैग़म्बर का तुमने समर्थन नहीं किया?
 इस आयत से हमने सीखा कि अपनी आशाओं और इच्छाओं से धोखा नहीं खाना चाहिए क्योंकि हमें ज्ञात नहीं है कि कर्म और व्यवहार के मैदान में हम ईश्वरीय परीक्षा में खरे उतरेंगे या नहीं?
 ईमान का दावा करने वाले तो बहुत हैं किंतु ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो अपनी जान देने के लिए तो तैयार हों किंतु ईमान छोड़ने के लिए तैयार न हों।




 सूरए आले इमरान की १४४वीं आयत
और मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) पैग़म्बर के अतरिक्त कुछ नहीं हैं। उनसे पहले भी दूसरे पैग़म्बर (आकर) जा चुके हैं। तो क्या यदि वे मर जाएं या उनकी हत्या कर दी जाए तो तुम पूर्वजों के धर्म पर पलट जाओगे? (जान लो कि) जो भी पीछे की ओर पलटे वह ईश्वर को कोई हानि नहीं पहुंचाता और शीघ्र ही ईश्वर कृतज्ञ लोगों को भला बदला देगा। (3:144)
 ओहद के युद्ध में जो घटनाएं घटीं उनमें से एक, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की शहादत की अफ़वाह थी। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के माथे और चेहरे से बहने वाला रक्त, इस प्रकार था कि एक शत्रु ने चिल्लाकर कहा कि मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम मारे गए। यह अफ़वाह एक ओर तो शत्रुओं की प्रसन्नता और और उनके जोश में वृद्धि का कारण बनी और दूसरी और मुसलमानों के पीछे हटने और उनके भागने का भी कारण बन गई। अलबत्ता मुसलमानों में कुछ लोग एसे भी थे जो चिल्ला-चिल्ला कर यह कह रहे थे कि यदि मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम नहीं भी हैं तो उनका मार्ग और ईश्वर तो जीवित है, तुम लोग क्यों भाग रहे हो?
 यह आयत मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है कि तुम्हारे पैग़म्बर से पूर्व भी बहुत से पैग़म्बर आए थे परन्तु क्या उनकी मृत्यु के पश्चात उनके अनुयायी अपने धर्म से पलट गए तो फिर तुम क्यों इस अफवाह के पश्चात इतनी जल्दी डगमगा गए और भागने लगे? जबकि पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम जीवित हैं और यह शत्रु की ओर से उड़ाई गई एक अफ़वाह कि अतिरिक्त कुछ और नहीं है। क्या पैग़म्बर के असित्तव के प्रति कृतज्ञता यही है कि तुम इतनी सरलता के साथ पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके धर्म को छोड़ दो?
 इस आयत से हमने सीखा कि दूसरे लोगों की भांति ही पैग़म्बर भी जीवन व मृत्यु के मामले में प्रकृति के क़ानून के अधीन हैं। उनसे अनंत जीवन की आशा नहीं रखनी चाहिए।
 पैग़म्बर की आयु सीमित है परन्तु उनका मार्ग सीमित नहीं है। हम ईश्वर को मानते हैं न कि व्यक्ति विशेष को, कि पैग़म्बर की मृत्यु या शहादत के पश्चात इस्लाम धर्म को छोड़ दें।
 धर्म की ओर से लोगों के मुंह मोड़ लेने से, ईश्वर और उसके धर्म को कोई हानि नहीं पहुंचती है क्योंकि उसे तो स्वयं लोगों की हो कोई आवश्यकता नहीं है तो फिर उनके थोड़े से कर्मों या उपासना की बात ही छोड़ दीजिए।
 अपने ईमान को हम इतना सुदृढ़ बना लें कि पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम जैसी महान हस्ती के जाने के बाद भी उसमें कोई कमज़ोरी न आने पाए।



सूरए आले इमरान की १४५वीं आयत
और कोई भी ईश्वर के आदेश के बिना नहीं मरता। यह एक निर्धारित भविष्य है और जो कोई संसार का बदला चाहे तो हम उसे उसमें से देते हैं और जो कोई प्रलय का बदला चाहे तो हम उसे उसमें से देते हैं। और हम शीघ्र ही कृतज्ञों को भला बदला देंगे। (3:145)
 युद्ध से भागने का एक सबसे बड़ा बहाना, मौत के भय से अपनी जान बचानी है। यह आयत कहती है कि तुम्हारी मृत्यु तो ईश्वर के हाथ में है जिसका समय निर्धारित है। कितने एसे बूढ़े हैं जो युद्ध के लिए गए और युद्ध के पश्चात सुरक्षित लौट आए और कितने एसे युवा हैं जो पीठ दिखाकर युद्ध से भाग आए किंतु रणक्षेत्र के बाहर किसी दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई।
 इसके पश्चात क़ुरआन युद्ध में भाग लेने वालों की भावनाओं की ओर संकेत करते हुए कहता है कि कुछ लोग धन और माल एकत्रित करने के उद्देश्य से युद्ध में भाग लेते हैं तो उनका उद्देश्य भी पूरा हो जाता है और कुछ लोग ईश्वर के लिए तथा प्रलय में अपना बदला पाने हेतु या शहीद होने के लिए युद्ध में भाग लेते हैं तो उनकी इच्छा भी पूरी हो जाती है।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि युद्ध से भागकर मृत्यु से छुटकारा नहीं मिल सकता। रणक्षेत्र में जाने वाला हर व्यक्ति नहीं मरता और घर में बैठे रहने वाला हर व्यक्ति जीवित नहीं बचता।
 मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है परन्तु कर्मों की भावना तो हमारे हमारे हाथ में है। अपने कार्यों में नश्वर संसार को लक्ष्य बनाना चाहिए कि मृत्यु जिसका अंत आरंभ है न कि अंत।



आइए अब सूरए आले इमरान की १४६वीं, १४७वीं और १४८वीं आयत।
और ऐसे कितने अधिक पैग़म्बर थे जिनके ढेरों दृढ़ संकल्प वाले अनुयाई थे जो उनके साथ रणक्षेत्र में जाते थे परन्तु वे कदापि ईश्वर के मार्ग में उनपर पड़ने वाली कठिनाइयों के कारण न तो ढीले पड़ते न कमज़ोर होते थे और न शत्रु के समक्ष झुकते थे और ईश्वर धैर्यवानों को पसंद करता है। (3:146) और उनका कथन इसके अतिरिक्त कुछ नहीं होता था कि हे प्रभुवर हमारे पापों को और हमारे कर्मों में हमारे अतिवाद को क्षमा कर दे। हमारे क़दमों को मज़बूत रख तथा काफ़िरों पर हमें विजय दिला। (3:147) तो ईश्वर ने उन्हें संसार का प्रतिफल और प्रलय का भला बदला दिया। और ईश्वर भले लोगों को पसंद करता है। (3:148)
 पिछली आयतों में ओहद के युद्ध में मुसलमानों की सुस्ती, अवज्ञा तथा युद्ध से उनके भागने की आलोचना के पश्चात ईश्वर इन आयतों में पिछले पैग़म्बरों के इतिहास की ओर संकेत करते हुए कहता है कि तुमसे पहले भी बहुत से पैग़म्बर थे जिन्होंने ईश्वर के मार्ग में युद्ध किया। उनके अनेक निष्ठापूर्ण, ईमान वाले तथा दृढ़ संकल्प अनुयायी थे जिन्होंने युद्ध की कठिनाइयों और घायल होने बाद भी कदापि ईश्वर का धर्म नहीं छोड़ा और अपनी ओर से कोई कमज़ोरी नहीं दिखाई। तुम मुसलमान उनका अनुसरण क्यों नही करते? तुमने क्यों रणक्षेत्र में शत्रु के बीच पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को अकेले छोड़ दिया?
 इसके पश्चात क़ुरआने मजीद, ईश्वर के मार्ग में लड़ने वालों की सबसे अधिक महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक का उल्लेख करते हुए कहता है कि इतने अधिक युद्ध और प्रयास के बावजूद वे कदापि ईश्वर से प्रार्थना करना नहीं भूलते थे और उससे अपने पापों को क्षमा करने के अनुरोध के साथ सत्य की विजय और कुफ़्र की समाप्ति की प्रार्थना करते थे। ईश्वर ही उनकी प्रार्थनाओं को स्वीकार करता था और उन्हें काफ़िरों के मुक़ाबले में विजयी बनाता था और इस प्रकार युद्ध में शत्रु द्वारा छोड़े गए माल से भौतिक आराम भी प्राप्त हो जाता था और वे प्रलय के भले बदले के भी पात्र बन जाते थे।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि इतिहास के साहसी लोगों और सत्य के मार्ग में उनके संकल्प से हमें पाठ सीखना चाहिए और स्वयं से सुस्ती व कमज़ोरी को दूर करना चाहिए।
 ईश्वर पर ईमान व भरोसा, रणक्षेत्र में प्रतिरोध व साहस का स्रोत है।
 पैग़म्बरों का पूरा इतिहास, संघर्ष और प्रयासों से भरा हुआ है न कि सुख व चैन से भरे जीवन से।
 कर्तव्य के पालन में प्रतिरोध और दायित्व पूरा करना महत्वपूर्ण होता है हमें चाहे विजय प्राप्त हो या पराजय।
 रणक्षेत्र में पराजय का एक कारण पाप व अतिवाद है अतः निष्ठावान योद्घाओं को ईश्वर से क्षमा चाहते हुए विजय की इन बाधाओं को दूर करना चाहिए।

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