कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2:35-43, हजरत आदम की कहानी |

सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ३५ इस प्रकार है। और हमने कहा हे आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी इस बाग़ अर्थात स्वर्ग में रहो तथा इसके असंख्य और स...

सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ३५ इस प्रकार है।

और हमने कहा हे आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी इस बाग़ अर्थात स्वर्ग में रहो तथा इसके असंख्य और स्वादिष्ट फलों से जितना चाहो खाओ परन्तु उस पेड़ के समीप न जाना कि तुम अत्याचारियों में से हो जाओगे। (2:35)


 ईश्वर ने, जिसने मनुष्य की, धरती की मिट्टी से, धरती में अपने उत्तराधिकार के लिए रचना की थी, धरती पर मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएं पैदा करने के उद्देश्य से सबसे पहले उसी के समान एक अन्य जीव अर्थात उसकी पत्नी पैदा की ताकि सुख-दुख में वह उसकी साथी भी रहे तथा वंश को चलाने और बाक़ी रहने का कारण भी बने। इसके पश्चात उसने स्वर्ग की भांति धरती में दो बाग़ बनाए ताकि वह उसमें रह भी सके और खा-पी भी सके। इस कार्य द्वारा ईश्वर ने आदम पर नेमत या उपहार को पूर्ण कर दिया था तथा उन्हें पत्नी, आवास, स्थान और भोजन प्रदान कर दिया ताकि वह धरती पर आराम से रह कर धरती के उपहारों से लाभ उठाने का अनुभव प्राप्त कर सकें। परन्तु ऐसा नहीं है कि खाने की हर वस्तु शरीर के लिए लाभदायक और आवश्यक हो। इसी कारण ईश्वर ने उन्हें एक विशेष फल खाने से मना कर दिया था क्योंकि वह फल खाने से उनके शरीर को क्षति पहुंचती तथा उनकी आत्मा पर अत्याचार होता और उन्हें धरती के स्वर्ग से निकलना पड़ता।

 जिन बिंदुओं का उल्लेख किया गया उनसे यह स्पष्ट हो गया कि वह स्वर्ग जिसमें आदम रह रहे थे, वह वह स्वर्ग नहीं था जिसका वादा प्रलय में किया गया है क्योंकि पहली बात तो यह कि वह स्वर्ग अच्छे कार्यों के बदले दिया जाएगा और तब तक आदम ने कोई अच्छा कार्य नहीं किया था जो उन्हें उपहार स्वरूप स्वर्ग मिलता जैसाकि सूरए आले इमरान की आयत संख्या १४२ में कहा गया हैः- क्या तुमने यह समझ रखा है कि तुम स्वर्ग में प्रवेष करोगे जबकि ईश्वर ने अभी तुममें से उनको परखा ही नहीं है जो जेहाद करने वाले हैं।
 दूसरे यह कि जो वास्तविक स्वर्ग में प्रविष्ट हो जाएगा वह फिर कभी उसमें से बाहर नहीं निकलेगा जैसाकि सूरए हिज्र की आयत क्रमांक ४८ में कहा गया हैः- वे स्वर्ग से कभी नहीं निकलेंगे।
 तीसरे यह कि स्वर्ग में ऐसा कोई वर्जित पेड़ नहीं है जिसके पास जाने से ईश्वर ने रोका हो बल्कि स्वर्ग की हर चीज़ हलाल है। दूसरी ओर ईश्वर ने धरती के हरे-भरे बाग़ों को भी जन्नत कहा है तथा यह शब्द उस स्वर्ग से विशेष नहीं है जिसको प्रलय के पश्चात दिये जाने का वादा किया गया है जैसा कि सूरए क़लम की आयत क्रमांक १७ में ईश्वर कहता हैः- हे पैग़म्बर हमने पूंजी एकत्रित करने वाले, घमण्डी और अनेकेश्वरवादी लोगों की भी बाग वालों की भांति परीक्षा ली तथा उनपर प्रकोप किया।

इस आयत से मिलने वाले पाठः

दंपति, घर तथा आहार, ईश्वर के वे उपहार हैं जो उसने धरती में मनुष्य के आराम के लिए उसे प्रदान किए हैं।
घर में पत्नी, पति के अधीन है। इन आयतों में अन्य मामलों में आदम तथा उनकी पत्नी दोनों को संबोधित करते हुए कहा गया है "तुम दोनों खाओ, तुम दोनों सोचो और तुम दोनों उस पेड़ के समीप न जाना।" परन्तु घर और स्थान के मामले में केवल आदम को संबोधित किया गया है और उनकी पत्नी को उनके अधीन बताते हुए कहा गया है, "तुम अपनी पत्नी के साथ बाग़ में रहो।"

किसी भी वस्तु को वर्जित करने से पूर्व उस वस्तु की आवश्यकता की पूर्ति के ठीक मार्गों को खोलना चाहिए। मनुष्य को आहार की आवश्यकता है अतः ईश्वर ने सर्वप्रथम खाने की वैध वस्तुएं आदम और उनकी पत्नी के अधिकार में दीं फिर एक विशेष प्रकार का फल खाने से उन्हें रोका।
पाप इतना ख़तरनाक होता है कि उसके समीप भी नहीं जाना चाहिए, उसे करना तो बहुत दूर की बात है। इसी कारण ईश्वर ने यह नहीं कहा कि न खाना बल्कि कहा कि "इस पेड़ के समीप भी नहीं जाना।"
जिस बात से ईश्वर ने मना किया है उसे करने से हानि, स्वयं मनुष्य को होती है ईश्वर को नहीं। ईश्वरीय आदेश को न मानना स्वयं अपने ऊपर अत्याचार है कि जो मनुष्य को ईश्वरीय उपहारों से दूर करता है।
खाने-पीने में मनुष्य को पशुओं की भांति अपने पेट के अधीन नहीं होना चाहिए कि जो कुछ उसका मन कहे खाता चला जाए बल्कि उसे ईश्वर के आदेशों का पालन करना चाहिए तथा जो कुछ ईश्वर उसके लिए ठीक समझे उसे खाए और जिस बात से उसे मना करे उसे छोड़ दे।




सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ३६ इस प्रकार है।

फिर शैतान ने आदम तथा उनकी पत्नी को बहका दिया और उन्हें उस स्वर्ग से निकाल दिया जिसमें वे थे, ऐसे समय में हमने उनसे कहा कि उतर जाओ कि तुम एक दूसरे के शत्रु होगे तथा तुम्हारे लिए धरती में एक निर्धारित समय तक के लिए ठिकाना और पड़ाव होगा। (2:36)

पिछली आयतों में हज़रत आदम की सृष्टि और उत्तराधिकार के विषय पर चर्चा करते हुए इस स्थान तक पहुंचे थे कि ईश्वर ने हज़रत आदम तथा उनकी पत्नी को स्वर्ग समान एक बाग़ में रखा तथा उन्हें हर प्रकार का आहार प्रदान किया किंतु एक विशेष पेड़ को उनके लिए वर्जित कर दिया था। इस पेड़ का फल उनके लिए हानिकारक था और उनकी आत्मा पर अत्याचार का कारण बनता।

परंतु इब्लीस, जिसे आदम को सजदा करने का ईश्वरीय आदेश न मानने के कारण ईश्वर के दरबार से निकाल दिया गया था, आदम से बदला लेने के बारे में सोचने लगा तथा उसने निर्णय लिया कि उन्हें आराम तथा चैन के स्थान से निकलवा दे अतः उसने आदम की भलाई चाहने का ढोंग किया और उन्हें बहकाने लगा तथा उस वर्जित पेड़ की इतनी अधिक प्रशंसा की तथा उसके इतने लाभ गिनवाए कि अंततः आदम तथा उनकी पत्नी ने उसका फल खा ही लिया। वे ईश्वर के आदेश का उल्लंघन करना नहीं चाहते थे किंतु जब शैतान ने शपथ खाकर कहा कि उसने इस पेड़ के लाभों के बारे में जो कुछ कहा है वह सत्य है तो आदम ने एक बालक के समान कि जिसे छल का कोई अनुभव नहीं होता तथा जो सभी को अपने ही समान सच्चा समझता है शैतान के कथन को सच मान लिया और वे धोखा खा गए। ईश्वरीय आदेश के उल्लंघन के कारण उन्हें स्वर्ग से निकलना पड़ा तथा इसके पश्चात ईश्वर की ओर से आदेश आया कि ईश्वर के सामिप्य के स्थान से उतर जाओ कि तुम्हारे और शैतान के बीच शत्रुता और द्वेष का बीज पड़ चुका है तथा तुम लोग एक निर्धारित समय तक धरती से लाभान्वित होते रहोगे।

आदम की सृष्टि का वास्तविक लक्ष्य, धरती पर उनका उत्तराधिकार था अतः उन्हें आना ही था किंतु ईश्वर ने आरंभ में उनके लिए आरामदायक तथा कठिनाइयों से ख़ाली वातावरण की व्यवस्था की ताकि वे प्रशिक्षण के इस केन्द्र में धरती की परिस्थिति से भी परिचित हो सकें और अपने वास्तविक शत्रु शैतान को भी पहचान सकें।

इस आयत से मिलने वाले पाठः

शैतान का अनुसरण मनुष्य को न केवल ईश्वरीय पदों और उच्च स्थानों से दूर कर देता है बल्कि उसके वास्तविक आराम को भी छीन लेता है तथा उसे दुखों और संकटों में डाल देता है जिस प्रकार आदम व उनकी पत्नी को ईश्वरीय कृपा के स्वर्ग से कष्टों की धरती पर आना पड़ा।
मनुष्य से शैतान की शत्रुता बड़ी पुरानी है जो आदम की सृष्टि के समय से चली आ रही है।
धरती, मनुष्य के जीवन का अस्थाई पड़ाव है तथा यहां से लाभ उठाना भी सीमित और अस्थाई है। हमें ईश्वरीय स्वर्ग में अपने स्थाई ठिकाने को तैयार करने के विचार में रहना चाहिए।
ईश्वर ने मनुष्य में जो योग्यताएं और विशेषताएं रखी हैं उनके कारण हर मनुष्य को स्वर्ग प्राप्त होना चाहिए परन्तु ईश्वर के आदेशों का उल्लंघन उसकी गिरावट का कारण बनता है।
कोई भी मनुष्य पाप तथा पथभ्रष्टता के ख़तरे से सुरक्षित नहीं है सिवाए इसके कि ईश्वर उसकी रक्षा करे। आदम को, जो धरती में ईश्वर के उत्तराधिकारी थे तथा जिन्हें फ़रिश्तों ने सजदा किया था एक क्षण की निश्चेतना ने ईश्वर के दरबार से बाहर निकलवा दिया अलबत्ता आदम की यह ग़लती, उनके पैग़म्बर बनने अर्थात ईश्वरीय प्रतिनिधि के पद पर आने से पहले की थी।



सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ३७ इस प्रकार है।

उसके पश्चात आदम को अपने पालनहार की ओर से कुछ शब्द मिले तथा आदम ने उन शब्दों द्वारा तौबा या प्रायश्चित किया तो ईश्वर ने उनकी तौबा को स्वीकार कर लिया, निःसंदेह वह तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान है। (2:37)

 इस आराम दायक और नेमतों से भरे स्थान से निकलने के पश्चात हज़रत आदम अपनी ग़लती और शैतान के धोखे को समझ गए तथा उन्हें अपने कार्य पर पश्चाताप होने लगा और उन्होंने प्रायश्चित करने का संकल्प किया परन्तु वे किस प्रकार तौबा या प्रायश्चित करें कि ईश्वर स्वीकार कर ले? यहां भी ईश्वर ने आदम का मार्गदर्शन किया तथा उन्हें कुछ शब्द और वाक्य सिखाए जिनके द्वारा वे पश्चाताप को व्यक्त कर सकते थे। ये शब्द सूरए आराफ़ की २३वीं आयत में आए हैं जिनका अनुवाद है "उन दोनों ने कहा कि प्रभुवर! हमने स्वयं अपनी आत्मा पर अत्याचार किया और यदि तू हमे क्षमा न करे और हमपर दया न करे तो निश्चित ही हम घाटा उठाने वालों में से होंगे।"

 इस प्रकार के वाक्य केवल हज़रत आदम के पश्चाताप से विशेष नहीं हैं बल्कि हज़रत यूनुस तथा हज़रत मूसा अलेहिस्सलाम के बारे में भी इसी प्रकार के वाक्य मिलते हैं। जैसाकि क़ुरआने मजीद हज़रत मूसा के बारे में कहता हैः "मूसा ने कहा है प्रभुवर! मैने स्वयं अपने ऊपर अत्याचार किया अतः तू मुझे क्षमा कर दे।" अलबत्ता आदम ने अपनी तौबा स्वीकार होने के लिए ऐसे सिफ़ारिश करने वालों का वास्ता दिया जिनके नाम ईश्वर ने उन्हें सिखाए थे। पवित्र क़ुरआन के विख्यात व्याख्याकार जलालुद्दीन सुयूती ने अपनी तफ़सीर की किताब "दुर्रे मन्सूर" में बहुत अधिक रिवायतें लिखी हैं कि आदम ने ईश्वर को मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा उनके परिजनों की सौगंध दी थी कि वह उनकी तौबा या प्रायश्चित को स्वीकार कर ले। इब्ने अब्बास की एक रिवायत में इस प्रकार आया है कि आदम ने ईश्वर को हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा उनके परिजनों हज़रत अली, हज़रत फ़ातेमा, इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमुस्सलाम की सौगंध दी थी कि वह उनकी तौबा स्वीकार कर ले।
 तौबा का अर्थ है पलटना। जब यह शब्द मनुष्य के लिए प्रयोग होता है तो उसका अर्थ होता है पापों की ओर से लौटना या पलटना और जब यह शब्द ईश्वर के लिए प्रयोग हो तो इसका अर्थ होता है ईश्वरीय दया का पलटना अर्थात वह दया जो ईश्वर ने पाप के कारण मनुष्य से उठा ली थी उसके पाप की ओर से पलटने के कारण वह उस दया को भी वापस पलटा देता है।
 ईश्वर स्वयं तव्वाब अर्थात बहुत अधिक तौबा स्वीकार करने वाला भी है जैसाकि इस संबन्ध में पवित्र क़ुरआन में एक स्थान पर कहा गया हैः "निःसन्देह! वह तौबा स्वीकार करने वाला है और तौबा करने वालों से प्रेम भी करता है।" इसी प्रकार सूरए बक़रह की आयत क्रमांक २२२ में ईश्वर ने कहा हैः "निःसन्देह! ईश्वर तौबा करने वालों से प्रेम करता है।" अतः मनुष्य को कभी भी ईश्वर की दया की ओर से निराश नहीं होना चाहिए बल्कि उसे सदैव अपने पापों से तौबा या प्रायश्चित करना चाहिए क्योंकि ईश्वरीय दया भी सदैव रहने वाली और अनंत है।

इस आयत से मिलने वाले पाठः
जिस प्रकार तौबा करने की योग्यता ईश्वर की ओर से है उसी प्रकार तौबा करने की पद्धति और उसके मार्ग को भी हमें ईश्वर से प्राप्त करना चाहिए जैसाकि इस आयत में हज़रत आदम की तौबा के बारे में कहा गया है कि ईश्वर ने उन्हें तौबा करने के शब्द और वाक्य सिखाए।
यदि मनुष्य सच्चे मन से तौबा करे तो ईश्वर उसे स्वीकार कर लेता है क्योंकि वह तव्वाब अर्थात बहुत अधिक तौबा स्वीकार करने वाला है।
ईश्वर दया और प्रेम के साथ तौबा स्वीकार करता है न कि कोप और दंड के साथ और न ही अपमानित करके या कृतज्ञता जता कर।
यदि हमने तौबा तोड़ दी और पाप किया तब भी हमें ईश्वरीय दया की ओर से निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि वह तव्वाब अर्थात बहुत अधिक तौबा स्वीकार करने वाला है और यदि हम दोबारा तौबा करें तो वह पुनः हमारी तौबा स्वीकार कर लेगा। {jcomments on}


सूरए बक़रह; आयतें ३८-३९
सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ३८ का अनुवाद इस प्रकार है।

हमने कहा कि सबके साथ इस स्वर्ग से उतर जाओ, तो जब मेरी ओर से तुम तक कोई मार्गदर्शन पहुंचे तो जो लोग मेरे मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे उनके लिए न कोई भय होगा और न ही वे दुखी होंगे। (2:38)

 हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की ओर से प्रायश्चित तथा दयालु ईश्वर की ओर से उसे स्वीकार किये जाने के पश्चात स्वर्ग से बाहर निकलने का आदेश आया ताकि कोई यह न सोचे कि तौबा के कारण स्वर्ग समान उन बाग़ों में लौटा जा सकता है। ईश्वर की ओर से क्षमा किये जाने से, पाप का दण्ड समाप्त हो जाता है किंतु उस पाप का स्वाभाविक व प्राकृतिक प्रभाव, ईश्वरीय क्षमा के बाद भी समाप्त नहीं होता।
स्वर्ग से हज़रत आदम अलैहिस्सलाम का निष्कासन, उस वर्जित फल खाने का स्वभाविक परिणाम था जो तौबा से समाप्त नहीं हो सकता था और अंततः उन्हें और उनकी पत्नी को स्वर्ग से निकलना ही पड़ता और धरती में आकर रहना पड़ता जहां पर स्वर्ग समान बाग़ों जैसी सुविधाएं व संभावनाएं नहीं हैं।
चूंकि स्वर्ग से हज़रत आदम अलैहिस्सलाम का निष्कासन, उस स्वर्ग से उनकी संतान तथा समस्त मानव जाति के निष्कासन का कारण बनता अतः स्वर्ग से निकलने का आदेश सभी मनुष्यों को संबोधित करते हुए दिया गया किंतु इसी के साथ मनुष्य के मार्गदर्शन की बात भी कही गई है। ईश्वर कहता है कि मैं तुम्हारे मार्गदर्शन के साधन उपलब्ध करा दूंगा चाहे वह मार्गदर्शन की किताब हो या मार्गदर्शक पैग़म्बर, किंतु इस संबन्ध में लोगों के दो गुट होंगे। एक मार्गदर्शन को स्वीकार करेगा जबकि दूसरा उसका इन्कार कर देगा।
ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में ही सभी वस्तुओं के नामों और सृष्टि की वास्तविकताओं से हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को अवगत करा दिया था तथा उनकी प्रवृत्ति में ज्ञान अर्जित करने की क्षमता रख दी थी। यही ज्ञान, फ़रिश्तों पर हज़रत आदम की श्रेष्ठता का कारण बना किंतु इससे उन्हें शैतान के बहकावों से मुक्ति नहीं मिली और वे आरंभ में भी उससे धोखा खा गए।
इसी कारण ईश्वर ने उनकी तौबा स्वीकार करने तथा उन्हें धरती में बसाने के पश्चात उनके मार्गदर्शन के साधन भी उपलब्ध कराए ताकि वे सत्य व असत्य तथा भलाई एवं बुराई में अंतर कर सकें और पथभ्रष्ट न हो जाएं। ईश्वर के विशेष संदेश वहि का आना, ईश्वर की दूसरी अनुकंपा थी जो उसने बुद्धि के साथ मनुष्य को प्रदान की।
यद्यपि ईश्वर की ओर से उसका विशेष संदेश वहि भेजना तथा मार्गदर्शन के साधन उपलब्ध कराना आवश्यक है किंतु मार्ग दर्शन प्राप्त करना मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है। ईश्वरीय मार्गदर्शन स्वीकार करने के लिए मनुष्य बाध्य नहीं है बल्कि ईश्वर ने उसे इस संबन्ध में स्वतंत्र छोड़ दिया है। वह चाहे तो ईश्वरीय मार्ग पर चले और चाहे तो पथभ्रष्ट हो जाए।
मनुष्य की सबसे बड़ी चिंता लोक-परलोक में अपने भविष्य को लेकर है। जैसा कि अतीत की ओर तथा बर्बाद होने वाली आयु पर ध्यान देने से मनुष्य दुखी होता है तथा अवसरों के खो जाने पर उसे पश्चाताप होता है किंतु जो कोई ईश्वरीय मार्गदर्शन को स्वीकार करता है ईश्वर उसके भविष्य को सुनिश्चित बना देता है और उसे फिर कोई चिंता नहीं रह जाती और वह अपने अतीत पर भी दुखी नहीं होता क्योंकि उसने अपने दायित्व का निर्वाह किया है, चाहे उसके कर्म का परिणाम न भी निकला हो और उसे विदित रूप से सफलता प्राप्त न हुई हो।
इस आयत से मिलने वाले पाठः

कभी कभी एक ग़लत व अनुचित कार्य का परिणाम एक पूरी पीढ़ी व समुदाय को भुगतना पड़ता है। आदम से एक भूल हुई थी परंतु उनके पूरे वंश को स्वर्ग से निकलना पड़ा।

ईश्वर अपनी दया को कभी भी मनुष्य से दूर नहीं करता। यद्यपि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने ग़लती की थी किंतु ईश्वर ने उनके लिए तौबा अर्थात प्रायश्चित का मार्ग भी खुला रखा और उनके मार्गदर्शन के साधन भी उपलब्ध कराए।
ईश्वरीय मार्गदर्शन, धरती में मनुष्य के बसने के साथ ही आरंभ हो गया था और वास्तविक मार्गदर्शन केवल ईश्वर की ओर से है।
चयन की स्वतंत्रता मनुष्य की विशेषता है। मार्गदर्शन स्वीकार करने के लिए लोग विवश नहीं हैं। इसी कारण कुछ लोग ईमान लाते हैं और कुछ काफ़िर हो जाते हैं।
ईश्वरीय मार्गदर्शन प्राप्त करने वालों को वास्तविक संतोष व शांति प्राप्त होती है और वे हर प्रकार की चिंता से दूर रहते हैं।


सूरए बक़रह की आयत संख्या ३९ इस प्रकार है।

और जिन लोगों ने इन्कार किया और हमारी आयतों को झुठलाया तो ऐसे ही लोग नरकवासी हैं जहां वे सदैव रहेंगे। (2:39)

जो अपनी इच्छा से ईश्वरीय मार्गदर्शन को स्वीकार करते हैं उनका भला अंत होता है ऐसे लोगों के विपरीत लोगों का एक गुट कुफ़्र तथा द्वेष के कारण ईश्वरीय आयतों की अनदेखी करते हुए उन्हें झुठला देता है। ईश्वरीय मार्गदर्शन के साधन, उनकी स्पष्ट आयते हैं किंतु यदि कोई कुफ़्र तथा सत्य को छिपाने की दृष्टि से उन्हें देखे तो न केवल यह कि वह उन्हें स्वीकार नहीं करेगा बल्कि उनकी सच्चाई का भी इन्कार कर देगा। इस प्रकार वह उनके ईश्वर की ओर से आने को झुठला देगा। प्रलय में इस प्रकार के लोगों का अंत नरक की आग है और चूंकि द्वेष व हठधर्म उनकी स्थाई प्रवृति थी अतः नरक में उनका ठिकाना भी स्थाई होगा।
इय आयत से मिलने वाले पाठः
ईश्वर ने काफ़िरों के लिए भी मार्गदर्शन के साधन उपलब्ध कराए हैं किंतु वे स्वयं ही मार्गदर्शन प्राप्त करना नहीं चाहते, इस प्रकार वे स्वयं अपने हाथों से नरक की आग ख़रीदते हैं।
ईश्वरीय मार्गदर्शन को झुठलाने और ठुकराने का परिणाम अनंत कालीन नरक है। {jcomments on}

सूरए बक़रह; आयतें ४०-४३

सूरए बक़रह की आयत संख्या ४० इस प्रकार है।

हे बनी इस्राईल! मैंने तुम्हें अपनी जो अनुकंपाएं प्रदान की हैं, उन्हें याद करो और मुझे दिये गए वचन का पालन करो ताकि मैं तुम्हें दिये गए वचन का पालन करूं और केवल मुझ ही से डरो। (2:40)

धरती में हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के उत्तराधिकार तथा ईश्वर को दिये गए वचन को भूलने के कारण उनके स्वर्ग से निकाले जाने की घटना के वर्णन के पश्चात इस आयत में आदम की संतान के एक गुट अर्थात बनी इस्राईल के वृत्तांत की ओर संकेत किया गया है जिनका परिणाम भी हज़रत आदम की भांति हुआ था।
ईश्वरीय पैग़म्बर हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम का उपनाम इस्राईल था और बनी इस्राईल का अर्थ है याक़ूब की संतान। बनी इस्राईल का इतिहास बहुत उतार-चढ़ाव भरा है और क़ुरआने मजीद की अनेक आयतों में उनकी ओर संकेत किया गया है।
इस आयत में तीन आदेश दिये गए हैं जो सभी ईश्वरीय कार्यक्रमों का आधार हैं। प्रथम, ईश्वरीय अनुकंपाओं को याद करते रहना कि जो मनुष्य में कृतज्ञता की भावना को जीवित रखती है और ईश्वर से प्रेम तथा उसके आज्ञा पालन का कारण बनती है।
दूसरे इस बात पर ध्यान रखना कि यह अनुकंपाएं बिना शर्त नहीं हैं और ईश्वर ने इनके बदले में मनुष्य से कुछ वचन लिए हैं तथा इनके संबन्ध में मनुष्य उत्तरदायी है। ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभान्वित होने की शर्त यह है कि मनुष्य, ईश्वरीय मार्ग पर चलता रहे।
इस आयत का तीसरा आदेश यह है कि ईश्वरीय आदेशों के पालन में किसी भी शक्ति से भयभीत और शत्रुओं के कुप्रचारों तथा धमकियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
इस आयत से मिलने वाले पाठः
ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभ उठाते समय ईश्वर को याद करना चाहिए तथा उसके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए।
ईश्वरीय मार्ग में किसी भी शक्ति से नहीं डरना चाहिए।

सूरए बक़रह की आयत नंबर ४१ इस प्रकार है।


और जो कुछ मैंने (क़ुरआन में से) उतारा है उस पर ईमान लाओ, यह क़ुरआन उन बातों की पुष्टि करने वाला है जो कुछ (तौरेत के रूप में) तुम्हारे पास है। और सबसे पहले इसका इन्कार करने वाले न बनो और मेरी आयतों को सस्ते दामों न बेचो और केवल मुझ ही से डरो। (2:41)

 यह आयत यहूदियों के विद्वानों व धर्मगुरूओं को संबोधित करते हुए कहती है कि तुम तौरेत की भविष्यवाणियों के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे तो अब तुम्हें उनके क़ुरआन पर ईमान ले आना चाहिए कि जो तुम्हारी तौरेत से समन्वित है।
अपनी स्थिति को बचाने के लिए तौरेत की उन आयतों को न छिपाओ जिनमें पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से संबन्धित चिन्हों व निशानियों का उल्लेख किया गया है। तुम्हें अपने धर्म को संसार के लिए नहीं बेचना चाहिए।
या कम से कम उनका इन्कार करने वालों में अग्रणी न रहो कि तुम्हारा अनुसरण करते हुए समस्त यहूदी इस्लाम लाने से कतराने लगे हैं।
एक मुस्लिम व्यक्ति सभी आसमानी किताबों तथा पिछले पैग़म्बरों पर ईमान रखता है किंतु चूंकि इस्लाम सबसे अंतिम ईश्वरीय धर्म है और पिछली आसमानी किताबों में फेरबदल हो चुका है अतः वह केवल पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का अनुसरण करता है।
यही कारण है कि ईश्वर पिछले धर्मों के अनुयाइयों को निमंत्रण देता है कि वे क़ुरआने मजीद पर ईमान ले आएं जिसकी बातें उनकी किताबों से समन्वित हैं और उसमें किसी भी प्रकार का फेरबदल नहीं हुआ है। इस संबन्ध में उन्हें अन्य लोगों को नहीं केवल ईश्वर को दृष्टिगत रखना चाहिए।


सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ४२ इस प्रकार है।

और सत्य को अस्त्य से गड-मड न कर दो तथा वास्तविकता को न छिपाओ जबकि तुम उसे जानते हो। (2:42)

किसी भी जाति के विद्वानों और धर्म गुरूओं के समक्ष एक बड़ा ख़तरा यह रहता है कि लोगों से वास्तविकताओं को छिपाया जाए या फिर सत्य और असत्य को उस प्रकार बयान किया जाए जिस प्रकार वे स्वयं चाहते हैं।
इसके परिणाम स्वरूप लोग अज्ञानता, निश्चेतना तथा संदेह में ग्रस्त हो जाते हैं। यह किसी भी जाति के विद्वानों एवं धर्मगुरुओं की ओर से सबसे बड़ा अत्याचार है।
नहजुल बलाग़ा नामक पुस्तक में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह कथन वर्णित है कि यदि असत्य को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जाए तो चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि लोग उसके असत्य होने को समझ जाएंगे और स्वयं ही उसे छोड़ देंगे।
इसी प्रकार यदि सत्य को भी स्पष्ट रूप से लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए तो विरोधियों की ज़बान बंद हो जाएगी और लोग बड़ी ही सरलता से उसे स्वीकार कर लेंगे। ख़तरा वहां होता है जहां पर असत्य, सत्य के साथ गड-मड हो जाता है जिससे लोगों पर शैतान के वर्चस्व की भूमि प्रशस्त हो जाती है।
इस आयत से मिलने वाले पाठः
किसी भी जाति के विद्वानों एवं धर्मगुरुओं के लिए सबसे बड़ा ख़तरा सत्य को छिपाना है
सत्य को यदि स्पष्ट रूप से लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए और व्यवहारिक रूप से उसे जीवन में लागू किया जाए तो वे बड़ी ही सरलता से उसे स्वीकार कर लेते हैं।
ज़बान का एक पाप, सत्य को छिपाना है अर्थात मनुष्य किसी सत्य को जानता हो किंतु अपने हितों के लिए उसे छिपा दे।

सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ४३ इस प्रकार है।

और नमाज़ स्थापित करो तथा ज़कात दो और ईश्वर के समक्ष झुकने वालों के साथ झुको। (2:43)

केवल सत्य को समझना और उसे पहचानना पर्याप्त नहीं है बल्कि ईश्वर पर ईमान रखने वाले व्यक्ति को कर्म भी करना चाहिए। सबसे उत्तम कर्म ईश्वर की उपासना तथा उसकी रचनाओं की सेवा है।
क़ुरआने मजीद की अधिकांश आयतों में नमाज़ और ज़कात का उल्लेख एक साथ किया गया है ताकि यह समझाया जा सके कि नमाज़ और उपासना के कारण लोगों की सेवा तथा वंचितों पर ध्यान देने में रुकावट नहीं आनी चाहिए।
यहां तक कि इस आयत में नमाज़ पढ़ने की शैली के संबन्ध में भी लोगों के बीच उपस्थिति को आवश्यक बताया गया है और कहा गया है कि जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ो तथा अन्य मुसलमानों के साथ रुकू और सजदा करो क्योंकि इस्लाम में समाज से कटकर अलग-थलग और एकांत में रहना निंदनीय है।
इस आयत से मिलने वाले पाठः
 ईमान, कर्म से अलग नहीं है। नमाज़ समस्त आसमानी धर्मों में ईश्वर का सबसे पहला आदेश है।
 असली नमाज़, जमाअत के साथ होती है तथा जमाअत में सम्मिलित होना, एक धार्मिक दायित्व है।


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