कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2:200-221-शराब, जुआ , शादी

सूरए बक़रह की आयत नंबर २००, २०१ तथा २०२ इस प्रकार है। फिर जब तुम हज संबन्धी अपने कार्य पूरे कर चुको तो ईश्वर को याद करो, जिस प्रकार तुम ...

सूरए बक़रह की आयत नंबर २००, २०१ तथा २०२ इस प्रकार है।
फिर जब तुम हज संबन्धी अपने कार्य पूरे कर चुको तो ईश्वर को याद करो, जिस प्रकार तुम अपने पूर्वजों को याद करते थे बल्कि उससे भी अधिक बेहतर (परन्तु यहां लोगों के दो गुट हो जाते हैं) एक गुट जो केवल अपने संसार के विचार मे रहता है, इस प्रकार कहता है। प्रभुवर हमें संसार में ही दे दे जबकि प्रलय में उनका कोई भाग नहीं होगा। (2:200) और दूसरा गुट कहता है, प्रभुवर हमे संसार में भी भलाई दे और प्रलय में भी तथा हमें (नरक की) आग के दंड से बचा। (2:201) यही लोग हैं, जिन्होंने संसार में अपनी प्रार्थना और प्रयास द्वारा जो कुछ कमाया है, उसमें से उनका भाग नियत है और ईश्वर जल्द हिसाब चुकाने वाला है। (2:202)

 इतिहास में हैं कि इस्लाम से पूर्व, अरब लोग हज के पश्चात एक स्थान पर एकत्रित होते थे और वहां पर हर व्यक्ति अपने क़बीले, अपनी जाति तथा अपने पूर्वजों की सराहना करके उसपर गर्व किया करता था। पवित्र क़ुरआन कहता है कि अपने पूर्वजों का गुणगान करने के स्थान पर तुम ईश्चवर को याद करो, उसकी विभूतियों पर आभार प्रकट करो और अपने भविष्य के बारे में भी उसी से प्रार्थना करो।
 इसके पश्चात क़ुरआन कहता है कि लोगों के दो गुट हैं। एक गुट हज के पश्चात उस पवित्र स्थान पर केवल संसार और अपनी सांसारिक आवश्यकताओं के बारे में सोचता है और ईश्वर से इसके अतिरिक्त कुछ नहीं मांगते। स्वभाविक है कि प्रलय के दिन जब मनुष्य को हर चीज़ की आवश्यकता होगी तो उस समय यह गुट खाली हाथ होगा।
 परन्तु दूसरा गुट अपनी प्रार्थनाओं में संसार पर भी ध्यान देता है जो परिपूर्णता तक पहुंचने का साधन है और प्रलय के बारे में भी जो मनुष्य का गंतव्य है गर्व के साथ नरक की आग से बचने की प्रार्थना करता है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २०३ इस प्रकार है।
हज में कुछ निर्धारित दिनों में ईश्वर को याद करो तो जो कोई (मिना में) दो दिन रहने के पश्चात (वहां से निकलने में) जल्दी करे तो उस पर कोई पाप नहीं है और जो विलंब करे (और तीन दिन मिना में रहे) तो उस पर भी कोई पाप नहीं है, अलबत्ता उन लोगों के लिए जो (इस जल्दी या विलंब द्वारा द्वारा ईश्वरीय आदेश के विरोध का इरादा न रखते हों और) ईश्वर से डरते हों तो ईश्वर से डरते रहो और जान लो कि तुम लोग उसी की सेवा में प्रस्तुत किये जाओगे। (2:203)
 पिछली आयत में हज के दौरान अपने पूर्वजों पर घमण्ड करने के स्थान पर ईश्वर को याद करने का आदेश देने के पश्चात यह आयत उसका समय निर्धारित करती है।
 दसवीं ज़िलहिज को हज में क़ुर्बानी करने के पश्चात हाजी ११वीं, १२वीं और १३वीं ज़िलहिज को भी मिना में रहते हैं और ये स्थान सृष्टि के बारे में विचार, उपासना और प्रार्थना करने के लिए बहुत अच्छा अवसर है। इसी कारण ये आयत कहती है कि जातीय घमण्ड के स्थान पर इन दिनों में ईश्वर को याद करो।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २०४ इस प्रकार है।
लोगों में से कोई ऐसा है जिसकी बात इस सांसारिक जीवन के बारे में तुम्हें लुभाती है, और वो अपने हृदय में मोमिनों से द्वेष रखने के बावजूद ईश्वर को गवाह बनाता है और वो (तुम्हारा) सबसे कट्टर शत्रु है। (2:204)
 ये आयत कुछ मिथ्याचारियों की मिथ्या की ओर संकेत करते हुए कहती है कि कुछ लोग अपनी बातों द्वारा ईमान व्यक्त करते हैं और सांसारिक जीवन के बारे में इस प्रकार बातें करते हैं कि ईमान वाले उनकी बातों से आश्चर्यचकित होकर उनकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं।
 क़ुरआन इस प्रकार के लोगों को ख़तरों से सचेत करते हुए कहता है कि इन लोगों का विश्वास मत करो, इनके हृदय में ईमान नहीं है बल्कि ये ईमान वालों के शत्रु हैं परन्तु अपनी शत्रुता को छिपाए रखते हैं।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २०५ इस प्रकार है।
(ईमान वालों से मिथ्याचारियों की शत्रुता की निशानी ये है कि) जब वे सत्ता प्राप्त कर लेते हैं तो धरती में बिगाड़ करने का प्रयास करते हैं और कारण वे फ़सल और वंश की तबाही का प्रयत्न करते हैं, जबकि ईश्वर बिगाड़ को पसंद नहीं करता। (2:205)
 वही लोग जो सुन्दर-२ बातें करते थे और वादा करते थे कि यदि हमें सत्ता प्राप्त हो जाती तो हम समाज में सुरक्षा व आराम को विस्तृत करते, जब उन्हें सत्ता प्राप्त हो जाती है तो वे अपना संसार प्राप्त करने के लिए लोगों का जीवन तबाह कर देते हैं। समाज की अर्थव्यवस्था को भी नष्ट कर देते हैं और युवा पीढ़ी को भी पथभ्रष्ट बना देते हैं।
 दूसरी आयतों में क़ुरआन कहता है कि जब भी भले लोगों के हाथों में सत्ता आती है तो वे लोगों के लोक व परलोक की भलाई के विचार में रहते हैं, समाज में ईश्वर से मनुष्य के सबसे सुन्दर संपर्क अर्थात नमाज़ को सुदृढ़ करते हैं और लोगों तथा वंचितों के संपर्क अर्थात ज़कात को विस्तार देते हैं।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
 ईश्वर से प्रार्थना में हमें केवल सामने की चीज़ों के बारे में ही प्रश्न नहीं करना चाहिए और केवल कुछ दिन के संसार के विचार में नहीं रहना चाहिए।
 इस्लाम संतुलन व उदारवाद का धर्म है। उसने संसार व परलोक को एक साथ प्रस्तुत किया है ताकि ये न सोचा जा सके कि मुसलमान अपने व समाज के भौतिक विकास के विचार में नहीं रहता।
 ईश्वर से हमें अपनी भलाई, कल्याण व मोक्ष की प्रार्थना करनी चाहिए न कि ये ईश्वर से प्रार्थना में हम उससे कुछ निर्धारित बातें चाहें क्योंकि हमें अपने भविष्य के बारे में और इस बारे में कुछ पता नहीं कि कौन सी बात हमारे कल्याण के लिए है।
 यदि मनुष्य पवित्र हो और ईश्वर से भयभीत रहे तो ईश्वर उसके साथ कड़ाई नहीं करता, उसके कर्मों को स्वीकार कर लेता है और उसके कर्मों की त्रुटियों को छिपा देता है।
 हमें बाहर से सुन्दर दिखाई देने वाली वस्तुओं, मीठी बातों और लुभावने प्रचार से धोखा नहीं खाना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि बोलने वाले का लक्ष्य क्या है? उसकी बातें हमारे भीतर संसार के प्रेम को बढ़ावा दे रही हैं या हमें ईश्वर की ओर आकृष्ट कर रही हैं।
 दूसरों के साथ व्यवहार में, केवल उनकी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि देखना चाहिए कि उनका क्रियाकलाप कैसा है, क्या वे समाज में सुधार के लिए काम कर रहे हैं या समाज में बिगाड़ फैलाने का कारण बन रहे हैं?

सूरए बक़रह की आयत संख्या 206 और 207 इस प्रकार हैः
और जब उनसे कहा जाता है कि ईश्वर से डरो और बिगाड़ पैदा न करो तो उनकी ज़िद और बढ़ जाती है और अहंकार उन्हें पाप की ओर खींचता है तो ऐसों के लिए नरक काफ़ी है और वह कितना बुरा ठिकाना है। (2:206) और ईमानों वालों में से कोई ऐसा भी है जो ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपनी जान भी दे देता है और ईश्वर अपने बंदों के प्रति अत्यंत मेहरबान है। (2:207)
धोखेबाज़ मिथ्याचारियों के अत्याचार के बारे में पिछली आयतों के उल्लेख के पश्चात ईश्वर आयत नंबर 206 में उनके अहंकार व उनके घमंड की ओर संकेत करते हुए कहता है कि यदि कोई उन्हें उपदेश दे या बुरी बातों से रोके तो न केवल यह कि वे उसकी बात नहीं सुनते बल्कि उनके पाप और ज़िद में वृद्धि हो जाती है और वे हर ग़लत कार्य करने को तैयार हो जाते हैं परंतु ऐसे घमंडी,अहंकारी और सांसारिक लोगों के मुक़ाबले में कुछ ऐसे पवित्र और बलिदानी लोग भी हैं, जो पूर्ण रूप से ईश्वर के प्रति समर्पित है और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपनी जान का भी बलिदान दे देते हैं।
इस्लामी इतिहास की पुस्तकों और क़ुरआन की व्याखयाओं में आया है कि जब मक्के के अनेक ईश्वरवादियों ने रात में पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के घर पर आक्रमण करके उनकी हत्या करने का षड्यंत्र रचा तो ईणश्वरीय दूत द्वारा पैगम़्बर को इसकी सूचना हो गयी और उन्होंने मक्के से बाहर जाने का निर्य किया परंतु पैगम्बरे इस्लाम के ख़ाली बिस्तर को देखकर शत्रु उनकी हिजरत से सूचित न हो जाए इसीलिए हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम उनके बिस्तर पर सो गये और अपनी जान की परवाह न की। इसी बात को देखकर ईश्वर ने हज़रत अली की प्रशंसा में सूरए बक़रह की आयत 207वीं आयत उतारी।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 208 और 209 इस प्रकार हैः
हे ईमान वालो! तुम सबके सब शांति और संधि में आ जाओ तथा ईश्वर के प्रति समर्पित रहो और शैतान के पद चिन्हों का अनुसरण न करो कि वह तुम्हारा खुला हुआ शत्रु है। (2:208)फिर यदि तुम इन सब स्पष्ट निशानियो और चमत्कारों के आने के बाद भी फिसलकर पथभ्रष्ट हो गये तो जान लो कि ईश्वर प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। (2:209)
यह आयत सभी ईमान वालों को शांति और संधि का निमंत्रण देती है ताकि मुस्लिम समाज एकजुटता व आपसी प्रेम का समाज बन जाए और लड़ाई झगड़ा तथा दंगा समाप्त हो जाए जो किसी भी समाज में फूट डालने के लिए शैतान का हथकंडा है।
मूल रूप से जात, संप्रदाय, लिंग, भाषा, संपत्ति और ऐसे ही विदित भौतिक अंतर मनुष्यों के बीच फूट पड़ने और विशिष्टता प्राप्ति का कारण बनते हैं। केवल ईश्वर पर ईमान ही एकता व सहृदयता का कारण बनकर वास्तविक और अंतर्राष्ट्रीय शांति की पूर्ति कर सकता है। अतः शैतानी पद चिन्हों से दूर रहने कर आवश्यता पर बुद्धि और ईश्वरीय संदेश अर्थात वही के जो स्पष्ट तर्क प्रस्तुत किए गये हैं, उनके आधार पर हर वह कार्य जो इस्लामी समाज की पवित्रा, शांति व सुरक्षा को ख़तरे में डाले, ईमान से पथभ्रष्टता है और ऐसे व्यक्ति को जान लेना चाहिए कि वह तत्वदर्शी और शक्तिशाली ईश्वर के मुक़ाबले में है।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 210 इस प्रकार हैः
क्या यह पथभ्रष्ट इतने सारे स्पष्ट तर्कों के बावजूद इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ईश्वर और फ़रिश्ते बादलों की छाया में प्रकट होकर इनके सामने आएं और इनके समक्ष नये तर्क रखे ताकि यह ईमान लाएं जबकि लोगों के मार्गदर्शन के बारे में ईश्वरीय आदेश पूरा हो चुका है और सभी मामले ईश्वर ही की ओर लौटाए जाएंगे। (2:210)
बहुत से लोग ईमान लाने के लिए इस प्रतीक्षा में होते हैं कि ईश्वर और उसके फ़रिश्ते को देखें और उनकी बातें सुनें जबकि इस बात की कोई संभावना नहीं है ईश्वर और फ़रीश्तों का कोई भौतिक शरीर नहीं है कि उन्हें देखा जा सके इसके अतिरिक्त ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी है तथा उसके मार्गदर्शन का मामला पूर्ण रूप से प्रशस्त कर दिया है और इस प्रकार की अनुचित मांगों की पूर्ती की कोई आवश्यकता नहीं है।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
बार बार पाप करने का एक कारण सत्य के मुक़ाबले में अहंकार, घमंड, संप्रदायिकता तथा ज़िद है जो इस बात का कारण है कि पशचाताप और प्राश्चित के स्थान पर मनुष्य अपने पापों में वृद्धि करता जाए।
वास्तविक मोमिन कर्म करने वाला होता है और वह हर बात में ईश्वर का ध्यान रखता है और उसे प्रसन्न करना चाहता है किन्तु मिथ्याचारी ईश्वर के स्थान पर संसार से मामला करता है और लोगों को प्रसन्न करने का प्रयास करता है।
वास्तविक शांति और सुरक्षा केवल ईश्वर पर वास्तविक ईमान की छाया में ही संभव है और ईमान के बिना मानवीय क़ानूनों पर भरोसा करके युद्ध व शांति को समाप्त नहीं किया जा सकता है
शैतान एकता का शत्रु है और एकता के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज़ शैतानी कंठ से ही निकलती है।
आभास और स्पर्श के योग्य ईश्वर को देखने की आशा एक अनुचित आशा है और एक अस्वीकारीय बहाना है
ईश्वर पर ईमान उस समय मूल्यवान है जब वह बुद्धि और तर्क के आधार पर हो।


सूरए बक़रह की आयत नंबर २११ इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर!) बनी इस्राईल से पूछिए कि हमने उन्हें कितनी खुली हुई निशानियां दीं (और उनसे कह दीजिए कि) जो ईश्वर की विभूति को उसे पाने के पश्चात बदल डाले तो निःसन्देह, ईश्वर कड़ा दण्ड देने वाला है। (2:211)
 इतिहास सबसे अच्छा शिक्षास्रोत है। ईश्वर ने बनी इस्राईल को अनेक भौतिक व आध्यात्मिक विभूतियां प्रदान कीं, हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम जैसा पैग़म्बर दिया जिसने उन्हें फ़िरऔन के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई, उनके सांसारिक जीवन के लिए ईश्वर ने उन्हें अच्छी संभावनाएं प्रदान कीं परन्तु उन्होंने ईश्वरीय संभावनाओं को पाप, अत्याचार व ग़लत मार्गों में प्रयोग किया। ईश्वर के स्थान पर बछड़े की उपासना आरंभ की और हज़रत मूसा के स्थान पर "सामेरी" जादूगर से जा मिले। परिणाम स्वरूप उन्हें ईश्वरीय क्रोध व कोप का पात्र बनना पड़ा और उन्होंने इसी संसार में अन्धकारमय भविष्य स्वयं के लिए ख़रीद लिया।
 आज के संसार में भी यद्यपि मनुष्य को उद्योग के क्षेत्र में अनेक विभूतियां व संभावनाएं प्राप्त हैं परन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि ईश्वरीय शिक्षाओं से दूरी के कारण वो उन्हें पाप, अत्याचार तथा समाज की तबाही के मार्ग में प्रयोग कर रहा है।
सूरए बक़रह की २१२वीं आयत इस प्रकार है।
सांसारिक जीवन काफ़िरों के लिए अत्यन्त शोभनीय बना दिया गया है, इसी कारण वे ईमान वालों का परिहास करते हैं, जबकि प्रलय के दिन, ईश्वर का भय रखने वाले उनसे ऊपर होंगे और ईश्वर जिसे चाहता है बेहिसाब रोज़ी देता है। (2:212)
 संसार की तड़क भड़क ने काफ़िरों की आंखों में इस प्रकार चकाचौंध मचा दी है कि वे घमण्डी हो गए हैं और वे ईमान वालों का, जो इन बातों पर ध्यान नहीं देते, मूर्ख कह कर परिहास करते हैं जबकि मनुष्य की वरीयता और श्रेष्ठता का मानदंड सांसारिक संपत्ति व पद नहीं है बल्कि ईश्वर से भय और ईमान जैसी आध्यात्मिक व ईश्वरीय मान्यताएं हैं, जिनके महत्व का प्रलय में पता चलेगा।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २१३ इस प्रकार है।
(सारे) लोग (आरंभ में) एक ही समुदाय थे। (उनके बीच कोई मतभेद नहीं था, फिर धीरे-२ विभिन्न समाज बने और उनके बीच मतभेद उत्पन्न होने लगे) तो ईश्वर ने पैग़म्बरों को भेजा जो शुभ सूचना देने तथा डराने वाले थे और उनके साथ, सत्य के आधार पर आसमानी किताब उतारी ताकि वह लोगों के बीच, जिन बातों के बारे में उनमें मतभेद हैं, फ़ैसला करे, (मोमिनों ने किताब की सत्यता में शक नहीं किया) और केवल उन लोगों (के एक गुट) ने जिन पर यह उतारी गई थी, एक दूसरे पर अत्याचार करने के लिए इसमें मतभेद किया जबकि उनके पास खुली निशानियां आ चुकी थीं तो ईश्वर ने अपनी आज्ञा से, उन लोगों को जो ईमान ला चुके थे, उस सत्य का मार्गदर्शन कर दिया जिसमें लोगों ने मतभेद किया था (और ईमान न लाने वाले अपने मतभेद और पथभ्रष्टता में बाक़ी रहे) और ईश्वर जिसे चाहता है, सीधा मार्ग दिखा देता है। (2:213)
 यह आयत मानव समाजों की व्यवस्था चलाने में धर्म तथा ईश्वरीय क़ानूनों की महत्वपूर्ण भूमिका की ओर संकेत करते हुए कहती है, आरंभ में मनुष्य का जीवन बहुत सादा व सीमित था, परन्तु जैसे-जैसे लोगों की संख्या बढ़ती गई और विभिन्न समाज सामने आते गए वैसे-वैसे स्वाभाविक रूप से उनके बीच मतभेद उत्पन्न होने लगे और क़ानून तथा शासक की आवश्यकता स्पष्ट होती गई।
 यहीं पर पैग़म्बरों को ईश्वर की ओर से लोगों के कल्याण व मार्गदर्शन के लिए नियुक्त किया गया और उन्होंने आसमानी किताबों के आधार पर लोगों के बीच न्याय व शासन किया।
 यद्यपि उन्होंने समाजों में स्थिरता व सुरक्षा उत्पन्न करने का अथक प्रयास किया परन्तु कुछ लोग आंतरिक इच्छाओं, ईर्ष्या तथा हथधर्मी के कारण सत्य को स्वीकार करने पर तैयार नहीं हुए।
 इस बीच केवल मोमिन ही ईश्वर, पैग़म्बरों तथा आसमानी किताबों पर ईमान की छाया में एकता और शांति प्राप्त कर पाते हैं तथा सत्य और मार्गदर्शन की ओर बढ़ते हैं परन्तु काफ़िर अपने भौतिक मतभेदों में ही फंसे रहते हैं जो उनकी पथभ्रष्टता का कारण है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २१४ इस प्रकार है।
क्या तुम यह सोचते हो कि तुम स्वर्ग में प्रवेश कर जाओगे जबकि अभी तो तुम लोगों के साथ वैसी घटनाएं हुई ही नहीं हैं जो तुमसे पहले वालों के साथ हुई थीं। तंगी और कठिनाइयों ने उन्हें घेरे रखा और उन्हें बेचैन किया तथा झिंझोड़ा जाता रहा यहां तक कि पैग़म्बर और उनके साथ के मोमिन पुकार उठे कि ईश्वर की सहायता (कब आएगी)? जान लो कि ईश्वर की सहायता निकट ही है। (2:214)
 पिछली आयत में मार्गदर्शन व कल्याण की प्राप्ति तथा मतभेदों से दूरी में ईश्वर पर ईमान की भूमिका के वर्णन के पश्चात यह आयत कहती है कि केवल दिल से ईमान रखना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि व्यवहार में भी कटु व संकटमयी घटनाओं के समक्ष ईश्वर पर भरोसा करते हुए अपने ईमान की सुरक्षा करनी चाहिए और जीवन के उतार-चढ़ाव में ईश्वर के मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि सारी घटनाएं और कठिनाइयां, परीक्षाए हैं और लोगों के ईमान को आंकने का साधन।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
 संसार के प्रेम व मोह, मनुष्य के घमण्ड व दूसरों के परिहास का काण है जबकि ईश्वर का प्रेम व भय लोक व परलोक में मुक्ति व कल्याण तथा ईश्वर की असीम कृपा की प्राप्ति का कारण है।
 समाज को क़ानून व शासक की आवश्यकता होती है और बेहतरीन क़ानून आसमानी किताबों तथा सबसे अच्छे शासक ईश्वरीय पैग़म्बर और धार्मिक नेता हैं।
 विभिन्न पारिवारिक व सामाजिक मामलों में मतभेद समाप्त करने का सबसे अच्छा मार्ग, ईश्वरीय क़ानूनों के समक्ष सिर झुकाना है।
 बिना कठिनाई उठाए स्वर्ग में जाने की आशा रखना अनुचित आशा है।
 सभी मनुष्यों के लिए परीक्षा एक अटल ईश्वरीय परंपरा है ताकि हर कोई अपने वास्तविक मूल्य को समझ सके और उसे दर्शा सके।


सूरए बक़रह की आयत नंबर २१५ इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर) वे आपसे पूछते हैं कि भलाई के मार्ग में क्या ख़र्च करें? कह दीजिए कि माता-पिता, परिजनों, अनाथों, दरिद्रों तथा राह में रह जाने वालों के लिए तुम जो चाहे भलाई करो, और तुम भलाई का जो भी काम करते हो, निःसन्देह ईश्वर उसको जानने वाला है। (2:215)
 ईमान वालों की एक निशानी, जिसकी ओर पवित्र क़ुरआन की अनेक आयतों में संकेत किया गया है, वंचित लोगों पर ध्यान देना तथा उनकी सहायता करना है इसी कारण इस्लाम के उदय के समय के मुसमलानों ने पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से प्रश्न किया कि हम किस वस्तु को और कितनी मात्रा में, भलाई के मार्ग में ख़र्च करें?
 चूंकि भलाई के लिए वस्तु और उसकी मात्रा निर्धारित नहीं की जा सकती बल्कि वो हमारी संभावनाओं और दूसरे पक्ष की आवश्यकताओं पर निर्भर होती है अतः पवित्र क़ुरआन इसके उत्तर में कहता है।
 भलाई के मार्ग में ख़र्च करने के लिए महत्वपूर्ण बात ये है कि वस्तु लाभदायक होनी चाहिए, अब वो चाहे जो वस्तु हो और जितनी मात्रा में हो, और इस का्र्य में तुम्हें सब की ओर ध्यान रखना चाहिए। अपने बूढे मां-बाप, वंचित नातेदार और समाज के अन्य वर्गों के ज़रूरतमंद लोगों की भी सहायता करनी चाहिए। यह आयत अंत में कहती है कि केवल दान दक्षिणा ही नहीं बल्कि लोगों की भलाई के लिए तुम जो कार्य भी करते हो उससे ईश्वर परिचित है अतः तुम इस बात का प्रयास न करो कि लोग तुम्हारे भले कर्मों को जान लें बल्कि तुम छिपा कर दान देने का प्रयत्न करो जो निष्ठा के अधिक समीप है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २१६ इस प्रकार है।
तुम्हारे लिए युद्ध अनिवार्य किया गया, जबकि वो तुम्हारे लिए अप्रिय है, और हो सकता है कि एक बात तुम्हें बुरी लगे परन्तु (वास्तव में) वो तुम्हारे लिए भली हो, और हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें अच्छी लगे और (वास्तव में) वह तुम्हारे लिए बुरी हो, और ईश्वर जानता है तथा तुम नहीं जानते। (2:216)
 ईश्वर ने धर्म की सुरक्षा के लिए शत्रुओं से जेहाद को मोमिनों के लिए अनिवार्य किया है परन्तु प्राकृतिक रूप से मनुष्य आराम व ऐश्वर्य में रुचि रखता है और युद्ध को पसंद नहीं करता जो मृत्यु, घाव और क्षति का कारण है।
 यह आयत कहती है कि यद्यपि शत्रु के साथ युद्ध युद्ध कठिन और अप्रिय है परन्तु तुम्हारे लोक व परलोक का कल्याण उसी पर निर्भर है। अतः तुम ईश्वरीय आदेशों के मुक़ाबले में, अपनी आंतरिक इच्छाओं के आधार पर अच्छे और बुरे का निर्धारण न करो। तुम उस बच्चे की भांति न बन जाओ जो इन्जेक्शन को नापसंद करता है जबकि उसका स्वास्थ्य और जीवन उससे संबन्धित है और वह चटपटी चीज़ों को पसंद करता है जो बीमारी में उसके लिए हानिकार हैं। इस आयत के आधार पर न हर अच्छी लगने वाली वस्तु अच्छी होती है और न हर बुरी लगने वाली वस्तु बुरी होती है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २१७ और २१८ इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर) यह लोग आपसे वर्जित महीने में युद्ध के बारे में प्रश्न करत हैं, कह दीजिए कि उसमें युद्ध करना बड़ा पाप है परन्तु ईश्वर के मार्ग से रोकना, उसका इन्कार करना, मस्जिदुल हराम का अनादर तथा उसमें रहने वालों को वहां से निकालना, ईश्वर की दृष्टि में युद्ध करने से भी बड़ा पाप है और दंगा फैलाना, रक्तपात से भी बढ़कर है। और (हे ईमान वालो!) जान लो कि यह अनेकेश्वरवादी सदैव तुमसे युद्ध करते रहेंगे यहां तक कि यदि उनसे हो सके तो वे तुम्हें तुम्हारे धर्म से फेर दें, और जान लो कि तुम में से जो कोई भी धर्म से पलट जाए और कुफ़्र की अवस्था में मर जाए तो लोक व परलोक में उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं और ऐसे ही लोग नरक (में रहने) वाले हैं और सदैव उसी में रहेंगे। (2:217) निःसन्देह, जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने हिजरत अर्थात पलायन किया और ईश्वर के मार्ग में जेहाद किया, वही ईश्वर की दया व कृपा की आशा रखते हैं और ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (2:218)
 जैसा कि हमने पिछले कार्यक्रमों में कहा था कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से अरबों में यह परंपरा थी कि वे वर्ष के ४ महीनों में युद्ध को वर्जित समझते थे, इस्लाम ने भी इस अच्छी परंपरा को स्वीकार किया और रजब, ज़ीक़ादा, ज़िलहिज्जा तथा मुहर्रम के महीनों में युद्ध को वर्जित घोषित कर दिया।
 इस आयत के बारे में इतिहास में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने बद्र नामक युद्ध से पूर्व, आठ लोगों के एक गुट को शत्रु की स्थिति की सूचना एकत्रित करने के लिए मक्के भेजा। उन्हें मार्ग में क़ुरैश का एक कारवां मिला जिसमें मक्के के काफ़िरों का एक मुखिया भी था।
 पैग़म्बर के प्रतिनिधियों ने इस बात पर ध्यान दिये बिना कि वे वर्जित महीने में हैं, कारवान पर आक्रमण करके उस व्यक्ति की हत्या करके कुछ लोगों को बंदी बना लिया और कारवां के माल के साथ वे पैग़म्बरे इस्लाम के पास आए।
 पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम इस कार्य से बहुत अप्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि मैंने उनपर आक्रमण का आदेश नहीं दिया था, वह भी वर्जित महीने में। अतः उन्होंने बंदियों और कारवां के माल को स्वीकार नहीं किया और अन्य मुसलमानों ने भी उस आठ सदस्सीय गुट की आलोचना की।
 शत्रु ने इस परिस्थिति से ग़लत लाभ उठाते हुए कहा कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम वर्जित महीने में युद्ध, रक्तपात तथा बंदी बनाए जाने को वैध समझते हैं और मुसलमानों को इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं।
 शत्रुओं के इस प्रकार के प्रचारों के मुक़ाबले में ये आयत उतरी और इसने इस महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत किया कि यद्यपि वर्जित महीने में युद्ध करना पाप है परन्तु यह कार्य पैग़म्बरे इस्लाम की अनुमति के बिना किया गया जबकि तुम्हारे द्वारा मुसलमानों को यातनाएं देना और उन्हें उनके घरों से निकालना तथा ईश्वर के घर, काबे का मार्ग उनपर केवल कुछ महीनों के लिए नहीं अपितु पूरे वर्ष के लिए बंद करना, इस हत्या से कहीं बड़ा पाप है।
 इसके बाद यह आयत मुसलमानों को सचेत करती है कि तुम होशियार रहो और यह न सोचो कि शत्रु ने तुम्हे छोड़ दिया है। ऐसा नहीं है बल्कि वह सदैव तुम्हें तुम्हारे धर्म से विचलित करने के प्रयास में है, तो तुम जान लो कि जो कोई अपना ईमान छोड़ दे तो संसार में उसके सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं और प्रलय में भी वो नरक में जाएगा।
 दूसरी ओर चूंकि मुसलमानों ने कारवान पर आक्रमण किया था और ईश्वर की प्रसन्नता के लिए अपना घर-बार छोड़ा और जेहाद किया था तथा उनका कोई सांसारिक उद्देश्य नहीं था, अतः ईश्वर ने उनके पाप को क्षमा कर दिया तथा २१८वीं आयत उनके क्षमा दान के बारे में भेजी।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
 भले कार्यों में ज़रूरतमंद माता-पिता, परिजनों और नातेदारों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
 भला कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता, चाहे दूरे उसे जानें या न जानें चाहे वो स्पष्ट रूप से किया गया हो या छिपा कर।
 भलाई और बुराई का मानदंड, मनुष्य की इच्छाएं नहीं बल्कि ईश्वरीय आदेश हैं जो मनुष्य के हित व उसके सौभाग्य के आधार पर निर्धारित किए गए हैं।
 मनुष्य का ज्ञान सीमित है जबकि ईश्वर का ज्ञान असीम है अतः हमें ईश्वरीय आदेशों के सामने नतमस्तक होना चाहिए, चाहे कुछ आदेशों का उद्देश्य और लाभ हमारी समझ में न आए या उसे करना हमारे लिए कठिन हो।
 हमें अपने व्यवहार और कार्यों के प्रति सचेत करना चाहिए कहीं ऐसा न हो कि शत्रु हमारी ग़लतियों को बहाना बनाकर उन्हें हमारे विरुद्ध प्रयोग करो।
 निर्णय लेने में सामने की बातों को नहीं बल्कि वास्तविकताओं को देखना चाहिए, घटना के मूल कारण को देखना चाहिए न कि उसके बाद की परिस्थिति को, एक उपद्रवी व षड्यंत्रकारी खुल कर किसी की हत्या नहीं करता, परन्तु उसका कार्य दंगे और अशांति का कारण बनकर कई लोगों की हत्या करा सकता है। 

सूरए बक़रह की आयत नंबर २१९ और २२० इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर!) वे तुमसे शराब और जुए के बारे में पूछते हैं। कह दो कि इन दोनों में बड़ा पाप है और लोगों के लिए (यद्यपि) कुछ भौतिक लाभ भी हैं परन्तु इनका पाप इनके लाभ से कही बढ़कर है। और वे तुमसे पूछते हैं कि (भलाई के मार्ग में) क्या ख़र्च करें? कह दो कि जो तुम्हारी आवश्यकता से अधिक हो। इस प्रकार ईश्वर तुम्हारे लिए अपनी आयतें स्पष्ट करता है ताकि शायद तुम संसार और प्रलय के बारे में सोच विचार करो। (2:219) इसी प्रकार वे तुमसे अनाथों के बारे में पूछते हैं कह दो कि जिसमें उनका हित हो वही बेहतर है और यदि तुम उन्हें अपने साथ मिला लो तो वे तुम्हारे भाई ही हैं और ईश्वर बिगाड़ चाहने वाले को भला चाहने वाले से अलग पहचानता है, और यदि ईश्वर चाहता तो तुम्हें कठिनाई में डाल देता निःसन्देह वो प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। (2:220)
 इन दो आयतों में मुसलमान अपने जीवन में सामने आने वाले तीन विषयों के बारे में पैग़म्बर से प्रश्न करते हैं और पैग़म्बर, ईश्वरीय सन्देश "वहि" के आधार पर उनका उत्तर देते हैं। इस्लाम से पूर्व अरबों की बुरी आदत शराब पीना और जुआ खेलना थी, इसी कारण कुछ मुसलमानों ने शराब व जुए के बारे में पैग़म्बर से प्रश्न किया। पैग़म्बर ने ईश्वरीय संदेश के आधार पर उत्तर दिया कि यद्यपि अंगूर लगाने तथा उससे शराब बनाकर बेचने में तुममें से कुछ लोगों के लिए आर्थिक लाभ हो या जुए में एक पक्ष को काफ़ी पैसा मिल जाए, परन्तु इन दोनों की बुराई इनके विदित फ़ायदों से कहीं बढ़कर है अतः तुम इन्हें छोड़ दो।
 मुसलमानों का दूसरा प्रश्न दान-दक्षिणा और दूसरों की सहायता के बारे में था कि क्या चीज़ और कितनी मात्रा में ख़र्च करनी चाहिए इसके उत्तर में भी ईश्वरीय संदेश "वहि" के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम कहते हैं, जो भी वस्तु तुम्हारी आवश्यकता से अधिक हो उसे दान करो, न अपना पूरा माल दान कर दो कि स्वयं तुम्हें दूसरों से मांगने की आवश्यकता पड़ जाए और न दरिद्रों और वंचितों के प्रति लापरवाह रहो कि दूसरे उसी प्रकार वंचित रह जाएं बल्कि संतुलित मार्ग अपनाओ।
 पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से किया जाने वाला एक अन्य प्रश्न अनाथों की देखभाल के संबन्ध में था, क्योंकि कुछ मुसलमानों ने इस भय से कि कहीं अनाथों का माल उनके माल से मिल न जाए, उनके भोजन और बर्तन तक को अलग कर दिया था और इस कारण उन्हें काफ़ी कठिनाई हो रही थी।
 पैग़म्बर ने इस प्रश्न के उत्तर में भी ईश्वरीय संदेश के आधार पर कहा कि जो बात महत्वपूर्ण है वो अनाथ के काम में अच्छाई और सुधार है, उसकी इस प्रकार देखभाल की जाए कि जिसमें उसका फ़ायदा हो न ये कि अनाथों का माल अपने माल से मिल जाने के भय से तुम उनकी देखभाल का दायित्व ही न हो या उन्हें अकेला छोड़ दो।
 उनके जीवन और तुम्हारे जीवन के मिलने में उस समय तक कोई रुकावट नहीं है जबतक उनका माल बर्बाद न हो, या तुम उनके माल से अनुचित लाभ न उठाओ। जान लो कि ईश्वर तुम्हारे कर्मों को देख रहा है और भला चाहने वाले तथा बुरा चाहने वाले को अलग-अलग पहचानता है। ईश्वर नहीं चाहता कि तुम कठिनाई में पड़ो इसलिए उसने अनाथों के माल को अपने माल से अलग रखने का आदेश नहीं दिया है अतः तुम लोग स्वयं इसका ध्यान रखो। 
सूरए बक़रह की २२१वीं आयत इस प्रकार है।
और अनेकेश्वरवादी स्त्रियों से जब तक वे ईमान न लाएं विवाह न करो, ईमान वाली एक दासी, एक अनेकेश्वरवादी महिला से बेहतर है, यद्यपि वो तुम्हें भली ही लगे। और इसी प्रकार अनेकेश्वरवादी पुरूषों से अपनी स्त्रियों का विवाह न करो जब तक कि वे ईमान न ले आएं, निःसन्देह ईमान वाला एक दास एक अनेकेश्वरवादी पुरुष से बेहतर है चाहे वो तुम्हें भला ही क्यों न लगे। ये लोग तुम्हें (नरक की) आग की ओर बुलाते हैं और ईश्वर अपनी आज्ञा से स्वर्ग तथा क्षमा की ओर बुलाता है और वह अपनी आयतों को लोगों के लिए स्पष्ट कर देता है शायद वे सचेत हो जाएं। (2:221)
 इस्लाम, विवाह तथा परिवार गठन के विषय को विशेष महत्व देता है और जीवन साथी के चयन के लिए उसने कुछ शर्तें रखी हैं। सबसे पहली शर्त उसका सही ईमान और उचित आस्था है क्योंकि अनुभव से सिद्ध हो चुका है कि परिवार का वातावरण और माता पिता का व्यवहार बच्चों के प्रशिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
 खेद के साथ कहना पड़ता है कि आजकल लोगों की सामाजिक स्थिति और संपत्ति, जीवनसाथी के चयन में महत्वपूर्ण भमिका निभाती है और आध्यात्मिक मान्यताओं तथा विशेषताओं पर इस पवित्र काम में कम ही ध्यान दिया जाता है। परन्तु धर्म की दृष्टि से एक ईमान वाले दास को, जो सामाजिक दृष्टि से अत्यंत निचले स्तर पर है, ईमान न रखने वाले एक स्वतंत्र व्यक्ति पर वरीयता प्राप्त है क्योंकि इस्लाम की दृष्टि में वरीयता का मानदंड, पवित्रता तथा अच्छा चरित्र है न कि धन और पद।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
 कार्य का चयन करते समय हमें अपनी आत्मा तथा मन के लिए हानिकारक कार्य नहीं चुनना चाहिए चाहे उसमें आय अधिक ही क्यों न हो। जैसाकि शराब बनाने और बेचने तथा जुए में अधिक आय होती है परन्तु पवित्र क़ुरआन ने इससे रोका है।
 समाज की सुरक्षा व स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए। ईश्वर ने बुद्धि को नष्ट करने वाली शराब और आर्थिक अशांति तथा द्वेष और अपराधों का कारण बनने वाले जुए को हराम कर दिया है।
 अपने अतिरिक्त माल में से संतुलन के साथ वंचितों की सहायता करनी चाहिए, ऐसी दशा में हमने दूसरों का जीवन भी बचाया और स्वयं भी अपव्यय नहीं किया।
 यदि हम ईश्वरीय आदेशों पर विचार करें तो हम समझ जाएंगे वे सभी क़ानून मनुष्य तथा समाज की भलाई के लिए बनाए गए हैं अतः उनके पालन में हमें सुस्ती नहीं करनी चाहिए।
 बिना अभिभावक के बच्चों को समाज में यूंही नहीं छोड़ देना चाहिए। इस्लामी समाज को ऐसे बच्चों की देखभाल तथा उनकी संपत्ति की रक्षा करनी चाहिए।
 विवाह का पवित्र बंधन ईमान के आधार पर बांधना चाहिए ताकि समाज को पवित्र और भली पीढ़ी दी जा सके।
 जीवन साथी के चयन में आध्यात्मिक मान्यताओं को दृष्टि में रखना चाहिए न कि विदित सौन्दर्य और धन संपत्ति को। हमें अपने अंत के बारे में सोचना चाहिए कि यह विवाह हमारे लिए स्वर्ग की भूमि समतल कर रहा है या नरक की।

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