कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2:190-199-जिहाद

सूरए बक़रह की आयत नंबर १९० इस प्रकार है। और ईश्वर के मार्ग में उन लोगों से युद्ध करो जो तुमसे युद्ध करते हैं परन्तु अतिक्रमण न करो कि ईश...

सूरए बक़रह की आयत नंबर १९० इस प्रकार है।
और ईश्वर के मार्ग में उन लोगों से युद्ध करो जो तुमसे युद्ध करते हैं परन्तु अतिक्रमण न करो कि ईश्वर निःसन्देह, अतिक्रमणकारियों को पसंद नहीं करता। (2:190)

 शत्रु के आक्रमण से स्वयं की प्रतिरक्षा, मनुष्य का एक मूल अधिकार है। परन्तु क़ुरआन हर प्रकार के अतिक्रमण का मुक़ाबला करने पर बल देते हुए कहता है, शत्रु को इस्लाम का निमंत्रण देने से पूर्व हथियार न उठाओ और युद्ध आरंभ न करो और युद्ध में भी बच्चों, महिलाओं और वृद्धों पर जो तुम से युद्ध नहीं कर रहे हैं, हाथ न उठाओ तथा मानवीय भावनाओं का युद्ध में भी ध्यान रखो।
इस आयत से हमने यह बातें सीखीं।
 जेहाद अर्थात धर्म युद्ध ईश्वर के मार्ग में और ईश्वर के लिए होना चाहिए न कि भूमि विस्तार के लिए या राष्ट्रीय एवं सांप्रदायिक मतभेदों के आधार पर।
 युद्ध में भी न्याय को दृष्टिगत रखना आवश्यक है तथा ईश्वरीय सीमाओं को नहीं लांघना चाहिए।

सूरए बक़रह की आयत संख्या ९१९ व १९२ इस प्रकार है।
और उन्हें जहां भी पाओ उनका वध कर डालो और उन्हें वहां से निकाल बाहर करो जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला था, क्योंकि दंगा हत्या से भी बुरा है और मस्जिदुल हराम में उनसे युद्ध न करो परन्तु ऐसी स्थिति में कि वे तुम से वहां युद्ध करें। यदि उन्होंने युद्ध आरंभ किया हो तो उनका वध कर डालो (संसार में) काफ़िरों का बदला यही है। (2:191) परन्तु यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो निःसन्देह ईश्वर बड़ा ही दयावान और क्षमाशील है। (2:192)
 ये आयतें मुसलमानों को आदेश देती हैं कि वे मक्के के अनेकेश्वरवादियों के साथ वैसा ही व्यवहार करें जैसा उन्होंने मुसलमानों के साथ किया हो क्योंकि उन्होंने मुसलमानों को उनके घर और नगर से निकाल दिया था और वे मुसलमानों को एसी यातनाएं देते थे जो पवित्र क़ुरआन के शब्दों में हत्या से भी अधिक बुरी थीं।
 अलबत्ता ईश्वर ने मस्जिदुल हराम के सम्मान व पवित्रता की रक्षा के लिए वहां युद्ध की अनुमति नहीं दी है, सिवाए इसके कि अनेकेश्वरवादी स्वयं ही उस पवित्र स्थान में युद्ध आरंभ करें कि ऐसी दशा में अपनी रक्षा करना हर स्थान पर आवश्यक व अनिवार्य है।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
 जो लोग इस्लाम व मुसलमानों को क्षति पहुंचाने के लिए हर अवसर से लाभ उठाते हैं उनका मुक़ाबला करना चाहिए और उन्हें अपने विरुद्ध षड्यंत्र और दंगा करने की अनुमति नहीं देना चाहिए।
 ईश्वर का घर यद्यपि सम्मानीय है परन्तु मुसलमानों के ख़ून का सम्मान उससे भी अधिक है और इसे दृष्टिगत रखना अतयंत आवश्यक है।
 धर्म के शत्रुओं के बारे में "जैसे के साथ तैसा" इस्लाम का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है।

सूरए बक़रह की आयत संख्या १९३ इस प्रकार है।
ईश्वर के शत्रुओं से युद्ध करो ताकि (कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद का) कलंक बाक़ी न बचे और धर्म केवल ईश्वर के लिए रहे, यदि उन्होंने अतिक्रमण और अत्याचार से हाथ खींच लिया तो, शत्रुता अत्याचारियों के अतिरिक्त किसी अन्य के लिए नहीं है। (2:193)

 इस्लाम में युद्ध और जेहाद का उद्देश्य, अपनी भूमि का विस्तार-सांप्रदायिक्ता तथा युद्ध में प्राप्त होने वाला माल बटोरना नहीं है बल्कि इसके विपरीत उद्देश्य, अत्याचार व अतिक्रमण की समाप्ति तथा कुफ़्र अनेकेश्वरवाद और अंधविश्वास का अंत करना है ताकि न्याय और ईश्वर के धर्म की ओर लोगों के मार्गदर्शन की संभावना को व्यवहारिक बनाया जा सके।
 अतः मुसलमान केवल उन लोगों के साथ जेहाद करते हैं जो ईश्वरीय धर्म से मुक़ाबले या मुसलमानों को यातनाएं देने का प्रयास करते हैं और यदि वे इस कार्य से हाथ खींच ले तो एसी दशा में मुसलमानों की ओर से युद्ध आरंभ नहीं होगा और किसी पर भी केवल इस कारण आक्रमण नहीं किया जा सकता कि वह इस्लाम में आस्था नहीं रखता।
इस आयत से मिलने वाले पाठः
धरती में ईश्वरीय धर्म को स्थापित करने के लिए ग़लत आस्थाओं और विचारों का प्रचार करने वाले अत्याचारी शासकों से मुक़ाबला करना चाहिए।
 वापसी और तौबा का द्वार किसी के लिए भी और किसी भी परिस्थिति में बंद नहीं है यहां तक कि काफ़िर शत्रु भी यदि युद्ध के मैदान में अपनी ग़लत आस्था और व्यवहार को बदल दे तो ईश्वर उसे क्षमा कर देगा।

सूरए बक़रह की आयत संख्या १९४ इस प्रकार है।
वर्जित महीना, वर्जित महीनों के मुक़ाबले में है और सभी वर्जित (अपराधों पर) क़ेसास अर्थात बदला है तो जिस किसी ने तुम पर वर्जित महीने में अतिक्रमण किया, तुम भी उसके साथ वैसा ही करो और ईश्वर से डरो तथा जान लो कि ईश्वर पवित्र लोगों के साथ है। (2:194)

 इस्लाम में वर्ष के चार महीनों में युद्ध वर्जित है। ये महीने हैं रजब, ज़ीक़ादा, ज़िलहिज्जा तथा मुहर्रम। मक्के के अनेकेश्वरवादी इस ईश्वरीय आदेश का ग़लत लाभ उठाकर मुसलमानों पर इन वर्जित महीनों में आक्रमण करना चाहते थे। वे जानते थे कि मुसलमनों को इन महीनों में युद्ध की अनुमति नहीं है परन्तु वे यह नहीं जानते थे कि मुसलमानों के ख़ून का सम्मान इन महीनों के सम्मान से कहीं अधिक है, और जो भी इस सम्मान का अनादर करेगा उसे क़ेसास किया जाएगा अर्थात जैसा उसने किया है वैसा ही उसके साथ किया जाएगा।
इस आयत से मिलने वाले पाठः
शत्रु सदैव ही हमारी ताक में है अतः उसे अवसरों से लाभ उठाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
 सामाजिक समझौतों और संधियां उस समय तक सम्मानीय हैं जब तक दूसरा पक्ष उनका पालन करता रहे, न यह कि वह उनसे अनुचित लाभ उठाने का इरादा रखता हो।
 शत्रु के साथ भी हमें न्याय करना चाहिए और सीमा को पार नहीं करना चाहिए।

सूरए बक़रह की आयत संख्या १९५ इस प्रकार है।
ईश्वर के मार्ग में दान करो और (इसे छोड़कर) स्वयं को अपने ही हाथों कठिनाई में न डालो और भलाई करो कि ईश्वर, भलाई करने वालों को पसंद करता है। (2:195)

 पिछली आयतों में जेहाद का आदेश दिया गया था परन्तु स्पष्ट है कि कोई भी युद्ध आर्थिक समर्थन और मोर्चों पर योद्धाओं और घरों पर उनके परिजनों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना संभव नहीं है और यदि मुसलमान ईश्वर के मार्ग में अपनी जान और माल का बलिदान देने के लिए तैयार नहीं हुए तो वे पराजित हो जाएंगे और स्वयं को कठिनाइयों में डाल देंगे।
 अलबत्ता यदि शांति और संधि के समय में भी धनवान समाज के निर्धनों का ध्यान नहीं रखेंगे और अपने ख़ुम्स और ज़कात पर ध्यान नहीं देंगे तो स्वाभाविक है कि समाज में आर्थिक अंतर में वृद्धि होगी और अन्याय तथा असुरक्षा की भूमि समतल होगी।
 इस आधार पर दूसरों की आर्थक सहायता, जो संपत्ति के संतुलन का कारण है, वास्तव में संपत्ति और धन की रक्षा करती है, जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है, ज़कात देकर अपनी संपत्ति की रक्षा करो
इस आयत से मिलने वाले पाठः
 जब कभी भी कंजूसी और धन एकत्रित करने की भावना का राज होगा तो समाज का जीवन और सम्मान ख़तरे में पड़ जाएगा।
 जो कार्य भी मनुष्य को क्षति पहुंचाए और उसके लिए ख़तरे का कारण बने वह वर्जित है।

सूरए बक़रह की आयत नंबर १९६ इस प्रकार है।
हज और उमरे को ईश्वर के लिए पूर्ण करो और यदि तुम घेर लिए गए (तथा एहराम बांधने के बाद मक्के जाने में बाधा उत्पन्न कर दी गई। तो ईश्वर के समक्ष बलि के लिए जो कुछ उपलब्ध हो (उसे ज़िबह करो और एहराम उतार दो) और अपने बाल न मुंडवाओ यहां तक कि बलि अपने स्थान तक पहुंच जाए और (बलिदान के स्थान पर ज़िबह हो) परन्तु यदि कोई बीमार हो या उसके सिर में कोई पीड़ा (और वे अपने बालों को जल्दी मुंडवा ले) तो उसे रोज़े या सदक़े या क़ुरबानी (बलि) के रूप में फ़िदया अर्थात (प्रतिदान) देना चाहिए। और जब शांति हो तो जो कोई हज का समय आने तक उमरे से लाभ उठाए तो, वह जो भी बलि सुलभ हो (ज़िबह करे) और जिसे सुलभ न हो तो वह तीन दिन के रोज़े हज के दिनों में रखे और सात रोज़े तब रखे जब तुम वापस आ जाओ, ये पूरे दस हुए। ये आदेश उनके लिए हैं जिनका परिवार मस्जिदे हराम के निकट न रहता हो और ईश्वर से डरते रहो तथा जान लो कि ईश्वर कड़ी यातना देने वाला है। (2:196)

 जैसा कि आप जानते हैं कि हज के संस्थापक हज़रत इब्राहीम थे और उन्हीं के समय से अरबों के बीच ये संस्कार प्रचलित है। इस्लाम ने भी इसे मान्यता दी है अतः हर मुसलमान के लिए आवश्यक है कि आर्थिक संभावना होने की स्थिति में अपनी आयु में एक बार हज करने के लिए जाए।
 परन्तु उमरा, जिसका अर्थ है तीर्थ यात्रा, केवल उसी पर अनिवार्य है जो मक्के में प्रेवश करता है, उसे काबे के तवाफ़ अर्थात परिक्रमा और नमाज़ सहित कुछ संक्षिप्त कार्य करने पड़ते हैं।
 हज और उमरे के आदेश के पश्चात, चूंकि उपासना की इस यात्रा में संभावित रूप से कुछ लोगों को कठिनाइयां हो सकती हैं। इसलिए ये आयत कुछ आदेशों का वर्णन करती है ताकि ये स्पष्ट हो जाए कि ईश्वरीय कर्तव्य मनुष्य की शक्ति व क्षमता के अनुसार ही हैं और ईश्वर ने उसकी शक्ति से बढ़कर कभी कोई चीज़ नहीं चाही है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या १९७ इस प्रकार है।
हज के कुछ निर्धारित महीने हैं तो जिस किसी ने इसमें हज का निश्चय कर लिया वो जान ले कि हज में पत्नी के पास जाना, पाप या अवज्ञा करना तथा (अन्य लोगों से) लड़ाई झगड़ा वैध नहीं है और मार्ग सामग्री ले लो कि सबसे अच्छी मार्ग सामग्री ईश्वर का भय है, तो केवल मुझसे डरते रहो, हे बुद्धि वालो! (2:197)

 हज एक वर्ष में एक बार, वह भी निर्धारित समय में किया जाता है और जो भी हज के लिए जाए तो आरंभ से ही उसे पवित्रता को इस आध्यात्मिक यात्रा में अपनी मार्ग सामग्री बनाना चाहिए तथा भले कर्म करने चाहिए और पाप व लड़ाई झगड़े से दूर रहने का प्रयास करना चाहिए।

सूरए बक़रह की आयत संख्या १९८-१९९ इस प्रकार है।
इसमें तुम्हारे लिए कोई दोष नहीं है कि तुम अपने पालनहार से कृपा चाहो, तो जब अरफ़ात से चलो तो "मश्अरे हराम" में ईश्वर को याद करो। उसे याद करो कि इससे पूर्व तुम पथभ्रष्ट थे और उसने तुम्हारा मार्गदर्शन किया। (2:198) फिर जहां से लोग चलते हैं तुम (किसी ओर) चलो और ईश्वर से क्षमा चाहो, निःसन्देह वो अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (2:199)

 पिछली आयतों में आपने सुना कि हज में ऐसे हर कार्य से रोका गया था कि जो मुसलमानों की एकता और सुरक्षा को ख़तरे में डाल दे, परन्तु यह आयत जाहिलियत अर्थात अज्ञानता के काल के अरबों के विश्वास के विरुद्ध, जो आर्थिक लेन देन को हज में पाप समझते थे, कहती है कि आर्थिक लेन देन जो इस महान कार्यक्रम से जुड़े हुए हैं, न केवल यह कि वैध है बल्कि आवश्यक भी हैं।
 इसके पश्चात, आयत हज के एक अन्य आदेश, अरफ़ात से मशअर की ओर चलने का वर्णन करते हुए कहती है कि प्रथम तो यह कि इस मार्ग में सदैव ही ईश्वर को याद करते रहो कि किस प्रकार उसने तुम्हें पथभ्रष्टता से मुक्ति दिलाकर सत्य की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन किया और दूसरे गुट के रूप में और लोगों के साथ मिलकर आगे बढ़ो तथा स्वयं के लिए कोई विशिष्टता न चाहो।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
 इस्लाम में कोई बंद गली नहीं है। इस्लाम विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार और उनके अनुकूल आदेश देता है। जो व्यक्ति हज को जारी रखने में अक्षम है वो उसके स्थान पर रोज़ा रख सकता है या सदक़ा दे सकता है अर्थात दान कर सकता है या एक भेड़ को ज़िबह करके दरिद्रों को खाना खिला सकता है।
 मक्के की धरती सुरक्षा एकता व उपासना का केन्द्र है अतः हज के दिनों में इस केन्द्र को हर प्रकार के लड़ाई झगड़े, पाप या यौन संबन्धों से दूर रहना चाहिए ताकि ईश्वर के सामिप्य की भूमि समतल हो सके।
 इस्लाम एक व्यापक धर्म है और उसने हज सरीखी उपासनाओं के साथ ही लोगों के भौतिक जीवन तथा आय प्राप्ति पर भी ध्यान दिया है।
 यात्रा में भौतिक नेमतों से लाभ उठाना चाहिए परन्तु ईश्वर की याद की ओर से निश्चेत नहीं होना चाहिए।
 हज में लोगों के पदों या उनकी विशेषताओं को अलग रखना चाहिए तथा सबको मिलकर और एक दूसरे के समान, हज को पूरा करना चाहिए। 

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