कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2:149- ,अकारण बहस मना है क्यूंकि अल्लाह एक है |
सूरए बक़रह की आयत संख्या १४८ इस प्रकार है। और हर किसी के लिए क़िब्ला वह दिशा है जिस ओर वह अपना मुख करता है अतः (हर गुट के क़िब्ले के बार...
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सूरए बक़रह की आयत संख्या १४८ इस प्रकार है।
और हर किसी के लिए क़िब्ला वह दिशा है जिस ओर वह अपना मुख करता है अतः (हर गुट के क़िब्ले के बारे मे व्यर्थ बहस करने के स्थान पर) भलाई करने में एक दूसरे से आगे बढ़ो और जान लो कि तुम जहां कहीं भी रहोगे, ईश्वर (प्रलय के दिन) तुम्हें हाज़िर करेगा, निःसन्देह ईश्वर हर बात में सक्षम है। (2:148)
क़िबले की दिशा महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इतिहास के विभिन्न कालों में अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग क़िबले थे। महत्वपूर्ण बात ईश्वर के आदेश का पालन है अतः व्यर्थ में उन बातों पर बहस नहीं करना चाहिए जो धर्म के सिद्धांत से नहीं हैं।
ईश्वर की दृष्टि में मानदण्ड अच्छा कर्म है कि इस कार्य में मनुष्य को दूसरों से आगे बढ़ना चाहिए और बात के स्थान पर कार्य करना चाहिए।
मुक़ाबला उन बातों में से है जिसपर मनुष्य ने प्राचीन काल से ध्यान दिया है कभी वो खेल के मैदान में मुक़ाबले आयोजित करता है तो कभी ज्ञान के मैदान में।
परन्तु क़ुरआन मुक़ाबले के लिए किसी विशेष मैदान का उल्लेख किए बिना कहता है कि उस कार्य में जो मनुष्य और समाज के लिए बेहतर हो मुक़ाबला करो और दूसरों से आगे बढ़ने का प्रयास करो।
परन्तु इन मुक़ाबलों को ईश्वरीय रंग देने के लिए हर कार्य में प्रलय का भी ध्यान रखो वहां के लिए कार्य करो क्योंकि तुम्हारा वास्तविक बदला तो नहीं है।
सूरए बक़रह की आयत १४९-१५० इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर!) जहां से भी (यात्रा के लिए) बाहर निकलो तो (नमाज़ के समय) अपना मुख मस्जिदुल हराम की ओर कर लो कि निःसन्देह, यह तुम्हारे पालनहार की ओर से सत्य आदेश है और जो कुछ तुम लोग करते हो ईश्वर उसकी ओर से निश्चेत नहीं है। (2:149) (हे पैग़म्बर मैं एक बार फिर बल देकर कहता हूं कि) जहां से भी निकलो तो केवल मस्जिदुलहराम की ओर मुख करो और (हे मुसलमानो) तुम भी जहां कहीं भी हो उसी की ओर मुख करो ताकि लोग तुम्हारे विरूद्ध कोई तर्क न ला सकें सिवाए अत्याचारियों के (कि जो किसी भी दशा में हठधर्मी और बहानेबाज़ी को नहीं छोड़ते) तो उनसे मत डरो और केवल मेरा भय रखो ये (क़िबले का परिवर्तन) इस लिए था कि मैं तुम लोगों पर अपनी नेमत अर्थात विभूति को पूरा कर दूं और शायद तुम लोग सुधर जाओ। (2:150)
यह दो आयतें एक बार फिर क़िबले के रूप में मक्के की ओर ध्यान देने के विषय को पैग़म्बर व मुसलमानों के समक्ष बलपूर्वक वर्णित करती है कि जिसके विभिन्न कारण और तर्क हो सकते हैं।
प्रथम यह कि यहूदियों की ओर से ताने और अपमान के भय से बहुत से मुसलमानों के लिए क़िबले के परिवर्तन का आदेश स्वीकार करना कठिन था, अतः आयत कहती है कि यहूदियों से मत डरो और केवल ईश्वर से डरो और उसके आदेश में ढीलापन न बरतो।
दूसरे यह कि आस्मानी किताब रखने वालों ने अपनी किताब में पढ़ रखा था कि पैग़म्बरे इस्लाम दो क़िब्लों की ओर नमाज़ पढ़ेंगे अतः यह बात यदि व्यवहारिक न होती तो वे आपत्ति करते कि पैग़म्बर में वह निशानियां नहीं है जो आस्मानी किताबों में आई हैं।
तीसरे यह कि पिछली आयतें शहर में निवास के समय नमाज़ पढ़ने से संबंधित थी और ये आयत यात्रा में पढ़ी जाने वाली नमाज़ से संबंधित है कि जिसे मस्जिदुलहराम की ओर पढ़ना चाहिए और हर स्थिति में इस्लामी समुदाय की स्वाधीनता की जो एक बड़ी ईश्वरीय कृपा है, रक्षा करनी चाहिए।
सूरए बक़रह की आयत १५१ इस प्रकार है।
(हे मुसलमानों हम ने तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे मार्गदर्शन के साधन उपलब्ध करा दिए हैं) जिस प्रकार हमने तुम्हारे बीच तुम्ही में से एक रसूल भेजा ताकि वो तुम्हे हमारी आयतें पढ़कर सुनाए, तुम्हें पवित्र बनाए और तुम्हे किताब और हिकमत की शिक्षा दे और तुम्हें वो सिखाए जो तुम नहीं जान सकते थे। (2:151)
पिछली आयत में ईश्वर ने क़िबले के परिवर्तन का एक कारण मुसलमानों पर अपनी नेमत को पूर्ण करना तथा उनका मार्गदर्शन बताया था, यह आयत कहती है कि ईश्वर ने तुम्हें अन्य कई बड़ी नेमतें दी हैं कि जिनमें से एक पैग़म्बर के असित्तव की नेमत है।
वे पैग़म्बर जो जनता के शिक्षक भी थे और लोगों को ईश्वरीय आयतों तथा आदेशों की शिक्षा देते थे और एक कृपालु प्रशिक्षक की भांति उनके सुधार व विकास का भी ध्यान रखते थे।
क़ुरआन की आयतों की तिलावत, आत्मा की पवित्रता की भूमि समतल करती है जिसके पश्चात ईश्वरीय आदेशों, हिक्मत तथा सही दृष्टिकोण की शिक्षा, मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए ईश्वरीय पैग़म्बरों के महत्वपूर्ण कार्य हैं।
ईश्वरीय पैग़म्बर लोगों के केवल शिष्टाचारिक व धार्मिक नेता ही नहीं थे बल्कि वे समाज के वैज्ञानिक व वैचारिक विकास का भी ध्यान रखते थे, परन्तु वे ऐसे ज्ञान का प्रचार करते थे जो ईमान और ईश्वर पर विश्वास का छाया में हो, न उससे अलग और उसके समान।
सूरए बक़रह की १५२वीं आयत इस प्रकार है।
तो तुम मेरी याद में रहो कि मैं तुम्हारी याद में रहूं और मेरी नेमतों के प्रति आभार प्रकट करो और मेरा इन्कार न करो। (2:152)
अब जब कि ईश्वर ने हमें ऐसी बड़ी नेमतें दी हैं तो बुद्धि और प्रकृति हमें आदेश देती है कि हम अपने उपहार दाता पर भी ध्यान रखें और जो कुछ हमारे पास है उसे सका समझें और उसकी दी हुई नेमतों को उन मार्गों में प्रयोग करे जिनसे वह प्रसन्न होता हो।
यदि मनुष्य ने ईश्वर को भुला दिया तो उसने सभी भलाइयों के स्रोत को भुला दिया और स्वाभाविक रूप से ईश्वर भी उसे भुला देगा और उसे उसके हाल पर छोड़ देगा।
ईश्वर को याद करने का अर्थ केवल उसे ज़बान से याद करना नहीं है बल्कि वास्तव में ईश्वर को याद करने का अर्थ ये है कि जब मनुष्य कोई पाप कर सकता है तो उसे ईश्वर के लिए छोड़ दे।
जैसा कि ईश्वर का आभार प्रकट करने का अर्थ केवल ज़बान से आभार प्रकट करना नहीं है बल्कि वास्तविक आभार यह है कि मनुष्य हर नेमत को उसी के स्थान पर प्रयोग करे और उसी उद्देश्य के लिए उससे काम ले जिसके लिए उसकी रचना की गई है।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
विभिन्न धर्मों के बीच निर्थक और विवादास्पद बहस छेड़ने के स्थान पर हमे सकारात्मक बातों और भले कार्यों के प्रचलन का विचार करना चाहिए और इस कार्य में एक दूसरे से आगे बढ़ना चाहिए।
मुसलमानों को हर ऐसे कार्य से दूर रहना चाहिए जो शत्रु के हाथ कोई बहाना दे दे, उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देनी चाहिए कि शत्रु उनके विरुद्ध कोई तर्क प्रस्तुत कर सके।
क़िबले का परिवर्तन मुसलमानों की आंतरिक एकता का भी कारण बना और अन्य लोगों की ज़ोर ज़बरदस्ती के प्रति उनकी स्वाधीनता का रहस्य भी था।
पैग़म्बर, मनुष्यों का भला चाहने वाले शिक्षक व प्रशिक्षक हैं जो ज्ञान दे कर व मनुष्य को पवित्र बना कर उसे शारीरिक आराम तथा आत्मिक शांति देने के विचार में रहते थे। {jcomments on}
सूरए बक़रह की आयत संख्या १५३ इस प्रकार है।
हे वे लोगों जो ईमान लाए (कठिनाइयों और संकट के समय) धैर्य और नमाज़ से सहायता चाहो (कि) निःसन्देह, ईश्वर धैर्य रखने वालों के साथ है। (2:153)
अपने जीवन में मनुष्य को अनके कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और यदि उसमें उनका मुक़ाबला करने की शक्ति न हो तो वो पराजय स्वीकार करने पर विवश हो जाता है।
परन्तु ईमान वाले लोग संकटों के मुक़ाबले में दो बातों पर भरोसा करते हैं एक धैर्य और एक नमाज़ तथा ईश्वर से संपर्क। वे अपनी आंतरिक क्षमता पर भी भरोसा करते हैं तथा ईश्वर की असीम शक्ति पर भी।
ईश्वर ने भी वादा किया है कि वो नमाज़ पढ़ने वाले धैर्यवानों की सहायता करेगा और हर स्थिति में उनके साथ रहेगा कि यही ईश्वर का साथ, कठिनायों के मुक़ाबले में मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या १५४ इस प्रकार है।
और जो लोग ईश्वर के मार्ग में मारे जाते हैं उन्हें मरा हुआ न कहो बल्कि वे जीवित हैं परन्तु तुम नहीं समझ पाते। (2:154)
पिछली आयत में धैर्य एवं संयम की बात करने के पश्चात यह आयत जेहाद अर्थात धर्मयुद्ध और ईश्वर के मार्ग में शहादत के विषय की ओर संकेत करती है कि जिसमें अनेक जानी व माली कठिनाइयां हैं तथा इसके लिए कड़े संयम और संघर्ष की आवश्यकता है।
कुछ अज्ञानी या शत्रु लोग न केवल यह कि स्वयं जेहाद और प्रतिरोध के मैदान में नहीं जाते बल्कि लोगों के मनोबल को समाप्त करने तथा इस पवित्र संघर्ष को निर्थक बताने का प्रयास करते हैं।
वे हमदर्दी करने वालों जैसा चेहरा बनाकर ईश्वर के मार्ग में शहीद होने वालों के प्रति खेद प्रकट करते हैं और यह कहते हैं कि बुरा हुआ कि अमुक व्यक्ति मारा गया और व्यर्थ में अपनी जान गंवा बैठा।
बद्र नामक युद्ध में कि जिसमें १४ मुसलमान शहीद हुए, कुछ लोगों ने उन्हें मरा हुआ कह कर संबोधित किया, उस समय यह आयत उतरी और उन्हें इस ग़लत विचार से रोका क्योंकि शहीद जीवित हैं परन्तु उनका जीवन इस प्रकार का है कि हम उसे समझ नहीं पाते।.
सूरए बक़रह की १५५वीं आयत इस प्रकार है।
(जान लो कि) हम अवश्य ही भय, भूख, जानी व माली क्षति और फ़सलों की कमी इत्यादि से तुम्हारी परीक्षा लेते हैं और (हे पैग़म्बर!) आप धैर्य व संयम रखने वालों को शुभ सूचना दे दीजिए (कि धैर्य रखकर वे ईश्वरीय परीक्षा में उत्तीर्ण होंगे और बड़ा बदला पाएंगे।) (2:155)
परीक्षा लेना ईश्वर की एक अटल परंपरा है जो सभी मनुष्यों पर लागू होती है परन्तु सभी लोगों की परीक्षाएं एकसमान नहीं होती बल्कि हर व्यक्ति की परीक्षा, ईश्वर द्वारा उसे दी गई संभावनाओं और योग्यताओं के आधार पर ली जाती है।
कुछ लोगों के लिए आर्थिक कठिनाई, परीक्षा होती है कि उनका व्यवहार किस प्रकार का होता है और कुछ लोगों के लिए जान का ख़तरा तथा युद्ध के मैदान में उतरना, परीक्षा का विषय होता है कि वे इसके लिए कितने तैयार हैं।
अलबत्ता ईश्वरीय परीक्षाएं इसलिए नहीं हैं कि ईश्वर हमें पहचानना चाहता है क्योंकि वह तो हमको हमसे बेहतर जानता है बल्कि यह परीक्षाएं इसलिए हैं कि हम अपने आप को पहचानें और अपनी आंतरिक योग्यताओं को सामने लाएं तथा ईश्वरीय उपहार या दंड पाने की भूमि समतल हो जाए।
बहुत सी अच्छी मानवीय योग्यताएं जैसे धैर्य, संयम, ईश्वर से भय तथा बलिदान केवल समस्याओं और कठिनाइयों में घिरने के पश्चात सामने आती हैं कि जो मनुष्य की आत्मा के प्रशिक्षण और विकास का कारण बनती है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या १५६ इस प्रकार है।
(धैर्यवान) वे लोग हैं कि जिनपर जब भी कोई मुसीबत पड़ती है तो वे कहते हैं कि निःसन्देह, हम ईश्वर के लिए हैं और उसी की ओर लौटने वाले हैं। (2:156)
पिछली आयत में धैर्यवानों को सफलता की शुभसूचना देने के पश्चात ईश्वर इस आयत में धैर्यवानों का परिचय कराते हुए कहता है कि धैर्यवान वे हैं जो मुसीबतों और कठिनाइयों में फंसने पर निराश होने और हिम्मत हारने के स्थान पर ईश्वर से आशा रखते हैं।
जो अपने आरंभ और अंत को ईश्वर से संबन्धित समझता है, वह भी ऐसे ईश्वर से जो दया व कृपा तथा तर्क के आधार पर संसार की व्यवस्था चलाता है, उसकी दृष्टि में सभी वस्तुएं सुन्दर हैं और संसार के प्रति वो प्रसन्न रहता और अच्छी दृष्टि रखता है।
मूल रूप से संसार रहने का स्थान नहीं है, यह सोने और ऐश्वर्य व विलास की जगह नहीं है कि मनुष्य यहां पर आराम के विचार में रहे बल्कि यह परीक्षा का स्थान है और कठिनाइयां परीक्षा का साधन हैं। परीक्षा, ईश्वरीय क्रोध की निशानी नहीं है बल्कि हमारे प्रयासों का साधन है।
कठिनाइयों के मुक़ाबले लोगों के कई गुट हैं। एक गुट कम धैर्य वाला है जो रोता पीटता है। दूसरा गुट कठिनाइयों का धैर्य से मुक़ाबला करता है और ईश्वर के प्रति अपशब्द बोलने और शिकायत करने के स्थान पर वह ईश्वर की ही शरण लेता है। एक अन्य गुट धैर्य करने के साथ ही साथ ईश्वर के प्रति आभार भी प्रकट करता है क्योंकि वह मुसीबतों को अपनी आत्मा के विकास और सुदृढ़ता का कारण मानता है। जिस प्रकार एक परिवार में बच्चा, इन्जेक्शन लगने पर रोता पीटता है जबकि बड़े उसे बर्दाश्त करते हैं परन्तु पिता इन्जेक्शन ख़रीदने के लिए पैसा भी देता है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या १५७ की तिलावत सुनते हैं
इन धैर्यवानों पर उनके पालनहार की ओर से विभूति और दया है और यही लोग मार्गदर्शन प्राप्त हैं। (2:157)
यह आयत घैर्यवानों का बड़ा बदला, ईश्वर की ओर से विभूतियों और दया को बताती है जो उन्हें हर प्रकार की पथभ्रष्टता से बचाती है और उन्हें वास्तविक मार्गदर्शन दिलाती है।
यद्यपि संसार की सभी वस्तुओं पर ईश्वर की कृपा है परन्तु यह दया और विभूति एक ख़ास पद है और धैर्यवानों के लिए विशेष है। ऐसी दया जो उन्हें निश्चित मार्गदर्शन दिलाएगी।
आइए अब देखें कि इन आयतों में हमने क्या सीखा।
नमाज़ बोझ नहीं बल्कि मुसीबतों पर धैर्य का साधन है अतः ईश्वर धैर्य का आदेश देते हुए नमाज़ की बात कही है जो सीमित मनुष्य को असीमित ईश्वरीय शक्ति से जोड़ने का कारण है।
यद्यपि सभी मनुष्य मरने के पश्चात "बरज़ख़" में जीवन व्यतीत करेंगे जो वास्तव में आत्मा का जीवन है परन्तु शहीदों के लिए अन्य सभी मरने वालों से अलग एक विशेष जीवन है। मृत्यु एवं प्रलय के बीच की अवधि को बरज़ख़ कहा जाता है।
ईश्वरीय परीक्षाओं में केवल धैर्यवान ही सफल होते हैं और दूसरों के पास भी परीक्षा से भागने का कोई मार्ग नहीं होता क्योंकि ईश्वरीय परीक्षा व्यापक होती है।
धैर्य का स्रोत ईश्वर व प्रलय पर भरोसा एवं विश्वास है कि जो कठिनाइयां झेलना मनुष्य के लिए सरल बना देता है।
धैर्य एवं दृढ़ता इसी संसार में मनुष्य के कल्याण का कारण है जबकि प्रलय में इसके आध्यात्मिक प्रतिफल भी बहुत अधिक हैं।
सूरए बक़रह की १५८वीं आयत इस प्रकार है।
निःसन्देह, सफ़ा और मरवा ईश्वर की निशानियां हैं अतः जो भी ईश्वर के घर का हज या उमरा करे उसके लिए कोई बाधा नहीं है कि वो सफ़ा और मरवा के बीच तवाफ़ करे और जो कोई भले कार्यों में ईश्वर के आदेशों का पालन करे तो ईश्वर उसके कर्म को जानने वाला और कृतज्ञ है। (2:158)
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से आरंभ होने वाले हज़ में विभिन्न कालों में नादान और मूर्तिपूजा करने वाले लोगों द्वारा अनेक अनुचित बातें शामिल कर दी गई थीं। इस्लाम ने इस महान उपासना के मूल रूप की सुरक्षा करते हुए उसे बुराइयों से दूर किया।
हज का एक भाग सफ़ा व मरवा की बीच सई अर्थात मस्जिदुल हराम के समीप स्थित इन दो पहाड़ों के बीच चक्कर काटना है। परन्तु मूर्तिपूजा करने वालों ने इन दोनों पर्वतों के ऊपर मूर्तियां रख दीं थीं और सई करने के दौरान इन मूर्तियों का भी चक्कर काटते थे।
जब मुसलमान हज करना चाहते थे तो उन्हें इस बात के कारण सई करने में हिचकिचाहट होती और वे सोचते कि इन दोनों पर्वतों पर अतीत में मूर्तियां रखे जाने के कारण उनके बीच सई नहीं करनी चाहिए।
परन्तु यह आयत उतरी कि ये दोनों पर्वत ईश्वरीय शक्ति की निशानी हैं और हज के संस्थापक हज़रत इब्राहीम के प्रयासों की याद दिलाते हैं और यदि नादान और वास्तविकता से अनभिज्ञ लोगों ने इन्हें अनेकेश्वरवाद की निशानियों से दूषित कर दिया है तो तुम्हें इन्हें छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि बड़ी संख्या में यहां उपस्थित होकर पथभ्रष्टों को यहां से भागने पर विवश करना चाहिए।
जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपनी पत्नी और पुत्र के साथ मक्के की धरती पर आए तो ईश्वरीय अभियान को पूरा करने के लिए उन्हें इस शुष्क धरती पर छोड़कर चले गए।
बच्चे की मां पानी की खोज में इन दोनों पर्वतों के बीच दौड़ती रही परन्तु ईश्वर ने शिशु की उंगलियों के नीचे से एक सोता निकाला जिसे ज़मज़म कहते हैं।
उस दिन से ईश्वर के आदेश पर जो कोई भी काबे की ज़ियारत के लिए जाता है वह सफ़ा और मरवा के बीच हज़रत हाजेरा के प्रयास की याद में इन दोनों पर्वतों के बीच सई करता है और उनके बलिदान को श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
यह कार्य, निष्ठापूर्वक किये गए उस प्रयास पर ईश्वर की कृतज्ञता की निशानी है जो हमें ये सिखाता है कि लोगो के आभार व कृतज्ञता के विचार में सही नहीं रहना चाहिए क्योंकि ईश्वर हमारे भले कर्मों से परिचित भी है और उनपर कृतज्ञ भी।
सूरए बक़रह की १५९वीं आयत इस प्रकार है।
निश्चित रूप से वे लोग जो स्पष्ट तर्कों और मार्गदर्शन को हमारे द्वारा किताब में लोगों के लिए उल्लेख किये जाने के बावजूद छुपाते हैं, ईश्वर उनपर धिक्कार करता है और सभी धिक्कार करने वाले भी उनपर धिक्कार करते हैं। (2:159)
यह आयत यहूदियों और ईसाई विद्वानों के बारे में उतरी है जो पैग़म्बर के आने की निशानियों को छुपाते थे हालांकि वे उनकी किताबों में मौजूद थीं, इस प्रकार वे मार्गदर्शन और कल्याण प्राप्त करने के मार्ग में पैग़म्बरों द्वारा उठए गए कष्टों को बर्बाद कर रहे थे।
यदि अनभिज्ञ लोग सत्य छुपाएं तो उन्हें कम दंड दिया जाता है परन्तु यही कार्य यदि किसी समुदाय के विद्वान करें तो यह जनता, पैग़म्बरों और ईश्वर के प्रति सबसे बड़ा अत्याचार है अतः वे इन लोगों द्वारा सदैव धिक्कार के पात्र बने रहते हैं।
यह आयत स्पष्ट रूप से बताती है कि भले और पवित्र लोगों से मित्रता की अभिव्यक्ति के साथ ही अपवित्र और बुरे लोगों विशेषकर उन लोगों में से जो जनता की पथभ्रष्टता का कारण बनते हैं अपनी घृणा, धिक्कार द्वारा व्यक्त करनी चाहिए।
अलबत्ता ईश्वर ने अगली आयत में एक गुट को इन लोगों से अलग किया है।
सूरए बक़रह की १६०वीं आयत इस प्रकार है।
सिवाए उनके जिन्होंने तौबा की, स्वंय को सुधारा और जो बातें छुपाई थीं उनको प्रकट किया, इस दशा में मैं उनपर अपनी कृपा व दया (का द्वार) खोल दूंगा और मैं तौबा स्वीकार करने वाला दयावान हूं। (2:160)
इस्लाम में कोई बंद गली नहीं है। ईश्वर ने सदा ही आशा और वापसी का मार्ग, मनुष्य के लिए खुला छोड़ रखा है ताकि सबसे अधिक पाप करने वाला व्यक्ति भी उसकी दया की ओर से निराश न हो सके।
अलबत्ता यह बात स्पष्ट है कि हर पाप का प्रायश्चित उसी के अनुकूल होता है ताकि उस पाप के लक्षणों की यथासंभव भरपाई हो सके। इसी कारण सत्य को छुपाने का प्रायश्चित, उसे लोगो के सामने प्रकट करके किया जा सकता है ताकि लोग पथभ्रष्ट न हो और सही मार्ग पर आ जाए।
सूरए बक़रह की १६१वीं और १६२वीं आयतें इस प्रकार है।
जिन लोगों ने कुफ़्र अपनाया अर्थात ईश्वर का इन्कार किया और कुफ़्र की हालत ही में मर गए तो उनपर ईश्वर, उसके फ़रिश्तों तथा सभी लोगों की ओर से धिक्कार होगी। (2:161) वे उसी (धिक्कार और ईश्वर की दया से दूरी) में बाक़ी रहेंगे, न उनके दंड में कोई ढील होगी और न ही उन्हें मोहलत दी जाएगी। (2:162)
पिछली आयत में कहा गया था कि यदि वास्तविकता को छिपाने वाले उसे जनता के सामने प्रकट कर दें तो वे ईश्वर की दया के पात्र बन जाते हैं, यह आयत पुनः चेतावनी देती है कि यदि काफ़िरों ने ऐसा न किया तो उनपर फिर ईश्वर, उसके फ़रिश्तों और लोगों की धिक्कार होगी।
क्योंकि तौबा अर्थात प्रायश्चित, मौत आने से पूर्व तक ही प्रभावशाली है और मौत की निशानियां दिखने के पश्चात तौबा का कोई लाभ नहीं है जैसा कि फ़िरऔन ने भी मौत को सामने देखने के पश्चात तौबा की परन्तु उसका कोई लाभ नहीं हुआ।
इसी कारण ईश्वरीय दूतों और पवित्र लोगों की एक प्रार्थना यह रही है कि वे मरते समय मुसलमान मरें क्योंकि कुफ़्र की हालत में मरना ऐसा दर्द है जिसकी कोई दवा नहीं है।
ईश्वरीय दया से दूरी वह दंड है जो सत्य छुपाने वालों को लोक व परलोक दोनों में मिलता है और मानवता की सभी अंतरात्माएं इस निंदनीय कार्य पर अपनी घृणा व निंदा को प्रकट करती है।
चूंकि ईश्वरीय दण्ड न्याय और तर्क पर आधारित है न कि अत्याचार और प्रतिरोध पर इसलिए जो जान बूझकर वास्तविकता को छुपाता है उसके लिए दंड में कोई कमी नहीं होगी और न उसे मोहलत दी जाएगी क्योंकि उसके ग़लत कार्य के लक्षण न कम होंगे और न ही उनमें देर होगी।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
यदि मस्जिद और उपासनागृह जैसे सत्य के केन्द्र, नादान लोगों द्वारा ग़लत बातों से दूषित हो जाएं तो उन्हें छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि उन स्थानों में अपनी उपस्थिति द्वारा उन्हें पवित्र करना चाहिए तथा उपासना के सही मार्ग को पुनर्जीवित करना चाहिए।
जो स्थान ईश्वर की दया, शक्ति व चमत्कार प्रकट होने की निशानी हैं उनका आदर, सफ़ा व मरवा की भांति होना चाहिए ताकि भले लोगों तथा उनके प्रयासों की याद लोगों के दिलों में बाक़ी रहे।
वास्तविकता को छुपाना ऐसा पाप है जिससे स्वयं वास्तविक्ता छुपाने वाले की अंतरात्मा उसे धिक्कारती रहती है क्योंकि ईश्वर ने वास्तविकता की खोज और उसके प्रेम की भावना सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति में रखी है।
ईश्वर ने एक ओर तो ग़लती करने वालों के लिए तौबा और वापसी की संभावना रखी है और दूसरी ओर तौबा स्वीकार करने का वादा किया है तथा स्वयं को तौबा स्वीकार करने वाला परिचित करवाया है।
मनुष्य का अंत महत्वपूर्ण है कि वो ईश्वर पर आस्था रखते हुए मरता है या उसका इन्कार करके मरता है अलबत्ता यह अंत भी उसके जीवन भर के कर्मों का परिणाम होता है।
सूरए बक़रह की १६३वीं और १६४वीं आयतें इस प्रकार है।
तुम्हारा ईश्वर वह अकेला ईश्वर है जिसके अतरिक्त कोई ईश्वर नहीं। वो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। (2:163) निःसन्देह, आकाशों और धरती की सृष्टि में तथा दिन और रात के आने जाने में, और लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए समुद्र में चलने वाली कश्तियों में, और आकाश से ईश्वर द्वारा उतारे गए पानी में जिसके द्वारा उसने धरती को उसकी मृत्यु के पश्चात जीवित किया और उसमे विभिन्न प्रकार के जीव फैले हैं और इसी प्रकार हवाओं के चलने में तथा धरती व आकाश के बीच रहने वाले बादलों में, सोच-विचार करने वालों के लिए निशानियां हैं। (2:164)
ईश्वर के एक होने का सबसे अच्छा तर्क प्रकृति के तत्वों के बीच समन्वय है जैसे बादलों, हवा, वर्षा तथा धरती के बीच समन्वय जिसने विभिन्न जीवों के जीवन और विकास की भूमि समतल की है।
यह समन्वित व्यवस्था एक ओर तो संसार के एक रचयिचता की निशानी है और दूसरी ओर उसके असीम ज्ञान व शक्ति की भी परिचायक है।
संसार एक लंबी कविता की भांति है जिसमें विभिन्न सुन्दर शेर हैं परन्तु सभी शेर एक ही वज़न और क़ाफ़िए पर हैं और कुल मिलाकर ये दर्शाते हैं कि एक महान कवि ने उनकी रचना की है।
यह आयत सृष्टि में ईश्वर की महानता की ६ निशानियों की ओर संकेत करती है जिन्हें हम संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रथम, आकाशों और धरती की सृष्टि। जिस धरती पर हम जीवन व्यतीत कर रहे हैं वह अपनी महानता के साथ नक्षत्र का केवल एक उपग्रह है और ऐसे करोड़ों नक्षत्र हैं।
दूसरे सूर्य के चारों ओर धरती की परिक्रमा है जो दिन-रात और मौसम उत्पन्न होने का कारण है।
तीसरे कश्तियां जो सामान ढो कर और यात्रियों को ले जाकर मनुष्य की सेवा करती हैं और यद्यपि बहुत बड़ी और भारी होती हैं परन्तु न केवल यह कि पानी में नहीं डूबतीं बल्कि हवा के चलने से लंबे रास्ते तै करती हैं।
चौथे वर्षा जो ईश्वर आकाश से नीचे भेजता है और धरती के पुनर्जीवन तथा विभिन्न पौधों तथा जीवों के उत्पन्न होने का कारण बनती है। यह पानी अत्यंत पवित्र व स्वच्छ होता है और हवा को भी स्वच्छ करता है।
पांचवें हवा का चलना जो न केवल कश्तियों के चलने का कारण है बल्कि पौधों के बीज फैलने, बादलों के चलने, ठंडी तथा गर्म हवा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने और शहरों की दूषित हवा के स्थान पर स्वच्छ हवा लाने का भी कारण है।
छठे बादल जो पानी का भारी बोझ अपने कंधों पर उठाते हैं परन्तु धरती के गुरुत्वाकर्षण के बावजूद धरती व आकाश के बीच में रहते हैं और अरबों बैरल पानी को निःशुल्क एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाते हैं।
अलबत्ता स्पष्ट है कि इन निशानियों से केवल वही लोग ईश्वर व उसके एक होने का अनुमान लगा सकते हैं जो इनमें सोच-विचार करते हों।
सूरए बक़रह की १६५वीं आयत इस प्रकार है।
लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जो एक ईश्वर के स्थान पर कई को ईश्वर के रूप में मानते हैं और उनको ईश्वर की भांति ही चाहते हैं परन्तु जो लोग ईमान लाए, ईश्वर के प्रति उनका प्रेम कहीं अधिक है। और जिन लोगों ने अत्याचार किया (और ईश्वर के अतिरिक्त किसी और को पूज्य माना) यदि वे उस समय को देखते कि जब उन्हें दण्ड दिया जा रहा होगा तो समझते कि सभी शक्ति ईश्वर की है और उसका दण्ड अत्यंत कड़ा है। (2:165)
यद्यपि आकाश, धरती, समुद्र, सभी जीव, पेड़-पौधे और मूल वस्तुएं ईश्वर के एक होने की गवाही देती हैं परन्तु जो कोई इनमें विचार नहीं करता वो केवल विदित बातों को देखता है और ईश्वर के स्थान पर उन्हीं की उपासना करता है।
कभी वो अपने जीवन में सितारों की प्रभावशक्ति को मानता है और अपने भाग्य के सितारे की पूजा करता है और कभी कुछ जानवरों को पावन मानता है और उनसे प्रेम करता है।
और कभी अपने हाथों से पत्थर या लकड़ी की मूर्ति बनाकर उसके समक्ष नतमस्तक होता है और कभी कुछ मनुष्यों को इस संसार की सृष्टि में प्रभावशाली समझता है और उनक भेट चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है।
ईश्वर के बजाए अन्य वस्तुओं या जीवों से किया जाने वाला ये प्रेम उन बनावटी ईश्वरों की उपासना और उनके प्रति आदर का कारण बनता है।
जबकि ईश्वर पर ईमान के आधार पर होना यह चाहिए कि मनुष्य का हर प्रेम ईश्वर के लिए और उसके मार्ग में हो कि यह प्रेम ज्ञान और पहचान से प्राप्त होता है न कि अनेकेश्वरवादियों द्वारा अपने भाषणों से प्रेम की भांति अज्ञानता, अन्धे अनुसरण और इच्छा पालन के आधार पर।
अलबत्ता जो लोग ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना करते हैं यदि वो प्रलय को देखते तो समझ जाते कि सभी शक्तियां ईश्वर के हाथ में हैं और वे लोग अकारण ही सम्मान और शक्ति प्राप्त करने के लिए किसी और की उपासना कर रहे हैं।
सूरए बक़रह की १६६वीं आयत इस प्रकार है।
जब प्रलय आएगा तो कुफ़्र के नेता अपने अनुयाइयों से पीछा छड़ाएंगे और सब ईश्वर के प्रकोप को देखेंगे और रिश्ते टूट जाएंगे। (2:166)
यह आयत एक चेतावनी है कि हे मनुष्य, बुद्धि से काम ले और देख कि तेरा नेता कौन है? तू किसका अनुकरण कर रहा है और किसका प्रेम तेरे हृदय में है?
हमें उससे प्रेम करना चाहिए जो हमें अपने लिए न चाहे ताकि संसार में अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सके, कि ऐसे लोग प्रलय में हमसे घृणा प्रकट करेंगे और हमसे दूर होना चाहेंगे।
नेता के चयन में बहुत ही सोच-विचार से काम लेना चाहिए क्योंकि हमारा भविष्य प्रलय तक के लिए उससे संबन्धित है और उस दिन हर मनुष्य अपने नेता के साथ ही रहेगा।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
प्रकृति की पहचान, ईश्वर को पहचानने के मार्गों में से एक है क्योंकि प्रवृत्ति एवं प्रकृति, ईश्वर के ज्ञान शक्ति व तर्क के प्रकट होने का स्थान हैं।
ईश्वर के स्थान पर किसी मनुष्य या वस्तु का प्रेम अनेकेश्वरवाद तथा ईश्वर से दूरी की निशानी है।
ईमान की निशानी, ईश्वर से गहरा प्रेम है जो उसके आदेशों के पालन द्वारा प्रकट होता है।
अत्याचारियों और अनेकेश्वरवादी नेताओं के पास प्रलय में न केवल यह कि कोई शक्ति नहीं होगी बल्कि वे इतने बेवफ़ा हैं कि अपने अनुयाइयों से भी दूरी अपनाएंगे।
और हर किसी के लिए क़िब्ला वह दिशा है जिस ओर वह अपना मुख करता है अतः (हर गुट के क़िब्ले के बारे मे व्यर्थ बहस करने के स्थान पर) भलाई करने में एक दूसरे से आगे बढ़ो और जान लो कि तुम जहां कहीं भी रहोगे, ईश्वर (प्रलय के दिन) तुम्हें हाज़िर करेगा, निःसन्देह ईश्वर हर बात में सक्षम है। (2:148)
क़िबले की दिशा महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इतिहास के विभिन्न कालों में अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग क़िबले थे। महत्वपूर्ण बात ईश्वर के आदेश का पालन है अतः व्यर्थ में उन बातों पर बहस नहीं करना चाहिए जो धर्म के सिद्धांत से नहीं हैं।
ईश्वर की दृष्टि में मानदण्ड अच्छा कर्म है कि इस कार्य में मनुष्य को दूसरों से आगे बढ़ना चाहिए और बात के स्थान पर कार्य करना चाहिए।
मुक़ाबला उन बातों में से है जिसपर मनुष्य ने प्राचीन काल से ध्यान दिया है कभी वो खेल के मैदान में मुक़ाबले आयोजित करता है तो कभी ज्ञान के मैदान में।
परन्तु क़ुरआन मुक़ाबले के लिए किसी विशेष मैदान का उल्लेख किए बिना कहता है कि उस कार्य में जो मनुष्य और समाज के लिए बेहतर हो मुक़ाबला करो और दूसरों से आगे बढ़ने का प्रयास करो।
परन्तु इन मुक़ाबलों को ईश्वरीय रंग देने के लिए हर कार्य में प्रलय का भी ध्यान रखो वहां के लिए कार्य करो क्योंकि तुम्हारा वास्तविक बदला तो नहीं है।
सूरए बक़रह की आयत १४९-१५० इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर!) जहां से भी (यात्रा के लिए) बाहर निकलो तो (नमाज़ के समय) अपना मुख मस्जिदुल हराम की ओर कर लो कि निःसन्देह, यह तुम्हारे पालनहार की ओर से सत्य आदेश है और जो कुछ तुम लोग करते हो ईश्वर उसकी ओर से निश्चेत नहीं है। (2:149) (हे पैग़म्बर मैं एक बार फिर बल देकर कहता हूं कि) जहां से भी निकलो तो केवल मस्जिदुलहराम की ओर मुख करो और (हे मुसलमानो) तुम भी जहां कहीं भी हो उसी की ओर मुख करो ताकि लोग तुम्हारे विरूद्ध कोई तर्क न ला सकें सिवाए अत्याचारियों के (कि जो किसी भी दशा में हठधर्मी और बहानेबाज़ी को नहीं छोड़ते) तो उनसे मत डरो और केवल मेरा भय रखो ये (क़िबले का परिवर्तन) इस लिए था कि मैं तुम लोगों पर अपनी नेमत अर्थात विभूति को पूरा कर दूं और शायद तुम लोग सुधर जाओ। (2:150)
यह दो आयतें एक बार फिर क़िबले के रूप में मक्के की ओर ध्यान देने के विषय को पैग़म्बर व मुसलमानों के समक्ष बलपूर्वक वर्णित करती है कि जिसके विभिन्न कारण और तर्क हो सकते हैं।
प्रथम यह कि यहूदियों की ओर से ताने और अपमान के भय से बहुत से मुसलमानों के लिए क़िबले के परिवर्तन का आदेश स्वीकार करना कठिन था, अतः आयत कहती है कि यहूदियों से मत डरो और केवल ईश्वर से डरो और उसके आदेश में ढीलापन न बरतो।
दूसरे यह कि आस्मानी किताब रखने वालों ने अपनी किताब में पढ़ रखा था कि पैग़म्बरे इस्लाम दो क़िब्लों की ओर नमाज़ पढ़ेंगे अतः यह बात यदि व्यवहारिक न होती तो वे आपत्ति करते कि पैग़म्बर में वह निशानियां नहीं है जो आस्मानी किताबों में आई हैं।
तीसरे यह कि पिछली आयतें शहर में निवास के समय नमाज़ पढ़ने से संबंधित थी और ये आयत यात्रा में पढ़ी जाने वाली नमाज़ से संबंधित है कि जिसे मस्जिदुलहराम की ओर पढ़ना चाहिए और हर स्थिति में इस्लामी समुदाय की स्वाधीनता की जो एक बड़ी ईश्वरीय कृपा है, रक्षा करनी चाहिए।
सूरए बक़रह की आयत १५१ इस प्रकार है।
(हे मुसलमानों हम ने तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे मार्गदर्शन के साधन उपलब्ध करा दिए हैं) जिस प्रकार हमने तुम्हारे बीच तुम्ही में से एक रसूल भेजा ताकि वो तुम्हे हमारी आयतें पढ़कर सुनाए, तुम्हें पवित्र बनाए और तुम्हे किताब और हिकमत की शिक्षा दे और तुम्हें वो सिखाए जो तुम नहीं जान सकते थे। (2:151)
पिछली आयत में ईश्वर ने क़िबले के परिवर्तन का एक कारण मुसलमानों पर अपनी नेमत को पूर्ण करना तथा उनका मार्गदर्शन बताया था, यह आयत कहती है कि ईश्वर ने तुम्हें अन्य कई बड़ी नेमतें दी हैं कि जिनमें से एक पैग़म्बर के असित्तव की नेमत है।
वे पैग़म्बर जो जनता के शिक्षक भी थे और लोगों को ईश्वरीय आयतों तथा आदेशों की शिक्षा देते थे और एक कृपालु प्रशिक्षक की भांति उनके सुधार व विकास का भी ध्यान रखते थे।
क़ुरआन की आयतों की तिलावत, आत्मा की पवित्रता की भूमि समतल करती है जिसके पश्चात ईश्वरीय आदेशों, हिक्मत तथा सही दृष्टिकोण की शिक्षा, मनुष्य के मार्गदर्शन के लिए ईश्वरीय पैग़म्बरों के महत्वपूर्ण कार्य हैं।
ईश्वरीय पैग़म्बर लोगों के केवल शिष्टाचारिक व धार्मिक नेता ही नहीं थे बल्कि वे समाज के वैज्ञानिक व वैचारिक विकास का भी ध्यान रखते थे, परन्तु वे ऐसे ज्ञान का प्रचार करते थे जो ईमान और ईश्वर पर विश्वास का छाया में हो, न उससे अलग और उसके समान।
सूरए बक़रह की १५२वीं आयत इस प्रकार है।
तो तुम मेरी याद में रहो कि मैं तुम्हारी याद में रहूं और मेरी नेमतों के प्रति आभार प्रकट करो और मेरा इन्कार न करो। (2:152)
अब जब कि ईश्वर ने हमें ऐसी बड़ी नेमतें दी हैं तो बुद्धि और प्रकृति हमें आदेश देती है कि हम अपने उपहार दाता पर भी ध्यान रखें और जो कुछ हमारे पास है उसे सका समझें और उसकी दी हुई नेमतों को उन मार्गों में प्रयोग करे जिनसे वह प्रसन्न होता हो।
यदि मनुष्य ने ईश्वर को भुला दिया तो उसने सभी भलाइयों के स्रोत को भुला दिया और स्वाभाविक रूप से ईश्वर भी उसे भुला देगा और उसे उसके हाल पर छोड़ देगा।
ईश्वर को याद करने का अर्थ केवल उसे ज़बान से याद करना नहीं है बल्कि वास्तव में ईश्वर को याद करने का अर्थ ये है कि जब मनुष्य कोई पाप कर सकता है तो उसे ईश्वर के लिए छोड़ दे।
जैसा कि ईश्वर का आभार प्रकट करने का अर्थ केवल ज़बान से आभार प्रकट करना नहीं है बल्कि वास्तविक आभार यह है कि मनुष्य हर नेमत को उसी के स्थान पर प्रयोग करे और उसी उद्देश्य के लिए उससे काम ले जिसके लिए उसकी रचना की गई है।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
विभिन्न धर्मों के बीच निर्थक और विवादास्पद बहस छेड़ने के स्थान पर हमे सकारात्मक बातों और भले कार्यों के प्रचलन का विचार करना चाहिए और इस कार्य में एक दूसरे से आगे बढ़ना चाहिए।
मुसलमानों को हर ऐसे कार्य से दूर रहना चाहिए जो शत्रु के हाथ कोई बहाना दे दे, उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देनी चाहिए कि शत्रु उनके विरुद्ध कोई तर्क प्रस्तुत कर सके।
क़िबले का परिवर्तन मुसलमानों की आंतरिक एकता का भी कारण बना और अन्य लोगों की ज़ोर ज़बरदस्ती के प्रति उनकी स्वाधीनता का रहस्य भी था।
पैग़म्बर, मनुष्यों का भला चाहने वाले शिक्षक व प्रशिक्षक हैं जो ज्ञान दे कर व मनुष्य को पवित्र बना कर उसे शारीरिक आराम तथा आत्मिक शांति देने के विचार में रहते थे। {jcomments on}
सूरए बक़रह की आयत संख्या १५३ इस प्रकार है।
हे वे लोगों जो ईमान लाए (कठिनाइयों और संकट के समय) धैर्य और नमाज़ से सहायता चाहो (कि) निःसन्देह, ईश्वर धैर्य रखने वालों के साथ है। (2:153)
अपने जीवन में मनुष्य को अनके कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और यदि उसमें उनका मुक़ाबला करने की शक्ति न हो तो वो पराजय स्वीकार करने पर विवश हो जाता है।
परन्तु ईमान वाले लोग संकटों के मुक़ाबले में दो बातों पर भरोसा करते हैं एक धैर्य और एक नमाज़ तथा ईश्वर से संपर्क। वे अपनी आंतरिक क्षमता पर भी भरोसा करते हैं तथा ईश्वर की असीम शक्ति पर भी।
ईश्वर ने भी वादा किया है कि वो नमाज़ पढ़ने वाले धैर्यवानों की सहायता करेगा और हर स्थिति में उनके साथ रहेगा कि यही ईश्वर का साथ, कठिनायों के मुक़ाबले में मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या १५४ इस प्रकार है।
और जो लोग ईश्वर के मार्ग में मारे जाते हैं उन्हें मरा हुआ न कहो बल्कि वे जीवित हैं परन्तु तुम नहीं समझ पाते। (2:154)
पिछली आयत में धैर्य एवं संयम की बात करने के पश्चात यह आयत जेहाद अर्थात धर्मयुद्ध और ईश्वर के मार्ग में शहादत के विषय की ओर संकेत करती है कि जिसमें अनेक जानी व माली कठिनाइयां हैं तथा इसके लिए कड़े संयम और संघर्ष की आवश्यकता है।
कुछ अज्ञानी या शत्रु लोग न केवल यह कि स्वयं जेहाद और प्रतिरोध के मैदान में नहीं जाते बल्कि लोगों के मनोबल को समाप्त करने तथा इस पवित्र संघर्ष को निर्थक बताने का प्रयास करते हैं।
वे हमदर्दी करने वालों जैसा चेहरा बनाकर ईश्वर के मार्ग में शहीद होने वालों के प्रति खेद प्रकट करते हैं और यह कहते हैं कि बुरा हुआ कि अमुक व्यक्ति मारा गया और व्यर्थ में अपनी जान गंवा बैठा।
बद्र नामक युद्ध में कि जिसमें १४ मुसलमान शहीद हुए, कुछ लोगों ने उन्हें मरा हुआ कह कर संबोधित किया, उस समय यह आयत उतरी और उन्हें इस ग़लत विचार से रोका क्योंकि शहीद जीवित हैं परन्तु उनका जीवन इस प्रकार का है कि हम उसे समझ नहीं पाते।.
सूरए बक़रह की १५५वीं आयत इस प्रकार है।
(जान लो कि) हम अवश्य ही भय, भूख, जानी व माली क्षति और फ़सलों की कमी इत्यादि से तुम्हारी परीक्षा लेते हैं और (हे पैग़म्बर!) आप धैर्य व संयम रखने वालों को शुभ सूचना दे दीजिए (कि धैर्य रखकर वे ईश्वरीय परीक्षा में उत्तीर्ण होंगे और बड़ा बदला पाएंगे।) (2:155)
परीक्षा लेना ईश्वर की एक अटल परंपरा है जो सभी मनुष्यों पर लागू होती है परन्तु सभी लोगों की परीक्षाएं एकसमान नहीं होती बल्कि हर व्यक्ति की परीक्षा, ईश्वर द्वारा उसे दी गई संभावनाओं और योग्यताओं के आधार पर ली जाती है।
कुछ लोगों के लिए आर्थिक कठिनाई, परीक्षा होती है कि उनका व्यवहार किस प्रकार का होता है और कुछ लोगों के लिए जान का ख़तरा तथा युद्ध के मैदान में उतरना, परीक्षा का विषय होता है कि वे इसके लिए कितने तैयार हैं।
अलबत्ता ईश्वरीय परीक्षाएं इसलिए नहीं हैं कि ईश्वर हमें पहचानना चाहता है क्योंकि वह तो हमको हमसे बेहतर जानता है बल्कि यह परीक्षाएं इसलिए हैं कि हम अपने आप को पहचानें और अपनी आंतरिक योग्यताओं को सामने लाएं तथा ईश्वरीय उपहार या दंड पाने की भूमि समतल हो जाए।
बहुत सी अच्छी मानवीय योग्यताएं जैसे धैर्य, संयम, ईश्वर से भय तथा बलिदान केवल समस्याओं और कठिनाइयों में घिरने के पश्चात सामने आती हैं कि जो मनुष्य की आत्मा के प्रशिक्षण और विकास का कारण बनती है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या १५६ इस प्रकार है।
(धैर्यवान) वे लोग हैं कि जिनपर जब भी कोई मुसीबत पड़ती है तो वे कहते हैं कि निःसन्देह, हम ईश्वर के लिए हैं और उसी की ओर लौटने वाले हैं। (2:156)
पिछली आयत में धैर्यवानों को सफलता की शुभसूचना देने के पश्चात ईश्वर इस आयत में धैर्यवानों का परिचय कराते हुए कहता है कि धैर्यवान वे हैं जो मुसीबतों और कठिनाइयों में फंसने पर निराश होने और हिम्मत हारने के स्थान पर ईश्वर से आशा रखते हैं।
जो अपने आरंभ और अंत को ईश्वर से संबन्धित समझता है, वह भी ऐसे ईश्वर से जो दया व कृपा तथा तर्क के आधार पर संसार की व्यवस्था चलाता है, उसकी दृष्टि में सभी वस्तुएं सुन्दर हैं और संसार के प्रति वो प्रसन्न रहता और अच्छी दृष्टि रखता है।
मूल रूप से संसार रहने का स्थान नहीं है, यह सोने और ऐश्वर्य व विलास की जगह नहीं है कि मनुष्य यहां पर आराम के विचार में रहे बल्कि यह परीक्षा का स्थान है और कठिनाइयां परीक्षा का साधन हैं। परीक्षा, ईश्वरीय क्रोध की निशानी नहीं है बल्कि हमारे प्रयासों का साधन है।
कठिनाइयों के मुक़ाबले लोगों के कई गुट हैं। एक गुट कम धैर्य वाला है जो रोता पीटता है। दूसरा गुट कठिनाइयों का धैर्य से मुक़ाबला करता है और ईश्वर के प्रति अपशब्द बोलने और शिकायत करने के स्थान पर वह ईश्वर की ही शरण लेता है। एक अन्य गुट धैर्य करने के साथ ही साथ ईश्वर के प्रति आभार भी प्रकट करता है क्योंकि वह मुसीबतों को अपनी आत्मा के विकास और सुदृढ़ता का कारण मानता है। जिस प्रकार एक परिवार में बच्चा, इन्जेक्शन लगने पर रोता पीटता है जबकि बड़े उसे बर्दाश्त करते हैं परन्तु पिता इन्जेक्शन ख़रीदने के लिए पैसा भी देता है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या १५७ की तिलावत सुनते हैं
इन धैर्यवानों पर उनके पालनहार की ओर से विभूति और दया है और यही लोग मार्गदर्शन प्राप्त हैं। (2:157)
यह आयत घैर्यवानों का बड़ा बदला, ईश्वर की ओर से विभूतियों और दया को बताती है जो उन्हें हर प्रकार की पथभ्रष्टता से बचाती है और उन्हें वास्तविक मार्गदर्शन दिलाती है।
यद्यपि संसार की सभी वस्तुओं पर ईश्वर की कृपा है परन्तु यह दया और विभूति एक ख़ास पद है और धैर्यवानों के लिए विशेष है। ऐसी दया जो उन्हें निश्चित मार्गदर्शन दिलाएगी।
आइए अब देखें कि इन आयतों में हमने क्या सीखा।
नमाज़ बोझ नहीं बल्कि मुसीबतों पर धैर्य का साधन है अतः ईश्वर धैर्य का आदेश देते हुए नमाज़ की बात कही है जो सीमित मनुष्य को असीमित ईश्वरीय शक्ति से जोड़ने का कारण है।
यद्यपि सभी मनुष्य मरने के पश्चात "बरज़ख़" में जीवन व्यतीत करेंगे जो वास्तव में आत्मा का जीवन है परन्तु शहीदों के लिए अन्य सभी मरने वालों से अलग एक विशेष जीवन है। मृत्यु एवं प्रलय के बीच की अवधि को बरज़ख़ कहा जाता है।
ईश्वरीय परीक्षाओं में केवल धैर्यवान ही सफल होते हैं और दूसरों के पास भी परीक्षा से भागने का कोई मार्ग नहीं होता क्योंकि ईश्वरीय परीक्षा व्यापक होती है।
धैर्य का स्रोत ईश्वर व प्रलय पर भरोसा एवं विश्वास है कि जो कठिनाइयां झेलना मनुष्य के लिए सरल बना देता है।
धैर्य एवं दृढ़ता इसी संसार में मनुष्य के कल्याण का कारण है जबकि प्रलय में इसके आध्यात्मिक प्रतिफल भी बहुत अधिक हैं।
सूरए बक़रह की १५८वीं आयत इस प्रकार है।
निःसन्देह, सफ़ा और मरवा ईश्वर की निशानियां हैं अतः जो भी ईश्वर के घर का हज या उमरा करे उसके लिए कोई बाधा नहीं है कि वो सफ़ा और मरवा के बीच तवाफ़ करे और जो कोई भले कार्यों में ईश्वर के आदेशों का पालन करे तो ईश्वर उसके कर्म को जानने वाला और कृतज्ञ है। (2:158)
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से आरंभ होने वाले हज़ में विभिन्न कालों में नादान और मूर्तिपूजा करने वाले लोगों द्वारा अनेक अनुचित बातें शामिल कर दी गई थीं। इस्लाम ने इस महान उपासना के मूल रूप की सुरक्षा करते हुए उसे बुराइयों से दूर किया।
हज का एक भाग सफ़ा व मरवा की बीच सई अर्थात मस्जिदुल हराम के समीप स्थित इन दो पहाड़ों के बीच चक्कर काटना है। परन्तु मूर्तिपूजा करने वालों ने इन दोनों पर्वतों के ऊपर मूर्तियां रख दीं थीं और सई करने के दौरान इन मूर्तियों का भी चक्कर काटते थे।
जब मुसलमान हज करना चाहते थे तो उन्हें इस बात के कारण सई करने में हिचकिचाहट होती और वे सोचते कि इन दोनों पर्वतों पर अतीत में मूर्तियां रखे जाने के कारण उनके बीच सई नहीं करनी चाहिए।
परन्तु यह आयत उतरी कि ये दोनों पर्वत ईश्वरीय शक्ति की निशानी हैं और हज के संस्थापक हज़रत इब्राहीम के प्रयासों की याद दिलाते हैं और यदि नादान और वास्तविकता से अनभिज्ञ लोगों ने इन्हें अनेकेश्वरवाद की निशानियों से दूषित कर दिया है तो तुम्हें इन्हें छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि बड़ी संख्या में यहां उपस्थित होकर पथभ्रष्टों को यहां से भागने पर विवश करना चाहिए।
जब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपनी पत्नी और पुत्र के साथ मक्के की धरती पर आए तो ईश्वरीय अभियान को पूरा करने के लिए उन्हें इस शुष्क धरती पर छोड़कर चले गए।
बच्चे की मां पानी की खोज में इन दोनों पर्वतों के बीच दौड़ती रही परन्तु ईश्वर ने शिशु की उंगलियों के नीचे से एक सोता निकाला जिसे ज़मज़म कहते हैं।
उस दिन से ईश्वर के आदेश पर जो कोई भी काबे की ज़ियारत के लिए जाता है वह सफ़ा और मरवा के बीच हज़रत हाजेरा के प्रयास की याद में इन दोनों पर्वतों के बीच सई करता है और उनके बलिदान को श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
यह कार्य, निष्ठापूर्वक किये गए उस प्रयास पर ईश्वर की कृतज्ञता की निशानी है जो हमें ये सिखाता है कि लोगो के आभार व कृतज्ञता के विचार में सही नहीं रहना चाहिए क्योंकि ईश्वर हमारे भले कर्मों से परिचित भी है और उनपर कृतज्ञ भी।
सूरए बक़रह की १५९वीं आयत इस प्रकार है।
निश्चित रूप से वे लोग जो स्पष्ट तर्कों और मार्गदर्शन को हमारे द्वारा किताब में लोगों के लिए उल्लेख किये जाने के बावजूद छुपाते हैं, ईश्वर उनपर धिक्कार करता है और सभी धिक्कार करने वाले भी उनपर धिक्कार करते हैं। (2:159)
यह आयत यहूदियों और ईसाई विद्वानों के बारे में उतरी है जो पैग़म्बर के आने की निशानियों को छुपाते थे हालांकि वे उनकी किताबों में मौजूद थीं, इस प्रकार वे मार्गदर्शन और कल्याण प्राप्त करने के मार्ग में पैग़म्बरों द्वारा उठए गए कष्टों को बर्बाद कर रहे थे।
यदि अनभिज्ञ लोग सत्य छुपाएं तो उन्हें कम दंड दिया जाता है परन्तु यही कार्य यदि किसी समुदाय के विद्वान करें तो यह जनता, पैग़म्बरों और ईश्वर के प्रति सबसे बड़ा अत्याचार है अतः वे इन लोगों द्वारा सदैव धिक्कार के पात्र बने रहते हैं।
यह आयत स्पष्ट रूप से बताती है कि भले और पवित्र लोगों से मित्रता की अभिव्यक्ति के साथ ही अपवित्र और बुरे लोगों विशेषकर उन लोगों में से जो जनता की पथभ्रष्टता का कारण बनते हैं अपनी घृणा, धिक्कार द्वारा व्यक्त करनी चाहिए।
अलबत्ता ईश्वर ने अगली आयत में एक गुट को इन लोगों से अलग किया है।
सूरए बक़रह की १६०वीं आयत इस प्रकार है।
सिवाए उनके जिन्होंने तौबा की, स्वंय को सुधारा और जो बातें छुपाई थीं उनको प्रकट किया, इस दशा में मैं उनपर अपनी कृपा व दया (का द्वार) खोल दूंगा और मैं तौबा स्वीकार करने वाला दयावान हूं। (2:160)
इस्लाम में कोई बंद गली नहीं है। ईश्वर ने सदा ही आशा और वापसी का मार्ग, मनुष्य के लिए खुला छोड़ रखा है ताकि सबसे अधिक पाप करने वाला व्यक्ति भी उसकी दया की ओर से निराश न हो सके।
अलबत्ता यह बात स्पष्ट है कि हर पाप का प्रायश्चित उसी के अनुकूल होता है ताकि उस पाप के लक्षणों की यथासंभव भरपाई हो सके। इसी कारण सत्य को छुपाने का प्रायश्चित, उसे लोगो के सामने प्रकट करके किया जा सकता है ताकि लोग पथभ्रष्ट न हो और सही मार्ग पर आ जाए।
सूरए बक़रह की १६१वीं और १६२वीं आयतें इस प्रकार है।
जिन लोगों ने कुफ़्र अपनाया अर्थात ईश्वर का इन्कार किया और कुफ़्र की हालत ही में मर गए तो उनपर ईश्वर, उसके फ़रिश्तों तथा सभी लोगों की ओर से धिक्कार होगी। (2:161) वे उसी (धिक्कार और ईश्वर की दया से दूरी) में बाक़ी रहेंगे, न उनके दंड में कोई ढील होगी और न ही उन्हें मोहलत दी जाएगी। (2:162)
पिछली आयत में कहा गया था कि यदि वास्तविकता को छिपाने वाले उसे जनता के सामने प्रकट कर दें तो वे ईश्वर की दया के पात्र बन जाते हैं, यह आयत पुनः चेतावनी देती है कि यदि काफ़िरों ने ऐसा न किया तो उनपर फिर ईश्वर, उसके फ़रिश्तों और लोगों की धिक्कार होगी।
क्योंकि तौबा अर्थात प्रायश्चित, मौत आने से पूर्व तक ही प्रभावशाली है और मौत की निशानियां दिखने के पश्चात तौबा का कोई लाभ नहीं है जैसा कि फ़िरऔन ने भी मौत को सामने देखने के पश्चात तौबा की परन्तु उसका कोई लाभ नहीं हुआ।
इसी कारण ईश्वरीय दूतों और पवित्र लोगों की एक प्रार्थना यह रही है कि वे मरते समय मुसलमान मरें क्योंकि कुफ़्र की हालत में मरना ऐसा दर्द है जिसकी कोई दवा नहीं है।
ईश्वरीय दया से दूरी वह दंड है जो सत्य छुपाने वालों को लोक व परलोक दोनों में मिलता है और मानवता की सभी अंतरात्माएं इस निंदनीय कार्य पर अपनी घृणा व निंदा को प्रकट करती है।
चूंकि ईश्वरीय दण्ड न्याय और तर्क पर आधारित है न कि अत्याचार और प्रतिरोध पर इसलिए जो जान बूझकर वास्तविकता को छुपाता है उसके लिए दंड में कोई कमी नहीं होगी और न उसे मोहलत दी जाएगी क्योंकि उसके ग़लत कार्य के लक्षण न कम होंगे और न ही उनमें देर होगी।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
यदि मस्जिद और उपासनागृह जैसे सत्य के केन्द्र, नादान लोगों द्वारा ग़लत बातों से दूषित हो जाएं तो उन्हें छोड़ नहीं देना चाहिए बल्कि उन स्थानों में अपनी उपस्थिति द्वारा उन्हें पवित्र करना चाहिए तथा उपासना के सही मार्ग को पुनर्जीवित करना चाहिए।
जो स्थान ईश्वर की दया, शक्ति व चमत्कार प्रकट होने की निशानी हैं उनका आदर, सफ़ा व मरवा की भांति होना चाहिए ताकि भले लोगों तथा उनके प्रयासों की याद लोगों के दिलों में बाक़ी रहे।
वास्तविकता को छुपाना ऐसा पाप है जिससे स्वयं वास्तविक्ता छुपाने वाले की अंतरात्मा उसे धिक्कारती रहती है क्योंकि ईश्वर ने वास्तविकता की खोज और उसके प्रेम की भावना सभी मनुष्यों की प्रवृत्ति में रखी है।
ईश्वर ने एक ओर तो ग़लती करने वालों के लिए तौबा और वापसी की संभावना रखी है और दूसरी ओर तौबा स्वीकार करने का वादा किया है तथा स्वयं को तौबा स्वीकार करने वाला परिचित करवाया है।
मनुष्य का अंत महत्वपूर्ण है कि वो ईश्वर पर आस्था रखते हुए मरता है या उसका इन्कार करके मरता है अलबत्ता यह अंत भी उसके जीवन भर के कर्मों का परिणाम होता है।
सूरए बक़रह की १६३वीं और १६४वीं आयतें इस प्रकार है।
तुम्हारा ईश्वर वह अकेला ईश्वर है जिसके अतरिक्त कोई ईश्वर नहीं। वो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। (2:163) निःसन्देह, आकाशों और धरती की सृष्टि में तथा दिन और रात के आने जाने में, और लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए समुद्र में चलने वाली कश्तियों में, और आकाश से ईश्वर द्वारा उतारे गए पानी में जिसके द्वारा उसने धरती को उसकी मृत्यु के पश्चात जीवित किया और उसमे विभिन्न प्रकार के जीव फैले हैं और इसी प्रकार हवाओं के चलने में तथा धरती व आकाश के बीच रहने वाले बादलों में, सोच-विचार करने वालों के लिए निशानियां हैं। (2:164)
ईश्वर के एक होने का सबसे अच्छा तर्क प्रकृति के तत्वों के बीच समन्वय है जैसे बादलों, हवा, वर्षा तथा धरती के बीच समन्वय जिसने विभिन्न जीवों के जीवन और विकास की भूमि समतल की है।
यह समन्वित व्यवस्था एक ओर तो संसार के एक रचयिचता की निशानी है और दूसरी ओर उसके असीम ज्ञान व शक्ति की भी परिचायक है।
संसार एक लंबी कविता की भांति है जिसमें विभिन्न सुन्दर शेर हैं परन्तु सभी शेर एक ही वज़न और क़ाफ़िए पर हैं और कुल मिलाकर ये दर्शाते हैं कि एक महान कवि ने उनकी रचना की है।
यह आयत सृष्टि में ईश्वर की महानता की ६ निशानियों की ओर संकेत करती है जिन्हें हम संक्षेप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रथम, आकाशों और धरती की सृष्टि। जिस धरती पर हम जीवन व्यतीत कर रहे हैं वह अपनी महानता के साथ नक्षत्र का केवल एक उपग्रह है और ऐसे करोड़ों नक्षत्र हैं।
दूसरे सूर्य के चारों ओर धरती की परिक्रमा है जो दिन-रात और मौसम उत्पन्न होने का कारण है।
तीसरे कश्तियां जो सामान ढो कर और यात्रियों को ले जाकर मनुष्य की सेवा करती हैं और यद्यपि बहुत बड़ी और भारी होती हैं परन्तु न केवल यह कि पानी में नहीं डूबतीं बल्कि हवा के चलने से लंबे रास्ते तै करती हैं।
चौथे वर्षा जो ईश्वर आकाश से नीचे भेजता है और धरती के पुनर्जीवन तथा विभिन्न पौधों तथा जीवों के उत्पन्न होने का कारण बनती है। यह पानी अत्यंत पवित्र व स्वच्छ होता है और हवा को भी स्वच्छ करता है।
पांचवें हवा का चलना जो न केवल कश्तियों के चलने का कारण है बल्कि पौधों के बीज फैलने, बादलों के चलने, ठंडी तथा गर्म हवा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने और शहरों की दूषित हवा के स्थान पर स्वच्छ हवा लाने का भी कारण है।
छठे बादल जो पानी का भारी बोझ अपने कंधों पर उठाते हैं परन्तु धरती के गुरुत्वाकर्षण के बावजूद धरती व आकाश के बीच में रहते हैं और अरबों बैरल पानी को निःशुल्क एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाते हैं।
अलबत्ता स्पष्ट है कि इन निशानियों से केवल वही लोग ईश्वर व उसके एक होने का अनुमान लगा सकते हैं जो इनमें सोच-विचार करते हों।
सूरए बक़रह की १६५वीं आयत इस प्रकार है।
लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जो एक ईश्वर के स्थान पर कई को ईश्वर के रूप में मानते हैं और उनको ईश्वर की भांति ही चाहते हैं परन्तु जो लोग ईमान लाए, ईश्वर के प्रति उनका प्रेम कहीं अधिक है। और जिन लोगों ने अत्याचार किया (और ईश्वर के अतिरिक्त किसी और को पूज्य माना) यदि वे उस समय को देखते कि जब उन्हें दण्ड दिया जा रहा होगा तो समझते कि सभी शक्ति ईश्वर की है और उसका दण्ड अत्यंत कड़ा है। (2:165)
यद्यपि आकाश, धरती, समुद्र, सभी जीव, पेड़-पौधे और मूल वस्तुएं ईश्वर के एक होने की गवाही देती हैं परन्तु जो कोई इनमें विचार नहीं करता वो केवल विदित बातों को देखता है और ईश्वर के स्थान पर उन्हीं की उपासना करता है।
कभी वो अपने जीवन में सितारों की प्रभावशक्ति को मानता है और अपने भाग्य के सितारे की पूजा करता है और कभी कुछ जानवरों को पावन मानता है और उनसे प्रेम करता है।
और कभी अपने हाथों से पत्थर या लकड़ी की मूर्ति बनाकर उसके समक्ष नतमस्तक होता है और कभी कुछ मनुष्यों को इस संसार की सृष्टि में प्रभावशाली समझता है और उनक भेट चढ़ने के लिए तैयार हो जाता है।
ईश्वर के बजाए अन्य वस्तुओं या जीवों से किया जाने वाला ये प्रेम उन बनावटी ईश्वरों की उपासना और उनके प्रति आदर का कारण बनता है।
जबकि ईश्वर पर ईमान के आधार पर होना यह चाहिए कि मनुष्य का हर प्रेम ईश्वर के लिए और उसके मार्ग में हो कि यह प्रेम ज्ञान और पहचान से प्राप्त होता है न कि अनेकेश्वरवादियों द्वारा अपने भाषणों से प्रेम की भांति अज्ञानता, अन्धे अनुसरण और इच्छा पालन के आधार पर।
अलबत्ता जो लोग ईश्वर के अतिरिक्त किसी और की उपासना करते हैं यदि वो प्रलय को देखते तो समझ जाते कि सभी शक्तियां ईश्वर के हाथ में हैं और वे लोग अकारण ही सम्मान और शक्ति प्राप्त करने के लिए किसी और की उपासना कर रहे हैं।
सूरए बक़रह की १६६वीं आयत इस प्रकार है।
जब प्रलय आएगा तो कुफ़्र के नेता अपने अनुयाइयों से पीछा छड़ाएंगे और सब ईश्वर के प्रकोप को देखेंगे और रिश्ते टूट जाएंगे। (2:166)
यह आयत एक चेतावनी है कि हे मनुष्य, बुद्धि से काम ले और देख कि तेरा नेता कौन है? तू किसका अनुकरण कर रहा है और किसका प्रेम तेरे हृदय में है?
हमें उससे प्रेम करना चाहिए जो हमें अपने लिए न चाहे ताकि संसार में अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सके, कि ऐसे लोग प्रलय में हमसे घृणा प्रकट करेंगे और हमसे दूर होना चाहेंगे।
नेता के चयन में बहुत ही सोच-विचार से काम लेना चाहिए क्योंकि हमारा भविष्य प्रलय तक के लिए उससे संबन्धित है और उस दिन हर मनुष्य अपने नेता के साथ ही रहेगा।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
प्रकृति की पहचान, ईश्वर को पहचानने के मार्गों में से एक है क्योंकि प्रवृत्ति एवं प्रकृति, ईश्वर के ज्ञान शक्ति व तर्क के प्रकट होने का स्थान हैं।
ईश्वर के स्थान पर किसी मनुष्य या वस्तु का प्रेम अनेकेश्वरवाद तथा ईश्वर से दूरी की निशानी है।
ईमान की निशानी, ईश्वर से गहरा प्रेम है जो उसके आदेशों के पालन द्वारा प्रकट होता है।
अत्याचारियों और अनेकेश्वरवादी नेताओं के पास प्रलय में न केवल यह कि कोई शक्ति नहीं होगी बल्कि वे इतने बेवफ़ा हैं कि अपने अनुयाइयों से भी दूरी अपनाएंगे।