कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2:108-147

सूरए बक़रह की १०८वीं आयत इस प्रकार है। क्या तुम चाहते हो कि अपने पैग़म्बर से प्रश्न और अनुचित मांगे करो, जैसा कि इससे पूर्व बनी इस्राईल...

सूरए बक़रह की १०८वीं आयत इस प्रकार है।

क्या तुम चाहते हो कि अपने पैग़म्बर से प्रश्न और अनुचित मांगे करो, जैसा कि इससे पूर्व बनी इस्राईल ने मूसा से प्रश्न किये थे। जान लो कि कोई इस प्रकार की बहाने बाज़ियों द्वारा, ईमान लाने से कतराता रहेगा और कुफ़्र को ईमान से बदलेगा तो निःसन्देह वो सीधे मार्ग से भटका हुआ है। (2:108)

 कुछ कमज़ोर ईमान वाले मुसलमान चाहते थे कि वे पैग़म्बर से जैसा चमत्कार दिखाने को कहें वे दिखाएं, उदाहरण स्वरूप वे कहते थे कि हमारे लिए ईश्वर की ओर से पत्र लाइए, जैसा कि बनी इस्राईल ने हज़रत मूसा से कहा था कि हमें स्पष्ट रूप से ईश्वर को दिखाओ ताकि हम उसपर ईमान लाएं।
 नैतिक रूप से चमत्कार दिखाना, नुबुव्वत अर्थात ईश्वर के दूत के पद को सिद्ध करने के लिए है न ये कि पैग़म्बर का कर्तव्य है कि हर किसी की इच्छा के अनुसार चमत्कार दिखाए जैसा कि एक सिविल इन्जीनियर अपना कौशल दिखाने और अपने दावे को सिद्ध करने के लिए अपने काम के कुछ उदाहरण बताता है न कि हर किसी के कहने पर एक घर बनाता है।


सूरए बक़रह की १०९वीं आयत इस प्रकार है।

आसमानी किताबों के अनेक अनुसरणकर्ता (न केवल ये कि स्वयं इस्लाम स्वीकार नहीं करते बल्कि) अपने असितत्व में मौजूद ईर्ष्या और द्वेष के कारण, चाहते हैं कि तुम्हें भी तुम्हारे ईमान के पश्चात कुफ़्र की ओर पलटा दें, जबकि सत्य उनके लिए स्पष्ट हो चुका है। परन्तु तुम उन्हें क्षमा करो ताकि ईश्वर अपना आदेश भेज दे, निःसन्देह ईश्वर हर बात की क्षमता रखता है। (2:109)


 मदीने के यहूदी सदैव इस प्रयास में रहते थे कि मुसलमानों को अच्छे धर्म से पलटा दें या कम से कम उनके ईमान को कमज़ोर कर दें। क़ुरआन मुसलमानों से कहता है, ये मत सोचो कि चूंकि वे स्वयं को सत्य पर समझते हैं इसलिए ऐसा कहते हैं, नहीं, बल्कि वे इस्लाम और क़ुरआन की सत्यता को समझ चुके हैं परन्तु ईर्ष्या वे द्वेष के कारण वे ऐसा करते हैं।
 चूंकि उस समय मुसलमानों की शक्ति कम थी अतः ईश्वर आदेश देता है कि अभी तुम शत्रु के भारी दबाव के मुक़ाबले में क्षमा को अपना हथियार बनाओ और आत्मनिर्माण में व्यस्त रहो यहां तक कि ईश्वर का आदेश अर्थात काफ़िरों से जेहाद का आदेश आ जाए।
 यह आयत बताती है कि शत्रु के मुक़ाबले पर हिन्सा सबसे पहला कार्यक्रम नहीं है बल्कि इस्लामी शिष्टाचार की मांग है कि क्षमा द्वारा शत्रु की सुधार की भूमि समतल की जाए और फिर भी यदि उसमें सुधार न आए तो उससे मुक़ाबला किया जाए।
सूरए बक़रह की ११०वीं आयत इस प्रकार है।
और नमाज़ क़ाएम करो व ज़कात दो और जान लो कि जो भी भलाई तुम पहले से स्वयं के लिए भेजते हो उसको प्रलय में ईश्वर के पास पाओगे। निःसन्देह तुम जो कुछ करते हो, ईश्वर उसको देखने वाला है। (2:110)
 मुसलमानों के ईमान को कमज़ोर बनाने की शत्रु की इच्छा के मुक़ाबले में, ईश्वर उनके ईमान की सुरक्षा के लिए आदेश देता है कि वे ईश्वर से अपने संपर्क को नमाज़ द्वारा और अन्य मुसलमानों विशेषकर वंचितों के साथ ज़कात द्वारा अपने संबन्ध और संपर्क को सुदृढ़ बनाए।
 साधारणतयः क़ुरआन में नमाज़ का आदेश, ज़कात के साथ आया है, शायद इसका तात्पर्य ये हो कि ईश्वर की उपासना, जनता की सेवा के बिना पर्याप्त नहीं है और दूसरी ओर दरिद्रों और वंचितों की सहायता यदि ईश्वर की उपासना के साथ न हो तो, वंचित लोगों के समक्ष घमंड, अहंकार, उनपर उपकार जमाने और उन्हें ग़ुलाम बनाने की भावना उत्पन्न करेगी।
 मनुष्य की एक चिंता ये है कि लोग उसकी मेहनत कष्ट और सेवा को समझ नहीं पाएंगे और यदि समझेंगे तो उसका महत्व नहीं समझेंगे। अतः वो अच्छा कार्य करने में ढीला पड़ जाता है। ये आयत कहती है कि चिंता मत करो क्योंकि जो कुछ तुम करते हो ईश्वर उसे देखता है तथा उसका बदला ईश्वर के पास सुरक्षित है।
सूरए बकरह की १११वीं और ११२वीं आयतें इस प्रकार है।
उन्होंने कहा कि स्वर्ग में केवल वही जा सकता है जो यहूदी या ईसाई हो, ये उनकी कल्पनाएं हैं, हे पैग़म्बर उनसे कह दो कि यदि तुम सच्चे हो तो अपना तर्क प्रस्तुत करो। (2:111) हां, जो कोई अपना मुख ईश्वर के समक्ष झुका ले और वो नेक भी हो तो उसका बदला, उसके पालनहार के पास है और उनके लिए न कोई भय होगा और न भी वे दुखी होंगे। (2:112)
 मुसलमानों की भावनाओं को कमज़ोर बनाने के लिए आसमानी किताबों के मानने वालों की एक अन्य शैली ये थी कि वे कहते थे, स्वर्ग पर हमारा अधिकार है अतः यदि तुम स्वर्ग में जाना चाहते हो तो यहूदी या ईसाई धर्म की ओर पलट आओ।
 क़ुरआन उनके उत्तर में कहता है, तुम्हारी यह बात कल्पना और कामना के अतिरिक्त कुछ नहीं है और तुम्हारे पास इसका कोई प्रमाण और तर्क नहीं है क्योंकि स्वर्ग किसी भी जाति या समुदाय के अधिकार में नहीं है, उसका एक मानदंड है, जो भी उस मानदंड पर पूरा उतरेगा वो स्वर्ग में जाएगा।
 स्वर्ग में प्रेवश की कुंजी, ईश्वर के प्रति समर्पित रहना है, मनुष्य केवल उसी की ओर आकृष्टि रहे और उसके मार्ग में भले कर्म करता रहे। अतः ईश्वरीय आदेशों में से जो अपनी इच्छा के अनुसार हों उसे स्वीकार करना, जो इच्छा के अनुकूल न हों उसको छोड़ देना, ईश्वर के प्रति समर्पित रहने से मेल नहीं खाता।
 नैतिक रूप से भेदभाव और एकाधिकारप्रेम, ईश्वरीय आदेशों के सामने नतमस्तक रहने के विपरीत है और जो लोग इस्लाम की सत्यता को समझने के बाद भी सांप्रदायिकता के कारण ईमान लाने के लिए तैयार नहीं हुए वे स्वर्ग में नहीं जाएंगे चाहे वो आसमानी किताब के मानने वाले ही क्यों न हों।
 यह आयत अंत में कहती है कि जो कोई भी केवल ईश्वर के समक्ष नतमस्तक रहता है उसे कोई भी भय नहीं होता, वो सदैव अपने साथ ईश्वर की उपस्थिति का आभास करता है और स्वयं को उसकी शरण में पाता है।
आइए अब देखते हैं कि हमने इन आयतों से क्या सीखा।
 धर्म गुरुओं से रखी जाने वाली कुछ अनुचित अपेक्षाएं और कामनाएं, कुफ़्र की भूमि समतल करती हैं, क्योंकि वे इन अनुचित कामनाओं से प्रभावित नहीं होते और उन्हें पूरा नही करते, परिणाम स्वरूप मांग करने वाले व्यक्ति का ईमान डगमगा जाता है।
 क्षमा और उदारता, काफ़िरों और अनेकेश्वरवादियों के प्रति हिंसा और आक्रामक व्यवहार पर प्राथमिक्ता रखती है और ये क्षमा, कमज़ोरी की निशानी नहीं है बल्कि उन्हें आकृष्ट करने और उनमें सुधार लाने की भूमि समतल करती है।
 लोगों की सेवा करनी चाहिए, यद्यपि वे ध्यान न दें या आभार प्रकट न करें क्योंकि ईश्वर देखने वाला है और वो भला कर्म उसके पास सुरक्षित है, यहां तक कि प्रलय में वो उसका बदला दे।
 ये नहीं सोचना चाहिए कि स्वर्ग किसी विशेष जाति या समुदाय के नियंक्षण में है या हम इस विचार में रहें कि चूंकि हम मुसलमान हैं इसलिए स्वर्ग हमारे लिए विशेष है, क्योंकि ईश्वर पर आस्था और भले कर्म स्वर्ग का मानदंड हैं न कि मुसलमान होने का शीर्षक।
 लोक व परलोक में वास्तविक शांति, ईमान, निःस्वार्थता और भले कर्म की छाया में प्राप्त होगी। जो भी ईश्वर के प्रति समर्पित रहेगा और केवल उसी पर भरोसा करेगा उसे ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी भय नहीं होगा और वो सदैव स्वयं को ईश्वर की शरण मे पाएगा।
सूरए बक़रह की ११३वीं आयत इस प्रकार है।
यहूदी कहते हैं ईसाई हक़ अर्थात सत्य पर नहीं हैं और ईसाई कहते हैं कि यहूदी हक़ अर्थात सत्य पर नहीं हैं जबकि दोनों गुट आसमानी किताब की तिलावत करते हैं, इसी प्रकार जो लोग ईश्वर की किताब के बारे में कोई ज्ञान नहीं रखते उन्हीं के समान बातें करते हैं परन्तु ईश्वर प्रलय के दिन उनके बीच, उन बातों के बारे में फ़ैसला करेगा जिनमें वे मतभेद रखते हैं। (2:113)
 पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि यहूदी और ईसाई दोनों गुट स्वर्ग को अपनी जागीर समझते थे और दूसरों के लिए कोई अधिकार स्वीकार नहीं करते थे, ये आयत इस ग़लत विचार के मूल कारण का उल्लेख करते हुए कहती है कि अकारण सांप्रदायिक्ता इस बात का कारण बनी है कि ये दोनों एक दूसरे को हक़ पर नहीं मानते, जबकि दोनों ही गुट आस्मानी किताब की तिलावत करते हैं और ईश्वरीय पैग़म्बरों के अनुसरणकर्ता हैं।
 रोचक बात यह है कि अनेकेश्वरवादी भी जिनके पास ईश्वरीय किताब नहीं है, इनके बारे में यही बातें करते हैं क्योंकि सांप्रदायिक्ता और तर्कहीन एकाधिकार की भावना मनुष्य को सत्य स्वीकार करने से रोक देती है और वो केवल स्वयं को हक़ पर समझता है और अन्य लोगों को चाहे वो जो भी हों, ग़लत समझता है।
 यह आयत स्पष्ट रूप से बताती है कि अकारण सांप्रदायिकता से परिपूर्ण वातावरण में ज्ञानी और अनपढ़ एक ही समान विचार करते हैं। तौरेत व इंजील अर्थात बाइबिल के बारे में ज्ञान रखने वाले भी वही बातें करते थे जो अनपढ़ एकेश्वरवादी करते थे। हर एक बिना तर्क के दूसरे को ग़लती पर बताता था।
सूरए बक़रह की ११४वीं आयत इस प्रकार है।
उससे बड़ा अत्याचारी कौन है जिसने ईश्वर की मस्जिदों में उसका नाम लेने से रोका तथा उन्हें तोड़ने का प्रयास किया, ये ऐसे लोग हैं जिन्हें मस्जिदों में भय के अतिरिक्त प्रवेष करने का अधिकार नहीं है। संसार में उनके लिए अपमान होगा तथा प्रलय में महान दंड। (2:114)
 इतिहास में सदैव मस्जिदों को बंद करने या उन्हें तोड़ने और ढहाने का प्रयास किया गया है क्योंकि मस्जिद और उपासना के अन्य स्थान ईश्वरीय धर्मों के शासन के केन्द्र और उनके मानने वालों के एकत्रित होने और आपसी प्रेम बढ़ाने के स्थान रहे हैं अतः अत्याचारी शासकों और वैचारिक रूप से पथभ्रष्ट लोगों ने मस्जिदों की विदित और आध्यात्मिक बनावट को तोड़ने का प्रयास किया है जैसा कि मक्के के अनेकेश्वरवादियों ने वर्षों तक मुसलमानों को मस्जिदुल अक़सा में जाने नहीं दिया था।
 आज भी इस्लाम के शत्रु बैतुल मुक़द्दस की मस्जिदुल अक़सा को तोड़ने के प्रयास कर रहे हैं और भारत की एतिहासिक बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया है।
 अलबत्ता मस्जिदों को तोड़ने का अर्थ केवल उनके विदित ढांचे को ढहाना नहीं है बल्कि हर वह कार्य जो मस्जिदों की चहल-पहल को कम करने और लोगों को ईश्वर की याद से निश्चेत करने और उनके मस्जिदों से दूर रहने का कारण बने, मस्जिद तोड़ने के समान है।
 वीडियो या सिनेमा पर गंदी फ़िल्मों का प्रचलन इस्लामी देशों के युवाओं को मस्जिदों और धार्मिक केन्द्रों से दूर रखने के लिए शत्रु का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है।
सूरए बक़रह की ११५वीं आयत इस प्रकार है।
इस आयत का अनुवाद है। पूरब और पश्चिम ईश्वर के ही हैं अतः तुम जिस ओर भी मुख करोगे वहीं ईश्वर का चेहरा मौजूद है। निःसन्देह, ईश्वर बढ़ोत्तरी करने वाला और अत्यधिक जानकार है। (2:115)
 जब ईश्वर के आदेश से मुसलमानों का क़िब्ला बैतुल मुक़द्दस की ओर से काबे की ओर परिवर्तित हुआ तो यहूदियों ने यह संदेह उत्पन्न किया कि यदि पहला क़िब्ला ठीक था तो उसे क्यों परिवर्तित किया गया और यदि वह ठीक नहीं था तो तुम्हारे पहले के कर्मों का क्यो होगा जो तुमने उसकी ओर मुख करके किये थे?
 यह आयत इस संदेह के उत्तर में एक महत्वपूर्ण वास्तविकता का उल्लेख कर रही है कि ईश्वर का कोई विशेष स्थान नहीं है बल्कि पूरब-पश्चिम और सारी दिशाएं उसी की हैं तुम जिधर भी मुंह करोगे ईश्वर उसी ओर है।
 यदि काबे या बैतुल मुक़द्दस को क़िबला बनाया गया है तो इस कारण है कि नमाज़ और सार्वजनिक उपासनाओं की एक दिशा रहे जो मुसलमानों के बीच एकता और समन्वय का कारण बने और सदैव उनका ध्यान आकृष्ट करती रहे।
 जब तक यहूदियों ने अपने क़िबले के रूप में बैतुल मुक़द्दस का मुसलमानों के विरुद्ध दुरुपयोग नहीं किया था, मुसलमान भी उसी दिशा में नमाज़ पढ़ते थे परन्तु जब यह क़िबला मुसलमानों के अपमान और उनकी कमज़ोरी का कारण बनने लगा तो ईश्वर ने काबे को अपना क़िबला बना दिया जो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की यादगार था।
सूरए बक़रह की ११६वीं और ११७वीं आयतें इस प्रकार हैं।
और (यहूदियों, इसाइयों और अनेकेश्वरवादियों ने) कहा कि ईश्वर ने स्वंय के लिए पुत्र ग्रहण किया है वह तो इस बात से पाक है बल्कि जो कुछ आकाशों में है या धरती में है वह सब उसी का है और सभी उसके आदेशों का पालन करते हैं। (2:116) वही आकाशों और धरती को अस्तित्व में लाने वाला है और जब भी वह किसी वस्तु को अस्तित्व में लाने के लिए आदेश देता है तो कहता है हो जा तो वह वस्तु तत्काल हो जाती है। (2:117)
 आसमानी किताबों के मानने वालों की एक अन्य आस्था जो वे अपने धर्म के सत्य होने के लिए प्रस्तुत करते थे यह थी कि वे अपने-अपने पैग़म्बर को ईश्वर का पुत्र कहते थे।
यहूदी कहते थे कि उज़ैर ईश्वर के पुत्र हैं और इसाई कहते थे कि ईसा मसीह ईश्वर के पुत्र हैं। रोचक बात यह है कि मक्के के अनेकेश्वरवादी फ़रिश्तों को ईश्वर की ऐसी बेटियां समझते थे जो उसके कार्यों को पूरा करती हैं।
यह आयत आम लोगों के बीच प्रचलित होने वाली ग़लत और तर्कहीन आस्था को रद्द करती है तथा ईश्वर को हर प्रकार की संतान से मुक्त बताते हुए कहती है कि जो ईश्वर आकाशों और धरती का सृष्टिकर्ता भी है और उन पर शासन करने वाला भी है उसे ऐसी कौन सी कमी और आवश्यकता है जिसकी पूर्ति संतान द्वारा हो सकती है।
नैतिक रूप से ईश्वर और स्वयं की तुलना करना और ईश्वर को मनुष्यों के समान समझना एक ग़लत कल्पना है जिसके कारण मनुष्य ईश्वर के लिए भी उन आशाओं और सीमितता को आवश्यक समझता है जो स्वयं के लिए आवश्यक समझता है जबकि कोई भी वस्तु उसके समान नहीं है।
इन आयतों से हमें यह सीख मिलती है कि अकारण सांप्रदायिकता और गुटबाज़ी मनुष्य को ग़लत बातों की ओर ले जाती है वह केवल स्वयं को सत्य पर समझता है और अन्य लोगों के अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता।
मस्जिदें कुफ़्र और अनेकेश्वरवाद से मुक़ाबले के मोर्चे हैं अतः शत्रु उनकी विदित व आध्यात्मिक बनावट और ढांचे को तोड़ना चाहते हैं इसलिए हमें यह प्रयास करना चाहिए कि मस्जिदों में इतनी अधिक संख्या में आएं कि शत्रु उनमें घुसने से डरें।
माता-पिता, अभिभावकों, प्रशिक्षकों तथा मस्जिद के सेवकों को न केवल यह कि बच्चों और युवाओं को मस्जिदों में आने से रोकना नहीं चाहिए बल्कि सदैव उनको धार्मिक समारोहों में जाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
ईश्वर का कोई विशेष स्थान या दिशा नहीं है। हम जिस ओर भी देखें वहीं ईश्वर है। क़िबले की नीति यह है कि उपासना के बड़े-बड़े समारोह समन्वित और एक दिशा में रहें और वह भी एकेश्वरवाद के सबसे पहले केन्द्र अर्थात काबे की दिशा में।
ईश्वर मनुष्य नहीं है जिसे संतान या पत्नी की आवश्यकता हो। वह मनुष्य संतान और पत्नी का सृष्टिकर्ता है जिस प्रकार से वह हर वस्तु का रचयिता और शासक है। जो कुछ हमारे मन में ईश्वर की कल्पना है वह हमारी रचना है न कि हमारा रचयिता।
सूरए बक़रह की ११८वीं और ११९वीं आयतें इस प्रकार हैं।
जो लोग नहीं जानते (और न ही सत्य को पहचान कर उसे स्वीकार करना चाहते हैं) कहते हैं, ईश्वर स्वयं हमसे सीधे-सीधे क्यों नहीं बात करता या कोई आयत अर्थात निशानी हमारे लिए क्यों नहीं आती? इनसे पहले जो गुट था उसने भी इन्ही के समान बात कही थी, इनके हृदय और सोच एक दूसरे के समान है। निःसन्देह, हमने विश्वास रखने वालों ( और सत्य की खोज में रहने वालों) के लिए अपनी आयतें और निशानियां (पर्याप्त मात्रा में) स्पष्ट कर दी है। (2:118) हे पैग़म्बर! निश्चित रूप से हमने आपको सत्य पर भेजा है ताकि आप शुभ सूचना देने वाले और डराने वाले रहें और आप नरक में जाने वालों की पथभ्रष्टता के उत्तरदायी नहीं हैं। (2:119)
 कुछ शत्रु व अज्ञानी लोग पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर जो आपत्ति करते थे उनमें से एक यह थी कि इस बात की क्या आवश्यकता है कि ईश्वर हमारे और अपने बीच पैग़म्बरों को माध्यम बनाए? वह सीधे हमसे बात क्यों नहीं करता, और हम पर अपनी आयतें क्यों नहीं उतारता कि इस दशा में हम ईश्वर के संदेश को स्वीकार कर लेते।
 क़ुरआन इन बातों और अनुचित मांगों के मुक़ाबले में पैग़म्बर और मुसलमानों को दिलाया देते हुए कहता है कि यह कोई नई बात नहीं है बल्कि इससे पूर्व भी अन्य लोगों ने ऐसी ही ग़लत आकांक्षाएं बांध रखी थीं, क्योंकि इन लोगों का हृदय भी अन्य लोगों की भांति रोगी व सत्य का शत्रु है।
 इन लोगों पर जो ईश्वरीय आयतों को प्राप्त करने की क्षमता व योग्यता नहीं रखते, यदि आयतें उतारी भी जातीं तो ये स्वीकार नहीं करते क्योंकि ये बहाना ढूंढना चाहते हैं न कि सत्य को स्वीकार करना वरना मनुष्य को सत्य स्वीकार करना चाहिए चाहे वो दूसरों की ज़बान से क्यों न हो।
 सत्य का मानदंड यह नहीं है कि मैं कहूं या समझूं। यदि हमने कहा कि चूंकि ईश्वरीय आयतें मुझ पर नहीं उतरी हैं अतः मैं स्वीकार नहीं करूंगा तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि हमारे मामले में जो बात महत्वपूर्ण है वह "मैं" या "अहं" है न कि सत्य।
 स्पष्ट है कि पैग़म्बरों का कर्तव्य, ईश्वरीय आयतें लोगों तक पहुंचाने और उनकी नसीहत करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है, वे अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए भेजे गए हैं न कि परिणाम के ज़िम्मेदार हैं, इसी कारण वे लोगों को सत्य स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं करते, इस आधार पर जो लोग पथ भ्रष्ट हों और नरक में जाएं वे अपने चयन से नरक में गए हैं और इस संबंध में पैग़म्बरों का कोई दायित्व नहीं है।
सूरए बक़रह की १२०वीं आयत इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर!) यहूदी और ईसाई कदापि तुम से राज़ी नहीं होंगे यहां तक कि आप उनकी मांगों के सामने झुक जाएं और उनकी विचारधारा का अनुसरण करें। कह दीजिए कि मार्गदर्शन केवल ईश्वर का मार्गदर्शन है और जान लो कि यदि तुम अपने पास ज्ञान और वास्तविकता आने के बाद उनकी अनुचित इच्छाओं का पालन करोगे तो ईश्वर की ओर से तुम्हारे लिए कोई सहायक और अभिभावक नहीं आएगा। (2:120)
 क़िबले के परिवर्तन की घटना के पश्चात, मुसलमानों के प्रति यहूदियों का क्रोध और द्वेष अधिक बढ़ गया, कुछ मुसलमानों की भी इच्छा एवं रुचि यह थी कि क़िबला बैतुल मुक़द्दस ही रहे ताकि वे मदीने के यहूदियों के साथ मित्रतापूर्ण एवं प्रेमपूर्ण ढंग से रहे सकें।
 उन्हें इस बात का पता नहीं था कि क़िबले के परिवर्तन का मामला, मुसलमानों का विरोध करने के लिए यहूदियों का एक बहाना था और न केवल ये कि वे स्वयं इस्लाम स्वीकार करने के लिए तैयार न थे बल्कि चाहते थे कि मुसलमान अपना धर्म छोड़ कर यहूदी बन जाएं।
 यह आयत एक मूल सिद्धांत बताती है कि तुम मुसलमान अपनी सही नीतियों से जितना पीछे हटते जाओगे उतना ही शत्रु अपनी ग़लत नीतियों को आगे बढ़ाता रहेगा, अतः तुम शत्रुओं से सांठ-गांठ का प्रयास न करो।
सूरए बक़रह की १२१वीं आयत इस प्रकार है।
जिन लोगों को हमने आसमानी किताब दी और वे उसकी वैसी तिलावत करते हैं जैसा उसका हक़ है, वही लोग क़ुरआन और पैग़म्बर पर ईमान लाते हैं और जिन लोगों ने उसका इन्कार किया तो वही लोग घाटा उठाने वाले हैं। (2:121)
चूंकि विरोधियों के मुक़ाबले में क़ुरआन सदैव न्याय से काम लेता है अतः ये आयत कहती है कि यद्यपि आस्मानी किताब रखने वाले अधिकांश लोग इस्लाम स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए परन्तु जो लोग आस्मानी किताबों को सत्य स्वीकार करने की दृष्टि से पढ़ते हैं वो इस्लाम और पैग़म्बर पर ईमान लाते हैं।
 यह आयत स्पष्ट रूप से बताती है कि केवल क़ुरआन के शब्दों की तिलावत, चाहे सुन्दर आवाज़ ही में क्यों न हो, पर्याप्त नहीं है बल्कि जो बात मनुष्य के मार्गदर्शन व कल्याण का कारण बनती है वो क़ुरआन के अर्थों पर विचार है कि हम इस दशा में उसकी तिलावत का उद्देश्य पूरा हो जाता है।
सूरए बक़रह की १२२वीं और १२३वीं आयतें इस प्रकार हैं।
हे बनी इस्राईल! याद करो मेरी उन नेमतों अर्थात विभूतियों को जो मैंने तुमको दीं और ये कि मैंने तुम्हें संसार वालों पर वरीयता दी। (2:122) और डरो उस दिन से जब कोई भी, किसी को ईश्वर के दण्ड से बचा नहीं पाएगा और उससे कोई विकल्प स्वीकार नहीं किया जाएगा और कोई सिफ़ारिश उसे लाभ नहीं पहुंचा सकेगी, और उनकी सहायता नहीं होगी। (2:123)
 आपको अवश्य याद होगा कि इसी सूरे की ४७वीं और ४८वीं आयतें भी यही थीं और हमने वहां इन आयतों की तफ़्सीर अर्थात व्याख्या की थी, समय की कमी के कारण हम उसे यहां पर नहीं दुहरा रहे हैं।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
 सत्य को स्वीकार करना चाहिए, चाहे वो दूसरों की ओर से क्यों न हो, ये नहीं सोचना चाहिए कि जो कुछ मैं या मेरा गुट बोलता है वही सत्य है और जो कुछ अन्य लोग बोलते हैं वो ग़लत है। हमें सत्य और झूठ को लोगों की पहचान का मानदंड बनाना चाहिए न कि लोग हमारे लिए सत्य और झूठ का मानदंड बन जाएं।
 ईश्वरीय दूत अर्थात पैग़म्बर लोगों को नसीहत करने, स्वर्ग की शुभ सूचना देने और नकर से डराने के लिए आए हैं न कि लोगों को ईमान लाने पर विवश करने के लिए, इसी कारण पथभ्रष्ट लोग अपने कर्मों के स्वयं ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने अपनी मर्ज़ी से पथभ्रष्टता को स्वीकार किया है।
 लोगों को धर्म की ओर आमंत्रित करने हेतु सिद्धांतों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमें अन्य लोगों के मार्गदर्शन का ध्यान रखना चाहिए न कि उनकी आत्मिक व अनैतिक इच्छाओं का।
 न्याय से काम लेना अति आवश्यक है यहां तक कि अपने विरोधियों के बारे में भी। इसी कारण जिन आयतों में बनी इस्राईल की आलोचना हुई है उनमें "कसीर" अर्थात अधिकांश और "फ़रीक़" अर्थात गुट जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है ताकि उनके बीच मौजूद भले व पवित्र लोगों के अधिकार का हनन न होने पाए। {
पहले सूरए बक़रह की १२४वीं आयत इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर! याद कीजिए उस समय को) जब इब्राहीम की उनके पालनहार ने, विभिन्न घटनाओं से परीक्षा ली और वे सबमें सफल रहे तो ईश्वर ने कहा, मैंने तुम्हें लोगों का इमाम अर्थात नेता व अगुवा बनाया, इब्राहीम ने कहा, प्रभुवर मेरी संतान में से भी (इमाम बना) ईश्वर ने कहा, मेरी प्रतिज्ञा अत्याचारियों को नहीं मिलेगी। अर्थात मेरे द्वारा दिया गया पद अत्याचारियों को नहीं मिलेगा। (2:124)
 पैग़म्बरों के बीच हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का विशेष स्थान है। पवित्र क़ुरआन के २५ सूरों में उनहत्तर बार उनका नाम आया है। और उनका भी पैग़म्बरे इस्लाम के समान ही, प्रतीक और "आइडियल" के रूप में उल्लेख हुआ है।
 इस सूरे में भी इस आयत के बाद अट्ठारह आयतों में एकेश्वरवाद के महान प्रतीक काबा के निर्माणकर्ता तथा महान ईश्वरीय पैग़म्बर हज़रत इब्राहीम का उल्लेख हुआ है जो विभिन्न ईश्वरीय परीक्षाओं के पश्चात इमामत के पद पर आसीन हुए।
 परीक्षा सभी लोगों के लिए ईश्वर की स्थाई परंपराओं में से एक है, परन्तु ईश्वर की परीक्षाएं मानव परीक्षाओं के समान नहीं हैं कि जो ज्ञान प्राप्ति के लिए होती हैं क्योंकि ईश्वर हर बात से परिचित है।
 ये परीक्षाएं मनुष्यों की योग्यताएं प्रकट होने तथा उनकी अच्छाई या बुराई के स्पष्ट होने के लिए होती हैं कि हर व्यक्ति चयन के उस अधिकार द्वारा जो ईश्वर ने उसे प्रदान किया है, कौनसा मार्ग अपनाता है, ताकि उसे उसका दंड या इनाम दिया जा सके।
 इस आयत में आने वाले शब्द "कलेमात" से तात्पर्य ऐसे भारी कर्तव्य हैं जो ईश्वर ने इब्राहीम के लिए नियुक्त किये थे, और उन्होंने उन सभी को पूरा किया, हम उनमें से कुछ का उल्लेख कर रहे हैं।
 अपने परिवार और नातेदारों में हज़रत इब्राहीम अकेले एकिश्वरवादी थे परन्तु उन्होंने अनेकिश्वरवाद तथा मूर्तियों को ईश्वर मानने के विरुद्ध संघर्ष किया और सभी मूर्तियों को तोड़ दिया। यद्यपि मूर्ति पूजा करने वालों ने दंड स्वरूप उनको आग में डाल दिया परन्तु वे पूर्णतः धैर्य के साथ और ईश्वर पर विश्वास रखते हुए आग में गए और ईश्वर के आदेश से आग उनके लिए ठंडी व सुरक्षित हो गई।
 यद्यपि वे लम्बे समय तक निःसंतान रहे और बुढ़ापे में ईश्वर ने उनको पुत्र दिया था परन्तु जब ईश्वर का आदेश आया तो वे अपने पुत्र इस्माईल को ईश्वर के लिए बलि चढ़ाने पर तैयार हो गए।
 हज़रत इब्राहीम ने इमामत का पद अपनी संतान के लिए भी मांगा परन्तु ईश्वर ने उत्तर में कहा कि ये पद पारिवारिक नहीं है बल्कि जिसमें भी क्षमता और योग्यता होगी उसे ये पद दिया जाएगा। हज़रत इब्राहीम पहले केवल केवल रसूल थे परीक्षाओं में सफल होने के पश्चात उन्हें इमामत का पद भी मिला।
 इमामत का पद रेसालत के पद से बड़ा है, रसूल ईश्वरीय आदेशों को लोगों तक पहुंचाने तथा उन्हें डराने व शुभ सूचना देने के लिए नियुक्त होता है जबकि इमाम, उन आदेशों को व्यवहारिक बनाने तथा जनता के बीच समाजिक न्याय लागू करने के लिए भेजा जाता है।
 यह आयत स्पष्ट रूप से बताती है कि इमामत, ईश्वरीय प्रतिज्ञा और धरोहर है जो अत्याचारियों और पापियों को नहीं मिल सकती। इस आधार पर हमारा विश्वास है कि, इमाम को भी पैग़म्बर की भांति मासूम होना चाहिए जिसने भी अतीत में पाप किया हो वो इमामत के योग्य नहीं है।
सूरए बक़रह की १२५वीं आयत इस प्रकार है।
और (याद कीजिए उस समय को) जब हम ने अपने घर काबा को लोगों के एकत्रित होने का स्थान और शांति का केन्द्र बनाया और (कहा) मक़ामे इब्राहीम से नमाज़ के लिए एक स्थान ग्रहण करो। और हम ने इब्राहीम और इस्माईल से प्रतिज्ञा ली कि तुम दोनों मेरे घर को तवाफ़ करने वालों, एतेकाफ़ करने वालों तथा रुकू व सज्दा करने वालों के लिए पवित्र व स्वच्छ करोगे। (2:125)
 पिछली आयत में हज़रत इब्राहीम के उच्च स्थान व उनकी इमामत का उल्लेख किया गया था, इस आयत में उनकी महान यादगार अर्थात काबे की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि ये घर लोगों का घर तथा इतिहास के एकेश्वरवादियों के मिलने का स्थान है, शांत, सुरक्षित तथा पवित्र स्थान जहां तवाफ़ किया जाता है और नमाज़ पढ़ी जाती है।
 जो हाजी मक्के जाते हैं उन्हें काबे के तवाफ़ अर्थात उसके चारों ओर सात फेरे लगाने के पश्चात दो रक्अत नमाज़ पढ़नी होती है। ईश्वर ने हज़रत इब्राहीम के संघर्षों की सराहना हेतु, उस पत्थर को, जिसपर वे काबे की दीवार उठाते समय खड़े होते थे, नमाज़ की मेहरबान की भांति हाजियों के सामने रखा है ताकि वे हज़रत इब्राहीम के स्थान से आगे खड़े होकर नमाज़ न पढ़ें।
 इब्राहीम और इस्माईल ने केवल काबे के निर्माणकर्ता बल्कि उसके सेवक भी थे वे ईश्वर के आदेश से मस्जिदुल हराम को उपासना करने वालों तथा नमाज़ पढ़ने वालों के लिए हर प्रकार की गंदगी से स्वच्छ व पवित्र रखते थे। मस्जिद चूंकि ईश्वर का घर है इसीलिए उसके सेवकों को भी पवित्र तथा ईश्वर के प्रेमी बंदों में से होना चाहिए, हर किसी को मस्जिद के मामलों की देख-भाल का अधिकार नहीं है।
सूरए बक़रह की १२६वीं आयत इस प्रकार है।
और (याद को उस समय को जब इब्राहीम ने कहा प्रभुवर इस धरती को एक सुरक्षित शहर बना दे, और इसमें रहने वालों को जो ईश्वर और प्रलय पर विश्वास रखते हों, विभिन्न फलों और लाभों से रोज़ी दे। ईश्वर ने उत्तर में कहा, अलबत्ता मैं काफ़िरों को भी थोड़े से लाभ दूंगा परन्तु उन्हें उनके कर्मों के बदले में नरक की आग की ओर ले जाऊंगा और ये कितना बुरा अंजाम है। (2:126)
 हज़रत इब्राहीम ने जिन्होंने काबे का निर्माण किया था और उसे उपासना के लिए बनाया था, मक्का शहर में रहने वालों के लिए दो प्रार्थानाएं की थीं। पहली सुरक्षा व शांति और दूसरी रोज़ी व विभूति और जीवन में आराम। अलबत्ता उन्होंने केवल ईमान वालों के लिए प्रार्थना की थी परन्तु ईश्वर उनके उत्तर में कहता है कि मैं भौतिक रोज़ी सबको दूंगा चाहे वह मोमिन हो या काफ़िर। मैं काफ़िरों को उनके कुफ़्र के कारण सांसारिक विभूति से वंचित नहीं रखूंगा, भले ही प्रलय में अपने दुषकर्मों के कारण वे नरक में जाएंगे।
 यह आयत दो बातें बताती है, एक यह कि भौतिक विभूतियों और सांसारिक आराम से लाभान्वित होना, ईमान वालों के लिए बुरी बात नहीं है, इसी कारण हज़रत इब्राहीम ने ईश्वर से इसकी प्रार्थना की। दूसरे यह कि भौतिक आनंदों से काफ़िरों का लाभान्वित होना, उनकी सत्यता की निशानी नहीं है बल्कि ईश्वर के समीप सांसारिक संपत्ति के तुच्छ व महत्वहीन होने की निशानी है।
सूरए बक़रह की १२७वीं आयत इस प्रकार है।
और (याद करो) उस समय को जब इब्राहीम और इस्माईल (ईश्वर के घर) की बुनियादें उठा रहे थे और इस प्रकार प्रार्थना कर रहे थे, प्रभुवर हमारे इस कार्य को स्वीकार कर ले कि निःसन्देह तू सुनने वाला और ज्ञानी है। (2:127)
 ईश्वर का घर काबा हज़रत आदम के समय से ही था परन्तु हज़रत इब्राहीम ने उसका पुनर्निर्माण किया। इसका तर्क ये है कि उन्होंने मक्के में अपनी पत्नी व बच्चे को ठहराते समय यह कहा था, हे प्रभुवर! मैंने अपने परिवार को इस शुष्क व बंजर धरती में तेरे घर के समीप ठहराया है। अतः ज्ञात होता है कि जब हज़रत इब्राहीम मक्के पहुंचे तो ईश्वर का घर अर्थात काबा मौजूद था। इसके अतिरिक्त ईश्वर सूरै आले इमरान की छियानवेवीं आयत में, लोगों से पहले घर के रूप में काबे का परिचय कराता है।
 ये आयत बताती है कि यदि कार्य ईश्वर के लिए हो तो राजगीरी और मज़दूरी भी उपासना है। मूलतः ये बात महत्वपूर्ण नहीं है कि कार्य किस प्रकार का है बल्कि ईश्वर द्वारा उसका स्वीकार किया जाना महत्वपूर्ण है। यहां तक कि यदि हम काबे का निर्माण करें और ईश्वर उसे स्वीकार न करे, तो उस निर्माण का कोई महत्व और मूल्य नहीं है।
अब देखते हैं कि हमने इन आयतों से क्या सीखा।
 ईश्वर आध्यात्मिक पदों को, योग्यताओं के आधार पर मनुष्यों को देता है और विभिन्न घटनाएं, वे परीक्षाएं हैं जो ईश्वर लोगों की योग्यता को आंकने के लिए निर्धारित करता है ताकि वे आध्यात्मिक पदों तक पहुंच सके।
 इमामत या जनता का नेतृत्व, ईश्वरीय पद है न कि सांसारिक पद अतः हर व्यक्ति को इस्लामी समाज पर शासन या उसके नेतृत्व का अधिकार नहीं है बल्कि उसे ईश्वर की ओर से नियुक्त और निर्धारित होना चाहिए।
 मस्जिदें ईश्वर से संबन्धित स्थान हैं अतः उनका विशेष सम्मान होना चाहिए तथा भले और पवित्र लोगों को उनका मामला देखना चाहिए न कि भ्रष्ट और अयोग्य लोगों को।
 आदर्श इस्लामी शहर मक्का, उपासना का भी स्थल है और शांति व सुरक्षा का भी। मूल रूप से ईश्वर की उपासना सुरक्षा व शांत हृदय के साथ ही की जा सकती है, क्योंकि धर्म, संसार से अलग नहीं है।

सूरए बक़रह की १२८वीं आयत इस प्रकार है।
(हज़रत इब्राहीम और इस्माईल ने कहा) प्रभुवर हम दोनों को अपना आज्ञाकारी बना और हमारे वंश से एक ऐसा समुदाय बना जो तेरा आज्ञाकारी रहे और हमें उपासना की विधि बता और हमारी तौबा या प्रायश्चित स्वीकार कर, निःसन्देह तू तौबा स्वीकार करने वाला (व) कृपाशील है। (2:128)
 सभी परीक्षाओं में हज़रत इब्राहीम की सफ़लता का रहस्य, ईश्वरीय आदेशों के समक्ष उनका नतमस्तक रहना था, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण उन्होंने ईश्वर के आदेश पर अपने बेटे इस्माईल को ज़िब्ह करने के लिए अपनी तत्परता के रूप में प्रस्तुत किया।
 इसी कारण हज़रत इब्राहीम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह न केवल उन्हें और उनके पुत्र इस्माईल को बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों को भी ईश्वरीय आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहने वाला बनाए क्योंकि सभी परिपूर्णताएं ईश्वर की दासता और उसकी उपासना में निहित हैं।
 अलबत्ता ईश्वर की उपासना विशेष रूप से होनी चाहिए ताकि हर प्रकार के फेरबदल और अंधविश्वास से बचा जा सके, इसी कारण हज़रत इब्राहीम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि प्रभुवर तू ही हमें अपनी उपासना का वैसा मार्ग और तरीक़ा सिखा जिस प्रकार कि तू चाहता है कि हम तेरी उपासना करें।
सूरए बक़रह की १२९वीं आयत इस प्रकार है।
प्रभुवर! उनके बीच उन्हीं में से एक पैग़म्बर भेज जो उन्हें तेरी आयतें सुनाए और उन्हें किताब और हिकमत अर्थात तत्वदर्शिता की शिक्षा दे और उन्हें (पापों और अपराधों से) पवित्र करे, निःसन्देह तू प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। (2:129)
 आगामी पीढ़ियों पर ध्यान देना तथा भविष्य के बारे में विचार करना इस बात का कारण बनता था कि हज़रत इब्राहीम अपनी प्रार्थनाओं में ईश्वर से अपने लिए कोई वस्तु मांगने से पूर्व आगामी पीढ़ियों के मार्गदर्शन और कल्याण का विचार करें।
 चूंकि मनुष्य का कल्याण ईश्वरीय मार्गदर्शन के बिना संभव नहीं है इसी कारण हज़रत इब्राहीम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वो लोगों के लिए एक पैग़म्बर भेजे जो उनकी शिक्षा व प्रशिक्षण का दायित्व संभाले और उनमें ज्ञान व तत्वदर्शिता को विकसित करे।
सूरए बक़रह की १३०वीं और १३१वीं आयत इस प्रकार है।
कौन है जो इब्राहीम के मार्ग और धर्म से मुंह तोड़ ले सिवाय उसके कि जो स्वयं को मूर्ख व बुद्धिहीन बताए और निःसन्देह हमने इब्राहीम को संसार में चुना और निश्चित ही वो प्रलय में भले लोगों में से होंगे। (2:130) याद करो उस समय को जब इब्राहीम के पालनहार ने उनसे कहा कि मेरे प्रति समर्पित हो जाओ, उन्होंने कहा मैं ब्रहमांड के पालनहार के प्रति समर्पित हूं। (2:131)
 यह आयत हज़रत इब्राहीम को एक आदर्श तथा ईश्वर द्वारा चुने गए मनुष्य के रूप में परिचित कराती है जिनका मार्ग व धर्म एक ईश्वरीय विचारधारा के रूप में अन्य लोगों के लिए आदर्श बन सकता है।
 क्या से मूर्खता नहीं है कि मनुष्य इस प्रकार के पवित्र धर्म को छोड़कर अनेकेशवरवाद तथा कुफ़्र के ग़लत मार्गों का चयन करे। ऐसा धर्म जो मानव प्रकृति के अनुकूल है और बुद्धि भी उसे स्वीकार करती है।
 हज़रत इब्राहीम की विचारधारा इतनी मूल्यवान है कि पैग़म्बरे इस्लाम उस पर गर्व करते हैं कि उनकी विचारधारा इब्राहीम की विचारधारा है। हज़रत इब्राहीम वे व्यक्ति हैं जो तर्क में काफ़िरों को विवश कर देते हैं। ईश्वर के प्रति समर्पण में अपनी पत्नी और बच्चे को मक्के के तपते मरुस्थल में छोड़ देते हैं और कभी अपने युवा पुत्र को बलि चढ़ाने के लिए ले जाते हैं ताकि ये दर्शा सकें कि उनका हृदय अपनी पत्नी और पुत्र से नहीं बल्कि ईश्वर से जुड़ा हुआ है।
 स्पष्ट है कि ईश्वर इस प्रकार की विशेषताएं रखने वाले मनुष्य को चुनता है और उसे पैग़म्बर तथा इमाम के रूप में अन्य लोगों के लिए आदर्श बनाता है तथा उसके मार्ग से हटने को मूर्खता बताता है।
सूरए बक़रह की १३२वीं आयत का अनुवाद सुनते हैं।
और इब्राहीम व याकू़ब ने अपने बच्चों को उसी एकेश्वरवादी धर्म की वसीयत की और कहा हे पुत्रों ईश्वर ने तुम्हारे लिए एकेश्वरवाद का धर्म चुना है अतः अपनी आयु के अंत तक उस पर चलते रहना और उसके आज्ञापालन करने की दशा में ही मरना। (2:132)
 कृपालु और शुभचिंतक पिता वह नहीं है जो केवल अपने बच्चों के भौतिक जीवन की आवश्यक्ताओं की पूर्ति का ध्यान रखे बल्कि बच्चों के विचार और आस्था को स्वस्थ रखने और उन्हें पथभ्रष्टता से बचाने पर माता पिता का बसे अधिक व्यय होना चाहिए।
 ईश्वरीय दूतों ने सदैव अपने बच्चों को ईश्वर की ओर आमंत्रित किया है और मरते समय उनकी वसीयत न केवल सांसारिक माल को बांटने के बारे में होती थी बल्कि वे एकिश्वरवाद तथा उपासना के बारे में भी सिफ़ारिश करते थे।
सूरए बक़रह की १३३वीं आयत इस प्रकार है।
क्या तुम (यहूदी) लोग उस समय उपस्थित थे जब याक़ूब को मौत आई? जब उन्होंने अपने बेटों से कहाः मेरे पश्चात तुम किसकी उपासना करोगे? उन्होंने कहा, आपके और आपके पूर्वजों इब्राहीम, इस्माईल व इस्हाक़ के ईश्वर की जो एकमात्र ईश्वर है और हम उसके प्रति समर्पित हैं। (2:133)
 यहूदियों के एक गुट का विश्वास था कि हज़रत याक़ूब ने मरते समय अपने बेटों को उस धर्म की सिफ़ारिश की थी जिसका पालन यहूदी कर रहे थे। ईश्वर इस दावे को रद्द करते हुए कहता है।
 क्या तुम याक़ूब की मृत्यु के समय उपस्थित थे जो इस प्रकार का दावा करते हो? बल्कि उन्होंने तो अपने बेटों से एक ईश्वर के प्रति समर्पित रहने को कहा और उनके बेटों ने वादा किया कि वे केवल एक ईश्वर की उपासना करेंगे।
 जैसा कि हमने पिछली आयत में कहा पिताओं को अपने बच्चों की आस्था और उनके वैचारिक भविष्य के बारे में ज़िम्मेदारी का आभास करना चाहिए और उचित अवसरों तथा संवेदनशील परिस्थितियों में अपनी इस देख रेख को लागू करना चाहिए।
 एकेश्वरवाद का एक तर्क ये है कि सभी पैग़म्बरों ने एक ही ईश्वर की सूचना दी है और इब्राहीम, इस्माईल तथा इस्हाक़ का ईश्वर एक ही है जबकि यदि कोई दूसरा ईश्वर होता तो वह भी लोगों के मार्गदर्शन के लिए पैग़म्बर भेजता और स्वयं को परिचित करवाता।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
 केवल ईश्वर के प्रति समर्पित रहना चाहिए कि ईश्वरीय परीक्षाओं में सफलता का रहस्य ईश्वर के प्रति समर्पित रहने और उसके आज्ञापालन की भावना है।
 प्रार्थनाओं में केवल अपनी भौतिक आवश्यकताओं का विचार नहीं रखना चाहिए बल्कि अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ियों के सौभाग्य के लिए भी प्रार्थना करनी चाहिए।
 मूर्ख वह नहीं है जिसके पास बुद्धि न हो बल्कि मूर्ख वह है जो बुद्धि रखने के बावजूद ग़लत मार्ग पर चले और अपनी तथा अपने परिवार की पथभ्रष्टता का कारण बने।
 अच्छा अंत और मृत्यु तक ईमान पर बाक़ी रहना महत्वपूर्ण है। बहुत से ऐसे लोग थे जो मुसलमान थे परन्तु मरते समय मुसलमान नहीं रहे अतः हमें अपने और अपने बच्चों के ईमान की सुरक्षा के विचार में रहना चाहिए और आज अपने मुसलमान होने से ही प्रसन्न नहीं होना चाहिए।
सूरए बक़रह की १३४वीं आयत इस प्रकार है।
वह ऐसा समुदाय है जिसका अंत हो चुका, जो कुछ उसने किया वह उसके लिए है और जो कुछ तुमने प्राप्त किया है वह तुम्हारे लिए है और तुमसे उन बातों का प्रश्न नहीं किया जाएगा, जो कुछ उन्होंने किया है। (2:134)
बनी इस्राईल अपने पूर्वजों पर बहुत गर्व करते थे और उनका विचार था कि वे जितने भी पाप करें, अपने पूर्वजों के अच्छे कर्मों के कारण उन्हें क्षमा कर दिया जाएगा, इसी कारण वे स्वयं को सुधारने के स्थान पर अपने पूर्वजों के कर्मों का वर्णन करते थे।
ये आयतें उन्हें और मुसलमानों सहित अन्य मनुष्यों को चेतावनी देती है कि हर व्यक्ति अपने कर्मों का उत्तरदायी है और प्रलय में पिता, पुत्र या अन्य लोगों की नातेदारियां काम नहीं आएंगी, अतः अपने पूर्वजों के भले से कोई आशा न रखो।
हज़रत अली अलैहस्सलाम का कथन है कि मनुष्य की महानता व गौरव उसके दृढ़ संकल्प में है न कि पूर्वजों की गली हुई हड्डियों में।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 135 इस प्रकार है।
जिनके पास आसमानी किताबें थीं उन्होंने कहा कि यहूदी या ईसाई हो जाओ ताकि तुम्हें मार्गदर्शन प्राप्त हो जाए, (हे पैग़म्बर!) कह दीजिए कि ऐसा नहीं है बल्कि इब्राहीम की पद्धति का अनुसरण, कि जो सत्य को स्वीकार करने पर आधारित थी, (मार्गदर्शन का कारण है) और वे अनेकेश्वरवादी न थे। (2:135)
यहूदी स्वयं को सत्य पर समझते थे और ईसाइयों को असत्य पर, इसी प्रकार ईसाई भी स्वयं को सत्य पर और यहूदियों को असत्य पर मानते थे। अतः वे एक दूसरे को अपने धर्म का निमंत्रण देते थे और कहते थे कि यदि तुम मार्गदर्शन चाहते हो तो हमारे में आ जाओ।
कुरआने मजीद इस तर्कहीन एकाधिकार के दावे के बारे में कहता है कि मार्गदर्शन का रास्ता सत्य को स्वीकार करना है न कि किसी विशेष समुदाय से संबंधित होना और सत्य को स्वीकार करने की पद्धति हज़रत इब्राहीम से सीखो जो कभी भी अनेकेश्वरवाद और अहंकार में ग्रस्त नहीं हुए।
यह आयत हमें बताती है कि नाम और स्वरूप महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आस्था और कर्म का महत्व है, यहूदी या ईसाई होना धर्म के एक स्वरूप से अधिक नहीं है, जो बात महत्व रखती है वह एकेश्वरवाद है।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 136 इस प्रकार है।
तुम सब कह दो कि हम ईश्वर पर ईमान लाए और जो कुछ हम पर उतरा और इसी प्रकार जो कुछ इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, याक़ूब और उनके वंश के पैग़म्बरों पर उतरा और जो कुछ मूसा व ईसा को दिया गया और जो कुछ अन्य पैग़म्बरों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया, ईमान रखते हैं। हम इनमें से किसी के बीच अंतर नहीं समझते और हम ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हैं। (2:136)
पिछली आयत में यहूदियों और ईसाइयों के बीच उनके धर्म के मतभेद के वर्णन के पश्चात ये आयत उन्हें और अन्य धर्मों के अनुयाइयों को संबोधित करते हुए कहती है कि ईश्वरीय पैग़म्बरों के बीच कोई अंतर नहीं है क्योंकि वे सब एक ही ईश्वर की ओर से आए हैं और जो कुछ उन्हें दिया गया है या उन पर उतारा गया है वह भी एक ही ईश्वर की ओर से है, अतः ईश्वर पर विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सभी ईश्वरीय दूतों और उन पर उतारी गई किताबों व अन्य बातों पर विश्वास रखना चाहिए, न यह कि केवल अपने पैग़म्बर को स्वीकार करे और अन्य पैग़म्बरों और उनकी किताबों का इन्कार कर दे।
ईश्वरीय पैग़म्बर एक स्कूल के शिक्षकों की भांति हैं जिनमें से प्रत्येक पर विशेष समय में विद्यार्थियों के एक समूह के प्रशिक्षण का भार है और ईश्वर ने इतिहास के विभिन्न कालों में मनुष्य की मानसिक प्रगति के अनुकूल अधिक परिपूर्ण किताबों और धर्मों को उसके मार्गदर्शन के लिए भेजा है।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 137 इस प्रकार है।
तो यदि वे भी तुम्हारी भांति उन बातों पर ईमान ले आए जिन पर तुम ईमान लाए हो तो निश्चित ही उनको मार्गदर्शन प्राप्त हो जाएगा और यदि वे हटधर्मी और इन्कार करते हैं तो अवश्य ही वे तुमसे युद्ध की स्थिति में हैं और उनके मुक़बाले में ईश्वर (तुम्हारी सहायता के लिए) काफ़ी है कि वह सुनने और जानने वाला है। (2:137)
यह आयत मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है कि यदि यहूदी और ईसाई एकाधिकार और जातीय भेदभाव के स्थान पर तुम मुसलमानों की भांति सभी पैग़म्बरों और उनकी किताबों पर ईमान ले आएं तो उन्हें मार्गदर्शन मिल जाएगा।
परंतु यदि वे स्वयं को सत्य का केंद्र व मानदंड समझें और अन्य धर्मों के अनुयाइयों और उनके पैग़म्बरों को पथभ्रष्ट समझें तो यह सत्य से युद्ध और सत्यवादियों के गुट से निकल जाने की निशानी है।
अंत में आयत मुसलमानों को प्रोत्साहन देती है कि धर्म के शत्रुओं के षड्यंत्रों के मुक़ाबले में ईश्वर तुम्हारे लिए पर्याप्त है क्योंकि वे लोग जो कुछ तुम्हारे बारे में कहते या कार्यक्रम बनाते हैं, ईश्वर उनको सुनता और जानता है।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 138 इस प्रकार है।
बस ईश्वर का रंग है और अल्लाह से अच्छा किसका रंग होगा? हम केवल उसी की उपासना करते हैं। (2:138)
ईश्वर संसार का रचयिता तथा चित्रकार है। उसने सृष्टि के आरंभ में मनुष्य की आत्मा को पवित्र प्रवृत्ति द्वारा रंग किया परन्तु मनुष्य ने उस ईश्वरीय रंग पर अपनी अत्यधिक इच्छाओं के रंग फेर दिये और उस ईश्वरीय रंग को अपने असितत्व के चित्र से मिटा दिया।
सांप्रदायिकता, व्यक्तिगत तथा गुट व दलगत रुचि एवं रुझान ऐसे रंग हैं जो मनुष्यों के बीच जुदाई और फूट का कारण बनते हैं जबकि सभी जातीय व सांप्रदायिक रंगों को समाप्त होना चाहिए ताकि मनुष्य में ईश्वरीय रंग झलकने लगें।
समय बीतने के साथ ही साथ सारे रंग फीके पड़ जाते हैं और अंत में जाते हैं सिवाए ईश्वरीय रंग के जो स्थिर और अनमिट है।
सारे रंग जुदाई और फूट के कारण हैं सिवाए ईश्वरीय रंग के जो एकता और भाईचारे का कारण बनता है वो भी एक ईश्वर की उपासना की छाया में।
साधारणतः मनुष्य अन्य लोगों का रंग-ढंग स्वीकार कर लेता है, जब वो किसी समूह में जाता है तो उन्हीं लोगों का रंग अपना लेता है ताकि उसे वे लोग स्वीकार करने लगें जबकि धर्म दूसरों के रंग को स्वीकार करने की नहीं अपितु बेरंगों की सिफ़ारिश करता है।
मनुष्य में किसी भी प्रकार की विशिष्टता प्राप्ति की चाह का कारण बनने वाले रंग से दूरी चाहे वह किसी भी नाम और शीर्षक के अन्तर्गत हो, आयु और ज्ञान के मामले में हो या धन और पद से संबन्धित हो कि इसी बेरंगी में ईश्वरीय रंग का प्रकट होता है।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
पूर्वजों पर भरोसा और गर्व करने के स्थान पर हमें अपने कार्यों की फ़िक्र में रहना चाहिए क्योंकि हर कोई अपने कार्यों का परिणाम देखेगा। ऐसा न हो कि अन्य लोग प्रयल के दिन प्रयास करें और हम केवल अपने पूर्वजों पर ही गर्व करते रह जाएं।
हमें सत्यवादी होना चाहिए न कि गुटवादी। सत्यवाद सत्य को समझने के लिए मनुष्य की आंख और कान खोल देता है परन्तु गुटवाद मनुष्य को अपनी कमियां और दूसरों की परिपूर्णता नहीं देखने देता। हृदय के ईमान के साथ व्यवहार में भी समर्पण आवश्यक है। ईश्वरीय आदेशों के पालन के स्थान पर अपनी इच्छाओं का अनुसरण करके ईमान का दावा नहीं किया जा सकता।
सबसे अच्छा रंग, ईश्वरीय प्रवृत्ति का रंग है जिसे ईश्वर ने सभी मनुष्यों के अस्तित्व में रखा है। ये रंग अनमिट, एकता उत्पन्न करने वाला तथा एक दूसरे के निकट करने वाला है।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 143 इस प्रकार है।
और इस प्रकार हमने तुम्हें संतुलित समुदाय बनाया ताकि तुम लोगों पर गवाह रहो और पैग़म्बर तुम पर गवाह रहें। और (हे पैग़म्बर!) जिस क़िबले पर आप थे उसे हमने केवाल इसी लिए बदला कि पैग़म्बर का अनुसरण करने वालों को, उनकी ओर से मुंह मोड़ लेने वालों से अलग पहचानने के लिए और यद्यपि (क़िबले का) यह (परिवर्तन) अत्यंत कठिन था, सिवाए उन लोगों के लिए जिनका मार्गदर्शन ईश्वर ने कर दिया है। जान लो कि ईश्वर कदापि तुम्हारे ईमान को व्यर्थ नहीं जाने देगा क्योंकि वह लोगों के लिए अत्यंत कृपालु व दयावान है। (2:143)
पिछले कार्यक्रमों में क़िबले के परिवर्तन के बारे में बनी इस्राईल की बहानेबाज़ियों का उल्लेख करते हुए हम यहां तक पहुंचे थे कि ईशवर ने उनके उत्तर में कहा कि पूरब और पश्चिम तथा सभी दिशाएं ईश्वर की हैं और सच्चा मार्गदर्शन ईश्वर के सीधे रास्ते पर चलने में है न यह कि हम सोचें कि ईश्वर संसार के पूरब या पश्चिम में है और हम केवल उसी की ओर मुख करें।
यह आयत इस्लामी समुदाय का परिचय एक संतुलित समुदाय और हर प्रकार के चरमपंथ से दूर रहने वाले समुदाय के रूप में कराती है जो जीवन के हर भाग में चाहे वह भौतिक हो या आध्यात्मिक और चाहे आर्थिक हो या धार्मिक संतुलन बनाए रखता है और सभी मनुष्यों और मानव समाजों के लिए एक उचित आदर्श है।
स्पष्ट सी बात है कि सभी मुसलमान ऐसे नहीं हैं और उनमें से बहुत से, विचार या व्यवहार में असंतुलन का शिकार होते हैं तो फिर इस आयत का तात्पर्य क्या है?
तात्पर्य यह है कि इस्लामी विचारधार संतुलन वाली विचारधारा है और केवल उन्हीं लोगों को ईश्वर, जनता पर अपना गवाह बनाता है जो इस्लाम के सभी आदेशों का पालन करते हैं, केवल कुछ का नहीं।
जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके परिजनों ने जो ईश्वरीय आदेशों के सबसे बड़े ज्ञानी, उनका सर्वप्रथम पालन करने वाले और इस समुदाय का सबसे उत्तम उदाहरण थे, कहा है कि वह संतुलित समुदाय जिसे ईश्वर ने लोगों पर अपना गवाह बनाया है, हम हैं।
आगे चलकर आयत इस महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करती है कि क़िबले के परिवर्तन का आदेश भी ईश्वर के अन्य आदेशों की भांति एक ईश्वरीय परीक्षा थी जिसने ईश्वर के प्रति समर्पित रहने वालों को, अपनी इच्छाओं का पालन करने वालों से अलग कर दिया था क्योंकि जिन लोगों को ईश्वर का विशेष मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हुआ था उनके लिए यह आदेश स्वीकार करना अत्यंत कठिन था और वे इसके समक्ष बहानेबाज़ी कर रहे थे।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 144 इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर!) हमने तुम्हें देखा कि तुम वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश की प्रतीक्षा में किस प्रकार आकाश की ओर अपना मुंह घुमा रहे थे, तो अब हम तुम्हें ऐसे क़िबले की ओर मोड़ देंगे जिससे तुम राज़ी रहो, तो तुम अपना मुख मस्जिदुल हराम की ओर करो और (हे मुसलमानो! तुम) जहां भी रहो अपना मुख उसकी ओर मोड़ दो और निसंदेह जिन लोगों को आसमानी किताब दी गई है, भली भांति जानते हैं कि यह सत्य आदेश उनके पालनहार की ओर से है और जो कुछ वे करते हैं उससे ईश्वर निश्चेत नहीं है। (2:144)
यहूदियों द्वारा यह ताना दिए जाने के बाद कि मुसलमानों का अपना अलग क़िबला नहीं है, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम क़िबले के परिवर्तन के आदेश की प्रतीक्षा में थे, यहां तक कि ज़ुहर की नमाज़ में ईश्वर ने यह आदेश उनके पास भेजा और उनके बैतुलमुक़द्दस से मक्के की ओर दिशा परिवर्तन के कारण उनके पीछे नमाज़ पढ़ने वाले भी काबे की ओर घूम गए।
रोचक बात यह है कि पिछली आसमानी किताबों में कहा गया था कि पैग़म्बरे इस्लाम की एक निशानी यह है कि वे दो क़िबलों की ओर नमाज़ पढ़ेंगे, अतः यह आयत आसमानी किताब रखने वालों को सचेत करती है कि तुम, जो जानते हो कि यह आदेश सत्य है, क्यों उस पर आपत्ति करते हो?
सूरए बक़रह की आयत नंबर 145 इस प्रकार है।
और (हे पैग़म्बर! जान लीजिए कि) आप आसमानी किताब रखने वालों के लिए जो भी तर्क और चमत्कार प्रस्तुत करेंगे, वे आपके क़िबले को स्वीकार नहीं करेंगे और आप भी उनके क़िबले के अनुसरणकर्ता नहीं हैं, जैसा कि उनमें से कुछ दूसरों के क़िबले के अनुयाई नहीं हैं और यदि सत्य से अवगत होने के पश्चात आप उनकी इच्छाओं का पालन करेंगे तो निसंदेह उस स्थिति में आप अत्याचारियों में से होंगे। (2:145)
यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को सान्तवना देती है कि यदि आसमानी किताब रखने वाले आपके क़िबले को स्वीकार नहीं करते तो दुखी मत हों क्योंकि सांप्रदायिक द्वेष उन्हें सत्य स्वीकार करने की अनुमति नहीं देता अतः आप जो भी तर्क प्रस्तुत करेंगे वे स्वीकार नहीं करेंगे।
परंतु उनकी ओर से सत्य को स्वीकार न करना इस बात का कारण ने बने कि आप अपने क़िबले की बारे में ढीले पड़ जाएं बल्कि दृढ़तापूर्वक कहिए कि हम तुम्हारी इन आपत्तियों के समक्ष नहीं झुकेंगे तथा हमारी नीति में कोई परिवर्तन नहीं आएगा।
चूंकि इस्लाम में सबके लिए एक समान क़ानून है, अतः ईश्वर अपने पैग़म्बर को सचेत करता है कि यदि वे भी उनके साथ मिल कर अपने क़िबले की सत्यता से हाथ उठा लेंगे तो अपने अनुयाइयों पर बहुत बड़ा अत्याचार करेंगे।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 146 और 147 इस प्रकार है।
जिन्हें हमने आसमानी किताब दी है वे पैग़म्बरे इस्लाम को अपने पुत्रों की भांति पहचानते हैं किंतु उनका एक गुट सत्य को जानने के बावजूद उसे छिपाता है। (2:146) सत्य आपके पालनहार की ओर से है, अतः कभी भी उसमें संदेह करने वालों में से न हो जाइएगा। (2:147)
तौरैत व इंजील अर्थात बाइबल में पैग़म्बरे इस्लाम की निशानियों तथा विशेषताओं का उल्लेख था अतः उन्हें मानने वाले पैग़म्बर को पहचानते थे परंतु सांप्रदायिक द्वेष और हठधर्मी के कारण उनका एक गुट इस वास्तविकता को दूसरों से छिपाता था।
अलबत्ता उनमें से कुछ लोग पैग़म्बर की विशेषताओं को देख कर उन पर ईमान ले आते थे क्योंकि ये शारीरिक व आत्मिक विशेषताएं इस प्रकार उनकी पुस्तकों में वर्णित हुई थीं कि क़ुरआने मजीद के शब्दों में वे पैग़म्बर को अपने बच्चों की भांति पहचानते थे।
यह आयत इस महत्वपूर्ण बात पर बल देती है कि केवल वही सत्य है जो ईश्वर की ओर से आया है और लोगों द्वारा उसे अस्वीकार किया जाना या उसकी ओर से मुंह मोड़ लेना, ईश्वरीय संदेश अर्थात वहि की सत्यता में संदेह का कारण नहीं बनना चाहिए।
इन आयतों से मिलने वाले पाठ कुछ इस प्रकार हैं। क़िबला स्वाधीनता की भी निशानी है और समर्पण की भी, हर उस धर्म और विचारधारा से स्वाधीनता जो मुसलमानों पर नियंत्रण करना चाहता है तथा ईश्वर के समक्ष समर्पण कि वह जो आदेश दे उसे बिना आपत्ति किए स्वीकार कर लिया जाए।
इस्लाम संतुलन का धर्म है और यदि मुसलमान ईश्वर के बताए हुए सीधे मार्ग पर चलें तो वे समुदायों के लिए आदर्श बन सकते हैं।
हठधर्म और सांप्रदायिक द्वेष, विचार, तर्क तथा सत्य स्वीकार करने में बाधा बनता है, अतः धर्म इस साम्राज्यवादी भावना से मुक़ाबला करता है।
यदि सत्य स्वीकार करने की भावना न हो तो केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं है क्योंकि मनुष्य की इच्छाएं कभी-2 ज्ञान को छिपाती या उसमें फेर-बदल कर देती हैं।


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