कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2: १६७-१८२ ,वसीयत
सूरए बक़रह की १६७वीं आयत इस प्रकार है। और जिन लोगों ने पथभ्रष्ट नेताओं का अनुसरण किया है वे प्रलय के दिन कहेंगे कि काश हमारे पास संसार म...
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सूरए बक़रह की १६७वीं आयत इस प्रकार है।
और जिन लोगों ने पथभ्रष्ट नेताओं का अनुसरण किया है वे प्रलय के दिन कहेंगे कि काश हमारे पास संसार में वापस लौटने की संभावना होती तो हम इन नेताओं से विरक्त हो जाते, जिस प्रकार आज वे हमसे विरक्त हो गए हैं। इस प्रकार ईश्वर उनके कर्मों को उन्हें दिखाएगा जो उनके लिए हसरत का कारण होगा। और वे नरक की आग से बाहर आने वाले नहीं हैं। (2:167)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि अपराधी जब ईश्वरीय दंड को देखेंगे तो नेता अपने अनुसरणकर्ताओं से विरक्त हो जाएंगे क्योंकि जो प्रेम, इच्छा और आशा के आधार पर होगा वो प्रलय के दिन घृणा और द्वेष में परिवर्तित हो जाएगा।
यह आयत कहती है कि नरकवासी ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि वह उन्हें संसार में पलटा दे तथा वे अपने नेताओं से विरक्त हो जाएंगे क्योंकि उन्हें अपने कार्यों से पश्चाताप और उत्कंठा के अतरिक्त कोई लाभ नहीं मिला है परन्तु क्या फ़ाएदा? क्योंकि न हसरत और दुख से कुछ काम बनेगा और न ही वापस लौटने का कोई मार्ग मौजूद है।
जो लोग मनुष्य की विवश्ता में आस्था रखते हैं, उनके समक्ष ये आयत संसार में उसके अधिकार रखने व स्वतंत्र होने को दर्शाते हैं क्योंकि पश्चाताप और हसरत इस बात की निशानी है कि मैं दूसरा काम कर सकता था परन्तु मैंने स्वयं अपनी इच्छा से ग़लत मार्ग का चयन किया।
सूरए बक़रह की १६८वीं आयत इस प्रकार है।
हे लोगो! धरती में जो कुछ हलाल व पवित्र है उसमें से खाओ और शैतान के बहकावे में न आओ कि निःसन्देह, वह तुम्हारा खुला हुआ शत्रु है। (2:168)
खाना-पीना मनुष्य की एक मूल आवश्यकता है परन्तु अनेक दूसरे कार्यों की भांति इसमें भी बाहुल्य किया जाता है। कुछ लोग चाहते हैं कि बिना किसी क़ानून और मानदंड के, जिस चीज़ को उनका मन चाहे खाएं पीएं, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि बुद्धि और धर्म की दृष्टि से ये खाना पीना उनके लिए ठीक है या नहीं। या यह कि यह चीज़ सही मार्ग से आई है या ग़लत मार्ग से। वे केवल अपना पेट भरना और अपनी इच्छा की पूर्ति करना चाहते हैं।
इसके विपरीत कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बिना किसी स्पष्ट तर्क के वे वस्तुए भी नहीं खाते जिनकी अनुमति बुद्धि तथा धर्म ने दे रखी है। वे अपने विचार में इच्छाओं का मुक़ाबला करते हैं।
इस्लाम एक व्यापक धर्म है। इसमें खाने और पीने के लिए भी क़ानून मौजूद हैं। शरीर के लिए जो वस्तुएं लाभदायक और आवश्यक हैं उन्हें हलाल किया गया है और जो वस्तुएं मनुष्य के शरीर और उसकी आत्मा के लिए हानिकारक हैं उन्हें हराम या वर्जित किया गया है।
यह आयत कहती है कि जो कुछ धरती में है उसे ईश्वर ने तुम्हारे लिए बनाया है अतः जो वस्तु हलाल व पवित्र तथा तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल हो उसे खाओ पियो और बेकार में किसी वस्तु को हलाल या हराम न बनाओ क्योंकि यह तुम्हें पथभ्रष्ट करने के लिए शैतान का षड्यंत्र है जैसा कि उसने वर्जित पेड़ का फल खाने के लिए आदम और हौआ को धोखा दिया था।
शराब जैसी हराम वस्तुओं का खाना-पीना भी शैतान का बहकावा है और हलाल वस्तुएं न खाना भी कि जो साधारणतः ग़लत विश्वास के आधार पर होता है।
सूरए बक़रह की १६९वीं आयत इस प्रकार है।
निःसन्देह, शैतान तुम्हें केवल बुराई का आदेश देता है और यह कि ईश्वर के बारे में ऐसी बात कहो जिसे तुम नहीं जानते। (2:169)
पिछली आयत में कहा गया कि शैतान तुम्हारा शत्रु है और यह आयत कहती है कि तुमसे शैतान की शत्रुता की निशानी यह है कि वह सदैव तुम्हें बुराई की ओर बुलाता है जिसका दुर्भाग्य और कठोरता के अतिरिक्त और कोई परिणाम नहीं है।
अलबत्ता हमारे ऊपर शैतान का नियंत्रण नहीं है कि वह हमसे अधिकार छीन ले बल्कि पाप के लिए उसके आदेश का तात्पर्य यह है कि वो हमें बहकाता है और हमारे मन में बुरे विचार डालता है तथा मनुष्य का ईमान जितना दुर्बल होता है, शैतानी विचार उतने ही उसमें प्रभावशाली होते हैं।
शैतान, पाप का निमंत्रण भी देता है और उसका औचित्य दर्शाने का मार्ग भी दिखाता है। ईश्वर पर आरोप लगाना, पाप की भूमि समतल करने और उसका औचित्य दर्शाने का एक मार्ग है। मनुष्य अपनी अज्ञानता के आधार पर कोई पाप करता है और फिर उसके औचित्य के लिए उसे ईश्वर से संबन्धित कर देता है।
सूरए बक़रह की १७०वीं आयत इस प्रकार है।
और जब उनसे कहा जाता है कि उस (धर्म) का अनुसरण करो जो ईश्वर ने उतारा है तो वे कहते हैं कि बल्कि हम तो इसका अनुसरण करेंगे, जिसपर हमने अपने पिताओं को पाया है, क्या ऐसा नहीं है कि उनके पिता कोई सोच विचार नहीं करते थे और न ही उन्हें मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था। (2:170)
पूर्वजों की संस्कृति और संस्कारों की सुरक्षा, अच्छी बात है परन्तु तब जब वह संस्कृति बुद्धि व विचार या ईश्वरीय संदेश अर्थात वहि के आधार पर हो न यह कि हम जातीय सांप्रदायिक्ता के कारण अपने पूर्वजों के उल्टे सीधे संस्कारों का अनुसरण करें।
मनुष्य में शैतान के प्रभाव का एक मार्ग पूर्वजों का अंधा अनुसरण है कि मनुष्य ईश्वरीय आदेशों के पालन के स्थान पर अपने पूर्वजों की ग़लत धारणाओं का बिना किंतु परन्तु किए अनुसरण करता है जबकि वह स्वयं समझ रहा होता है कि यह कार्य ग़लत है और उसके धर्म ने भी उसे इस प्रकार के कार्य से रोका है।
सूरए बक़रह की १७१ वीं आयत
और ईश्वर का इन्कार करने वाले काफ़िरों को इस्लाम का निमंत्रण देने में तुम्हारी उपमा उस गड़रिये के समान है जो ख़तरे के समय अपनी भेड़ों को आवाज़ लगाता है परन्तु उन्हें शोर के अतरिक्त कुछ सुनाई नहीं देता (अर्थात वे कुछ समझ नहीं पातीं) के काफ़िर लोग बहरे, गूंगे और अंधे हैं अतः कुछ नहीं समझते। (2:171)
पिछली आयत में कहा गया था कि काफ़िर अपने पूर्वजों की ग़लत धारणाओं का अंधा अनुसरण करते हैं जबकि उनके पूर्वजों ने इन आस्थाओं का आधार न तो विचार और बुद्धि पर रखा था और न ही ईश्वरीय संदेश पर।
यह आयत कहती है कि काफ़िर सोच-विचार भी नहीं करते कि उन्हें वास्तविकता का पता चल जाए बल्कि वे सत्य के समक्ष अपनी आंखों और कानों को भी बंद कर लेते हैं ताकि उन्हें कुछ दिखाई और सुनाई न पड़े बिल्कुल उन भेड़ों की भांति जिन्हें गड़रिया चिल्ला चिल्ला कर ख़तरे से अवगत करवाता है परन्तु वे उसकी बातें नहीं समझतीं और उन्हें केवल शोर की आवाज़ सुनाई देती है।
उनके पास भी जानवरों की भांति आंख, कान और ज़बान है परन्तु वे सोच विचार नहीं करते इसी कारण वे वास्तविकता और सच को खोज नहीं पाते और अपने पूर्वजों की ग़लत धारणाओं का अनुसरण करने लगते हैं। जो कुछ उन्होंने कहा है उसका आंखें बंद करके अनुसरण करने लगते हैं।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
मनुष्य जानवर नहीं है जो अपने पेट का दास बन जाए बल्कि उसे ईश्वरीय आदेशों के आधार पर पवित्र व हलाल वस्तुओं से अपनी आहार संबन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए।
जो कोई भी मनुष्य को बुराई की ओर बुलाए वह शैतान है, चाहे वह मनुष्य के रूप में क्यों न हो।
पूर्वजों की परंपराओं और संस्कारों का अनुसरण केवल उसी दशा में लाभदायक है जब वह ज्ञान और बुद्धि के आधार पर हो वरना ग़लत संस्कारों के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरण का पतन और रुढ़िवाद से अतिरिक्त और कोई परिणाम नहीं रहेगा।
मनुष्य का मूल्य उसकी बुद्धि और मंथन से है वरना दूसरे जानवरों के पास भी आंख, ज़बान और कान होते हैं।
सूरए बक़रह की १७२वीं आयत इस प्रकार है।
हे ईमान लाने वाले लोगो, हमने जो तुम्हें पवित्र विभूतियां दी हैं, उनमें से खाओ और ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहो यदि तुम केवल उसी की उपासना करते हो। (2:172)
संसार एक बाग़ की भांति है और पवित्र लोग एक बाग़ के फूल हैं। ईश्वर की विभूतियां उस पानी की भांति हैं जो फूल उगाने के लिए माली, बाग़ में डालता है, परन्तु इसका क्या किया जाए कि घास-फूस भी उसी पानी से लाभ उठाते हैं।
ईश्वर ईमान वालों से कहता है कि वो उसकी विभूतियों से लाभ उठाएं और अकारण किसी वस्तु को अपने लिए वर्जित न करें क्योंकि ये विभूतियां वास्तव में उन्हीं के लिए बनाई गई हैं।
अलबत्ता ईश्वर की विभूतियां भोग विलास के लिए नहीं है क्योंकि ईश्वर के बाग़ का फल अच्छा कर्म है अतः विभूतियों को सबसे अच्छे मार्ग में प्रयोग करना चाहिए जो वास्तविक कृतज्ञता है।
सूरए बक़रह की १७३ इस प्रकार है।
ईश्वर ने केवल मरे हुए जानवर का मांस, रक्त, सूअर का मांस और उन जानवरों को जो ईश्वर के अतिरिक्त किसी के नाम पर काटे गए हों तुमपर वर्जित किये गए हैं, परन्तु इसके बावजूद जो कोई भूख के कारण उन्हें खाने पर विवश हो तो यदि वह आनंद लेने का इरादा न रखता हो और आवश्यकता से अधिक न खाए तो उसपर कोई पाप नहीं है और निःसन्देह, ईश्वर क्षमा करने वाला कृपालु है। (2:173)
सामान्यतः क़ुरआन की पद्धति यह है कि वो जब भी मनुष्य को किसी बात से रोकना चाहता है तो पहले उसके हलाल मार्गों का वर्णन करता है फिर हराम बातों का उल्लेख करता है।
पिछली आयत में खाने की पवित्र वस्तुओं से लाभ उठाने की सिफ़ारिश करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि हर वस्तु तुम्हारे लि हलाल है और केवल कुछ वस्तुएं तुम्हारे लिए वर्जित की गई हैं और वो भी उनके द्वारा तुम्हारे शरीर और आत्मा को होने वाली हानि के कारण।
रक्त, मरा हुआ जानवर या सुअर का मांस, उनकी विदित अपवित्रता के कारण वर्जित है परन्तु मूर्तियों के समक्ष या उनके नाम पर बलि किए गए जानवरों का वर्जित किया जाना उनकी आंतरिक अपवित्रता अर्थात अनेकेश्वरवाद के कारण है।
चूंकि इस्लाम एक सम्पूर्ण और व्यापक और साथ ही सरल धर्म है अतः उसमें कोई बंद गली नहीं है, उसने मनुष्य के लिए जो बात भी अनिवार्य की है विवश्ता के समय उसे हटा लिया है और ये ईश्वर की कृपा की निशानी है अतः हमें विवश्ता के क़ानून से ग़लत लाभ नहीं उठाना चाहिए।
सूरए बक़रह की १७४वीं आयत इस प्रकार है।
निःसन्देह वे लोग जो ईश्वर द्वारा किताब से उतारी गई बातों को छिपाते हैं और उसे सस्ते दामों में बेच देते हैं वे अपने पेट की आग भरने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर रहे हैं, ईश्वर प्रलय के दिन न उनसे बात करेगा और न ही उन्हें पवित्र करेगा और उनके लिए कड़ा दंड है। (2:174)
पिछली आयत ने सुअर और मरे हुए जानव के मांस जैसी हराम वस्तुओं का वर्णन किया था। ये आयत इस संबन्ध में एक मूल सिद्धांत बताती है और वो ये है कि यदि मनुष्य पाप और अपराध के मार्ग से पैसा प्राप्त करता है तो जो कुछ वह उस पैसे से ख़रीद कर खाएगा वह ऐसा ही है जैसे उसने आग खा ली हो चाहे वह हलाल वस्तु ही क्यों न हो।
हराम पैसों में से एक वास्तविकता और सत्य छिपाए जाने के प्रति चुप रहने के लिए लिया जाने वाला पैसा है, जैसा कि यहूदियों और ईसाइयों के कुछ विद्वानों ने किया था, यद्यपि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की निशानियों को वे तौरेत व इंजील में देख चुके थे और वे उन्हें पहचानते थे परन्तु जब उन्होंने यह देखा कि उनको स्वीकार करने से हमारा सांसारिक पद और माल समाप्त हो जाएगा तो उन्होंने वास्तविकता छिपाई बल्कि उनका इन्कार किया।
ईश्वर इन लोगों के दण्ड के बारे में कहता है कि ये लोग जो संसार में ईश्वर का कथन लोगों को सुनाने के लिए तैयार नहीं हुए, प्रलय के दिन ईश्वर का प्रेमपूर्ण कथन सुनने से वंचित रहेंगे।
सूरए बक़रह की १७५वीं और १७६वीं आयतें इस प्रकार हैं।
ये वे लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले पथभ्रष्टता और क्षमा के बदले दंड ख़रीद लिया है, वास्तव में इन लोगों में नरग की आग को सहन करने की कितनी क्षमता है। (2:175) ये दंड इसलिए है कि ईश्वर ने किताब को सत्य के साथ उतारा है परन्तु जिन्होंने उसमें मतभेद उत्पन्न कर दिया है वे सत्य के साथ कड़े युद्ध में हैं। (2:176)
ये दो आयतें सत्य छिपाने के परिणाम का उल्लेख करती हैं जो भ्रष्ट विद्वानों के विशेष पापों में से है। परिणाम यह है कि मार्गदर्शन का प्रकाश समाप्त हो जाता है और मनुष्य पथभ्रष्टता के अन्धकारों में डूबता चला जाता है
केवल ज्ञान, कल्याण का कारण नहीं बनता बल्कि हो सकता है कि वो मनुष्य की एक पूरी पीढ़ी की पथभ्रष्टता का कारण बन जाए, जैसाकि पथभ्रष्ट विद्वान न केवल ये कि स्वयं मार्गदर्शन प्राप्त नहीं करते बल्कि अनेक लोगों की पथभ्रष्टता का कारण भी बनते हैं।
और स्वभाविक है कि ऐसे विद्वानों का दंड केवल उनकी व्यक्तिगत पथभ्रष्टता से संबन्धित नहीं होगा बल्कि चूंकि वे अनेक लोगों की पथभ्रष्टता का कारण बने हैं अतः उन्हें सबकी पथभ्रष्टता के दंड का मज़ा चखना होगा और वो दंड अत्यंत कड़ा होगा।
१७६वीं आयत सत्य को छिपाने का कारण उसका विरोध बताती है कि कुछ लोग सत्य को जानते और पहचानते हैं परन्तु उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते बल्कि उससे मुक़ाबला करने का प्रयास करते हैं अतः विभिन्न मार्गों से सत्य के प्रति लोगों में सन्देह उत्पन्न होने की भूमि समतल करते हैं
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
इस्लाम खाने पीने के मामले पर ध्यान रखता है और उसने अनेक बार हलाल और वर्जित खानों के बारे में सिफ़ारिश की और चेतावनी दी है।
ईश्वर की ओर ध्यान न केवल उपासना और प्रार्थना के समय बल्कि खाने पीने के समय भी इस्लाम के दृष्टिगत है अतः उस जानवर का मांस खाना वर्जित है जिसे ईश्वर के नाम से न काटा गया हो।
वर्जित मार्गों से प्राप्त होने वाले पैसों से यदि सबसे हलाल वस्तु ख़रीद कर खाई जाए तो भी वह उस आग की भांति है जो पेट में चली जाए।
यद्यपि संसार में ईश्वर ने हज़र मूसा जैसे पैग़म्बरों से बात की है किंतु प्रलय में सभी अच्छे लोग ईश्वर के संबोधन का पात्र बनेंगे।
संसार के सारे धन के बदले में भी यदि धर्म को बेचा जाए तो भी यह घाटे का सौदा है।
कुछ लोगों द्वारा ईमान न लाना, सत्य को न जानने और न समझने के कारण नहीं है बल्कि बहुत से लोग सत्य विरोधी होते हैं, यदि वे सत्य को समझ लें तब भी उसे स्वीकार नहीं करेंगे। {jcomments on}
और जिन लोगों ने पथभ्रष्ट नेताओं का अनुसरण किया है वे प्रलय के दिन कहेंगे कि काश हमारे पास संसार में वापस लौटने की संभावना होती तो हम इन नेताओं से विरक्त हो जाते, जिस प्रकार आज वे हमसे विरक्त हो गए हैं। इस प्रकार ईश्वर उनके कर्मों को उन्हें दिखाएगा जो उनके लिए हसरत का कारण होगा। और वे नरक की आग से बाहर आने वाले नहीं हैं। (2:167)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि अपराधी जब ईश्वरीय दंड को देखेंगे तो नेता अपने अनुसरणकर्ताओं से विरक्त हो जाएंगे क्योंकि जो प्रेम, इच्छा और आशा के आधार पर होगा वो प्रलय के दिन घृणा और द्वेष में परिवर्तित हो जाएगा।
यह आयत कहती है कि नरकवासी ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि वह उन्हें संसार में पलटा दे तथा वे अपने नेताओं से विरक्त हो जाएंगे क्योंकि उन्हें अपने कार्यों से पश्चाताप और उत्कंठा के अतरिक्त कोई लाभ नहीं मिला है परन्तु क्या फ़ाएदा? क्योंकि न हसरत और दुख से कुछ काम बनेगा और न ही वापस लौटने का कोई मार्ग मौजूद है।
जो लोग मनुष्य की विवश्ता में आस्था रखते हैं, उनके समक्ष ये आयत संसार में उसके अधिकार रखने व स्वतंत्र होने को दर्शाते हैं क्योंकि पश्चाताप और हसरत इस बात की निशानी है कि मैं दूसरा काम कर सकता था परन्तु मैंने स्वयं अपनी इच्छा से ग़लत मार्ग का चयन किया।
सूरए बक़रह की १६८वीं आयत इस प्रकार है।
हे लोगो! धरती में जो कुछ हलाल व पवित्र है उसमें से खाओ और शैतान के बहकावे में न आओ कि निःसन्देह, वह तुम्हारा खुला हुआ शत्रु है। (2:168)
खाना-पीना मनुष्य की एक मूल आवश्यकता है परन्तु अनेक दूसरे कार्यों की भांति इसमें भी बाहुल्य किया जाता है। कुछ लोग चाहते हैं कि बिना किसी क़ानून और मानदंड के, जिस चीज़ को उनका मन चाहे खाएं पीएं, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि बुद्धि और धर्म की दृष्टि से ये खाना पीना उनके लिए ठीक है या नहीं। या यह कि यह चीज़ सही मार्ग से आई है या ग़लत मार्ग से। वे केवल अपना पेट भरना और अपनी इच्छा की पूर्ति करना चाहते हैं।
इसके विपरीत कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बिना किसी स्पष्ट तर्क के वे वस्तुए भी नहीं खाते जिनकी अनुमति बुद्धि तथा धर्म ने दे रखी है। वे अपने विचार में इच्छाओं का मुक़ाबला करते हैं।
इस्लाम एक व्यापक धर्म है। इसमें खाने और पीने के लिए भी क़ानून मौजूद हैं। शरीर के लिए जो वस्तुएं लाभदायक और आवश्यक हैं उन्हें हलाल किया गया है और जो वस्तुएं मनुष्य के शरीर और उसकी आत्मा के लिए हानिकारक हैं उन्हें हराम या वर्जित किया गया है।
यह आयत कहती है कि जो कुछ धरती में है उसे ईश्वर ने तुम्हारे लिए बनाया है अतः जो वस्तु हलाल व पवित्र तथा तुम्हारी प्रकृति के अनुकूल हो उसे खाओ पियो और बेकार में किसी वस्तु को हलाल या हराम न बनाओ क्योंकि यह तुम्हें पथभ्रष्ट करने के लिए शैतान का षड्यंत्र है जैसा कि उसने वर्जित पेड़ का फल खाने के लिए आदम और हौआ को धोखा दिया था।
शराब जैसी हराम वस्तुओं का खाना-पीना भी शैतान का बहकावा है और हलाल वस्तुएं न खाना भी कि जो साधारणतः ग़लत विश्वास के आधार पर होता है।
सूरए बक़रह की १६९वीं आयत इस प्रकार है।
निःसन्देह, शैतान तुम्हें केवल बुराई का आदेश देता है और यह कि ईश्वर के बारे में ऐसी बात कहो जिसे तुम नहीं जानते। (2:169)
पिछली आयत में कहा गया कि शैतान तुम्हारा शत्रु है और यह आयत कहती है कि तुमसे शैतान की शत्रुता की निशानी यह है कि वह सदैव तुम्हें बुराई की ओर बुलाता है जिसका दुर्भाग्य और कठोरता के अतिरिक्त और कोई परिणाम नहीं है।
अलबत्ता हमारे ऊपर शैतान का नियंत्रण नहीं है कि वह हमसे अधिकार छीन ले बल्कि पाप के लिए उसके आदेश का तात्पर्य यह है कि वो हमें बहकाता है और हमारे मन में बुरे विचार डालता है तथा मनुष्य का ईमान जितना दुर्बल होता है, शैतानी विचार उतने ही उसमें प्रभावशाली होते हैं।
शैतान, पाप का निमंत्रण भी देता है और उसका औचित्य दर्शाने का मार्ग भी दिखाता है। ईश्वर पर आरोप लगाना, पाप की भूमि समतल करने और उसका औचित्य दर्शाने का एक मार्ग है। मनुष्य अपनी अज्ञानता के आधार पर कोई पाप करता है और फिर उसके औचित्य के लिए उसे ईश्वर से संबन्धित कर देता है।
सूरए बक़रह की १७०वीं आयत इस प्रकार है।
और जब उनसे कहा जाता है कि उस (धर्म) का अनुसरण करो जो ईश्वर ने उतारा है तो वे कहते हैं कि बल्कि हम तो इसका अनुसरण करेंगे, जिसपर हमने अपने पिताओं को पाया है, क्या ऐसा नहीं है कि उनके पिता कोई सोच विचार नहीं करते थे और न ही उन्हें मार्गदर्शन प्राप्त हुआ था। (2:170)
पूर्वजों की संस्कृति और संस्कारों की सुरक्षा, अच्छी बात है परन्तु तब जब वह संस्कृति बुद्धि व विचार या ईश्वरीय संदेश अर्थात वहि के आधार पर हो न यह कि हम जातीय सांप्रदायिक्ता के कारण अपने पूर्वजों के उल्टे सीधे संस्कारों का अनुसरण करें।
मनुष्य में शैतान के प्रभाव का एक मार्ग पूर्वजों का अंधा अनुसरण है कि मनुष्य ईश्वरीय आदेशों के पालन के स्थान पर अपने पूर्वजों की ग़लत धारणाओं का बिना किंतु परन्तु किए अनुसरण करता है जबकि वह स्वयं समझ रहा होता है कि यह कार्य ग़लत है और उसके धर्म ने भी उसे इस प्रकार के कार्य से रोका है।
सूरए बक़रह की १७१ वीं आयत
और ईश्वर का इन्कार करने वाले काफ़िरों को इस्लाम का निमंत्रण देने में तुम्हारी उपमा उस गड़रिये के समान है जो ख़तरे के समय अपनी भेड़ों को आवाज़ लगाता है परन्तु उन्हें शोर के अतरिक्त कुछ सुनाई नहीं देता (अर्थात वे कुछ समझ नहीं पातीं) के काफ़िर लोग बहरे, गूंगे और अंधे हैं अतः कुछ नहीं समझते। (2:171)
पिछली आयत में कहा गया था कि काफ़िर अपने पूर्वजों की ग़लत धारणाओं का अंधा अनुसरण करते हैं जबकि उनके पूर्वजों ने इन आस्थाओं का आधार न तो विचार और बुद्धि पर रखा था और न ही ईश्वरीय संदेश पर।
यह आयत कहती है कि काफ़िर सोच-विचार भी नहीं करते कि उन्हें वास्तविकता का पता चल जाए बल्कि वे सत्य के समक्ष अपनी आंखों और कानों को भी बंद कर लेते हैं ताकि उन्हें कुछ दिखाई और सुनाई न पड़े बिल्कुल उन भेड़ों की भांति जिन्हें गड़रिया चिल्ला चिल्ला कर ख़तरे से अवगत करवाता है परन्तु वे उसकी बातें नहीं समझतीं और उन्हें केवल शोर की आवाज़ सुनाई देती है।
उनके पास भी जानवरों की भांति आंख, कान और ज़बान है परन्तु वे सोच विचार नहीं करते इसी कारण वे वास्तविकता और सच को खोज नहीं पाते और अपने पूर्वजों की ग़लत धारणाओं का अनुसरण करने लगते हैं। जो कुछ उन्होंने कहा है उसका आंखें बंद करके अनुसरण करने लगते हैं।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
मनुष्य जानवर नहीं है जो अपने पेट का दास बन जाए बल्कि उसे ईश्वरीय आदेशों के आधार पर पवित्र व हलाल वस्तुओं से अपनी आहार संबन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए।
जो कोई भी मनुष्य को बुराई की ओर बुलाए वह शैतान है, चाहे वह मनुष्य के रूप में क्यों न हो।
पूर्वजों की परंपराओं और संस्कारों का अनुसरण केवल उसी दशा में लाभदायक है जब वह ज्ञान और बुद्धि के आधार पर हो वरना ग़लत संस्कारों के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरण का पतन और रुढ़िवाद से अतिरिक्त और कोई परिणाम नहीं रहेगा।
मनुष्य का मूल्य उसकी बुद्धि और मंथन से है वरना दूसरे जानवरों के पास भी आंख, ज़बान और कान होते हैं।
सूरए बक़रह की १७२वीं आयत इस प्रकार है।
हे ईमान लाने वाले लोगो, हमने जो तुम्हें पवित्र विभूतियां दी हैं, उनमें से खाओ और ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहो यदि तुम केवल उसी की उपासना करते हो। (2:172)
संसार एक बाग़ की भांति है और पवित्र लोग एक बाग़ के फूल हैं। ईश्वर की विभूतियां उस पानी की भांति हैं जो फूल उगाने के लिए माली, बाग़ में डालता है, परन्तु इसका क्या किया जाए कि घास-फूस भी उसी पानी से लाभ उठाते हैं।
ईश्वर ईमान वालों से कहता है कि वो उसकी विभूतियों से लाभ उठाएं और अकारण किसी वस्तु को अपने लिए वर्जित न करें क्योंकि ये विभूतियां वास्तव में उन्हीं के लिए बनाई गई हैं।
अलबत्ता ईश्वर की विभूतियां भोग विलास के लिए नहीं है क्योंकि ईश्वर के बाग़ का फल अच्छा कर्म है अतः विभूतियों को सबसे अच्छे मार्ग में प्रयोग करना चाहिए जो वास्तविक कृतज्ञता है।
सूरए बक़रह की १७३ इस प्रकार है।
ईश्वर ने केवल मरे हुए जानवर का मांस, रक्त, सूअर का मांस और उन जानवरों को जो ईश्वर के अतिरिक्त किसी के नाम पर काटे गए हों तुमपर वर्जित किये गए हैं, परन्तु इसके बावजूद जो कोई भूख के कारण उन्हें खाने पर विवश हो तो यदि वह आनंद लेने का इरादा न रखता हो और आवश्यकता से अधिक न खाए तो उसपर कोई पाप नहीं है और निःसन्देह, ईश्वर क्षमा करने वाला कृपालु है। (2:173)
सामान्यतः क़ुरआन की पद्धति यह है कि वो जब भी मनुष्य को किसी बात से रोकना चाहता है तो पहले उसके हलाल मार्गों का वर्णन करता है फिर हराम बातों का उल्लेख करता है।
पिछली आयत में खाने की पवित्र वस्तुओं से लाभ उठाने की सिफ़ारिश करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि हर वस्तु तुम्हारे लि हलाल है और केवल कुछ वस्तुएं तुम्हारे लिए वर्जित की गई हैं और वो भी उनके द्वारा तुम्हारे शरीर और आत्मा को होने वाली हानि के कारण।
रक्त, मरा हुआ जानवर या सुअर का मांस, उनकी विदित अपवित्रता के कारण वर्जित है परन्तु मूर्तियों के समक्ष या उनके नाम पर बलि किए गए जानवरों का वर्जित किया जाना उनकी आंतरिक अपवित्रता अर्थात अनेकेश्वरवाद के कारण है।
चूंकि इस्लाम एक सम्पूर्ण और व्यापक और साथ ही सरल धर्म है अतः उसमें कोई बंद गली नहीं है, उसने मनुष्य के लिए जो बात भी अनिवार्य की है विवश्ता के समय उसे हटा लिया है और ये ईश्वर की कृपा की निशानी है अतः हमें विवश्ता के क़ानून से ग़लत लाभ नहीं उठाना चाहिए।
सूरए बक़रह की १७४वीं आयत इस प्रकार है।
निःसन्देह वे लोग जो ईश्वर द्वारा किताब से उतारी गई बातों को छिपाते हैं और उसे सस्ते दामों में बेच देते हैं वे अपने पेट की आग भरने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर रहे हैं, ईश्वर प्रलय के दिन न उनसे बात करेगा और न ही उन्हें पवित्र करेगा और उनके लिए कड़ा दंड है। (2:174)
पिछली आयत ने सुअर और मरे हुए जानव के मांस जैसी हराम वस्तुओं का वर्णन किया था। ये आयत इस संबन्ध में एक मूल सिद्धांत बताती है और वो ये है कि यदि मनुष्य पाप और अपराध के मार्ग से पैसा प्राप्त करता है तो जो कुछ वह उस पैसे से ख़रीद कर खाएगा वह ऐसा ही है जैसे उसने आग खा ली हो चाहे वह हलाल वस्तु ही क्यों न हो।
हराम पैसों में से एक वास्तविकता और सत्य छिपाए जाने के प्रति चुप रहने के लिए लिया जाने वाला पैसा है, जैसा कि यहूदियों और ईसाइयों के कुछ विद्वानों ने किया था, यद्यपि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की निशानियों को वे तौरेत व इंजील में देख चुके थे और वे उन्हें पहचानते थे परन्तु जब उन्होंने यह देखा कि उनको स्वीकार करने से हमारा सांसारिक पद और माल समाप्त हो जाएगा तो उन्होंने वास्तविकता छिपाई बल्कि उनका इन्कार किया।
ईश्वर इन लोगों के दण्ड के बारे में कहता है कि ये लोग जो संसार में ईश्वर का कथन लोगों को सुनाने के लिए तैयार नहीं हुए, प्रलय के दिन ईश्वर का प्रेमपूर्ण कथन सुनने से वंचित रहेंगे।
सूरए बक़रह की १७५वीं और १७६वीं आयतें इस प्रकार हैं।
ये वे लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन के बदले पथभ्रष्टता और क्षमा के बदले दंड ख़रीद लिया है, वास्तव में इन लोगों में नरग की आग को सहन करने की कितनी क्षमता है। (2:175) ये दंड इसलिए है कि ईश्वर ने किताब को सत्य के साथ उतारा है परन्तु जिन्होंने उसमें मतभेद उत्पन्न कर दिया है वे सत्य के साथ कड़े युद्ध में हैं। (2:176)
ये दो आयतें सत्य छिपाने के परिणाम का उल्लेख करती हैं जो भ्रष्ट विद्वानों के विशेष पापों में से है। परिणाम यह है कि मार्गदर्शन का प्रकाश समाप्त हो जाता है और मनुष्य पथभ्रष्टता के अन्धकारों में डूबता चला जाता है
केवल ज्ञान, कल्याण का कारण नहीं बनता बल्कि हो सकता है कि वो मनुष्य की एक पूरी पीढ़ी की पथभ्रष्टता का कारण बन जाए, जैसाकि पथभ्रष्ट विद्वान न केवल ये कि स्वयं मार्गदर्शन प्राप्त नहीं करते बल्कि अनेक लोगों की पथभ्रष्टता का कारण भी बनते हैं।
और स्वभाविक है कि ऐसे विद्वानों का दंड केवल उनकी व्यक्तिगत पथभ्रष्टता से संबन्धित नहीं होगा बल्कि चूंकि वे अनेक लोगों की पथभ्रष्टता का कारण बने हैं अतः उन्हें सबकी पथभ्रष्टता के दंड का मज़ा चखना होगा और वो दंड अत्यंत कड़ा होगा।
१७६वीं आयत सत्य को छिपाने का कारण उसका विरोध बताती है कि कुछ लोग सत्य को जानते और पहचानते हैं परन्तु उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते बल्कि उससे मुक़ाबला करने का प्रयास करते हैं अतः विभिन्न मार्गों से सत्य के प्रति लोगों में सन्देह उत्पन्न होने की भूमि समतल करते हैं
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
इस्लाम खाने पीने के मामले पर ध्यान रखता है और उसने अनेक बार हलाल और वर्जित खानों के बारे में सिफ़ारिश की और चेतावनी दी है।
ईश्वर की ओर ध्यान न केवल उपासना और प्रार्थना के समय बल्कि खाने पीने के समय भी इस्लाम के दृष्टिगत है अतः उस जानवर का मांस खाना वर्जित है जिसे ईश्वर के नाम से न काटा गया हो।
वर्जित मार्गों से प्राप्त होने वाले पैसों से यदि सबसे हलाल वस्तु ख़रीद कर खाई जाए तो भी वह उस आग की भांति है जो पेट में चली जाए।
यद्यपि संसार में ईश्वर ने हज़र मूसा जैसे पैग़म्बरों से बात की है किंतु प्रलय में सभी अच्छे लोग ईश्वर के संबोधन का पात्र बनेंगे।
संसार के सारे धन के बदले में भी यदि धर्म को बेचा जाए तो भी यह घाटे का सौदा है।
कुछ लोगों द्वारा ईमान न लाना, सत्य को न जानने और न समझने के कारण नहीं है बल्कि बहुत से लोग सत्य विरोधी होते हैं, यदि वे सत्य को समझ लें तब भी उसे स्वीकार नहीं करेंगे। {jcomments on}
सूरए बक़रह की १७७वीं आयत इस प्रकार है।
भलाई (केवल) यह नहीं है कि तुम नमाज़ पढ़ते समय अपने मुख को पूरब और पश्चिम की ओर घुमाओ (और क़िबले तथा उसके परिवर्तन के विषय के बारे में सोचो) बल्कि वास्तविक भलाई करने वाला वह है जो ईश्वर, प्रलय, फ़रिश्तों, आसमानी किताबों और पैग़म्बरों पर ईमान लाए और अपने माल को आवश्यकता रखने के बावजूद नातेदारों, अनाथों, दरिद्रों, मार्ग में रह जाने वालों तथा मांगने वालों को और ग़ुलामों को स्वतंत्र कराने के मार्ग में ख़र्च करता है, नमाज़ पढ़ता है, ज़कात देता है और जब कोई वचन देता है तो उसे पूरा करता है और दरिद्रता, वंचितता, पीड़ा व रोग, दुर्घटनाओं और युद्ध में दृढ़तापूर्वक संयम से काम लेता है। हां, यही लोग हैं जिन्होंने ईमान का सच्चा दावा किया है तथा उनका कथन, व्यवहार और आस्था एक ही है और यही लोग ईश्वर से डरने वाले हैं। (2:177)
इस आयत में इस्लाम में आस्था, व्यवहार और शिष्टाचार की दृष्टि से भलाई के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों का उल्लेख किया गया है। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि जो कोई इस आयत पर अमल करेगा उसका ईमान पूरा है।
जैसा कि हमने क़िबले के परिवर्तन से संबन्धित आयतों में कहा था कि यहूदियों ने इस विषय पर बहुत जंजाल खड़ा किया और इसे बहुत महत्वपूर्ण मामला दर्शाया, यह आयत उन्हें एक अन्य उत्तर देते हुए कहती है।
यह मत सोचो कि ईश्वर का धर्म केवल क़िबले के विषय तक ही सीमित है और अपने सारे विचार उसी पर केन्द्रित रखो, बल्कि ईश्वरीय धर्म तीन मूल भागों से मिलकर बने हैं और सही अर्थों में भला व्यक्ति वही है जो धर्म के सभी भागों पर पूर्ण रूप से ध्यान रखे।
धर्म का पहल भाग आस्था और ईमान से संबन्धित हैं कि मनुष्य, ईश्वर, फ़रिश्तों आस्मानी किताबों और पैग़म्बरों पर हृदय से आस्था रखे।
स्पष्ट है कि ऐसी उपासना को व्यवहार में उपासना संबंधी कर्तव्यों जैसे नमाज़ और ज़कात तथा वंचितों और दरिद्रों की सहयता के रूप में प्रकट होना चाहिए जो धर्म का दूसरा भाग है।
परन्तु केवल ईश्वर और मनुष्यों से संपर्क पर्याप्त नहीं है बल्कि इस संपर्क को अच्छे व सुदृढ़ ढंग से सुरक्षित रखने के लिए संयम, विनम्रता और वफ़ादारी जैसे शिष्टाचारिक सिद्धांतों और सभी ईश्वरीय व मानवीय वचनों के प्रति प्रतिबद्ध रहना चाहिए।
यह आयत उस व्यक्ति को वास्तविक मोमिन बताती है जो अनिवार्य दान अर्थात ज़कात के अतिरिक्त एसे दान भी करते हैं जो अनिवार्य नहीं होते।
कुछ लोगों के विपरीत जो यदि किसी दरिद्र की सहायता करते हैं तो अपने अनिवार्य अधिकारों को पूरा नहीं करते और कुछ अन्य, ज़कात देने के पश्चात दरिद्रों और ग़रीबों की ओर से आंखें मूंद लेते हैं।
सूरए बक़रह की १७८वीं आयत इस प्रकार है।
हे वे लोगो जो ईमान लाए हो! तुम्हारे लिए हत्या किये गए लोगों के बारे में क़ेसार का क़ानून निर्धारित किया गया है, कि स्वतंत्र व्यक्ति के बदले स्वतंत्र व्यक्ति, ग़ुलाम के बदले ग़ुलाम और महिला के बदले महिला को क़ेसास किया जाए परन्तु यदि क़ेसास के अपराधी को यदि उसके धार्मिक भाई की ओर से क्षमा कर दिया जाए तो वो मृत्युदंड के स्थान पर पैसा देने में अच्छी पद्धति अपनाए और उसे मृतक के उत्तराधिकारियों को दे, यह तुम्हारे पालनहार की ओर से ढील तथा दया की निशानी है तो यदि कोई इससे आगे बढ़ना चाहे तो उसके लिए कड़ा दंड होगा। (2:178)
इस्लाम एक व्यापक धर्म है जिसने मनुष्यों के लिए उनके व्यक्तिगत पहलू से ही नहीं बल्कि सामाजिक मामलों के लिए भी विशेष आदेश और क़ानून बनाए हैं ताकि मानव समाज में आवश्यक सुरक्षा व व्यवस्था स्थापति रहे।
हर समाज में कभी-कभी सामने आने वाली एक समस्या, हत्या है। इस्लाम ने हत्या तथा उसके दुहराए जाने को रोकने के लिए कि जो लोगों की असुरक्षा का कारण है, क़ेसास अर्थात जीवन के बदले जीवन का क़ानून निर्धारित किया है।
इस क़ानून के अंतर्गत यदि हत्या जान बूझकर की गई हो तो हत्यारे को मृत्युदंड दिया जाता है ताकि मरने वाले निर्दोष व्यक्ति का ख़ून व्यर्थ न जाए पाए और अन्य लोग भी दूसरों की हत्या की हिम्मत न कर सकें।
अलबत्ता क़ेसास में न्याय होना चाहिए अतः हत्यारे और मृतक के बीच समानता के आधार पर मर्द के मुक़ाबले मर्द और महिला के मुक़ाबले महिला को के़सास दिया जाता है और यदि हत्यारा और मृतक एक लिंग के ने हों तो उनके अंतर का पैसा देना चाहिए।
इस क़ानून का महत्व तब स्पष्ट होता है जब हमें यह पता चलता है कि इस्लाम से पूर्व के अरब समाज में यदि एक क़बीले के किसी एक व्यक्ति की हत्या हो जाती थी तो उसके क़बीले वाले हत्यारे के पूरे क़बीले की हत्या करने और लंबे समय तक युद्ध करने के लिए तैयार रहते थे।
परन्तु इस्लाम ने जिसका आधार न्याय व संतुलन पर रखा गया है, एक ओर एक व्यक्ति के बदले एक से अधिक व्यक्ति की हत्या की अनुमति नहीं दी है और दूसरी ओर मृतक के उत्तराधिकारियों को भी यह अधिकार दिया है कि वे यदि चाहें तो हत्या के बदले पैसा लेकर या उसके बिना ही हत्यारे को क्षमा कर दें।
अलबत्ता यदि मृतक के उत्तराधिकारियों ने पैसा लेने का निर्णय किया तो उन्हें अन्याय नहीं करना चाहिए और रिणि को तंग नहीं करना चाहिए जैसा कि हत्यारे को भी पैसा देने में आनाकानी और ढिलाई नहीं करनी चाहिए।
बल्कि दोनों ही को अच्छा मार्ग अपनाना चाहिए और जानना चाहिए कि ईश्वरीय क़ानूनों का किसी भी प्रकार का उल्लंघन, प्रलय में कड़े दंड का कारण बनेगा।
सूरए बक़रह की १७९वीं आयत में मानव समाज में इस क़ानून की महत्वपूर्ण भूमिका की ओर संकेत किया गया है।
हे बुद्धिमानो! क़ेसास के क़ानून में तुम्हारा जीवन छिपा हुआ है, शायद तुम ईश्वर का भय अपनाओ। (2:179)
कुछ लोग जो स्वयं को बुद्धिमान और विचारक समझते हैं वे क़ेसास के क़ानून के परिणामों पर ध्यान दिये बिना ही ये आपत्ति करते हैं कि क्या हत्यारे को मारने से मृतक जीवित हो जाएगा? इसका परिणाम इसके अतिरिक्त और क्या है कि क़ेसास द्वारा आप स्वयं एक अन्य हत्या करते हैं।
क़ुरआन इस आपत्ति के उत्तर में जो कि आजकल मानवाधिकार की आड़ में की जाती है, एक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए कहता है कि मानव समाज का जीवन न्याय व सुरक्षा के बिना संभव नहीं है और इन दोनों बातों की पूर्ति के लिए हत्यारे को मृत्युदंड देना आवश्यक है, जैसाकि एक रोगी के स्वास्थ्य के लिए उसके ख़राब अंग को आपरेशन द्वारा काट कर निकालना आवश्यक है।
मूल रूप से क़ेसास का क़ानून व्यक्तिगत प्रतिशोध से पहले समाज की सुरक्षा का रक्षक है। आज किन देशों में अपराध की दर अधिक है? उन देशों में जहां पर क़ेसास का क़ानून लागू हैं या उन देशों में जो स्वयं को मानवाधिकारों का रक्षक समझते हैं और यहां तक कि क़ेसास को मानव हत्या कहते हैं?
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
ईश्वर पर आस्था, वंचितों और दरिद्रों की सहायता तथा जनता के अधिकारों के सम्मान के बिना लाभदायक नहीं है।
ईश्वर के मार्ग मे अपने धन से आंखे मोड़ लेना, ईमान की सच्चाई की एक निशानी है।
ईमान के लिए आवश्यक है कि मनुष्य दरिद्रता, कठिनाई और युद्ध की मुसीबतों के समय संयम और विनम्रता से काम ले वरना केवल सुरक्षा व ऐश्वर्य के समय ईमान रखना ईमान की सुदृढ़ता की निशानी नहीं है।
कुछ क़ानूनों की भांति इस्लाम, क़ेसास को एकमात्र मार्ग समझता है और न कुछ अन्य की भांति क्षमा को सबसे अच्छा मार्ग मानता है बल्कि हत्यारे की सज़ा मृत्युदंड मानता है परन्तु क्षमा या हत्या के बदले पैसे को भी स्वीकार करता है।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 180 इस प्रकार है।
जब भी तुममें से कोई मृत्यु के समीप हो जाए तो आवश्यक है कि वह अपने माल में से माता-पिता और अन्य परिजनों के लिए अच्छी वसीयत करे यह ईश्वर से डरने वालों पर उनका अधिकार है। (2:180)
हम सभी लोग एक दिन इस संसार में आए हैं और एक दिन इस संसार से चले जाएंगे। जिस दिन हम इस संसार में आए थे ख़ाली हाथ थे और जिस दिन इस संसार से जाएंगे, उस दिन भी ख़ाली हाथ ही होंगे। उस दिन हमें अपनी सारी संपत्ति, धन, दौलत, मकान, गाड़ी और कारख़ाने और हर वस्तु को छोड़ कर जाना होगा।
इस्लाम के क़ानून के अनुसार जो व्यक्ति भी संसार से जाता है, उसकी संपत्ति का दो तिहाई भाग उसकी संतान व दंपति या अन्य परिजनों के बीच बांटा जाता है और इसके लिए उस व्यक्ति को वसीयत की आवश्यकता नहीं होती।
परंतु हर व्यक्ति अपनी संपत्ति के एक तिहाई भाग के लिए वसीयत कर सकता है। उसे किस मार्ग में ख़र्च किया जाए? यह बता सकता है। यह आयत इस बारे में कहती है कि ईश्वर से भय रखने वालों कि जिनकी संपत्ति हलाल एवं विभूतिपूर्ण है, मरते समय अपने माता-पिता तथा अन्य परिजनों का भी ध्यान रखना चाहिए और उनके लिए भी वसीयत करना चाहिए क्योंकि दंपति और संतान को तो स्वाभाविक रूप से उसकी संपत्ति का दो तिहाई भाग विरासत में मिलता ही है।
अलबत्ता वसीयत को बौद्धिक व उचित होना चाहिए। ऐसा न हो कि कोई अनुचित प्रेम भावना या द्वेष एवं प्रतिशोध के कारण किसी को कोई वस्तु दे दे या किसी को वंचित कर दे।
इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वसीयत, अभाव और वंचितता को दूर करने हेतु एक प्रकार की दूरदर्शिता है जो इस बात का कारण बनती है कि मृत्यु के पश्चात भी मनुष्य को पुण्य प्राप्त होता रहे।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 181 इस प्रकार है।
तो जो कोई सुनने के बाद वसीयत में परिवर्तन कर दे तो जान लो कि इसका पाप केवल उन्हीं लोगों पर है जिन्होंने इसको परिवर्तित किया। निश्चित रूप से ईश्वर सुनने वाला और जानकार है। (2:181)
कभी कभी संतान या परिजन वसीयत सुनने के बावजूद उसे किसी कारण बदल देते हैं। उदाहरण स्वरूप किसी ने वसीयत की कि अमुक दरिद्र व्यक्ति को इतना पैसा दे दिया जाए किंतु उसकी संतान उक्त व्यक्ति के स्थान पर किसी दूसरे दरिद्र व्यक्ति को पैसे दे देती है।
क़ुरआने मजीद कहता है कि ऐसे में वसीयत करने वाले को उसके भले कार्य पर पुण्य अवश्य मिलेगा। पैसा लेने वाले की भी कोई ग़लती नहीं है क्योंकि उसे तो किसी बात का पता ही नहीं था। केवल वसीयत को जानने के बाद भी बदलने वाला यहां पापी होगा क्योंकि स्वामित्व मरने के पश्चात भी आदरणीय है और किसी को भी मृतक के माल से अनुचित ख़र्च का अधिकार नहीं है चाहे वह उसकी संतान ही क्यों न हो।
सूरए बक़रह की आयत नंबर 182 इस प्रकार है।
परंतु यदि वसीयत करने वाला किसी वारिस से अधिक प्रेम के कारण पथभ्रष्ठ हो जाए या पाप की वसीयत करे तो जो कोई भी उसकी वसीयत के लक्षणों से डरे और उसमें परिवर्तन द्वारा उनके बीच भलाई उत्पन्न करे तो उस पर कोई पाप नहीं है। निसंदेह ईश्वर क्षमा करने वाला और दयावान है। (2:182)
पिछली आयत में हमने कहा था कि यदि कोई जान बूझ कर वसीयत में परिवर्तन या फेर बदल करे तो उसने पाप किया है किंतु कभी कभी वसीयत करने वाला ग़लत और तर्कहीन वसीयत करता है और परिवार में फूट और मतभेद का कारण बन जाता है।
या कभी कभी अपने माल के एक तिहाई भाग से अधिक की वसीयत करता है जिसका उसे अधिकार नहीं है या कभी ऐसी बात की वसीयत करता है जिसका करना पाप हो।
इन सभी स्थानों पर वसीयत को भलाई के लिए परिवर्ति किया जा सकता है और वारिसों के बीच उत्पन्न होने वाले संभावित मतभेद को समाप्त किया जा सकता है।
इन आयतों से मिलने वाले पाठः
मनुष्य पर उसके माता-पिता का बहुत बड़ा अधिकार है। अतः उनके प्रति अपनी कृतज्ञता जताने के लिए मनुष्य को विरासत के अतिरिक्त भी उनके लिए वसीयत करनी चाहिए।
वसीयत के अनुसार काम करना आवश्यक है और उसमें हर प्रकार का फेर बदल एसा विश्वासघात है जिसे ईश्वर जानता है और उसका बदला देने में सक्षम है।
इस्लाम में कोई भी बंद गली नहीं है और जब कभी अधिक महत्वपूर्ण सामने हो तो उसके अनुसार काम करना चाहिए। वसीयत का सम्मान आवश्यक व महत्वपूर्ण है किंतु मतभेद को रोकना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार से कि झूठ बोलना हराम है किंतु कभी अत्याचारी से अपनी जान की रक्षा के लिए झूठ बोलना अनिवार्य हो जाता है।