कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2: 28-30 ,ईश्वरीय शासक या ख़लीफ़ा का निर्धारण ईश्वर के हाथ में है, दूसरों के नहीं।

सूरए बक़रह; आयत २८  सुरए बक़रह की आयत नंबर २८ इस प्रकार है। किस प्रकार तुम ईश्वर का इन्कार करते हो जबकि जब तुम निर्जीव थे तो उसी ने तु...

सूरए बक़रह; आयत २८ 
सुरए बक़रह की आयत नंबर २८ इस प्रकार है।

किस प्रकार तुम ईश्वर का इन्कार करते हो जबकि जब तुम निर्जीव थे तो उसी ने तुम्हें जीवित किया फिर वही तुम्हें मारता है और फिर वही तुम्हें पुनः जीवित करेगा फिर तुम उसी की ओर लौटाए जाओगे। (2:28)

ईश्वर को पहचानने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग अपनी सृष्टि तथा संसार की रचना के बारे में सोच-विचार करना है। क़ुरआने मजीद के मार्गदर्शन की एक शैली यह है कि वह बुद्धि एवं प्रवृत्ति के समक्ष प्रश्न खड़े करता है ताकि मनुष्य चिंतन-मनन और सोच-विचार द्वारा वास्तविकताओं को समझे और उन्हें स्वीकार करे। इसी परिप्रेक्ष्य में आयत आगे चलकर उन लोगों के उत्तर में जो, मृत्यु के पश्चात जीवन के प्रति संदेह उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं, लोगों को उनकी सृष्टि और संसार के बारे में चिंतन का निमंत्रण देती है। अपने आपको पहचानना, ईश्वर की पहचान की भूमिका है। मनुष्य अपने बारे में जब चिंतन करता है तो वह पाता है कि उसके पास अपना कुछ भी नहीं है और जो कुछ है, तत्वदर्शी और सर्वसक्षम ईश्वर का है कि जिसने उसकी रचना की है। मनुष्य पर ईश्वर की सबसे बड़ी अनुकंपा, जीवन है और मनुष्य इतनी अधिक प्रगति और वैज्ञानिक विकास के बावजूद उसके रहस्यों को समझने में अक्षम है। जिस प्रकार मनुष्य का जीवन ईश्वर के हाथ में है, उसी प्रकार की उसकी मृत्यु भी ईश्वर ही के हाथ में है। तो फिर किस प्रकार उस ईश्वर का इन्कार किया जा सकता है जिसके हाथ में हमारा जन्म भी है और मृत्यु भी या किस प्रकार मृत्यु के पश्चात मनुष्य के जीवन को नकारा जा सकता है?

पहले हम भी पत्थरों, लकड़ियों तथा वनस्पतियों की भांति निर्जीव थे। ईश्वर ने हमें जीवन तथा आत्मा प्रदान की जिसके द्वारा हम सोचने समझने के योग्य बने अतः हमारे ऊपर ईश्वर का सबसे बड़ा उपकार जीवन है। मनुष्य इतनी अधिक प्रगति के बावजूद जीवन के रहस्यों को समझने में असमर्थ है।

न केवल जन्म और जीवन बल्कि मृत्यु भी ईश्वर के हाथ में है। हम अपने अधिकार से इस संसार में नहीं आए थे कि अपने अधिकार से इस संसार से चले जाएं। वही हमें लाया है और वही हमें ले जाएगा। इस बीच केवल हमारा कर्म हमारे अधिकार में है। अतः किस प्रकार उस ईश्वर के अस्तित्व को नकारा जा सकता है जिसके हाथ में हमारा आरंभ भी है और अंत भी। या किस प्रकार मृत्यु के पश्चात मनुष्य के पुनः जीवित होने का इन्कार किया जा सकता है जबकि दूसरी बार जीवन प्रदान करना, पहली बार जीवन देने से कहीं अधिक सरल या कम से कम उसके समान है और किस प्रकार वह ईश्वर हमारी पुनर्सृष्टि में असमर्थ हो सकता है जो हमें शून्य से अस्तित्व की ओर लाया।

इस आयत से मिलने वाले पाठः

क़ुरआने मजीद के मार्गदर्शन की एक शैली यह है कि वह बुद्धि एवं प्रवृत्ति के समक्ष प्रश्न खड़े करना है ताकि मनुष्य चिंतन-मनन और सोच-विचार द्वारा वास्तविकताओं को समझे और उन्हें स्वीकार करे न कि दूसरों का अनुसरण करके।
जीवन, ईश्वर के अस्तित्व की निशानी है तथा मृत्यु प्रलय की।
स्वयं की पहचान, ईश्वर की पहचान की भूमिका है। यदि मनुष्य अपनी वास्तविकता को पहचान लेगा तो ईश्वर को भी पहचान लेगा क्योंकि वह समझ जाएगा कि उसके पास स्वयं का कुछ भी नहीं है और जो कुछ है वह ईश्वर का है।
मृत्यु जीवन का अंत नहीं बल्कि एक दूसरे जीवन का आरंभ तथा ईश्वर की ओर बढ़ना है।
काफ़िर, जिनके पास प्रलय को झुठलाने के लिए कोई तर्क नहीं होता था, मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में प्रश्न करके संदेह फैलाते थे। क़ुरआने मजीद उनका उत्तर देते हुए यह प्रश्न करता है कि तुम्हारा पहला जीवन किसी ओर से है?

 सूरए बक़रह; आयत २९
सूरए बक़रह की आयत नंबर २९ इस प्रकार है।

वही तो है जिसने तुम्हारे लिए धरती की सारी वस्तुएं उत्पन्न कीं फिर आकाश की सृष्टि की और बिल्कुल ठीक और संतुलित सात आकाश बनाए और वही हर बात को भलि-भांति जानने वाला है। (2:29)

स्वयं को और अपने उच्च स्थान को पहचाने। इन आयतों में कहा गया है कि जो कुछ आकाशों और धरती में है, वह मनुष्य के लिए ही बनाया गया है जबकि ईश्वर समस्त वस्तुओं का रचयिता और वास्तविक स्वामी है। उसने अपनी असीम शक्ति से आकाश को छह परतों में बनाया है जिसकी पुष्टि आज के विज्ञान ने भी की है। यहां यह बात भी समझी जानी चाहिए कि इस सृष्टि में कोई भी वस्तु अकारण और बेकार नहीं है बल्कि हर वस्तु मनुष्य की सेवा के लिए है। यह बात उन लोगों के लिए ध्यानयोग्य है जो अपने उच्च स्थान की ओर से निश्चेत हो गए हैं और उन्होंने अपने आप को संसार के अधिकार में दे दिया है जबकि संसार, मनुष्य के लिए एक साधन है और उसे संसार को अपने उत्थान और प्रगति के लिए प्रयोग करना चाहिए।
जिस ईश्वर ने हमारी रचना की है उसी ने हमारे आराम की वस्तुएं भी बनाई हैं तथा धरती और आकाश को मनुष्य के अधिकार में दिया है क्योंकि जिन वस्तुओं की उसने रचना की है उनमें मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है और जड़ वस्तुओं, वनस्पतियों, पशुओं और धरती व आकाश सहित सभी वस्तुओं को उसकी सेवा करनी चाहिए।
एकेश्वरवाद का एक अन्य तर्क आकाशों की अत्यंत जटिल किंतु युक्तिपूर्ण व्यवस्था है जिसकी पहचान में अपनी असमर्थता को वैज्ञानिक स्वीकार कर चुके हैं। पृथ्वी जो हमारे लिए जीवन तथा विभिन्न उपहारों का कारण है, एक छोटे से उपग्रह से अधिक कुछ नहीं है जिसे क़ुरआने मजीद एकवचन के रूप में प्रयोग करता है किंतु आकाश के बारे में इस आयत सहित कई आयतों में कहता है, ईश्वर ने अपनी युक्ति तथा महान शक्ति के आधार पर सात आकाश बनाए और उन्हें भी मनुष्य की सेवा में दे दिया। अन्य आयतों के आधार पर मनुष्य जिस आकाश को देखता है वह धरती का आकाश अर्थात सबसे नीचे वाला आकाश है तथा बाक़ी अन्य आकाश उसकी आंखों से ओझल हैं।

इस आयत से मिलने वाले पाठः
मनुष्य धरती व आकाशों का सबसे उच्च जीव है तथा वही सृष्टि का लक्ष्य भी है।
ईश्वर ने संसार की सृष्टि हमारे लिए की है अतः हमें भी उसके लिए समर्पित रहना चाहिए।
प्रकृति की कोई भी वस्तु बेकार नहीं है बल्कि हर वस्तु की सृष्टि मनुष्य की सेवा के लिए की गई है, चाहे हम उससे लाभ उठाने का मार्ग न जानते हों।
संसार, मनुष्य के लिए है, मनुष्य, संसार के लिए नहीं, संसार साधन है, लक्ष्य नहीं।
प्रकृति के उपहारों से हर प्रकार का लाभ उठाना मनुष्य के लिए वैध है सिवाय यह कि बुद्धि या धर्म का कोई विशेष तर्क उससे रोके।

आयत नंबर ३० इस प्रकार है।

और (याद करो उस समय को) जब तुम्हारे पालनहार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं धरती में अपना उत्तराधिकारी बनाने वाला हूं तो उन्होंने कहा कि क्या तू उसे नियुक्त करेगा जो धरती में बिगाड़ फैलाएगा और रक्तपात करेगा? जबकि हम तेरा गुणगान करके तेरा महिमागान और तेरी पवित्रता का वर्णन करते हैं। ईश्वर ने कहा कि निश्चित रूप से जो मैं जानता हूं तुम नहीं जानते। (2:30)


गत आयतों में ईश्वर ने धरती पर रहने वालों पर अपनी असीम दया व अनंत कृपाओं का वर्णन किया था। इस आयत में वह मनुष्य के उच्च व आध्यात्मिक स्थान का वर्णन करता है कि जिसके कारण उसे ईश्वरीय विभूतियां और अनुकंपाएं प्राप्त हुई हैं। जब ईश्वर ने मनुष्य की सृष्टि के पश्चात फ़रिश्तों को यह सूचना दी कि वह उसे धरती में अपना उत्तराधिकारी बना रहा है तो उन्होंने चिंता व्यक्त की। निश्चित रूप से ईश्वर का उत्तराधिकारी ऐसा जीव होना चाहिए जो हर प्रकार की बुराई से दूर और पूर्ण रूप से ईश्वर की आज्ञा का पालन करता हो। जबकि फ़रिश्तों के कथनानुसार मनुष्य धरती में बुराई फैलाने वाला और रक्तपात करने वाला है। फ़रिश्ते जो सदैव ही ईश्वर की उपासना और उसके गुणगान में लीन रहते हैं, स्वयं को ईश्वर का उत्तराधिकारी बनने के लिए अधिक उचित समझते थे किंतु ईश्वर ने उनके उत्तर में यह कह कर कि जो मैं जानता हूं वह तुम नहीं जानते, अपने उत्तराधिकार के लिए मनुष्य की योग्यता को दर्शा दिया।

 मनुष्य के धरती पर ईश्वर के उत्तराधिकारी होने का अर्थ यह है कि वह अपने भीतर सभी ईश्वरीय परिपूर्णताओं को विकसित करे और स्वयं को सभी सदगुणों से सुसज्जित करे। इस प्रकार के मनुष्यों का उदाहरण पैग़म्बर, इमाम, भले व पवित्र तथा ईश्वर के मार्ग में शहीद होने वाले लोग हैं। ऐसे लोगों ने अपने सभी नकारात्मक आयामों और आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित कर लिया है और अपने आपको पवित्र एवं परिपूर्ण समाज की ओर अग्रसर किया है तथा ईश्वर तक पहुंचने के मार्ग में जिस निष्ठा और महानता का प्रदर्शन किया है उसने फ़रिश्तों सहित अन्य जीवों को भी आश्चर्यचकित कर दिया है।

इस आयत से मिलने वाले पाठः

संसार में मनुष्य का महत्व व स्थान इतना अधिक व उच्च है कि ईश्वर ने उसकी सृष्टि व उत्तराधिकार का विषय फ़रिश्तों के समक्ष भी छेड़ा है।

ईश्वरीय शासक या ख़लीफ़ा का निर्धारण ईश्वर के हाथ में है, दूसरों के नहीं।

अपने अधीन लोगों के समक्ष महत्वपूर्ण एवं प्रश्नजनक विषय रखना तथा उनके प्रश्नों व शंकाओं का उत्तर देना एक मान्यता है। ईश्वर ने मनुष्य की सृष्टि व उत्तराधिकार के विषय के संबंध में ऐसा ही किया और फ़रिश्तों की शंकाओं का उत्तर दिया।
ईश्वरीय शासक और ख़लीफ़ा को न्यायप्रेमी व न्यायकारी होना चाहिए, पापी व अपराधी नहीं, इसी कारण फ़रिश्तों ने कहा कि रक्तपात करने वाला तथा धरती में बिगाड़ पैदा करने वाला मनुष्य किस प्रकार ईश्वर का उत्तराधिकारी हो सकता है।
दूसरों से अपनी तुलना करते समय हमें ऐसा नहीं करना चाहिए कि उनके केवल कमज़ोर व नकारात्मक पहलुओं को और अपने केवल सकारात्मक पहलुओं को दृष्टिगत रखें और जल्दबाज़ी में निर्णय कर दें।
चयन का मानदंड केवल उपासना नहीं हैं बल्कि दूसरी बातें भी आवश्यक हैं। ईश्वर के महिमागान में यद्यपि फ़रिश्ते, मनुष्य पर वरीयता रखते थे किंतु ईश्वर की ओर से अपने उत्तराधिकार के लिए उनका चयन नहीं किया गया।
ज्ञान में वृद्धि तथा संदेह दूर करने के लिए प्रश्न करने में कोई बुराई नहीं है। फ़रिश्तों ने ईश्वर के कार्य पर आपत्ति करने के लिए नहीं बल्कि अपनी शंका दूर करने के लिए प्रश्न किया था।


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