इस्लाम अमन या आतंक (मानवाधिकार हनन के परिपेक्ष्य में)

इस्लाम अमन या आतंक (मानवाधिकार हनन के परिपेक्ष्य में)--- वेकार हुसैन  नफरत, दहशत, जुल्म और खून का जुनून! दिलों में नफरतों की धधकती हुई ज...


इस्लाम अमन या आतंक (मानवाधिकार हनन के परिपेक्ष्य में)--- वेकार हुसैन 

नफरत, दहशत, जुल्म और खून का जुनून! दिलों में नफरतों की धधकती हुई ज्वाला और क्रोध से सुलगती हुई आंखें! मजहब की चहारदीवारियों में इंसानियत की कत्लगाहें! नफरत, बेरहमी और खून!! तो क्या धर्म लोगों को नफरत ही सिखाता है? यह सवाल हर
इंसान एक दूसरे से पूछना चाहता है। दूसरे धर्मों के लोग क्या कर रहे हैं? मगर मैं यहां उस धर्म की बात कर रहा हूं, जिसे अमन व सलामती और दया का ही दीन कहा जाता है जहाँ रहमान व रहीम कह देने से जानवरों तक को अमान मिल जाती है तो अमन व सलामती और रहमतों के दीन में यह फितना व फसाद और कत्ल व गारत गरी क्यों? अक्सर लोग जिन्हें असली और नकली इस्लाम या सच्चे व झूठे मुसलमान का फर्क मालूम नहीं, वे हैरान होते ही होंगे, कि यह कैसा दीन है, जहाँ खून ही खून है? जिन्हें इस्लामी इतिहास का ज्ञान नहीं वे स्वाभाविक ही हैरान होते होंगे कि क्या यही वह इस्लाम है जिसे सवा चौदह सौ वर्ष पूर्व अमन व सलामती के उनवान से पैग बरे इस्लाम हजरत मोह मद मुस्तफा लोगों की निजात के वास्ते लाये थे, जिसे फारान की बुलन्दी से 'कूलू अफलहूÓ की आवाज सुनने वाले कानों तक पहुंचाया गया था और जो यसरब में बहते हुए खून के बीच अमन व सलामती का इलाही पैगाम, कमजोर से कमजोर इंसानों को भी जीने का बेखौफ हौसला दे गये थे। यह उस पैग�बर की खबर थी, जिसकी सच्चाई और अमानतदारी की गवाहियाँ उनके दुश्मनों और विरोधियों तक ने दी थी। वह जिसका असाधारण व्यक्तित्व इन्सानियत का सर्वोच्च उदाहरण और
उसकी करामतें हैरान कर देने वाली थीं।

तो फिर उसी के अनुयायियों में यह दरिंदगी और बेरहमी। यह कौन सा इस्लाम है जिसे दुनिया के सामने पेश किया जा रहा है? यदि इस्लाम अमन व सलामती और रहमदिली का दीन है तो यह फितना व फसाद, आतंक और खूंरेजियां क्यों? जिंदगी देने वाला इस्लाम, जिंदगी छीनने वाला इस्लाम कैसे बना? खुदा की बारगाह में सर झुकाये हुए नमाजियों और नबी के नवासों की शहादत का सोग मनाते हुए मातमदारों तक की बेरहमी के साथ हत्यायें कर दी जाती हैं तो यह किस इस्लाम का अनुसरण किया जा रहा है? एक व्यक्ति जिसे मुसलमान होने का गर्व होता है, जिसके चेहरे पर दाढ़ी और नमाज के निशान होते हैं, बम व बारूद छुपाये इस्लाम में घुसे कपटी मुसलमानों की तरह लोगों की भीड़ में घुस जाता है और फिर लम्हे  भर में दर्जनों या सैकड़ों इंसानी जिस्मों को खून व गोश्त के लोथड़ों में बदलकर रख देता है। ऐसे ही जैसे एकता परस्त इस्लाम के मानने वालों को 73 टुकड़ों में बांटने में मुनाफिकीन सफल हो गये हैं। दहशत गर्दों के इस कहर से न जाने कितने घर, परिवार और हंसती मुस्कुराती बस्तियाँ, शमशानों जैसी वहशत और कब्रिस्तानों जैसे गमसोज वीरानों में बदल जाते हैं और मरने वालों के वारिसों को आंसुओं की सौगात और दर्द व कर्ब की एक ऐसी
मीरास दे जाते हैं, जो उम्र भर उनके दिलों को कुरेदती रहती है।

 मजहब के नाम पर इस तरह की बर्बरताएं, जुल्म और दहशतगर्दी। पर अब न मुफ्तियों के फतवे जारी हो रहे हैं, और न मुल्लाओं की गला फाड़ बांगें सुनायी दे रही है। वे कलम भी खामोश हो जाते है, जिन्हें कुफ्र शिर्क और बिदअतों के शगूफे तराशने के लिए असीर कर लिया जाता है। दीन के ठेकेदारों में से अब कोई मुल्ला या मुफ्ती  उन दरिन्दों से यह पूछने का साहस नहीं कर रहा है कि जब इस्लाम में हत्या और आत्महत्या दोनों हराम और गुनाहे कबीरा है तो उनके इस अमल का उद्देश्य क्या है? बल्कि किसी अफसोस के बजाय दरपर्दा दहशतगर्दों की हिमायतें की जाने लगती हैं और हत्यारों को गाजी या शहीद की संज्ञा दी जाती है जैसे कि कुछ समय पहले पाकिस्तान के कुछ खूंपरस्त मुल्लाओं ने इंसानियत के इन बेरहम हत्यारों को गाजी, मुजाहिद और शहीद की सनद और उनके लिए जन्नत का परवाना जारी किया था। उनके अनुसार ओसामा बिन लादेन, बैतुल्लाह मसऊद और मुल्ला उमर जैसे लोग इस्लाम के सच्चे सिपाही हैं यही वह अस्ल इस्लाम से भटकी हुई विचारधारा है, जिसने हत्यारों को गाजी और दहशतगर्दी को जिहाद की संज्ञा दे डाली है।

इतिहास जानने वालों से यह तथ्य छिपा नहीं है कि कपटमय इरादों से इस्लाम में घुसे हुए अवसरवादियों ने पैग बरे इस्लाम के इलाही मिशन की हमेशा ही धज्जियां उड़ायी हैं और उनके बाद उनके खुदसा ता वारिसों ने भी धर्म के नाम पर जुल्म व दहशतगर्दी का निजाम कायम किया। धर्म का लिबास लपेटे लुटेरों ने किस तरह से दीन की आबरू लूटी, हक परस्तों को यातनाएं दीं, इसे इतिहास के पन्नों मेें देखा जा सकता है। हालांकि कलमें युग के शासकों के खौफ से हमेशा सहमे हुए रहे हैं और कुछ तो खौफ या लालच से उनकी गुलामी ही कबूल करते रहे हैं। धर्म के नाम पर मुस्लिम शासकों के जुल्म से मुसलमान मुसलसल शर्मसार होता रहेगा क्योंकि बेगुनाहों पर ढाये जाने वाले जुल्म और हकपरस्तों के खून से इस्लामी इतिहास के पन्ने रंगीन नजर आते हैं,जिसकी तुलना उन ईसाई दहशतगर्दों से की जा सकती है जो खुद को ईसा मसीह का सच्चा पैरोकार और अपने आपको सलीबी मुजाहिद की संज्ञा देते थे। जिनकी बाबत सलीबी लश्कर का ही एक ईसाई,राबर्ट लिखता है कि- हमारा लश्कर रास्तों, मैदानों और छतों से होता हुआ गुजर रहा था जिसे लोगों के कत्ले आम में ऐसा स्वाद मिल रहा था, जैसे उस शेरनी को लोगों की हत्याओं में मिलता है, जिसके बच्चे को कोई उठा ले गया हो। हमारा लश्कर कत्ल आम करते समय जवान, बूढ़े और बच्चों में कोई फर्क नहीं समझता था। अपनी सहूलियतों को ध्यान में रखते हुए हम एक ही रस्सी में बहुत सी गर्दनों को बाँधकर फांसी पर लटका दिया करते थे। इसी घटना की बाबत गोड फ्रे हार्डवेन नामक एक पोप ने लिखा है कि इस कत्लेआम का संक्षेप यह है कि रबाके सुलेमान नामक स्थान पर गैर ईसाई  इन्सानी खून इतना इकठ्ठा हो गया था कि लश्कर के घोड़े घुटने भर खून से होकर गुजर रहे थे। जबकि मुसलमानों ने तो अपने ही मुसलमान भाईयों का खून बहाने का दर्दनाक इतिहास कायम किया है। मुसलमानों का ही क्या जिस नबी ने उन्हें दरिंदगी की जिंदगी से निजात दिलायी, उसकी ही औलादों का बेदर्दी से खून बहा डाला। धर्म का लिबास लपेट लुटेरे मुसलमानों ने पैगम्बरे इस्लाम के अमन के मिशन की धज्जियां उड़ा दीं और सलामती के दीन को आतंकवाद के दाग से दागदार कर डाला है। कैसी कैसी यातनाएं और कैसे-कैसे जुल्म जालिम हुक्मरानों ने दीवारें तक खड़ी कर दीं, जो जालिमों के जुल्म की गवाह बनी हुई आज तक  सुरक्षित है। तो इतिहास की सच्चाईयों से आंखें क्यों चुरायी जा रही हैं? खुद से धोखा तो हैरत की बात है। जबकि इतिहास की घटनाएं सच के रास्ते की मार्गदर्शक ही हुआ करती हैं। मगर अफसोस कि मुसलसल गुमराहियों के हथौड़ों ने उनकी अकलों को इतना अपाहिज कर डाला है कि इतिहास की सच्चाईयां भी उन्हें नजर नहीं आती हैं। मगर इस हकीकत को याद रखना चाहिए सच से दूरी जिल्लतों से करीब कर देती हैं। किसी इंसान के लिए यह कितनी अफसोसनाक बात है कि वह इतिहास की घटनाओं से शिक्षा न हासिल करे।

मगर अफसोस लकीर के फकीर और परम्पराओं  के असीर मुसलमानों ने जहां इतिहास की सच्चाईयों से आंखें चुरायी हैं वहीं खुदा की इस महान दार्शनिक किताब कुर्आन को भी अपनी अकल और चिन्तन से दूर रखा और इसे बस अपनी जबान पर रट लेना ही इतिश्री समझ लिया है। नतीजे में अक्ल व हिदायत की इस दार्शनिक किताब से अक्सर ने सिर्फ गुमराही पायी। फलस्वरूप एकता परस्त मुसलमान बहार रास्तों में भटकने लगा और एक रोशन रास्ते के बजाय, घटाटोप अंधेरे रास्तों का शिकार हो गया। जिसे इस्लाम की सबसे बड़ी त्रासदी कहा जा सकता है। अफसोस कि खुद परस्त मुल्लाओं ने जालिम हुक्मरानों की खुशामद, और अपने भौतिक उद्देश्यों के तहत कुर्आन की तफसीर शैतान के इशारों पर कर दी। जैसा कि इमाम खुमैनी कहते हैं कि खुद परस्तों और शैतानी लोगों ने कुर्आन को प्रयोगात्मक जीवन से दूर कर दिया है। नतीजे में जालिम शासकों से ज्यादा खबीस मुल्लाओं ने इसे अपने जुल्म के लिए आलयेकार बना लिया है। पंडा तो हर कौम में होते हैं जो कौम की गुमराहियों के अस्ल ज़िम्मेदार  होते हैं और सच्चाइयों को पसेपर्दा रखकर अध्यात्म के लिबास में भौतिक आनन्द लूटते रहते हैं। इस्लाम के पंडा उन मुल्लाओं को कहा जा सकता है जो सच को अपने मुफाद के तहत छिपाते रहते हैं और लोगों को गुमराहियों में भटकने को मजबूर रखते हैं। यही बात खुदा की किताब कुर्आन में भी है- ''ऐ लोगों! सच व झूठ को आपस में मत फेंटो, और जान बूझकर सच्चाईयों की पर्दापोशी मत करो। हालाँकि तुम जानते हो कि सच क्या है। इस्लाम धर्म लोगों की भलाई के लिए आया है, तो फिर यह तबाहियाँ क्यों हैं?

जिन्दगी देने वाला इस्लाम जिन्दगी छीनने वाला इस्लाम कैसे हो गया? पैग बरे इस्लाम ने तो न कभी किसी पर जुल्म किया और न इसकी इजाजत दी, तो यह जुल्म की रीतियाँ क्यों कायम हो गयी हैं? औस व खुजरज की सदियों पुरानी दुश्मनी को दोस्ती में बदलने वाला इस्लाम खुद नफरतों का शिकार कैसे हो गया? लात व अज्जा की गुलामी से निजात दिलाने वाला इस्लाम, शैतान की साजिशों का असीर क्यों? एकता परस्ती का अहद करने वाले मुसलमान, जालिमों की चौखटों पर सजदे क्यों कर रहे हैं? फिर अल्लाह की बड़ाई करने का क्या उद्देश्य, जबकि चीखने वाली आवाजें खुद उसके ही दिल को नहीं सुनाई दे रही हैं। कल के लात व अज्जा के पुजारियों और आज के नमाजियों में क्या फर्क है जबकि उस का दिल अस्ल खुदा से ही अज्ञात है। हर ताकत को सजदा करने वाला दिल, तौहीद परस्त कैसे हो सकता है?

निश्चित ही इस्लाम को जितना नुकसान अध्यात्म के लिबास में लिपटे लुटेरों और भौतिकवादी व सिद्घान्तविहीन मुल्लाओं से हुए हैं, उतना नुकसान इसे उसके विरोधियों से भी नहीं हुए हैं। सच यह है कि यदि कुर्आन व पैग�बरे इस्लाम के इस्लाम को सामने रख दिया जाय तो वह इस्लाम ही कहां नजर आता है कि जिसकी रट लगायी जा रही है। खुदा परस्ती और खुदपरस्ती में वही फर्क होता है जो खुदा और शैतान में होता है। नफरत और जहरीली शिक्षा यकीनन एक ऐसी सा�प्रदायिक शिक्षा है जो कट्टïरवाद की शक्ल में पनपते पनपते एक दिन आतंकवाद का भयंकर रूप धारण कर लेती है। वे सजदे जो दिलों को ही काला कर दे, रहमान व रहीम  सजदा क्यों कर कहलायेगा? आश्चर्य है कि सजदों में विनम्रता की शपथ लेने वाले सरों में अहंकार की फुफकार कैसे आ जाती है। शिर्क में डूबा हुआ दिल, एकता परस्त कैसे हो सकता है?

सच्चाईयाँ कड़वी होती है। अवसरवादी मुसलमानों की अहद शिकनी और धोखेबाजी की घटनाओं से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। इतिहास ही क्या खुद कुर्आन भी इस का गवाह है। वे कौन से घिनौने से घिनौने कार्य, संगीन से संगीन अपराध है जो खुद मुसलमानों ने अंजाम नहीं दिये हैं। जिस इस्लाम में सबसे अधिक मानवाधिकारों का स�मान करने का निर्देश है उसी में सबसे अधिक मानवाधिकार उल्लंघन
किया गया है। जिस अमन व सलामती के घर काबा में किसी मच्छर या चींटी तक को अमान दी गयी है, उसी काबा के आंगन में इंसानों का बेदर्दी से खून बहाया गया है। इस दीन में हकपरस्तों पर यातनाओं की सूची इतनी ल�बी है जिसे लिखने वाले थक गये और उसका अन्त नहीं पा सके हैं।

मुसलमानों ने उस पेड़ तक को काट डाला था जिसके साये में बैठकर पैग बरे इस्लाम की दिलसोज बेटी अपने बाप के बिछुडऩे का सोग मनाया करती थी। मुस्लिम शासकों के महल, चाहे सब्ज महल हो या सुर्ख महल, इनके हर महल हक परस्तों की हमेशा से कत्लगाह ही बने हैं, अच्छा इन्साफ से बताइये कि यदि कोई व्यक्ति किसी मुसलमान से यह सवाल कर बैठे कि बताइये कि पैग बरे इस्लाम के घर वालों का कत्लेआम किसने किया है? तो इसका जवाब क्या इसके सिवा कुछ और हो सकता है कि नबी के घर वालों का कत्ल खुद मुसलमानों ने ही किया। वे जो नबी की सुन्नत और वफादारी का दम भरते थे। क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि नबी की दोस्ती के दावेदारों ने नबी का दम निकलते ही उन्हें छोड़ दिया, यहाँ तक कि दफन व कफन में भी शरीक न हुए जबकि उन्हीं के इन्तेजार में नबी का जनाजा तीन दिनों तक रखा रह गया था।

इतिहास के इस कडुवे सच को पढिय़े। इस घटना से लोग हैरान हो जाते हैं, और जिन्हें इतिहास का ज्ञान नहीं उन्हें दोस्तों की इस बेवफाई पर विश्वास नहीं होता है, पर जिन्हें इतिहास का ज्ञान है और जिन्हें अकीदत के अंधेरे कुएं में रहने की आदत नहीं है और वे जो जानते हैं कि यही वे लोग हैं, जिन्होंने नबी का साथ उस वक्त भी छोड़ा था और भाग निकले थे जबकि वह युद्घ के मैदान में दुश्मनों के बीच घिर गये थे। बेवफा साथियों की इन दोनों स्थितियों को खुदा ने कुर्आन में भी बताया था- ''मोह मद तो सिर्फ एक रसूल हैं, जिनसे पहले बहुत से रसूल गुजर चुके हैं तो क्या यदि वह मर जायें या कत्ल हो जायें, तो तुम पलट जाओगे।


इतिहास ने वही पाया जो खुदा की दार्शनिक किताब बता चुकी थी और दुनिया ने देखा कि किस तरह से अवसरवादी कत्ल की अफवाह पर उन्हें दुश्मनों के बीच अकेला छोड़कर फरार हुए,और फिर उनके मरने पर भी उन्हें छोड़ दिया। तो अस्ल इस्लाम को तलाशिये! असली नकली मुसलमान के फर्क को पहचानिये। उस सच्चाई का पता लगाइये कि किसने अमन के सब्ज परचम को नबी की औलादों के खून से सुर्ख कर दिया है। अमन व सलामती का यह दीन, दहशतगर्दों के हाथों कैसे आ गया? तो निश्चित ही उस हकीकत का पता लग जायेगा, कि दहशतगर्दों का पहला निशाना पैग बरे इस्लाम की औलादें कैसे हुईं? क्या उनके घर नहीं जलाये गये? क्या उन्हें कैदी नहीं बनाया गया? और क्या उन्हें दर्दनाक यातनाओं के साथ कत्ल नहीं किया गया? तो सच्चाईयां तलाशिये, क्योंकि आप इन्सान हैं।

कातिल तो कभी नहीं चाहता है कि मकतूल की चर्चा की जाय और जुल्म की दास्तान लोगों से बयान की जाय। इसी प्रयास में जबानें कटती रहीं,और कलमों को खौफ व लालच की जंजीरों में असीर किया जाता रहा। इसके बावजूद मजलूमों का खूने नाहक कभी छिपाया नहीं जा सका और अन्जाम कार जालिम चाहे कितने ही शक्तिशाली क्यों न रहे हों, जलील व रूसवा होकर ही रहे। अफसोस कि दहशतगर्दों के चेहरों पर दाढिय़ां भी होती हैं और नमाज के निशान भी। कुर्आन व हदीस की बातें भी, पर काम इतने घिनौने कि इनकी दरिंदगी से इन्सानियत शर्मसार हो जाती है।

अक्सर सुनने को मिलता है कि हमें तो सिर्फ बदनाम किया जाता है। कभी-कभी यह बातें सच भी हो सकती हैं। मगर चौदह सौ वर्षों के इतिहास को क्या कहा जायेगा? इतिहास के पन्नों से उस खून के धब्बे को कैसे मिटाया जा सकता है, जहां हकपरस्तों को जुल्म का निशाना बनाया गया है। जबकि इतिहासकार हमेशा तलवारों के साये में कलम चलाने को मजबूर होते रहे हैं। फिर पाकिस्तान में कौन किसे बदनाम कर रहा है, जहाँ अक्सर ही कथित इस्लामी संगठनों के मुजाहिदीन इन्सानों की हत्याएं करते रहते हैं। यह तालिबान जिनके आंगन में दहशतगर्दों की ही खेतियाँ होती हैं, और जिनके इन्सानियत सोज मजालिम के सबब मुसलमान जिल्लत की गहरी खाइयों में गिर चुका है। ईराक में कौन लोग हैं जो अक्सर ही अपने भाईयों को,मेहमान पर्यटकों और जायरीन की निर्दयता से हत्याएं कर देते हैं। यह तालिबान, मुजाहिदीन, लश्करे झंगवी, लश्करे तैय्यबा और लश्करे सहाबा आदि कथित इस्लामी संगठनों में कौन लोग हैं,
जिनके अनुसार हत्या और आत्महत्या दोनों ही इस्लामी शरीयत और जन्नत में जाने का परवाना हैं? यह कौन सा इस्लाम है जहाँ जुल्म को जिहाद और हत्यारों को गाजी कहा जाता है? मगर इस विषय पर गहरी खामोशी छा जाती है। सदियों की इसी गुमराह कुन खामोश पर�परा ने लोगों की अकलों को अपाहिज कर डाला है परन्तु यदि इन दहशतगर्दों के उदगम का पता लगाया जाये और इतिहास के पन्नों में उनके कदमों के निशान तलाशे जायें तो निश्चित  उनके उस ठिकाने का पर्दाफाश हो सकता है जहां दहशतगर्दी की बुनियाद डाली गयी थी और उन मुजरिमीन की भी निशानदेही की जा सकती है जिसने अमन व सलामती के इस दीन को तबाही के दहाने पर ला खड़ा किया है।


क्या इस खबर से मुसलमान शर्मसार नहीं होता है कि बेगुनाहों के खून व गोश्त के बिखरे हुए लोथड़ों में किसी हाफिज या मुल्ला के ही निशाने कदम पाये जाते हैं तो तबलीग की गठरी का बोझ कंधों पर उठाये भटकने वाले मुल्लाओं को चाहिए कि गुमराह मुसलमानों को पहले एक अच्छा इंसान और उनको मानवीय आदर्श और नैतिकता का पाठ पढ़ायें। जैसा कि खुद पैगम्बरे इस्लाम ने अपनी जिंदगी के चालीस साल लोगों के चरित्र निर्माण में बिताये। अफसोस कि पैगम्बरे इस्लाम के इस दुनिया से गुजरते ही इस्लाम militancy का शिकार हो गया और हक परस्तों के लिए सिक्यूरिटी पूरी तरह से समाप्त हो गयी। विशेषकर पैगम्बरे इस्लाम के घर वालों के लिए। नतीजे में नबी की औलादों और उनके दोस्तों के लिए दर्दनाक यातनाओं का दौर शुरू हो गया और उन्हें अत्यन्त बेरहमी के साथ कत्ल कर दिया गया। जबकि चाटुकारों और अवसरवादी अय्यारों के लिए खजानों के दरवाजे खोल दिये गये थे।

हालांकि खुदा की दार्शनिक किताब में अवसरवादी मुसलमानों के बारे में, उनके चरित्र व इरादों के बार में पैग�बरे इस्लाम को बार-बार आगाह भी कर दिया गया था। कुर्आन की इन आयतों को पढिय़े! ''करीब है कि तुम हाकिम हो जाओ तो (तुम लोग) जमीन पर फितना और फसाद करोगे, और लोगों के साथ बेरहमी (कत्ल व गारतभरी) करोगे और इन आयतों को भी पढिय़े ''(उस दिन से डरो) जिस दिन कुछ लोगों के चेहरे (उनकी नेकियों के सबब) सफेद व चमकदार होंगे और कुछ लोगों के चेहरे (उनके झूठ व फरेबकारियों के सबब) काले होंगे,तो जिन लोगों के मुंह पर कालिख होगी, उनसे कहा जायेगा कि तुम वहीं लोग हो, जो इमान लाने के बाद काफिर हो गये थे, तो अब अपने कुफ्र की सजा में अजाब (के मजे) चखो और जिन (सच्चे) लोगों के चेहरों पर चमक होगी वह तो खुदा की रहमतों (स्वर्ग) में होंगे और उसी में हमेशा रहेंगे। (सूरह आले इमरान, आयत 102)। और अब पैग बरे इस्लाम की इस मशहूर हदीस को भी पढिय़े।


''आगाह हो जाओ कि कयामत के दिन जब मैं हौजे कौसर पर खड़ा हूंगा, तो मैं देखूंगा कि फरिश्ते मेरे साथियों (असहाब) में से कुछ को पकड़े हुए जहन्नम की तरफ घसीटते हुए ले जायेंगे, तो मैं कहूंगा कि यह तो मेरे असहाब (साथी) में से थे तो (उस वक्त) आवाज आयेगी कि क्या तु हें नहीं मालूम कि आपके मरने के बाद यह लोग दीन से पलट गये थे। (पैगबरे इस्लाम की हदीस)। 


मगर अफसोस कि कुर्आन जैसी महान दार्शनिक किताब को लोगों ने अपनी अक्लो से दूर रखा। न इसकी नसीहतों से कोई नसीहत हासिल किया और न इसकी आगाहियों से आगाह हुए। जबकि घटनाओं की चश्मदीद गवाह इतिहास से भी इसने नजरें चुरा ली हैं।निश्चित ही इतिहास जानने वालों के लिए यह तथ्य छिपा नहीं है कि पैगम्बरे इस्लाम की मृत्यु के तत्काल बाद ही इस्लाम दो हिस्सों में विभाजित हो गया। एक गिरोह जिसका मकसद ही माल व दौलत और सल्तनतों पर कब्जा करना था तो अपने उद्देश्य के तहत उसने तलवार उठा ली और जुल्म व दहशतगर्दी की राह अपनाकर मजहब के बैनर तले निर्दोष लोगों का खून बहाया। अमन व सलामती के इस दीन में कत्ल व गारतगरी का ऐसा सिलसिला कायम किया कि जिसे देखकर अकसर लोगों ने यह धारणा कायम कर ली कि इस्लाम मजहब तो तलवारों से फैला है। नतीजे में कपटी अवसरवादियों ने इस्लाम की टेढ़ी बुनियाद कायम करने में किसी हद तक कामयाबी हासिल कर ली। दूसरे गिरोह ने कुर्आन व पैगम्बरे इस्लाम के आदेशों का स मान करते हुए सत्य, सब्र और धैर्य का रास्ता अपनाया। नतीजे में इन हकपरस्तों को सख्तियों का सामना करना पड़ा।

संपत्तियां लूटी गयीं। अधिकार छीने गये। घर जलाये गये कैदी बनाये गये और दर्दनाक यातनाओं के बाद उन्हें कत्ल किया गया।क्या ऐसा नहीं है? तो किस गिरोह ने तलवार उठाकर जुल्म व दहशतगर्दी की राह अपनायी और किस गिरोह ने सत्य, सब्र और धैर्य का रास्ता अपनाकर अपनी गरदनें कटायीं? इसे तिहास के पन्नों में तलाश कीजिए। जालिमों का इस्लाम, और मजलूम व हकपरस्तों का इस्लाम। कातिलों वाला इस्लाम या शहीदों वाला इस्लाम, हक के मतलाशियों के लिए रास्ते खुले हुए हैं। फिर करबला की दर्दनाक घटना ने तो जालिम व मजलूम दोनों गिरोहों के चेहरों को स्पष्टï कर दिया है। करबला की दर्दनाक घटना के बाद ही हर्रा की वह अफसोसनाक घटना अंजाम दी गयी थी, जिसे सुनकर मुसलमानों का सर शर्म के साथ झुक जाता है। मुसलमानों के जालिम खलीफा ने अपने बेरहम सिपाहियों को तीन दिनों तक मदीना लूटने,कत्ल व गारतगरी करने और अय्याशियों के लिए उन्हें आजाद कर दिया था।


नतीजे में उन दरिन्दों ने मदीने में जी भरकर लूटमार किया।करीब पन्द्रह हजार शहरियों को कत्ल किया, जिनमें जवान, बूढ़े और बच्चे भी शामिल थे। हजारों औरतों और लड़कियों की आबरू लूटी। हर्रा की इस शर्मनाक घटना के फल स्वरूप एक हजार औरतों ने हरामी बच्चों को जन्म दिया था। खलीफा के बेलगाम सिपाहियों ने मस्जिदे नबवी में अपने घोड़े बांधकर उसकी पवित्रता और सम्मान को भी पामाल किया। काबे की छत पर  शराब नोशी कर उसकी पवित्रता बर्बाद किया।

उसकी दीवारें गिरायीं, और काबे का पर्दा भी जला डाला। मुस्लिम हुक्मरानों ने दीन के नाम पर अपने भौतिक उद्देश्यों की प्राप्ति की खातिर इस्लामी शरीयतों की अनेकों बार धज्जियाँ उड़ायी हैं। इतिहास की इस तल्ख सच्चाई से कैसे इनकार किया जा सकता है कि मुसलमानों के खलीफा ने जुमे की नमाज बुध को ही पढ़ा दी और हजारों मुसलमानों ने इसे बिना चूं चरा पढ़ भी लिया था। खुद को खलीफा और अमीरूल मोमनीन भी कहलवाया और दीन की हुरमत व शरीयतों की धज्जियां भी उड़ायीं। शराब भी पिया, हुरमतों के रिश्तों को कलंकित भी किया और मुसलमानों को नमाज भी पढ़ायी और फिर भी अमीरूल मोमनीन ही कहलाये, क्योंकि उनके इर्द गिर्द लाखों ऐसे चाटुकारों की भीड़ इकठ्ठा हो चुकी थी, जिन्हें ऊंट और ऊंटनी का फर्क भी मालूम नहीं था।

यह जुल्म और दहशतगर्दी की घटनाएं किसी एक शासक के करतूत नहीं है, बल्कि इस्लामी इतिहास ऐसे शासकों से भरे हुए हैं जिन्होंने अपनी ताकत और दहशत को हमेशा इस्लामी शरीयत के ऊपर रखा और जुल्म व गारतगरी के बावजूद खुद को एक आदिल हुकमुरान साबित करने की भरसक कोशिशें की, इसी कोशिशों में जबानें कटती रहीं और कलमों को खौफ व लालच से असीर किया जाता रहा। इसके बावजूद सच की चमक धूल से धूमिल नहीं की जा सकी और जिसने भी अपनी अकल को हरकत दी सच्चाइयाँ उसके सामने रोशन
हो गयी, पर जिसने अपनी अकल को अकीदत का असीर बनाया, गुमराहियाँ उसके नसीब का नतीजा बनीं।आश्चर्य है कि अकसर लोग अपनी गुमराहियों को ही हिदायत की रोशनी समझते हैं। हालांकि उनके पास इसके लिए कोई दलील नहीं होती है। जबकि कुर्आन की स्पष्टï आयत है कि - ''यदि तुम सच्चे हो तो दलील लाओ। कहते हैं कि हम तो वही करते  हैं जो हमारे पूर्वज करते आ रहे हैं भला इससे बड़ी गुमराही और क्या होगी।  बस इसी गुमराही के सबब उन्हें जालिम व मजलूम या कातिल व मकतूल में कोई फर्क नजर नहीं आता है। दरअसल islamic logo के सहारे शौतान के सिपाहियों ने उनकी अकलों को अंधी अकीदत का असीर बना दिया है जिससे न्याय की शक्तियां उनसे दूर हो गयी हैं।


निश्चित ही इतिहास के इन्हीं मुसलमानों को देखकर एक अंग्रेज ने इस्लाम के प्रति अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में व्यक्त कर दी कि- “slam is the best religion  but its followers are  worst “हालांकि ऐसा नहीं है। जिन लोगों को इस्लामी इतिहास का गहरा ज्ञान है और जिन्हें original Isam और profesional  का फर्क मालूम है मुनाफिकीने इस्लाम और मोमनीने इस्लाम की पहचान है, वे जानते हैं कि अस्ल इस्लाम जिसका मूल दया, न्याय और क्षमा है, वह किसी प्रकार के जुल्म और अन्याय की अनुमति नहीं दे सकता। हजरत  अली जिन्हें उनके अदल व इंसाफ के सबब की कत्ल कर दिया गया, उनका कथन है कि यदि उन्हें सारी दुनियां की हुकूमत दे दी जाय, इस शर्त पर कि जौ का एक छिलका जो किसी चूंटी के मुंह में हो,छीन ले, तो वह हरगिज ऐसा नहीं कर सकते। इस्लाम में किसी प्रकार के जुल्म और दहशतगर्दी की अनुमति नहीं है और न ही जबरन किसी बात के मनवाने की अनुमति है। कुर्आन की स्पष्टï आयत इसकी गवाह है कि- ''धर्म में किसी तरह की जबरदस्ती  नहीं है। इन्सान ही क्या, किसी जानवर, हत्ता कि किसी चींटी पर भी जुल्म नहीं किया जा सकता है। कुर्आन पढऩे वालों को यह कथा मालूम है कि जब सुलेमान नबी का लश्कर अपनी यात्रा पर निकला तो उन्हें रास्ते में चूंटियों की एक कतार दिखी। सुलेमान नबी ने सुना कि चूंटियों की सरदार अपने साथियों से कह रही थी कि तुम सब भागकर अपनी बिलों में चली जाओ कि कहीं सुलेमान नबी का लश्कर तु हें कुचल कर मार न डाले। यह सुनकर सुलेमान ने चूंटियों के सरदार को अपनी हथेली पर उठा लिया और बोले कि क्या तुम हमें जालिम  समझती हो।

रहमान व रहीम कहने वाला किसी की हत्या नहीं कर सकता है। इस्लाम दया और रहमदिली का दीन है। इस दीन की सबसे महत्वपूर्ण इबादत (उपासना) नमाज है। जिसे पढऩे से पूर्व वजू करना यानी पानी से हाथ और मुँह धोकर पवित्र होना जरूरी है। परन्तु यदि उसी समय प्यास से कोई बदहाल, चाहे जानवर, कुत्ता ही क्यों न हो यदि आ जाय और उस व्यक्ति के पास उस समय उतना ही पानी हो, जिसे वह चाहे बदहाल कुत्ते को वह पानी पिलाकर उसकी जान बचा ले या फिर वजू कर नमाज अदा करे तो ऐसे समय इस्लाम का आदेश है कि पहले प्यासे को पानी पिलाया जाय और यदि समय कम है तो तय मुम कर यानी मुंह व हाथ पर धूल लगाकर नमाज पढ़ ली जाय। इसी तरह इस्लाम सहानुभूति और क्षमा की शिक्षा देता है। इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मोह मद (स.अ.) जिस रास्ते से होकर गुजरते थे, एक औरत जो उनके ऊपर कूड़ा करकट फेंक दिया करती थी, परन्तु एक रोज जब वह उसी रास्ते से गुजरे तो उनके ऊपर वह कूड़ा नहीं पड़ा। पूछने पर पता चला कि वह औरत बीमार है। यह सुनते ही पैग बरे इस्लाम उसका हाल जानने के लिए उसके पास पहुंच गये। जब उस औरत ने देखा कि वहीं व्यक्ति उसके पास खड़ा है, जिसका वह सर पर कूड़ा फेंककर अपमान किया करती थी, तो उसने सोचा कि शायद आज वह उससे अपने अपमान का बदला लेने आया है। उसने कहा- क्या तुम आज मुझसे बदला लेने आये हो? यह सुनते ही पैग बरे इस्लाम के भीतर की करूणा आँसू बनकर उनकी आंखों में छलकने लगी। वह बोले- यह तू कैसी बातें करती है। ऐसा मत सोच, बल्कि मैं तो तेरा हाल जानने के लिए आया हूं। तू मुझसे अपनी तकलीफें बता कि शायद मैं तेरी कोई मदद कर सकूं। यह क्या! यह सुनकर औरत हैरान हो गयी। सोचने लगी कि जिस व्यक्ति का उसने अपमान किया उसी के दिल में उसके लिए इतनी सहानुभूति। क्या इसका  इस्लाम इतना उदार है कि वह मुझे भी क्षमा कर रहा है?  इस सोच के साथ ही औरत की आंखों में भी आँसू छलकने लगे और उसने अपने किये की माफी मांगी। इस्लाम धर्म के अनुसार सच्चा मुसलमान वह है कि जिसके हाथ या जबान से किसी को नुकसान न पहुंचे। ऐसा व्यक्ति वास्तव में मुसलमान नहीं कहा जा सकता है कि जिसका पड़ोसी गुरबत और तंगी के सबब रात में भूखा सो गया हो और यह बात उसे मालूम रही हो। इस्लाम धर्म के अनुसार पड़ोसी चालीस घर तक को कहते है, जिसमें हर धर्म और समुदाय के लोग हो सकते हैं। रिश्तेदारों और पड़ोसियों से नेकियाँ इस्लाम की विशेषता है।

यह लेखक वेकार हुसैन के विचार हैं यदि कोई सवाल हो तो आप उनसे संपर्क कर सकते हैं ....संचालक 

वेकार हुसैन (हिंदुस्तान मानव अधिकार सचिव )
Mob.: 9450089511 - E-mail ID - waqarhusain58@yahoo.com

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  1. इस्लाम का अर्थ है ईश्वर के प्रति समर्पण और आज्ञापालन। इसलाम शब्द सीन,लाम और मीम तीन शब्दों के माददे से बना है जिसका अर्थ है शांति। पैग़म्बरे इसलाम का मिशन था शांति। यह वह शांति थी जिसकी दुआएं मानव जाति हज़ारों साल से कर रही थी। पैग़म्बरे इसलाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को शांति से मक्का में नहीं रहने दिया गया लेकिन ख़ुद उन्होंने अपने सताने वालों और अपने चचा और साथियों को क़त्ल करने वालों से कभी बदला नहीं लिया बल्कि अपनी जान,माल और वक्त से सदा उनकी मदद की।
    जब तक मुसलमानों के सामने पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का उसवा (आदर्श) रहेगा और वे उसका अनुसरण करते रहेंगे तो लोगों को हमेशा इसलाम का सही परिचय हासिल होता रहेगा कि इसलाम शांति का आदर्श मार्ग है।
    लेकिन यह दुनिया इम्तेहान के लिए बनाई गई है और बुरे लोगों को भी मनमानी करने का यहां सीमित अधिकार मिला हुआ है। बुरे लोग इसलाम का इस्तेमाल अपनी हिर्स व हवस के लिए करते देखे जा सकते हैं। इनकी ज़िंदगी पैग़म्बराना आदर्श से ख़ाली होती है। इनका मक़सद सिर्फ़ दुनिया की हुकूमत हासिल करना होता है। यही लोग हैं जो ज़ुल्म और बर्बरियत के फ़ैसले करते आए हैं।
    इसलाम पर अमल करना और इसलाम के नाम का इस्तेमाल करना दोनों अलग अलग बातें हैं।
    दुनिया में दोनों तरह के लोग मौजूद हैं और आगे भी रहेंगे। दुनिया इसी लिए बनाई गई है कि जिसे जो करना है, वह कर ले।
    अंजाम के लिए आखि़रत है। आखि़रत में उसी का अंजाम अच्छा होगा, जिसने ईश्वर के प्रति समर्पण किया होगा और उसका आज्ञापालन किया होगा।
    आज मुसलमान समर्पण और आज्ञापालन के बजाय अपनी इच्छा और वासना की पूर्ति में लगा हुआ है। मुहाफ़िज़े दीनो शरीअत अफ़राद भी अवाम की रविश पर ही हैं। अमल की कमी को तक़रीर से पूरा नहीं किया जा सकता। दीन की तब्लीग़ की जगह इशाअते मसलक ने ले ली है और फिर मसलक की इत्तबाअ के बजाय उस पर मुनाज़िरे किए जा रहे हैं।
    इसलाम की रूह को, उसकी मंशा को फिर से उसी तरह आम किया जाए जैसा कि पैग़म्बरे इसलाम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने और उनके मुत्तबिईन ने अपने दौर में किया था। दीन का शऊर जितना ज़्यादा आम होगा, मुख़ालिफ़ीन व मुनाफ़िक़ीन और गुमराहों का शर कम हो जाएगा।

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