नमाज़ और हमारा समाज
मुसलमानों में नमाज़ कि बड़ी अहमियत है | इंसान को इस जीवन में जो कुछ भी मिलता है यह अल्लाह कि देन है और नमाज़ यह सीखती है कि जो तुम्हारा भला करे...
मुसलमानों में नमाज़ कि बड़ी अहमियत है | इंसान को इस जीवन में जो कुछ भी मिलता है यह अल्लाह कि देन है और नमाज़ यह सीखती है कि जो तुम्हारा भला करे, जो तुम्हारा ख्याल रखे उसका शुक्रिया अदा किया जाए| इंसान अल्लाह कि दी हुई नेमतों का शुक्रिया दिन में पांच बार नमाज़ पढके अदा करता है और जो अल्लाह कि मौजूदगी का एहसास कर लेता है गुनाह से दूर होता जाता है | एक इंसान सुबह कि नमाज़ पढ़ के अल्लाह से दुआ करता है कि उसी बुराईयों से दूर रखे और जब नमाज़ के बाद बुराई की तरफ उसका ध्यान जाता है तो सोंचता है अभी नमाज़ ए जुहर में अल्लाह का संमा फिर करना है | बस इस ख्याल के आते ही वो खुद को गुणहीन से रोक लेता है |
नमाज़ में जमात से नमाज़ पढ़ने का बड़ा सवाब है | जब इंसान नमाज़े जमाअत मे होता है तो वह एक इंसान की हैसियत से इंसानो के बीच और इंसानों के साथ होता है। नमाज़ का एक इम्तियाज़ यह भी है कि नमाज़े जमाअत मे सब इंसान नस्ली, मुल्की,मालदारी व ग़रीबी के भेद भाव को मिटा कर काँधे से काँधा मिलाकर एक ही सफ़ मे खड़े होते हैं। नमाज़े जमाअत इमाम के बग़ैर नही हो सकती क्योंकि कोई भी समाज रहबर (सच्चे नेता ) के बग़ैर नही चल सकता। इमामे जमाअत जैसे ही मस्जिद मे दाखिल होता है वह किसी खास गिरोह के लिए नही बल्कि सब इंसानों के लिए इमामे जमाअत है। इमामे जमाअत को चाहिए कि वह क़ुनूत मे सिर्फ़ अपने लिए ही दुआ न करे बल्कि तमाम इंसानों के लिए दुआ करे। इसी तरह समाज के रहबर को भी खुद ग़रज़ नही होना चाहिए। क्योंकि नमाज़े जमाअत मे किसी तरह का कोई भेद भाव नही होता ग़रीब,अमीर खूबसूरत, बद सूरत सब एक साथ मिल कर खड़े होते हैं।
इमामे जमाअत का इंतिखाब लोगों की मर्ज़ी से होना चाहिए। लोगों की मर्ज़ी के खिलाफ़ किसी को इमामे जमाअत मुऐयन करना जायज़ नही है। अगर इमामे जमाअत से कोई ग़लती हो तो लोगों को चाहिए कि वह इमामे जमाअत को उससे आगाह करे। यानी इस्लामी निज़ाम के लिहाज़ से इमाम और मामूम दोनों को एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए।
इमामे जमाअत को चाहिए कि वह बूढ़े से बूढ़े इंसान का ख्याल रखते हुए नमाज़ को तूल न दे। और यह जिम्मेदार लोगों के लिए भी एक सबक़ है कि वह समाज के तमाम तबक़ों का ध्यान रखते हुए कोई क़दम उठायें या मंसूबा बनाऐं। मामूमीन(इमाम जमाअत के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले अफ़राद) को चाहिए कि वह कोई भी अमल इमाम से पहले अंजाम न दें। यह दूसरा सबक़ है जो अदब ऐहतिराम और नज़म को बाक़ी रखने की तरफ़ इशारा करता है। अगर इमामे जमाअत से कोई ऐसा बड़ा गुनाह हो जाये जिससे दूसरे इंसान बा खबर हो जायें तो इमामे जमाअत को चाहिए कि वह फ़ौरन इमामे जमाअत की ज़िम्मेदारी से अलग हो जाये। यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि समाज की बाग डोर किसी फ़ासिक़ के हाथ मे नही होनी चाहिए। जिस तरह नमाज़ मे हम सब एक साथ ज़मीन पर सजदा करते हैं इसी तरह हमे समाज मे भी एक साथ घुल मिल कर रहना चाहिए।
इसी तरह नमाज़े जमाअत के ज़रिये नमाज़ मे शरीक होने वाले अफ़राद के हालात से आगाही हासिल करने, नमाज़े जमाअत मे शरीक होने वाले मरहूम लोगों के लिए इसाले सवाब करने, समाज के ग़रीब लोगों की मदद व भलाई के लिए क़दम उठाने,समाजिक मुश्किलात के हल के लिए मोमिनीन को आपस मे मिलकर अल्लाह से दुआ करने और मदद माँगने का मौक़ा मिलता है।और इन तमाम मुक़द्दस कामों को किसी धूम धाम के बग़ैर बिल्कुल सादे तरीक़े से अंजाम दिया जा सकता है।
नमाज़ की एक बरकत यह भी है कि मस्जिदों मे लोग एक दूसरे की मदद करते हैं। समाज के ग़रीब लोग मस्जिदों मे जाते हैं और अपनी मुश्किलात को लोगों से कहते हैं। और इस मुक़द्दस मकान मे उनकी मुश्किलें हल होती हैं। यह काम रसूले अकरम (स.) के ज़माने से समाज मे राइज (प्रचलित) है। क़ुरआने करीम ने भी इस चीज़ को नक़्ल किया है कि एक फ़क़ीर मस्जिद मे दाखिल हुआ और लोगों से मदद की गुहार की। लेकिन जब किसी ने उसकी तरफ़ तवज्जुह न दी तो उसने रो-रो कर अल्लाह की बारगाह मे फ़रियाद की। हज़रत अली अलैहिस्सलाम नमाज़ पढ़ रहे थे उन्होने उसको इशारा किया वह आगे आया और हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने रुकु की हालत मे अपनी अंगूठी उस फ़क़ीर को अता की। इसी मौक़े पर क़ुरआन की यह आयत नाज़िल हुई कि “तुम लोगों का वली अल्लाह उसका रसूल और वह लोग हैं जो नमाज़ को क़ाइम करते हैं और रुकु की हालत मे ज़कात देते हैं।”जब लोगों ने इस आयत को सुना दौड़ते हुए मस्जिद मे आये कि देखें यह आयत किस की शान मे नाज़िल हुई है। वहाँ पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम को देख कर समझ गये कि यह आयत इन्ही की शान मे नाज़िल हुई है।
बहरहाल नमाज़ की बरकत से हमेशा मस्जिदों से महाज़े जंग और ग़रीब फ़क़ीर लोगों की मदद होती रही है और आइंदा भी होती रहेगी। मस्जिदों से ही मुसलमान महाज़े जंग पर गये हैं। ईरान का इस्लामी इंक़िलाब भी मस्जिदों से ही शुरू हुआ था।
लोगों के मस्जिदों मे जमा होने की वजह से हासिल होने वाली बरकतों को चन्द लाईने लिख कर पूरी तरह समझाना मुंमकिन नही है।
क़ुरआन मे कई बार नमाज़ और इंफ़ाक़, नमाज़ और ज़कात, नमाज़ और क़ुर्बानी का एक साथ ज़िक्र किया गया है। और हदीस मे भी आया है कि “ज़कात ना देने वाले की नमाज़ क़बूल नही है।”
जो मुहब्बत मस्जिद के नमाज़ीयो के दरमियान पायी जाती है ऐसी मुहब्बत किसी दूसरी जगह पर देखने को नही मिलती। मस्जिद के नमाज़ियों का मिज़ाज यह बन जाता है कि अगर एक नमाज़ी दो तीन दिन न आये तो आपस मे एक दूसरे से उसके बारे मे पूछने लगते हैं। और अगर वह मरीज़ होता है तो उसकी अयादत के लिए जाते हैं। अगर वह किसी मुश्किल मे घिरा होता है तो उसकी मुश्किल को हल करते हैं। लिहाज़ा मस्जिद के नमाज़ियों को तन्हाई का ऐहसास नही होता। अगर किसी के कोई भाई या बेटा न हो और वह नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद मे जाता हो तो उसको ऐसा लगने लगता है कि सब उसके भाई बेटे हैं।
अकसर देखा गया है कि जब कोई नमाज़ी इस दुनिया से जाता है तो उसके जनाज़े मे एक बड़ी तादाद मे लोग शिरकत करते हैँ और इज़्ज़तो एहतिराम के साथ उसको दफ़्न करते है। उसके लिए जो मजलिसें की जाती हैं उनमे भी रोनक़ होती है। यह सब उस दिली मुहब्बत की निशानी है जो मस्जिद के नमाज़ियों मे आपस मे पैदा हो जाती है।
अगर कोई नमाज़ी हज करके आये या उसके यहाँ बेटे या बेटी की शादी हो तो वह इन मौक़ों पर अपने दिल मे मुहब्बत की एक खास गर्मी महसूस करता है। वह अपनी खुशी व ग़मी मे लोगों को अपना शरीक पाता है। नमाज़ियों के दरमियान पायी जाने वाली इस मुहब्बत का किसी दूसरी चीज़ से मुक़ाबला नही किया जा सकता।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने महल्ले मे कभी कोई ग़लत काम नही करते क्योंकि लोग उनको और उनके रिश्तेदारों को पहचानते हैं। लेकिन अगर यही लोग किसी ऐसी जगह पर पहुँच जाये जहाँ पर इनको कोई न पहचानता हो तो वही ग़लत काम अंजाम देना उनके लिए मुश्किल नही होता। नमाज़ मे शिरकत करने से इंसान मस्जिद, इस्लाम और लोगों से वाबस्ता हो जाता है। और इंसान ऐसा मुत्तक़ी बन जाता है कि हत्तल इमकान (यथावश) ग़लतीयों से बचता है। क्योंकि वह जानता है कि एक छोटी सी ग़लती की वजह से भी उसकी इज़्ज़त व आबरू खाक मे मिल सकती है।
लेकिन वह लोग जो मस्जिद इस्लाम और अवाम से दूर रहते हैं उनके लिए ग़लत काम अंजाम देना कोई मुश्किल काम नही है। क्योंकि वह लोगों के दरमियान मज़हबी हवाले से कोई पहचान या मक़ाम ही नही रखते जिसके लुट जाने का उन्हें खौफ़ हो।
नमाज़ समाज की इस्लाह (सुधार) करती है
अल्लाह ने नमाज़ के क़ाइम करने के हुक्म के साथ साथ फ़रमाया है कि हम इस्लाह चाहने वालों के बदले को ज़ाय (बर्बाद) नही करेगें। इससे माअलूम होता है कि अगर नमाज़ की ज़ाहिरी और बातिनी तमाम शर्तों का लिहाज़ रखा जाये और नमाज़ को सही तरीक़े से क़ाइम किया जाये तो समाज की इस्लाह होगी।
नमाज़ी हक़ीक़त मे एक मुस्लेह (सुधारक) इंसान है। इबादत कोने मे बैठ कर नही बल्कि समाज की इस्लाह के साथ करनी चाहिए। नमाज़ियों को चाहिए कि समाज से तमाम बुराईयों को दूर करें।
ऐसे ब्लॉग की कमी मै शिद्दत से
ReplyDeleteमहसूस कर रही थी. अल्हम्दुलिल्लाह!
ब्लॉग बड़ा ही प्यारा है.