तहरीफ़ व तरतीबे क़ुरआन

तहरीफ़ (फेर बदल) का मसअला उम्मते क़ुरआन में इस क़द्र ज़ियादा  महत्व  रखता है कि शायद कोई ऐसा लेखक हो जिस ने क़ुरआन के बारे में कुछ लिखा हो औ...

bismतहरीफ़ (फेर बदल) का मसअला उम्मते क़ुरआन में इस क़द्र ज़ियादा  महत्व  रखता है कि शायद कोई ऐसा लेखक हो जिस ने क़ुरआन के बारे में कुछ लिखा हो और तहरीफ़ को लेखन का विषय न बनाया हो.

रचना व लेखन के शुरुवाती शताब्दी से आज तक बहुत, विभिन्न किताबें और रिसाले इस मौज़ू पर मन्ज़रे आम पर आ चुके हैं और पक्ष व विपक्ष दोनों पहलुओं को बाक़ाइदा उजागर किया जा चुका है यह ज़रूर है कि पुराने ज़माने में मसअल ए तहरीफ़ इतनी शोहरत हासिल कर चुका था कि मुख़ालेफ़ीन में मुकम्मल तौर पर मुख़ालिफ़त करने की हिम्मत न थी और उन्हें भी यह अहसास था कि कहीं इस मुख़ालिफ़ से उसूले मज़हब पर कोई हर्फ़ न आ जाए. बहरहाल यह दास्तान बड़ी दर्दनाक और बड़ी हद तक ज़रूरी है इस लिये हम इस कांटों भरे रास्ते में क़दम रखते हैं और काँटों को हटा कर फ़ूल चुनने की कोशिश कर रहे हैं.

 

तहरीफ़ का अर्थ:- किसी कल्मे को उस की हालत पर बाक़ी रख़ कर उस के मअना में तब्दीली पैदा कर देना, इस सूरत को तहरीफ़ इस लिये कहते हैं कि लफ़्ज़ दर हक़ीक़त मअना के लिये एक अलामत या आइने की हैसियत रखता है. इसकी ईजाद (अविष्कार) और इसका इस्तेमाल दोनों मअना के समझने और समझाने के लिये होता है. अगर दुनिया में मअना का वुजूद और और इन के नक़्ल व इन्तेक़ाल की ज़रूरत न होती तो लफ़्ज़ों का कोई नामो निशान भी न होता .खुद क़ुरआने मजीद ने भी यहूदियों के बारे में इस तहरीफ़ का ज़िक्र किया है। इर्शाद होता है :"युहर्रेफ़ूनल कलेमो अन मवाज़ेहेहि" (यह लोग कलेमात को उन की जगह से हटा देते हैं) ज़ाहिर है कि नबी ए अकरम के दौर को यहूदी न क़ुरआन के कलेमात (शब्दों) की जगह बदल रहे थे और न तौरेत के कलेमात की. यह बात उन के इम्कान से बाहर हो चुकी थी. तौरेत भी एक ख़ास शक्ल में आ चुकी थी, और क़ुर्आन का  रक्षक व संरक्षक मौजूद था. इन की तहरीफ़ का मक़सद सिर्फ़ अल्फ़ाज़ को उन के अस्ली मअना से हटा देना था ताकि वास्तविकता पर ईमान न लाना पड़े.

दूसरा सब से बड़ा अहम सबूत यह है कि अगर आयाते क़ुरआनी में मअना की तब्दीली न तो आज के मानने वालों में इतने फ़िर्क़े न होते.

लेकिन यह याद रहे कि यह तहरीफ़ क़ुरआने करीम के क़द्र व क़ीमत के लिये कोई नुक़सान नहीं रखती है बल्कि फ़ायदा पहुंचाने वाली है इस लिये कि मअना के साथ खेलने की ज़रूरत उसे पड़ती है जो खुद अल्फ़ाज़ को बर्बाद नहीं कर सकता वर्ना ज़ाहिर पर क़ाबू पा लेने वाले बातिन (छुपा हुआ) के पीछे नहीं दौड़ा करते हैं. मअलूम यह होता है कि उम्मते इस्लामिया में अज़्मते क़ुरआन इस क़दर मुसल्लम थी कि फ़ितना गरों का फ़ितना अल्फ़ाज़ व कलमात पर नहीं चल सका इस लिये सादा लौह अवाम को गुमराह करने के लिये तहरीफ़े मअना का सहारा लिया गया.

 

तहरीफ़े हरकात :-  यानी ज़ेर व ज़बर वग़ैरह का फ़र्क़ इस तहरीफ़ के बारे में गुफ़्तुगू करने की ज़रूरत नहीं है इस लिये कि आज भी एक एक लफ़्ज़ में मुतअद्दिद क़राअतें पाई जाती हैं जिन में हरकात के ऐतेबार से इख़्तिलाफ़ है और यह तय है कि यह सारी क़राअतें नाज़िल नहीं हुई थीं बल्कि यह क़ारियों के ज़ाती ज़ौक़ का नतीजा थीं। तहरीफ़े हरकात का एक बड़ा सबब मुख़्तलिफ़ अक़वाम व क़बाइल की तिलावत में छिपा हुआ था हर क़बीले का एक लहजा था और हर क़ौम का एक उसूल क़राअत था. इसी लहजे की तब्दीली और उसूलों के बदलाव ने कलेमात में हरकाती इख़्तिलाफ़ पैदा कर दिया.

 

3- तहरीफ़े कलेमात:-यानी एक लफ़्ज़ की जगह दूसरे लफ़्ज़ का आ जाना. इस तहरीफ़ के बारे में उलामा ए इस्लाम में इख़्तिलाफ़ है, बअज़ हज़रात का ख़याल है कि क़ुरआने करीम में इस क़िस्म की तहरीफ़ हुई है मसलन सूरए हम्द में (वलज़्ज़ालीन) की जगह (ग़ैरज़्ज़ालीन) था जिसे सहूलत की नज़र से बदल लिया गया है लेकिन हक़ीक़त यह है कि मुसलमानों का सदरे अव्वल से आज तक क़ुरआने करीम के बारे में एहतिमाम व तहफ़्फ़ुज़ इस अम्र का ज़िन्दा सबूत है कि उम्मते इस्लामिया इस क़िस्म के तग़य्युरात (बदलाव) को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती, जैसा कि तारीख़ ने वाक़ेआ नक़्ल किया है कि हुज्जाज बिन यूसुफ़ ने अब्दुल मलिक से यह ख़्वाहिश की कि (उलाइका मअल लज़ीना अनअमल्लाहो अलैहिम मिन्न नबीयीना वस्सिद्दिक़ीना वशशोहदा ए वस्सालेहीना)कि आयत ने शोहदा के साथ ख़ुलाफ़ा का इज़ाफ़ा भी कर लिया जाए ताकि इन का शुमार भी साहिबाने नेअमत में हो सके और उस ने इन्कार कर दिया तो हुज्जाज ने कहा कि आज तो इस बात पर तअज्जुब (आश्चर्य) और इन्कार कर रहा है और कल तेरे बाप ने यह ख़्वाहिश की थी कि (इन्नल्लाहस्तफ़ा आदमा व नूहन व आला इब्राहीमा व आला अम्राना अलल आलामीन”में आले इमरान के साथ आले मर्वान का भी इज़ाफ़ा कर दिया जाए (रौज़ातुस्सफ़ा).

 

ज़ाहिर है कि इस क़िस्म की ख़्वाहिश न हुज्जाज से बईद है और न अब्दुल मलिक से और न उस के बाप से लेकिन सवाल यह है कि दरबारे हुकूमत से निकलने वाली यह ख़्वाहिश पूरी क्यों नहीं हुईं, क्या इस का सबब इन लोगों का ताएब हो जाना और अपने इरादों से बअज़ आ जाना था ? हरगिज़ नहीं. ऐसा होता तो यह ख़्यालात ज़हन में पैदा ही न होते और अगर पैदा भी हो जाते तो इस का सिलसिला नस्लों में न चलता. मअलूम होता है कि इस का कोई तअल्लुक़ इन अहकाम की पाकीज़गी ए नफ़्स से नहीं था और न ऐसा ही है कि इन लोगों के इक़्तिदार में कोई ज़ोअफ़ और कमज़ोरी पाई जाती हो.

लाखों अफ़राद को बेधड़क तहे तेग़ (क़त्ल) कर देने वाला बादशाह एक लफ़्ज़ के इज़ाफ़े की तमन्ना दूसरे शख़्स से कर रहा है और ख़ुद यह इक़दाम (क़दम उठाना) नहीं कर रहा है, क्या यह तमन्ना इस बात का ज़िन्दा सबूत नहीं है कि लाखों अफ़राद की तबाही पर सब्र कर लेने वाली उम्मत भी क़ुरआन के किसी एक लफ़्ज़ की तब्दीली पर राज़ी नहीं थी और मसअला तसकिने क़ल्ब (दिल की शांति) के लिये सिर्फ़ दो एक क़ुरआनों में अल्फ़ाज़ के लिख लेने का नहीं था वर्ना इस के लिये किसी से कहने की ज़रूरत ही नहीं थी बल्कि मसअला पूरे आलमे इस्लाम में फ़ैले हुए क़ुरआनों में तरमीम (कांट छांट) और उन के अल्फ़ाज़ में तग़य्युर व तबद्दुल (बदलाव) का था और यह बात ऐसे ऐसे जाबिर हुक्काम (ज़ालिम राजा) के बस की भी न थी सोचने की बात है कि जब इस्लाम के ऐसे ऐसे जाबिर बादशाह (अत्याचारी शासक) क़ुरआन के तक़द्दुस को ख़ेल न बना सके तो दूसरे अफ़राद और हुक्काम का क्या ज़िक्र है. इन्फ़ेरादी तौर पर क़ुरआन को निशान ए सितम बना लेना आसान है लेकिन इज्तिमाई (समाजी) तौर पर पूरे क़ुरआन का बदल लेना बहुत मुश्किल बल्कि मुहाल है.

 

ज़ाहिर है कि जो हुकूमत नस्ल और सल्तनत परस्ती की बुनियाद पर उम्मत से इक़तिदार की ख़्वाहिश पर हुकूमत के बाप दादा का ज़िक्र बर्दाश्त नहीं कर सकती. वह यह क्यूँ कर बर्दाश्त करेगी कि “व ग़ैरज़्ज़ालीन” की जगह“व लज़्ज़ालीन” आ जाये। या “होवर्राज़िक़” की जगह “होवर्रज़्ज़ाक़” आ जाये. या “फ़मज़ऊ इला ज़िक्रिल्लाह”के बदले “फ़समऊ इला ज़िक्रिल्लाह” रख़ दिया जाए वग़ैरह वगैरह.........

 

 

4- तहरीफ़े नक़्स:- यानी अल्फ़ाज़ व आयात की कमी दर हक़ीक़त तहरीफ़ के बारे में यही मसअला हर दौर में महल्ले नज़अ व इख़्तिलाफ़ (झगड़े का कारण) रहा है, उलामा ए इस्लाम की एक जमाअत (गुट) इस बात की क़ायल रही है कि क़ुरआने मजीद के आयात में कुछ नक़्स (कमी) ज़रूर पैदा हुआ है और इसी लिये बअज़ मक़ामात पर आयात में कोई रब्त नज़र नहीं आ रहा है और दूसरी जमाअत इस बात पर अड़ी रही है कि क़ुरआने करीम में किसी क़िस्म का तग़य्युर व तबद्दुल नहीं हुआ है, इस में आज भी इतने ही अल्फ़ाज़ व कलेमात मौजूद हैं जितने रसूले अकरम (स) पर नाज़िल हुए थे और क़यामत तक यूँ ही रहेंगे जिस के बहुत से क़ुरआनी शवाहिद मौजूद हैं. इस मसअले पर शिया व सुन्नी दोनों फ़रीक़ (सम्प्रदाय) के उलामा ने नफ़ी व इस्बात में रिसाले तालीफ़ किये हैं और हर एक ने अपने दावे को साबित करने के लिये एड़ी चोटी का ज़ोर सर्फ़ किया है. मैं मसअले की मुकम्मल वज़ाहत उस वक़्त करूँगा जब उन तमाम रिवायात का ज़िक्र आयेगा जिन में इस तहरीफ़ का मुफ़स्सल ज़िक्र मौजूद है.

 

5- तहरीफ़े ज़ियाद्ती:- यानी अल्फ़ाज़ व कलेमात का इज़ाफ़ा. इस मसअले पर तक़रीबन तमाम उलामा ए इस्लाम मुत्तफ़िक़ हैं कि क़ुरआने मौजूद में किसी एक लफ़्ज़ का भी इज़ाफ़ा नहीं हुआ है और न हो सकता है इस लिये कि क़ुरआन जहाँ इस्लाम का दस्तूरे ज़िन्दगी है वहीं रसूले अकरम का मोजिज़ा (चमत्कार) भी है और मोजिज़े का मफ़्हूम (मतलब) ही यह है कि जिस का मिस्ल लाना सारे आलम के लिये ग़ैर मुम्किन हो. अब अगर क़ुरआन के दो चार कलेमात भी इज़ाफ़ा शुदा हुए तो इस का मतलब यह है कि आम इन्सान भी ऐजाज़ी कलाम पर क़ुदरत व इख़्तियार रखता है और यह वह बात है जो क़ुरआन के ऐतेबार को ख़ाक में मिला देगी और इस्लाम का दस्तूर (आदेश) तबाह व बर्बाद हो जाएगा इस लिये ऐसा अक़ीदा रखना किसी भी मुसलमान के लिये ज़ेब नहीं देता है.

 

6- तहरीफ़े तरतीबी:-यानी आयात और सूरों की तरतीब का बदल जाना तहरीफ़ की यह क़िस्म भी अगरचे उलामा ए इस्लाम ने महल्ले इख़्तिलाफ़ रही है लेकिन शिआ उलामा की एक जमाअत हर दौर में इस तहरीफ़ की क़ायल रही है और इस के इसबात पर बेहद ज़ोर सर्फ़ करती रही है सवाल यह पैदा होता है कि आख़िर तहरीफ़े तरतीब का मतलब क्या है? अब तक तहरीफ़ की जितनी क़िस्मों का ज़िक्र हुआ है उन सब में एक हरकत, एक कलेमा, एक इबारत पहले से मुसल्लम थी बाद के अफ़राद ने उन में तग़य्युर व तबद्दुल (फेर बदल, बदलाव) पैदा कर दिया. लेकिन क़ुरआने करीम की तरतीब जब ब क़ौले उलामा ए इकराम, हयाते रसूले अकरम में मौजूद ही नहीं थी तो बाद में उस की तहरीफ़ का क्या सवाल पैदा हो सकता है. ऐसा मालूम होता है कि इस मक़ाम पर तहरीफ़ से उन हज़रात की मुराद यह है कि क़ुरआने करीम की तरतीब ही तहरीफ़ शुदा है यानी तरतीबे पैग़म्बर के ख़िलाफ़ नहीं है बल्कि मंश ए पैग़म्बर के खिलाफ़ है और इस बात के साबित करने के लिये दो बातों का इसबात करना पड़ेगा पहली बात यह है कि क़ुरआने करीम हयाते पैग़म्बर में मुरत्तब शक्ल में नहीं था बल्कि बाद के अदवार में मुरत्तब हुआ है.

और दूसरी बात यह है कि मंश ए रिसालत यही था कि किताबे ख़ुदा को उस की तनज़ील के मुताबिक़ मुरत्तब किया जाए और उम्मत ने उस के बरख़िलाफ़ अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ मुरत्तब कर डाला.

बहरहाल इस मक़ाम पर तहरीफ़ का जो भी तसव्वुर मुराद लिया जाए हमे मुस्तक़बिल में इन ही दोनों बातो पर ग़ौर करना पड़ेगा और इन्ही की तारीख़ से कोई नतीजा अख़्ज़ करना होगा फ़िलहाल इन तफ़सीलात में दाख़िल होने से पहले यह देख लेना ज़रूरी है कि आख़िर क़ुर्आन में तहरीफ़ के क़ायल होने के असबाब क्या हैं और ख़ुद क़ुरआने मजीद का अपनी इस्मत व तहरीफ़ के बारें में क्या नज़रिया है. ताकि तहक़ीक़े हक़ का रास्ता साफ़ हो जाए और मंज़िल तक पहुंचने के लिये कोई ख़ास दुशवारी न रह जाए.

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