अज़मते ख़ान ए काबा

इस दुनिया में ख़ुदा का पहला घर ख़ान ए काबा है। तारीख़े अतीक़ भी इस बात की गवाह है कि इससे क़ब्ल कोई एक भी ऐसी इबादत गाह कायनात में मौजू...


इस दुनिया में ख़ुदा का पहला घर ख़ान ए काबा है। तारीख़े अतीक़ भी इस बात की गवाह है कि इससे क़ब्ल कोई एक भी ऐसी इबादत गाह कायनात में मौजूद नही थी जिसे ख़ुदा का घर कहा गया हो। इस की तसदीक़ क़ुरआने मजीद भी इन अल्फ़ाज़ में करता है:
(सूर ए आले इमरान आयत 96)
तर्जुमा: बेशक पहला घर जो लोगों की इबादत के लिये मुक़र्रर किया गया था वह यही है बक्का में, जो बा बरकत और सारे जहानों के लिये मुजिबे हिदायत है।
एक तारीख़ी रिवायत के मुताबिक़ ख़ान ए काबा बैतुल मुक़द्दस की मस्जिदुल अक़सा से एक हज़ार तीन सौ साल पहले तामीर हुआ है।
असरे जाहिलियत में भी तमाम अरब अपने जाहिली रस्म व रिवाज के मुताबिक़ ख़ान ए काबा का तवाफ़ और हज किया करते थे।
हज़रत इब्राहीम (अ) ने हज़रत मूसा (अ) से नौ सौ बरस पहले इस की ज़ाहिरी तामीर मुकम्मल की और बारगाहे हक़ में दुआ की। यह दुआ क़ुरआने करीम में इस तरह बयान हुई है:
(सूर ए इब्राहीम आयत 37) परवरदिगारा, मैंने इस बे आबो गयाह वादी में अपनी औलाद को तेरे मोहतरम घर के पास ला बसाया है……।
हिजरत के अठठारवें महीने माहे शाबान सन 2 हिजरी में जंगे बद्र से एक माह पहले मुसलमानों के क़िबला बैतुल मुक़द्दस से मुन्तक़िल हो कर काबे की सिम्त हो गया। जिसका ज़िक्र क़ुरआने मजीद के सूर ए बकरह में किया गया है।
ख़ुदा वंदे आलम का मुसलमानों पर बड़ा अहसान है कि उसने हमारा क़िबला ख़ान ए काबा क़रार दिया। चूँ कि बैतुल मुक़द्दस ऐसा क़िबला था जिस के कई दावेदार होने की वजह से कई बार काफ़िर फ़ातेहों ने उसे वीरान और नजिस किया और वहाँ के बसने वालों को कई बार ग़ुलाम बनान पड़ा और कई बार वहाँ क़त्ले आम भी जारी रहा, जो आज भी शिद्दत से हो रहा है और तारीख़ मुसलमानों के सुकूत पर महवे हैरत है।
यह एक बड़ी ताज्जुब ख़ेज़ बात है और तारीख़े आलम भी इस बात की गवाह है कि पिछले पाच हज़ार सालों में किसी ने भी ख़ान ए काबा पर अपनी ज़ाती मिल्कियत होने का दावा नही किया। यह ऐसा अनमोल शरफ़ है जो दुनिया की किसी इबादत गाह या मअबद को हासिल नही हुआ।
अरब के बुत परस्त भी उसे बैतुल्लाह ही कहा करते थे। इस्लाम से पहले भी उसकी हुरमत, हिफ़ाज़त, सियानत ख़ुदा मुतआल ने शरीफ़ नस्ल अरबों के ज़रिये फ़रमाई और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ज़रिये से मुसलमानों को क़यामत तक के लिये उसका मुहाफ़िज़ व पासबान बना दिया।
नबी करीम (स) की विदालते बा बरकत से एक महीने बीस रोज़ पहले जब यमन का बादशाह अबरहा अपनी साठ हज़ार हाथियों की मुसल्लह फ़ौज लेकर ख़ान ए काबा को ढाने की ग़रज़ से मक्के की वादियों में आया तो परवर दिगार ने अपने घर के हरीम की हिफ़ाज़त की ख़ातिर किसी इंसानी फ़ौज का सहारा नही लिया बल्कि अबाबीलों जैसे नाज़ुक अंदाम परिन्दों के ज़रिये उन हाथियों पर कंकड़ियाँ बरसा कर उन अफ़वाजे फ़ील को तहस नहस कर दिया। क़ुरआने करीम के सूर ए फ़ील में इसी वाक़ेया का ज़िक्र है।
जन्नत से ख़ास कर उतारे गये दो अहम पत्थर हजरे असवद और मक़ामे इब्राहीम, अहले आदम (अ) और दौरे इब्राहीमी से अब तक मौजूद हैं और दुनिया के सब से ज़्यादा मुक़द्दस पानी का क़दीम चश्मा ज़मज़म इसी ख़ान ए काबा के क़रीब है। इसके पानी के नेकों की शराब कहा गया है, लाखों अक़ीदत मंद मुसलमान दुनिया के गोशा व किनार से इस पानी को तबर्रुक के तौर पर ले जाते हैं।
मक्क ए मुअज़्ज़मा और फ़ज़ाएले ख़ान ए काबा में क़ुरआने हकीम की कई आयात नाज़िल हुई हैं। अल्लाह तआला ने शहरे मक्का को (उम्मुल क़ुरा) यानी बस्तियों का माँ कहा है और सूर ए अत तीन और सूर ए अल बलद में अल्लाह तआला ने इस शहरे पुर अम्न में की क़सम खाई है। इस शहर में यहाँ के शहरियों के अलावा, दूसरे तमाम लोगों को एहराम बाँधे बग़ैर दाख़िल होने की इजाज़त नही है। यह ख़ुसूसियत दुनिया के किसी और शहर को नसीब नही है। मस्जिदुल हराम की इबादत और यहाँ की हर नेकी अक़ताए आलम में की गई नेकियों से एक लाख गुना ज़्यादा बेहतर है। यह मक़ाम इस क़दर मोहतरम और पुर अम्न है कि यहाँ न सिर्फ़ ख़ूनरेज़ी मना है बल्कि न किसी जानवर का शिकार किया जा सकता है व किसी पेड़ को काटा और सबज़े और पौधे को उखाडा़ जा सकता है।
क़ुरआने पाक में उसे बैतुल हराम यानी शौकत का घर कहा गया है। ख़ान ए काबा के महल्ले वुक़ू के बारे में लिखा गया है कि यह ऐन अरशे इलाही और बैतुल मामूर के नीचे है। इल्मे जुग़राफ़िया के माहिरीन का कहना है कि काबे के महल्ले वुक़ू को हम नाफ़े ज़मीन कह सकते हैं।

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